सम्वेदना के स्वर

यह ब्लॉग उस सनातन उत्सवधर्मिता को जीवित रखने का प्रयास है,

जिसमें भाव रस और ताल का प्रतीक आम आदमी का भा-- बसता है.
सम्वेदनाएँ...जो कला, साहित्य, दर्शन, विज्ञान, राजनीति आदि के माध्यम से अभिव्यक्त होती हैं, आम आदमी के मन, जीवन और सरोकार से होकर गुज़रती हैं तथा तलाशती हैं उस भारत को, जो निरंतर लड़ रहा है अपने अस्तित्व की लड़ाई.....

Friday, December 24, 2010

व्यवस्था के कठघरे में रहकर व्यवस्था से लड़ना - पीसी बाबू से साक्षात्कार (अंतिम भाग)


चैतन्य :  मैं तो कई बार इस आधुनिकता की दौड़ में स्वयम को शहरी बंधुआ मज़दूर महसूस करता हूं! रोबोट की तरह व्यवस्था का अंग बने काम करते हुए बड़ी कोफ्त होती है. पर हर बार वही सवाल मुंह बाये सामने आ जाता है कि जायें तो जायें कहां? 
सलिल : हम हमेशा के लिये पुरातनपंथी भी तो नहीं रह सकते? आधुनिकता तो आज की जरुरत है। 

पायाति  चरक :  हम तो असली गाँधी की बात जानते हैं, महात्मा गाँधी की! जिसे आज आधुनिकता कह कर प्रचारित किया जा रहा है, उस आधुनिकता की महात्मा गाँधी  हिन्द स्वराज में विश्लेषण करके कड़ी आलोचना करते हैं, उनका कहना है कि यह आम आदमी को पराश्रित बनाती है। अपनी जिन्दगी की हर जरूरत के लिये वह अनजान व्यवस्था पर आश्रित होता है। पराधीन होता है। वह जरुरत की चीजें खुद पैदा नहीं करता या कर पाता है। वह कहीं नौकरी करके पैसा कमायेगा और फिर उस पैसे से उन चीजों को खरीदेगा जिनकी उसे आवश्यकता है। वह जितना आगे बढता है उत्पादन से उसका सम्बन्ध उतना ही दूर होता जाता है और वह उतना ही पराश्रित होता जाता है। ऊपर से उसे सूचनाओं की बाढ़ को भी लगातार झेलना होता है। उसकी चर्चाओं के केंद्र में यही विभिन्न प्रकार की सूचनायें ही तो होती हैं! और ये ताजा खबर या सूचनायें इस प्रकार होती हैं कि उनसे वह कोई ठोस नतीजे नहीं निकाल पाता अपने जीवन के लिये।

सलिल : जीवन में निश्चित जैसी कुछ नहीं है।
चैतन्य : सन्देह, सन्देह और सिर्फ सन्देह !!  

पायाति  चरक :  तुम्हें नहीं लगता कि स्थिति अजीब है. ज्ञान के नाम पर सन्देह बढता जाता है. एक सूचना, एक जानकारी, दूसरी सूचना या जानकारी के विरुद्ध दिखती है। निश्चित निष्कर्ष निकालना लगभग नामुमकिन हो गया है। भ्रम फैला है कि सूचना ही ज्ञान है। इस माहौल में  आम आदमी अपने काम से काम रखने को बाध्य है । वह अन्य व्यक्ति, समाज, देश के लिये कुछ करने के प्रति पूरी तरह उदासीन होता चला जाता है । दुनिया और सरकारें अपने रास्ते चलती रहती हैं । विकास की बड़ी-बड़ी बातें, बड़े घोटालों और सरकारी धन की हेराफेरी के बड़े अवसर उपलब्ध कराती हैं। गलत घटित होता रहता है, गुस्सा भी आता है, पर यह गुस्सा किसी अन्दोलन या विद्रोह में तब्दील नहीं होता।  

सलिल : फिर भी प्रगति तो हुई है। जीवन पहले से बेहतर तो हुआ है।
चैतन्य : आर्थिक प्रगति तो ठीक है सर! परंतु मन में बहुत कुन्ठायें भी भर दी हैं, इस आधुनिकता ने।  

पायाति  चरक :  यही कारण है कि आम आदमी अपनी इस कुंठा का ईलाज, पैसे में ढूँढता है, मन बदलाव या मन बहलाव के लिये पैसे खर्च करता है। मनोरंजन उद्योग उन्नति कर रहा है। हिन्दुस्तान में मोबाइल फोनों की संख्या 70 करोड़ हो गयी है, यानि करीब हर तीन व्यस्कों के बीच दो मोबाइल फोन हैं। यह आकड़े चौकाने वाले हैं, वह भी भारत जैसे गरीब देश में । अगर कहीं से ये पता चल सके कि भारत में लोग फोन पर कितना खर्च करते हैं तो यह और भी चौंकाने वाला होगा? मोबाइल फोन पर कितनी काम की बातें होती हैं और कितनी फज़ूल की, हिसाब लगाना मुश्किल है। आम आदमी की जेब खाली होती है और गुणगान इस फोन के होते हैं। एक तरफ सार्वजनिक मुद्दों के लिये समय निकालना मुश्किल हो गया है, दूसरी ओर मनोरंजन पर अधिक से अधिक खर्च हो रहा है। मोबाइल फोन वाली बात तो एक उदाहरण भर हैं..देखा जाये तो जीवन के हर क्षेत्र में कमोबेश यही स्थिति है।

चैतन्य : तो आप क्या कहते हैं, रास्ता क्या है आगे का?   

पायाति  चरक : देश में ऐसे लोगों की कमी नहीं जो वर्तमान व्यवस्था को बदलना चाहते हैं। उसके लिये कोई बड़ा आन्दोलन चलाने की जुगत में वो रहते भी हैं, परंतु एक बात निश्चित है कि पढे-लिखे शहरों में रहने वाले मध्यम वर्ग की क्षमता के बाहर है यह बात। वे सम्वेदनहीन हो गये हैं, उन्हें फुर्सत नहीं है। आन्दोलन तो जिन्हें शहर की हवा नहीं लगी है और जिन पर पढाई लिखाई का कम असर हुआ है, उनसे ही मुमकिन होगा। इसके लिये वर्तमान व्यवस्था को बदलने के लिये किसी आन्दोलन चलाने वाले को भारत की सत्तर प्रतिशत जनता कैसे सोचती हैं, उसकी मान्यताये क्या हैं, इस बात की गहरी समझ चाहिये और उनकी मान्यताओं से इत्तेफाक रखना जरुरी है।

सलिल : क्या जे.पी. आन्दोलन जैसा कोई आन्दोलन दुबारा सम्भव है?

पायाति  चरक :  निर्भर करता है कि आन्दोलन करने वाले नेताओं की क्या समझ है  और उन्हें क्या अपनी ताकत का अंदाजा भी है? व्यवस्था के कठघरे में खड़े होकर व्यवस्था से लडना सम्भव नहीं है। महात्मा गाँधी को समाज की और व्यवस्थाओं की गहरी समझ थी इसलिये वो किसी कठघरे में नहीं खड़े हुए!

15 comments:

कविता रावत said...

विकास की दौड़ में शामिल आदमी सच में अपने आप को भूल गया है ....चैतन्य, सलिल और पायति चरक के माध्यम से आपने आज की दिनचर्या का बहुत ही सटीक चित्रण किया है ..आभार

प्रवीण पाण्डेय said...

व्यवस्था में रह व्यवस्था से लड़ना, अपने ही अंगों को आहत करना है।

Apanatva said...

mere vichar se vyvstha me rahlakar badlav lana adhik aasan hoga....... karan kanha kya galat hai kanha kya parivrtan .kitna ,aur kab aavshyak hai isakee bareek se bareek jaankaree vyvstha me rahne wale ko rahtee hai.sabse pahila kadam to jagrukta paida karna hoga...
ashikshi insano ko kathputliyo kee tarah istemal karke
koi aandolan safal nahee ho sakta.......
jaise ki aaj ke rajneta trucks me hazaro kee tadat me villagers ko la swayam bhee bhramit hote hai aur sabko bhrmit karte hai........
Aaj hume jaroorat hai har mohalle me ek Payti Charak jaisee shakhsiyat kee.......

Apanatva said...

sudhar........

rahkar

ashikshit

मनोज कुमार said...

बड़ा ही बुद्धिजीवी बहस हुई लगता है। विभिन्न अहम मुद्दों पर विचारों के आदान-प्रदान की यह शृंखला काफ़ी रोचक और विचारोत्तेजक रही। हम अपने-अपने तौर पर छोटा-मोटा प्रयास करते रहते हैं।

सुज्ञ said...

आशय तो एक ही नजर आता है, भोगवाद से वापस लौटना।

पीसी बाबू जी का भी यही कहना है, असंवेदनशील शहरी संस्कृति इस आंदोलन का आगाज़ भी नहिं कर सकती।

अजित गुप्ता का कोना said...

अच्‍छा साक्षात्‍कार है। यह सच है कि आज जितना बंदिश में मन है उतना तन नहीं है। बेचारे मन को कोई नहीं पूछ रहा है कि उसे क्‍या चाहिए? इसीलिए तो मानसिक रोग बढ़ते जा रहे हैं।

अरुण चन्द्र रॉय said...

सलिल जी पिछला भाग नहीं पढ़ सका था सो इस वार्तालाप को सम्पूर्णता में नहीं देख पा रहा... लेकिन एक बात कहूँगा कि ये वार्तालाप अपने आप में सम्पूर्ण है... पी सी बाबू ने जो सबसे महत्वपूर्ण बात कही है कि बहरत जैसे गरीब देश में एक आदमी मोबाइल पर जितना खर्चा करता है या आंकड़ा सचमुच चौकाने वाला होगा.. एक उदहारण दूंगा कि... बिहार यूपी से आने वाले लोगों ने गाँव भेजे जाने वाले मणि ऑर्डर राशि में कमी कर दी है और यह कमी मोबाइल रिचार्ज में किया जाता है.. एक आम आदमी की मासिक आमदनी का ३०% हिस्सा फ़िज़ूल और गैर जरुरी खर्चों में जाता है.. महानगरों में ५००० या इस से कम कमाने वाले लाखों की संख्या में हैं.. और उनका खर्च देखिये...लगभग ५०० रुपया मोबाइल... २५० रुपया केबल टीवी, २५० रुपया पान गुटका, ५०० रुपया दारु, कुल मिला के १५०० रुपया हो गया ये.. इसके इतर भी कई फ़िज़ूल के खर्चे हैं... जैसे जैसे आमदनी बढ़ती है ये फिजुलखर्ची बढ़ती जाती है... बाजारवादी अर्थव्यवस्था पर अच्छी चर्चा हुई आप लोगों के बीच...

दीपक बाबा said...

सलिल : क्या जे.पी. आन्दोलन जैसा कोई आन्दोलन दुबारा सम्भव है?

संभव तो होगा..........

पर जे, पी, कहाँ से आएगा.......

और वो अगर आ भी गए तो उनके एक आह्वान पर उठने वाले छात्र और पब्लिक कहाँ से आएगी.....

संजय @ मो सम कौन... said...

जब भी पायाति साहब के विचार पढ़ते हैं, मन में श्रद्धा भाव जाग जाते हैं। कितना दुखद है कि ऐसे विचारवान लोग खुद व्यवस्था से अलग-थलग हैं। एक तंबाकू कंपनी के ड्रैस अपारेल्स के विज्ञापन की पंचलाईन है(वैसे ये भी एक मुद्दा है pseudo publicity का) - ’मेड फ़ॉर ईच अदर’ - पायाति साहब और उनसे सहमति रखने वाले और वर्तमान व्यवस्था - ’नॉट मेड फ़ॉर ईच अदर’ फ़िर भी हम में से अधिकाँश मजबूर हैं व्यवस्था का हिस्सा बने रहने के लिये।
हमारा प्रणाम पहुँचे श्री पायाति चरक तक, और आप दोनों बंधुओं तक कि ऐसी विभूति से परिचित करवाया।

देवेन्द्र पाण्डेय said...

उपभोक्ता वादी संस्कृति हमारी आत्मनिर्भरता समाप्त करती जा रही है।

ZEAL said...

बेहद सार्थक चर्चा। विद्वानों के मध्य ऐसी चर्चाओं से बहुत कुछ सीखने को मिलता है ।
आभार।

केवल राम said...

आपने जिस तरीके से अपनी बात को सामने रखा ...सच में प्रस्तुतिकरण के साथ शिक्षाप्रद भी है ..आभार

उम्मतें said...

सच तो ये है कि आज़ादी के लंबे वक्फे के बाद भी लोकमानस की कंडीशनिंग गांधीवाद के अनुकूल नहीं हो पाई और अब इसकी कोई संभावना भी नहीं दिखती ! गांधी जी के सिपहसालार सबसे पहले उन्हें छोड़ कर भागे ,उन्हें पूज्यनीय बना कर छोड़ दिया गया! जिन विचारों और वादों को व्यवहार में नहीं लाया जाना है उन्हें रास्ते से हटाने का सबसे बेहतर उपाय है कि उन्हें पूज्यनीय के तौर पर स्थापित कर दिया जाए!

एक अरब से अधिक आबादी का यथार्थ यह है कि हर बन्दा सामूहिक हित की तुलना में निज हित को प्राथमिकता देता है ,तो फिर व्यवस्था की चिंता कैसी ?

सूचना क्रांति ,ज्ञान का विस्फोट और इनसे उपजे संभ्रम अब एक वास्तविकता हैं जहाँ से पलटना संभव नहीं तो क्यों ना शुरुवात वहीं से की जाए जहाँ पर हम खड़े हैं !

उत्तरदाई नागरिक , सामूहिक हितों के लिए प्रतिबद्ध नागरिक ना हों तो कोई भी वाद सिर्फ वाद ही रह जाएगा !

अपना व्यक्तिगत अभिमत ये है कि देश फिलहाल 'अव्यवस्था की व्यवस्था' में जीवित है जहाँ नेताओं( गुंडे /बाहुबली ) का बदलता हुआ और नौकरशाहों के स्थाई अधिनायकवाद सा कोई तंत्र ,देश को दूहे जा रहा है !

एक सुचिंतित आलेख के लिए साधुवाद !

सम्वेदना के स्वर said...

@अली साः
आपने पायाति बाबू के साथ हुए साक्षात्कार में उद्घाटित उनके विचारों को एक विस्तार प्रदान किया है... आभारी हैं हम आपके.

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