सम्वेदना के स्वर

यह ब्लॉग उस सनातन उत्सवधर्मिता को जीवित रखने का प्रयास है,

जिसमें भाव रस और ताल का प्रतीक आम आदमी का भा-- बसता है.
सम्वेदनाएँ...जो कला, साहित्य, दर्शन, विज्ञान, राजनीति आदि के माध्यम से अभिव्यक्त होती हैं, आम आदमी के मन, जीवन और सरोकार से होकर गुज़रती हैं तथा तलाशती हैं उस भारत को, जो निरंतर लड़ रहा है अपने अस्तित्व की लड़ाई.....

Tuesday, December 21, 2010

विज्ञान से भ्रमित आम आदमी और संवेदनहीनता - पीसी बाबू से एक साक्षात्कार

पिछले दिनों देश में घटने वाली हलचल ने हमें काफी परेशान कर रखा था. कुछ व्यक्तिगत परेशानियां तो चल ही रही थीं. ऐसे में अचानक हमारा आपस में मिलने का संयोग हो गया. कुछ ऑफिस का काम और हमारी पर्सनल मुलाक़ात. मिले तो कई मुद्दों पर गर्मागरम बहस छिड़ गई. घर में औरतों और बच्चों को यह सिग्नल देना कि हम झगड़ रहे हैं, उचित नहीं लगा और हम गाड़ी लेकर निकल गए. फिर दोनों के मुंह से एक साथ निकला कि पायाती बाबू से हमारी मुलाक़ात को काफी समय हो गया है. बस फिर क्या था, थोड़ी ही देर में हम दोनों के उनके साथ थे. जाड़ों कि नरम धूप में  खुले पार्क में टहलते हुए हमने उनसे बातचीत की.


सलिल: सर, देश में व्यवस्था का एक गम्भीर संकट खड़ा जान पड़ता है। एक अजीब सी त्रासदी दिख रही है। आप क्या सोचते हैं इस बारे में?
चैतन्य: एक बात और सर! वैज्ञानिक क्रांति के इस युग में, यह विकास की सहज प्रक्रिया है या फिर कोई अराजकता ?

पायाति  चरक : दुरुस्त है, व्यवस्था का गम्भीर संकट तो कहा ही जा सकता है वर्तमान हालात को! मुझे लगता है इसका मुख्य कारण है पिछले साठ सालों में सत्ता का दिल्ली में केन्द्रित होकर रह जाना। फिर आर्थिक उदारीकरण के पिछले 20 सालों ने तो अर्थ और सत्ता को और अधिक सीमित हाथों में स्थापित कर दिया है जिससे समाजवाद जैसे शब्द, मात्र भारतीय सम्विधान की प्रस्तावना में शोभा बढ़ाते नज़र आते हैं। दूसरी ओर, वैज्ञानिक क्रांति की बात ही करें तो यहाँ तो स्थिति और भी विरोधाभास से भरी दिखती  है। प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया में रोज़ रोज़ नई खोजों और अविष्कारों की बात होती है। पर अब देखो न, यह कितनी आम बात हो गयी है कि विज्ञान अपनी ही खोज को कुछ समय बाद नकार देता है या कोई नयी खोज पुरानी खोज पर प्रश्न चिन्ह लगा देती है।

सलिल : व्यव्स्था की अव्यव्स्था वाली बात से तो हम दोनों शतप्रतिशत सहमत हैं।   परंतु, जिसे आप विरोधाभास कह रहे हैं उसे तो हम अभी तक विज्ञान में निरंतर प्रगति का द्योतक मानते आ रहे हैं।

पायाति  चरक :  हाँ, तुम लोग उन पढ़े-लिखे लोगों की श्रेणी में हो, जिनकी संख्या इस देश की आबादी में बहुत कम है। लेकिन मैं आम आदमी की बात कर रहा हूं. इस तरह की विरोधाभासी बातों का असर गाँव, कस्बों और छोटे शहरों में बसने वाले आम आदमी पर बहुत नकारात्मक होता है, वह चारों तरफ से सन्देह और शंका से घिर जाता है। एक तरफ तो पढे लिखे समाज में इन खोजों या रिपोर्टों की चर्चा होती है. और दूसरी तरफ दिमाग में कहीं यह बात भी घर कर जाती है कि इन रिपोर्टों पर या नये अनुसन्धान या खोजों पर पूरी तरह विश्वास नहीं किया जा सकता।

चैतन्य : समझे नहीं सर! मनुष्य की वैज्ञानिक बुद्धि ही तो इस विकास प्रक्रिया का आधार स्तम्भ है? 

पायाति  चरक : यहाँ बात वैज्ञानिक बुद्धि के विकास की बिल्कुल नहीं है. बल्कि जनमानस पर इसके क्या परिणाम होते हैं, उसकी है। उदाहरण के लिये, आजकल मोबाइल टावर और फोन से निकलने वाली इलैक्ट्रो-मैगनैटिक तरंगों द्वारा शरीर पर होने वाले नुकसान को लेकर बड़ी चर्चा है। सलिल कनाट प्लेस में जहाँ तुम काम करते हो, वहाँ तो मोबाईल टावरों का पूरा जंगल है, और चैतन्य बता ही रहा था कि चंडीगढ़ में उसके घर के दोनों ओर दो दो मोबाईल टावर लगें हैं। लेकिन बात यह कि यह सारा मामला सिर्फ चर्चा तक रह जाता है। असल में आम आदमी किसी बात पर पूरी तरह यकीन नहीं कर पाता और निरीह हो जाता है। वह एक कन्फ्यूज़न की स्थिति में रहता है और किसी बात पर निर्णय लेना उसके बूते से बाहर की बात हो जाती है। मजबूरी में सुविधा का भोग करता रहता है, पर भीतर से उसका विश्वास डिगा हुआ ही रहता है। यह बात नये नये यन्त्रों, दवाइयों, स्वास्थ की जांच रिपोर्टों, आर्थिक रिपोर्टों और सर्वेक्षणों से निकाले गये निष्कर्षॉं, पर्यावरण सम्बन्धी रिपोर्टों आदि के सम्बन्ध मे भी लागू होती है। खाने पीने की चीजों को लेकर, पानी और दूध में मिलावट को लेकर भी तमाम खबरें रोजाना छपती हैं। बोतलबंद पानी पीने में भी आम पढ़ा लिखा आदमी घबराने लगा है.
यहाँ तक कि ईमानदारी का भी यही हाल है। खबर मिलती है कि फलाँ आदमी ईमानदार है और तुरत दूसरी खबर आती है कि नहीं वह भी भ्रष्ट है। किसी भी बात पर यकीन करना मुश्किल हो गया है।

सलिल : सही कहा आपने! हर बात पर विश्वास डगमगाया ही लगता है।
चैतन्य : बिल्कुल, ईश्वर और परंपरा में आस्था तो पहले डगमगाई हुयी है।

पायाति  चरक : अपनी ही बात लो, जरा बताओं तो कि नये अनुसन्धानों और खोजों से तुम्हारा कितना विश्वास है?

सलिल : मैं देखता हूं कि बीमारियों के जो कारण बताये जाते है वो हमारी समझ से बाहर होते हैं, ज्यादातर कारणों को एक नया नाम दे दिया जाता है। नाम का अर्थ जो ज़्यादातर उसका प्रयोग करते हैं वो भी नहीं जानते। कोई रिसर्च कहती है कि चाय पीने से नुकसान होता है कोई कहती है इतनी मात्रा से फायदा होता है? अब इसमे फाईनल जैसा कुछ भी नहीं है।  
चैतन्य : मात्र नाम जानकर हम इस भ्रम में रहते हैं कि जान गये पर असलियत में तो समझ में कुछ भी नहीं आता।  

पायाति चरक : बिल्कुल ठीक! अब देखो, समाज में बढ़ती संवेदनहीनता को भी मैं इसी का कारण मानता हूं, क्योंकि आम पढ़ा-लिखा वर्ग तेजी से सन्देह और भय से घिरता जा रहा है। दूसरी ओर एक वज़ह यह भी है कि रोज़ की आपाधापी में वह इतना व्यस्त हो गया है कि सोचने-विचारने, किसी अन्य के बारे में सोचने की उसे न तो फुर्सत है और न ऐसा करके कुछ अच्छा होगा इस बात का विश्वास उसे रह गया है। वह अपने में संकुचित हो गया है. या ऐसा कहो कि आधुनिक जीवन शैली ने उसे ऐसा करने पर मजबूर कर दिया है। रास्ता चलते किसी असहाय की मदद करना, किसी दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति को अस्पताल पहुचाना अब उसे भारी लगने लगा है। कुछ अपनी व्यस्तता के कारण, कुछ आत्म संकुचित होने के कारण और कुछ सम्वेदनहीनता की वजह से या व्यव्स्था की जकडन के भय से, कि कौन पचड़े में पड़े?
                                                                .......जारी

17 comments:

Apanatva said...

P C baboo se fir se milkar accha laga..........
agalee post ka intzar rahega......

Arvind Mishra said...

यह पोस्ट मानव जीवन का अभीष्ट क्या है , सोचने पर विवश करती है !

दीपक बाबा said...

इन सब के बीच जो सामजस्य बिठा ले वही इंसान आज जीने लायक है....

ZEAL said...

ध्यान से पढ़ रही हूँ...समझ रही हूँ...
अगले पार्ट का इंतज़ार रहेगा...

प्रवीण पाण्डेय said...

कई गहरे प्रश्न उठ रहे हैं, आगामी की प्रतीक्षा है।

सुज्ञ said...

गहरे असमंजस की उलझनो को चर्चा में लेती पोस्ट…… अगले भाग की उत्कंठा से प्रतिक्षा………समाधान क्या है इन दुविधा,भ्रमणा और विरोधाभासों से पार पाने का।

Deepak Saini said...

सोचने पर विवश......
अगले पार्ट का इंतज़ार है

अजित गुप्ता का कोना said...

अच्‍छा लग रहा है, साक्षात्‍कार। जारी रखिए।

sonal said...

aap log kitni saarthak baatein karte hai ... main kai baar sochti hoon saare din maine kyaa kiyaa to jawaab aata hai kuchh nahi ...

kshama said...

Afsos hota hai ki pachhadon ke darse ham asahay wyakti kee madat na karen.
Insaan kee bhalayi kis baat me hai,ye to samajh ke pare hota jaa raha hai.

anshumala said...

सही कहा आज आमा आदमी में डर और हर बात को लेकर उलझन ज्यादा है | अगली किस्त का इंतजार रहेगा |

नीरज गोस्वामी said...

चरक जी को प्रणाम...कठिन प्रश्नों के सरल उत्तर...

नीरज

मनोज कुमार said...

इस सारगर्भित वार्तालाप को खट्ट से ज़ारी के नाम पर तोड़्ना अच्छा (नहीं) लगा ... इंतज़ार जो करना पड़ेगा।

देवेन्द्र पाण्डेय said...

अगली पोस्ट की प्रतीक्षा है।

उम्मतें said...

संवेदना के स्वर बंधुओ ,
विज्ञान से भ्रमित संवेदनहीनता या संवेदनशीलता ? या फिर विज्ञान जन्य/जनित/उदभूत संवेदनहीनता ? शीर्षक से कन्फ्यूजन हो रहा है ज़रा चेक करियेगा !

पहले दो सवालों से मुझे लगा कि व्यवस्था पे बात होगी ? राजनेताओं , नौकरशाही और पूंजीवादियों के घालमेल पर भी लेकिन यहाँ तो अविष्कारों और तकनीकी विकास के प्रभावों / दुष्प्रभावों संशय और असंशय पे चर्चा चल निकली है !

आगे देखते हैं ...

केवल राम said...

बहुत प्रभावी पोस्ट ....अगली कड़ी का इन्तजार है ....मेरा दिल बेकरार है ...शुक्रिया

रचना दीक्षित said...

सोचने पर विवश करती बहुत गहरी बातें चल रही हैं और सार्थक भी. अगली कड़ी का इंतजार है.

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