सम्वेदना के स्वर

यह ब्लॉग उस सनातन उत्सवधर्मिता को जीवित रखने का प्रयास है,

जिसमें भाव रस और ताल का प्रतीक आम आदमी का भा-- बसता है.
सम्वेदनाएँ...जो कला, साहित्य, दर्शन, विज्ञान, राजनीति आदि के माध्यम से अभिव्यक्त होती हैं, आम आदमी के मन, जीवन और सरोकार से होकर गुज़रती हैं तथा तलाशती हैं उस भारत को, जो निरंतर लड़ रहा है अपने अस्तित्व की लड़ाई.....

Friday, October 29, 2010

क्या अंक ज्योतिष झूठ है ?


इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने जिस तरह घर-घर अपनी पैठ बना ली है, उसका एक दुष्प्रभाव यह हुआ कि मदारी ज्योतिषियों की संख्या बढ़ी है। आप कोई भी चैनल देखें, इन मदारी ज्योतिषियों की एक पूरी जमात अपने लैपटॉप पर त्वरित समाधान बाँचती नज़र आयेगी।

उपभोक्तावाद की इस रेलमपेल में कहीं तिलक चुटियाधारी खाँटी पंडित जी दिखते हैं, तो कहीं टाई-सूट में सजे फ़र्राटा अंग्रेज़ी बोलने वाले एस्ट्रोलोजर। इन सबके बीच एक प्रचलित विद्या है अंक ज्योतिष। इस प्रचलित अंक ज्योतिष में व्यक्ति की जन्मतिथि (ईसवी कलेंडर के अनुसार) के अंकों को जोड़कर एक मूलांक बना दिया जाता है और फिर उसे आधार बनाकर अधकचरा भविष्य बाँच दिया जाता है। इसी तरह अंग्रेजी के अक्ष्ररों (ए, बी, सी, डी आदि) को एक एक अंक दिया है. और लोगों के नाम के अंग्रेजी अक्षरों के अंकों के योग से उसका मूलांक निकाला जाता है. फिर उसी आधार पर उसका भी भविष्य बाँच दिया जाता है।

आइये सबसे पहले देखें कि अंक ज्योतिष का आधार क्या है ? और यह कितना वैज्ञानिक हैः

1. वैदिक ज्योतिष, जो महर्षि पराशर, जैमनी, कृष्णमूर्ति आदि की उत्कृष्ट परम्परा पर आधारित है, उसमें जातक के जन्म की तिथि, समय और स्थान को लेकर, एक वैज्ञानिक तरीके से जन्म के समय, आकाश में ग्रहों व नक्षत्रों की स्थिति का निर्धारण कर समय का आकलन किया जाता है। तत्पश्चात ज्योतिष के शास्त्रीय ग्रन्थों के आधार पर फलित कहा जाता है। ज्योतिषीय गणनाएँ पूर्णतः खगोलीय सिद्धांतों पर आधारित होती हैं, फिर भले ही फलित ज्योतिष को अवैज्ञानिक कहा जाये।

इसके विपरीत अंक ज्योतिष ईसवी कलेंडर की तिथि के अनुसार चलता है जिसका एक सौर वर्ष मापने के अलावा कोई सार्वभौमिक आधार नहीं है। समय के अनंत प्रवाह में ईसवी कलेंडर मात्र 20 शताब्दी पुराना है। जिसमें अचानक एक दिन को 1 जनवरी लेकर वर्ष की शुरुआत कर दी गयी और शुरु हो गया 1 से 9 अंकों की श्रेणी में जातक को बाँटने का सिलसिला।

2. यह सर्वविदित है कि इतिहास की धारा में अनेक सभ्यताओं तथा राजाओं ने अपने अपने कलेंडर विकसित किये जिन सबके वर्ष और तिथियों में कोई तालमेल नहीं है। तब सवाल यह उठता कि अंक ज्योतिष का आधार ईसवी कलेन्डर ही क्यों?

3. इसका एक कारण शायद यह हो सकता है कि अंग्रेज़ों ने चुँकि विश्व के एक बड़े हिस्से पर राज किया, इसलिये ईसवी कलेंडर का प्रचलन बढ़ गया। यहाँ तक कि विभिन्न गिरजाघरों ने इस कैलेंडर के दिनों की मान्यताओं पर प्रश्न चिह्न लगाए हैं. और तो और, जो सबसे अवैज्ञानिक बात इसकी सार्वभौमिकता को चुनौती देती है, वो यह है कि भिन्न भिन्न देशों ने इस कैलेंडर को भिन्न भिन समय पर अपनाया.

4. ईसवी कलेंडर की शुरुआत 1 ए.डी. से होती है जो 1बी.सी. के समाप्त होने के तुरत बाद आ जाता है, यह तथ्य मज़ेदार है, क्योंकि इस बीच किसी ज़ीरो वर्ष का प्रावधान नहीं है। देखा जाये तो ईसवी कलेंडर की तिथियाँ, मूलत: सौर वर्ष को मापने का एक मोटा मोटा तरीका भर है।

जब हम ईसवी कलेंडर के विकास पर दृष्टि डालतें हैं तो पाते हैं कि कलेंडर के बारह महीनों के दिन समान नहीं हैं और इनमें अंतर होने का कारण भी स्पष्ट नहीं है. यदि इस कलेंडर का इतिहास देखें तो इतनी उथल पुथल है कि इसकी सारी वैज्ञानिक मान्यताएँ समाप्त हो जाती हैं. इस कलेंडर पर कई राजघरानों का भी प्रभाव रहा, जैसे जुलियस और ऑगस्टस सीज़र. 13 वीं सदी के इतिहासकार जोहान्नेस द सैक्रोबॉस्को का कहना है कि कलेंडर के शुरुआती दिनों में अगस्त में 30 व जुलाई में 31 दिन हुआ करते थे। बाद में ऑगस्टस नाम के राजा ने (जिसके नाम पर अगस्त माह का नाम पड़ा) इस पर आपत्ति जतायी कि जुलाई (जो ज्यूलियस नाम के राजा के नाम पर था) में 31 दिन हैं, तो अगस्त में भी 31 दिन होने चाहिये. इस कारण फरवरी (जिसमें लीप वर्ष में 30 व अन्य वर्षॉं में 29 दिन होते थे) से एक दिन निकालकर अगस्त में डाल दिया गया। अब क्या वे अंक ज्योतिषी कृपा कर यह बताएँगे कि दिनों को आगे पीछे करने से कालांतर में तो सभी अंक बदल गये, तो इनका परिमार्जन क्या और कैसे किया गया?

5. सारी सृष्टि एक चक्र में चलती है सारे अंक एक चक्र में चलते हैं जैसे 1 से 9 के बाद पुन: 1 (10=1+0=1) आता है. ईसवी कलेंडर के आधार पर अंक ज्योतिष में अजब तमाशा होता है जैसे 30 जून (मूलांक 3) के बाद 1 जुलाई (मूलांक 1) आता है। इसी तरह 28 फरवरी (2+8=10=1) के बाद 1 मार्च (1 अंक) आता है।

6. नाम के अक्षरों के आधार पर की जाने वाली भविष्यवाणियाँ अंगरेज़ी (आजकल हिंदी वर्णमाला के अक्षरों को भी) के अक्षरों के अंकों को जोड़कर की जाती हैं. अब यह तो सर्वविदित है कि नाम के हिज्जे उस भाषा का अंग है जो जातक के देश या प्रदेश में बोली जाती है और जो साधारणतः निर्विवाद होता है. जैसे ही इसका अंगरेज़ी लिप्यांतरण किया जाता है, वैसे ही विरोध प्रारम्भ हो जाता है. ऐसे में सारे अंक बिगड़ सकते हैं और साथ ही जातक का भविष्य भी !? इसी अधूरे ज्ञान का सहारा लेकर आजकल लोग इन ज्योतोषियों की सलाह पर अपने नाम की हिज्जे बदलने लगे हैं.

अंक ज्योतिष के यह अंतविरोध, इसके पूरे विज्ञान को तथाकथित की श्रेणी में ले आते हैं। एक सवाल यह भी रह जाता है कि क्या पूरी मानव सभ्यता को मात्र 9 प्रकार के व्यक्तियों में बांट कर इस प्रकार का सरलीकृत भविष्य बाँचा जा सकता है? ऐसे में इस नितांत अवैज्ञानिक सिद्धांत को, ज्योतिष के नाम पर चलाने के इस करतब को क्या कहेंगे आप?

पुनश्च : उपरोक्त विचार मात्र अंक-ज्योतिष के विषय में हैं। ज्योतिष शास्त्र के विषय में नहीं क्योंकि उसके सिद्धांत और पद्धतियाँ, खगोल शास्त्र पर आधारित हैं और कई अर्थो में वैज्ञानिकता लिये हैं। ज्योतिष शास्त्र में अभी और गहन शोध होने बाकी हैं और उसे शायद इस तरह ख़ारिज नहीं किया जा सकता।

Monday, October 25, 2010

रंग-बिरंगे दोहे


ख़ाली डिब्बा टीन का, उसमें पहिये चार
हल्का फुल्का आदमी, अहंकार का भार.


लड़के की हो नौकरी, बंगला, पैसा, कार
देते नाम विवाह का, करते देहव्यापार.

हल्ला गुल्ला शोर कर, कुर्सी पर चढ़ जाएँ,
लोगों पर शासन करें और सेवक कहलाएँ.


अपनी अपनी सोच है, अपना अपना काम
मिट्टी की इस देह का, बारिश को है सलाम.


एक अनोखा खेल है, जीवन जिसका नाम,
मरने वाली देह करे, पुख़्ता सब इंतज़ाम.


पाना, खोना, छोड़ना, एक अबूझा खेल
छटपट करती आत्मा, देह बनी अब जेल.

Saturday, October 23, 2010

लोकतंत्र के थर्मामीटर ईवीएम पर एक और सवालिया निशान?


पिछले दिनों  ईवीएम के दुरुपयोग के सन्दर्भ में  नेट पर उपलब्ध सामग्री के आधार पर हमने दो बार चर्चा की, यहाँ और यहाँ . इसके अलावा, गाहे-बगाहे इस विषय पर मीडिया में कई खबरें आती रहीं। ईवीएम में विवादास्पद सुरक्षा खामियों को उजागर करने वाले हरि प्रसाद के जेल जाने की खबरों के बीच यह भी सुनने को मिला की चुनाव आयोग ने इन मशीनों को फूल-प्रूफ बताया है।
 
इस बीच आज सुबह देश के दो प्रमुख समचार पत्रों में ईवीएम के सन्दर्भ में प्रकाशित दो अलग अलग खबरों ने एक बार फिर चौंका दिया। यह दो बड़ी ख़बरें इस प्रकार हैं :-  

कॉन्ग्रेस ने गुजरात राज्य निर्वाचन आयोग से यह यह शिकायत की है कि म्युनिसिपल चुनावों  में भाजपा ने ईवीएम के साथ छेड़छाड़ की है ताकि चुनाव परिणामों को प्रभावित किया जा सके.
विश्वस्त सूत्रों से पता चला है, कि भाजपा फिर आज होने वाले तालुक्का/ ज़िला पंचायत चुनाव परिणामों में हेर फेर करने की चेष्टा कर रही है. इस हेरा फेरी के लिए ईवीएम के साथ छेड़छाड़ करने हेतु भाजपा ने लैपटॉप से लैस कई टेक्नोक्रैट वहाँ भेजे हैं.गुजरात कॉन्ग्रेस के सचिव गिरीश परमार ने मुख्य चुनाव आयुक्त को दिए एक ज्ञापन में कहा.
परमार ने कहा, “चुँकि EPROM (Erasable Programmable Read-only Memory) को आसानी से ब्लू टुथ तकनीक अथवा एक पोर्ट सीरियल डाटा केबल से प्रभावित किया जा सकता है, अतः 100 मीटर की परिधि में कोई भी लैपटॉप या कम्प्यूटर को ले जाने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिये.
आज कॉन्ग्रेस के प्रवक्ता मोहन प्रकाश ने अपनी पार्टी के इसयू टर्नपर बचाव की मुद्रा में यह कहा कि भाजपा का आरोपबिना साक्ष्य के नकारात्मक” (Negative without evidence) था, जबकि कॉन्ग्रेस के पास साक्ष्य मौजूद हैं. प्रकाश के अनुसार, एक चुनाव बूथ पर भाजपा के पक्ष में 111 वोट दर्ज़ हुये इस ईवीएम में, जबकि वहाँ मात्र 44 लोगों ने मतदान किया. एक अन्य बूथ पर, जब एक मतदाता ने मतदान के लिए बटन दबाया तो एक अन्य उम्मीदवार के सामने की बत्ती जल गई.
भाजपा ने इसी माह हुए स्थानीय निकाय के चुनाव में सभी दलों का सफाया कर दिया था. आज वहाँ पंचायत और नगर निगम के चुनाव हुए.

और दूसरी दैनिक जागरण सेः

वाशिंगटन। भारतीय शोधकर्ता हरि कृष्णा प्रसाद वेमुरू को भारत में इलेक्टॉनिक वोटिंग मशीन [ईवीएम] में खामी का दावा करने पर भले ही जेल जाना पड़ा लेकिन अमेरिका में इसके लिए उन्हें एक प्रतिष्ठित सम्मान से नवाजा जाएगा। सैन फ्रांसिस्को स्थित शीर्ष नागरिक स्वतंत्रता संगठन 'इलेक्टॉनिक फ्रंटियर फाउंडेशन' ने हरि कृष्णा को वर्ष 2010 का पायनियर अवार्ड देने की घोषणा की है।
संगठन के एक बयान में कहा गया है, 'हरि कृष्णा प्रसाद वेमुरू एक भारतीय  शोधार्थी हैं जिन्होंने हाल ही में ईवीएम में सुरक्षा खामियों को उजागर किया था। भारतीय चुनाव प्रणाली में इस्तेमाल हो रही ईवीएम की पहली स्वतंत्र सुरक्षा समीक्षा के लिए उन्हें जेल की सजा काटनी पड़ी। उन्हें बार-बार पूछताछ का सामना करना पड़ा और राजनीतिक उत्पीड़न का शिकार बनाया गया।' यह पुरस्कार 1992 से दिया जा रहा है। हरि कृष्णा के साथ इस साल यह पुरस्कार पारदर्शिता कार्यकर्ता स्टीफन आफ्टरगुड, ब्लॉगर पामेला जोंस और जेम्स बॉयल को भी मिलेगा। इन सभी को 8 नवंबर को सैन फ्रांसिस्को में एक समारोह में यह पुरस्कार प्रदान किया जाएगा।


चुनाव प्रक्रिया किसी भी लोकतंत्र के लिये थर्मामीटर का काम करती है, जिससे जन-अपेक्षाओं के तापमान का पता चलता है। इस प्रक्रिया से देश की पंचायत (संसद) चुनी जाती है और फिर  देश के संसाधनों को इसके हवाले कर दिया जाता है, इस आशा में कि यह इन संसाधनों के समुचित दोहन से प्रत्येक देशवासी को लाभ मिलेगा।

परंतु यदि थर्मामीटर की गुणवत्ता ही संदेहास्पद हो तो मामला गम्भीर हो जाता है. बीमार को सिंहासन और भले चंगे को बीमार घोषित कर दिया जाता है।  

लोकतंत्र के इस थर्मामीटर, ईवीएम की कार्य कुशलता पर इस बार जो सवाल  खड़े किए गये हैं वो बहुत महत्वपूर्ण इस कारण हो जाते  हैं क्योकिं सत्तारुढ दल ने भी माना है कि ईवीएम में गड़बड़ झाला है। आप क्या कहतें है ?

Tuesday, October 19, 2010

पीपली [लाइव] - दौलत डायन खाए जात हैं!

हमारी फ़िल्मी दुनिया को गुरुदत्त साहब ने कागज़ के फूल कहा था. और यह बात गलत तो कतई नहीं थी. यह वही दुनिया है, जहाँ एक ओर कुंदन लाल सहगल को सिर पर बिठाया गया और दुसरी तरफ उनकी ज़िंदगी अंगरेज़ी शराब की बोतल में कच्ची शराब पीकर ग़र्क हो गई. भारत भूषण, मीना कुमारी, गीता दत्त, नादिरा, परवीन बाबी और न जाने कितने ऐसे कलाकार जिन्हें लोगों ने पलकों पर उठाया और उनका अंत हुआ गुमनामी और शराब के अंधेरे में.

वो सच, वो भाईचारा, वो एकता और वो ख़ुलूस जो यह फिल्मी दुनिया हर मौक़ों पर दिखाती और जताती है, वास्तव में सिर्फ खोखलापन है. सचमुच कागज़ के फूल. ख़ूबसूरत बेइंतिहाँ, मगर ख़ुशबू नदारद. एक ऐसा ही फूल हमारे सामने पेश हुआ था कुछ महीने पहले. हमने उसकी चर्चा भी की, कई ब्लॉग्स पर उसके बारे में लिखा भी गया. अख़बारों ने तारीफ के पुल बाँध दिये. यह फूल था पीपली लाइव.

रविवार को इंडियन एक्स्प्रेस में इसकी निदेशिका और सह निर्देशक अनुषा रिज़वी और महमूद फ़ारूक़ी का इण्टरव्यू पढा और पढने के बाद मन ख़राब हो गया. एक बार फिर भारत छला गया इण्डिया के हाथों. हालाँकि इसमें कोई ताज्जुब की बात नहीं, लेकिन अफसोस तो होता ही है. फ़िल्म 36 चौरंगी लेन की मिसेज स्टोनहैम की पीड़ा आज महसूस हुई, ऐसा ही लगा होगा उन्हें जब वो बच्चे जिन्हें वो प्यार करने लगी थी, दरसल उनके प्यार का नाजायज़ फायदा उठाकर उनके घर को अपनी ऐशगाह बनाए बैठे थे.
                                                  महमूद फ़ारूक़ी और अनुषा रिज़वी

पीपली लाइव को सबने वास्तविकता से लबरेज़, मीडिया पर करारा व्यंग्य करती, गाँव की पीड़ा दर्शाती और वर्त्तमान भारत का एक दर्पण कहा. लेकिन ख़ुद इसके निदेशक दल का यह मानना है कि उन्होंने ख़ुद ही अपने आप को इस फ़िल्म से अलग कर लिया था. महमूद बताते हैं कि हम तो बिना किसी कॉन्ट्रैक्ट के फ़िल्म बनाने में जुट गये थे. हमारा मक़सद तो करोड़ रुपये कि कमाई नहीं था हम तो सीधी सादी दिल्ली युनिवर्सिटी की मानसिकता से निकले थे.

हालाँकि ख़ुद वो भी मानते हैं कि यह कोई अफसोस करने की बात नहीं है, क्योंकि एक पूँजीवादी फिल्मी दुनिया में इस तरह की बातें आम हैं. आमिर ख़ान पर पाँच एपिसोड की एक सीरीज़ बनाकर सारे समाचार मनोरंजन चैनेल में बाँट दी जाती है. वे सारे चैनेल बारी बारी से यह सब मुफ्त दिखाते रहते हैं. हमें उनके हाथ बंदर बनना मज़ूर नहीं था, लिहाजा हम अलग हो गए.

इनके अफसोस की वज़ह बहुत हद तक जायज़ भी है. ये कहते हैं कि इस फिल्म के लिये हमें अपनी तरफ से कई लोगों का आभार व्यक्त करना था,लेकिन हमें ऐसा करने से मना कर दिया गया और बताया गया कि किसको क्रेडिट देना है यह प्रोड्यूसर का ज़िम्मा है यानि आमिर ख़ान साहब का. और कई ऐसे लोग छूटे रह गए जिन्हें उनके सहयोग के लिये धन्यवाद देना चाहिये था.

फिल्म का गीत और एकमात्र गीत जिसने सफलता देखी वह था महंगाई डायन. यह गीत सीधा सीधा व्यवस्था पर करारा व्यंग्य था. बताते हैं कि जब उन्होंने कई स्थानीय लोकगीत सुने तो यह गीत इतना पसंद आया कि उन्होंने इसके लिए अलग से जगह बनाई फिल्म में. इस गीत का यह असर था कि देश के प्रमुख विरोधी दल ने इसे सरकार के विरुद्ध इस्तेमाल करने की इजाज़त माँगी जिसे आमीर ख़ान ने मना कर दिया.

और अब किसी अज्ञात कारणों से यह गीत फिल्म के एलबम से निकाल दिया गया है. उसकी जगह एक रीमिक्स गाना पाया जाता है. उस गाने से आत्मा गायब है, जो आपके दिलोदिमाग़ तक पहुँचती है. बात भी सही है सरकार से टक्कर लेना आसान काम नहीं है. इस गाने को सीडी से हटाने के पीछे कारण यह बताया गया कि यह गाना बेकार है और पब्लिक इससे बोर होगी.

बड़ी सोची समझी रणनीति के तहत इस फिल्म को ग्रामीण क्षेत्रों में रिलीज़ नहीं किया गया. व्यापार का गणित बिल्कुल सीधा और सरल है. गोरखपुर के एक थियेटर और दिल्ली के मल्टीप्लेक्स की उगाही के बीच बहुत बड़ा अर्थशास्त्र है. इसलिए एक फिल्म जिन लोगों की व्यथा को दर्शाती है, वह उन तक नहीं पहुँचती. पहुँचनी चाहिये भी नहीं, क्योंकि यह एक ऐसी समस्या है जिसपर अंगरेज़ी में विचार किया जाना चाहिये, पेप्सी के घूँट और पॉप कॉर्न के स्वाद के बीच वेरी सैड, पिटी, रियलिस्टिक जैसे शब्दों और अभिव्यक्तियों के साथ.

जब आमीर ख़ान किसी फिल्म में अभिनय करते हैं तो वह आमीर ख़ान की फिल्म होती है, जब निर्देशन करते हैं तब भी वो आमीर ख़ान की फिल्म होती है और जब उन्होंने प्रोड्यूस की तब भी फिल्म उन्हीं की रहने वाली थी. और अब तो यह फिल्म ऑस्कर के लिये नामित हो चुकी है, लिहाज़ा अगर इसे ऑस्कर मिल भी जाता है तो यह आमीर ख़ान की फिल्म ही कही जाएगी.

आज एक बहुत पुरानी बात याद आ गई जिसे लोगों ने सत्यजीत राय जैसे महान फ़िल्मकार के साथ चिपका रखा है कि उन्होंने पॉथेर पांचाली के माध्यम से भारतवर्ष की ग़रीबी को विदेशों में भुनाया और शोहरत पाई. आज वह आलोचक वर्ग कहाँ है जो अनुषा और महमूद की इस बात को ख़ुद उनकी ज़ुबानी सुनकर आमीर ख़ान के लिये भी वही कहने को तैयार है?

पुनश्चः इण्डियन एक्स्प्रेस ने यह ख़बर दी है कि ऑस्कर में पीपली (लाइव) की आधिकारिक प्रविष्टि से निदेशक जोड़ी ने ख़ुद को बाहर कर लिया है. आमीर ख़ान से इस बारे में पूछे जाने पर उन्होंने किसी भी प्रतिक्रिया से मना कर दिया.

Friday, October 15, 2010

खेल खत्म, पैसा हज़म ?

कल की शाम तो कामनवैल्थ खेलों का समापन देखते बीती. 60,000 दर्शकों से भरे नेहरु स्टेडियम की भव्यता में, 40 करोड़ का गुब्बारा पायाति जी से हुये पिछले वार्तालाप के बाद कुछ देर तो चुभा, पर जब बॉलीवुडी मनोरंजन शुरु हो गया तो हमारे टेलीविज़न की आवाज़ भी थोड़ी तेज़ हो गयी! कार्यक्रम के अंत मे घर में सभी की प्रतिक्रिया यही थी कि यह 26 जनवरी के रंगारंग कार्यक्रम सरीखा बेहतरीन नाइट शो था.

जहां तक ग्यारह दिनों के इन खेलों का प्रश्न है, भारतीय खिलाड़ियों ने विशेष रूप से निशानेबाजी, पहलवानी और मुक्केबाजी में कीर्तिमान स्थापित किये. सबसे सुखद रहा दशकों बाद एथेलेटिक्स में पदक हासिल करना। निश्चित तौर पर हर पदक नें खिलाड़ियों के मनोबल को उपर उठाया है और देश में क्रिकेट से इतर खेलों के महत्व को बढाया है। हालाँकि व्यवस्था द्वारा इस सफल आयोजन का श्रेय लेने की होड़ शुरु हो चुकी है, परन्तु इस पर मशहूर पत्रकार एम जे अकबर की बात से सहमत हुए बिना नहीं रहा जा सकता कि “चीन में हर पदक विजेता के पीछे पूरी सरकारी मशनरी का योगदान होता है. दूसरी ओर भारत के हर पदक के पीछे व्येक्तिगत सोच और प्रतिभा है. सच कहा जाए, तो भारत में मशीनरी कभी काम नहीं करती है.”

इसी तरह कुल मिले 101 पदकों में भी सम्पूर्ण भारत में हो रही किसी खेल क्रांति की झलक नहीं मिलती है। भारत को मिले 38 स्वर्ण पदकों में अकेले हरियाणा के ही 15 स्वर्ण पदक हैं। कल्पना करें कि यदि हरियाणा एक देश होता तो इन पदकों के आधार पर इन खेलों में उसका पाचवां स्थान होता! हरियाणा के पहलवानों और मुक्केबाजों नें अपनी अंतरराष्ट्रीय पहचान बनायी है, जिसके लिये वो बधाई के पात्र हैं। स्मरण रहे कि यह करिश्मा और कारनामा उस हरियाणा ने किया है जिसकी जनसंख्या देश की कुल जनसंख्या का मात्र 2% है।

मानव विकास पैमाने पर स्वर्ण पदक तालिका का विश्लेष्ण करें तो निम्न तस्वीर उभर कर आती है :
खेलों में बहुत से विश्व विजेताओं का न आना शिद्दत से महसूस किया गया. इस परिप्रेक्ष्य में खिलाड़ियों की असली परीक्षा अगले माह चीन में होने वालें एशियाई खेलों में मिलने वाले पदकों से होगी और फिर 2012 का लन्दन ओलिम्पिक तो खेलों का असली मक्का होगा ही!

बहरहाल इस सबके बीच खर्चे पानी वाली बात तो रह ही गयी 70,000 करोड़ रुपये का हिसाब किताब?

एन. डी. टी. वी की एक खबर के अनुसार “कॉमनवेल्थ खेल खत्म हो गए हैं और अब बारी है खेलों की आड़ में हुए महाघोटाले की जांच की। नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक यानी कैग कॉमनवेल्थ खेलों पर हुए खर्च की जांच शुक्रवार से शुरू कर देगा... हालांकि कैग ने कॉमनवेल्थ खेलों के खातों की जांच का काम अगस्त में शुरू किया था, लेकिन इसे सितंबर के आखिर में रोक दिया था और कहा था कि खेल खत्म होने पर इस पर दोबारा काम शुरू होगा... दिल्ली कॉमनवेल्थ खेलों से जुड़ा मुख्य विवाद ठेकों को लेकर है, जिसमें भाई−भतीजावाद और किराये पर लिए गए उपकरणों के लिए काफी ज्यादा पैसे देने के आरोप लगे हैं।“

प्रबन्धन कौशल में माहिर सत्ताधीशों द्वारा इस जांच प्रक्रिया का समापन किस कुशलता से किया जाता है वह देखने का विषय़ होगा! जानकार लोगों का अनुमान है कि इस जाँच-पड़ताल के खेल में हमारा स्वर्ण पदक कहीं नहीं गया। बहरहाल मदारी के खेल की तरह क्या यही समझा जाये कि “खेल खतम पैसा हज़म??”

Saturday, October 9, 2010

पी सी बाबू का गणितीय सूत्र यानि अर्थशास्त्र का समाजशास्त्र”

(गतांक से आगे)  
“अरे भाई ! ये क्या इंवेस्टिगेशन शुरु कर दिया तुम दोनों ने?”
“इंवेस्टिगेशन नहीं सर! जिज्ञासा!”
“जिज्ञासा! मेरे प्रति क्या जिज्ञासा है, तुम दोनों की?” सहज भाव से पी सी बाबू ने पूछा और हमारे पास ही बैठ गये।
“कुछ नहीं सर! मैम से आपकी चर्चा चल रही थी, तो जिज्ञासाएँ कम होने के बजाये बढती ही जाने लगीं.” मैंने अपनी बात अभी खत्म ही की थी कि चैतन्य जी शुरु हो गये और कहने लगे, “सर आप को नहीं लगता कि प्रशासनिक सेवा में रह कर आप जैसा व्यक्ति वयवस्था को अधिक प्रभावित कर सकता है, बजाए व्यवस्था से बाहर हो जाने के.”

मुस्कुराते हुए पी सी बाबू ने अपनी पत्नी को देखा और बोले, अच्छा ये बात है! फिर लगभग हंसते हुये बोले, “मुझे लोग तब भी पागल ही समझते थे, जब मैंने नौकरी छोड़ी. कहते थे तुम इस दुनिया के इंसान नहीं. व्यवस्था को बदलने चले हो. व्यवस्था एक अकेले आदमी से अधिक शक्तिशाली होती है.मुझे भी लगने लगा था कि व्यवस्था अपने आप में सबसे बड़ी अव्यवस्था बनती जा रही है, ऐसे में यह सम्भव नहीं कि व्यवस्था में रहकर व्यवस्था का मुक़ाबला किया जा सके। इसलिये व्यवस्था को मेरी छोडना मजबूरी हो गई. वैसे अफसोस भी नहीं उस बीती बात का। That’s a history now.”

मेरे मुहँ से बेसाख्ता निकला, “सर! यही बात तो आपको औरों से अलग करती है! आप जैसे विरले ही हैं सर इस देश में। काश! सारा देश आप ही तरह सोच सकता! ”

चैतन्य ने भी अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा, “कितने ही प्रतिभावान लोगों के पैरों में व्यवस्था की बेड़ियाँ हैं और सबने इसे ही आभूषण मान लिया है। कोई व्यवस्था के गुणगान में लगा है तो कोई कला और साहित्य की रुई अपने कानों में डाल कर इस अव्यवस्था के शोर को न सुनने का ढोंग कर रहा है.”

अचानक भाव शून्य हो गये पी सी बाबू के चेहरे को देखकर, चैतन्य ने कहा “सॉरी सर, कहीं कुछ ग़लत तो नहीं कह दिया हमनें!” यह कहा तो चैतन्य ने ही पर इसमें भाव मेरे भी ऐसे ही थे।

लेकिन जैसे कोई विशाल बरगद का पेड़, सैकड़ों सालों के अपने अनुभवों की गम्भीरता लिये, किसी नवजात कोंपल के फूटने की अकुलाहट महसूस कर रहा हो, पी सी बाबू ने तुरंत ही हमारी बात को आगे बढाते हुए कहा, “व्यवस्था के नकारात्मक पक्ष को देखते हुये, हमें यह भी समझना होगा यह सिर्फ समस्या का पता लगना भर है, समाधान के लिये फिर वैकल्पिक चिंतन और व्यवस्थाओं पर काम करना होगा.”

वो चैतन्य की ओर मुख़ातिब होकर बोले, “चलो तुम लोगों से गणित का मजेदार खेल खेला जाये. चैतन्य! तुम तो इंजीनियर हो. एक बात बताओ. भारत के किसी देहात में अगर एक माध्यमिक स्तर का स्कूल खोला जाये या बुनियादी सुविधा वाला एक अस्पताल, तो लगभग कितना कंस्ट्रक्शन करना होगा? और कितनी लागत आएगी?”

“सर! मेरे हिसाब से लगभग 20,000 वर्ग फीट में एक बढिया बिल्डिंग बन सकती है और ग्रामीण क्षेत्र के हिसाब से 400 रुपये प्रति वर्गफीट की लागत ली जा सकती है।

पी सी बाबू बोले “तो कितनी हो गई कुल लागत, 80 लाख रुपये. और अब इसपर बाकी के ज़रूरी खर्चे भी जोड़ो , मान लो 20 लाख रुपये. तो कुल ख़र्च, आया एक करोड़ रुपये. अब ध्यान से सुनो. इस गणित को ध्यान में रखकर, अब आगे से जब भी मैं एक करोड़ रुपये कहूँ तो इसका मतलब समझो एक माध्यमिक स्तर का स्कूल या बुनियादी सुविधा वाला एक अस्पताल. ठीक है, न!” उन्होने हमारी सहमति लेने के अन्दाज से पूछा, तो हम दोनों ने एक स्वर में कहा “बिल्कुल सर!”

पी सी बाबू ने आगे कहा, “वैसे भी आज का व्यापार जगत इस एक करोड़ की रकम को इकाई के तौर पर ही इस्तेमाल करता है. आये दिन खबरें आती हैं कि फलानी योजना के लिये इतने करोड़ रुपये दिये जा रहें और फलाने टैक़्स से इतने करोड़ रुपये सरकारी खजाने को मिलेंगें। जब अर्थशास्त्र के एक करोड़ रुपये को मेरे बताये समाज शास्त्र की नज़र से देखोगे यानि एक करोड़ रुपये मतलब “एक माध्यमिक स्तर का स्कूल या बुनियादी सुविधा वाला एक अस्पताल!” तो तुम लोगों को एक सुंदर सपना दिखाई देगा. हर गाँव को एक करोड़ रुपये, जिससे मिलेगा उसे एक स्कूल या एक स्वास्थ्य केंद्र. एक स्कूल या स्वास्थ्य केंद्र, गाँव के कम से कम दस लोगों को रोज़गार और 100 लोगों की प्राथमिक शिक्षा या स्वास्थ्य की गारण्टी दे सकेगा.”

हम दोनों के मुँह से एक साथ ही निकला, “सचमुच यह तो एक सुंदर सपना है! सिर्फ एक करोड़ रुपये में, एक स्कूल या स्वास्थ्य केंद्र और दस लोगों को रोज़गार तथा 100 लोगों की प्राथमिक शिक्षा या स्वास्थ्य की गारण्टी! पर क्या इतना आसान है यह सब?”

पी सी बाबू गम्भीर होकर कहने लगे, “नहीं! इतना आसान भी नहीं। एक और सवाल का जवाब दो. एक बाप के दो बेटे हैं और उसका सपना है कि दोनों बच्चों का जीवन सुधर जाए. बड़ा बेटा उच्च शिक्षा जारी रखना चाहता है और छोटे बेटे को प्राथमिक शिक्षा मिलनी है. साधन सीमित हैं बाप के पास कि वह सिर्फ एक ही सपना पूरा कर सकता है. अब आप बताइए कि वो कौन सा सपना पूरा करेगा... घबराओ नहीं. मैं यह नहीं कहूँगा कि इसका जवाब जानते हुए भी नहीं दिया तो आपका सिर टुकड़े टुकड़े हो जाएगा, यह कहकर विक्रम-बेताल के बेताल की तरह पी सी बाबू ने ठहाका लगाया और सवाल हमारी ओर उछाल दिया.

“मेरे विचार से छोटे बेटे को पढाना चाहिए ताकि घर में दोनों बच्चे पढ़े लिखे कहलाएँ.” चैतन्य ने कहा!

“अच्छा होता कि बड़े को उच्च शिक्षा मिले ताकि वो कमाने लगे और बाप का हाथ बँटा सके, उसकी ज़िम्मेदारियाँ उठा सके.” मै बोला.

पी सी बाबू कहने लगे “दरअसल भारत की पहली संसद में प्राथमिक और उच्च शिक्षा पर किये जाने वाले खर्च को लेकर, संसाधनों की कमी का ऐसा ही रोना रोया गया था। और कुछ इसी तरह के उदाहरण के साथ चर्चा की जा रही थी। तब कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी जी ने अपने एक भाषण में इस सवाल का जवाब दिया था कि ये दोनों बातें हो सकती है, यानि दोनों बेटों को उचित शिक्षा मिल सकती है, बशर्ते कि बाप अपनी अय्याशी छोड़ दे और शराबखोरी बन्द कर दे.

हम दोनों चुप थे.

वो बोलते रहे, “आप अगर सरकार को बाप मानें तो देखिएगा कि भारत की ग़्रामीण अर्थ-व्यवस्था बुरी तरह से चरमरा गयी है, छोटे किसान खेती छोड़कर शहरी मज़दूर बनने को अभिशप्त हैं. शहरी इंडिया को इससे एक फायदा भी है कि इससे उसके उद्योगों को सस्ते मज़दूर आसानी से मिल रहे हैं. आग मे घी का काम, व्यवस्था ने संगठित क्षेत्र के मध्यम वर्ग की तनख्वाह बढाकर बाजार में और पैसा डालने से कर दिया है और विकास की रफ्तार हो ह्ल्ला मचा दिया है। आंकड़ो की इस बाजीगरी से भारत में सभी हतप्रभ हैं।

मै कहे बिना नहीं रह सका “मतलब ये कि छोटे बेटे को अनपढ़ रखकर उसके हिस्से की पढाई बड़े भाई को दी जा रही है.”

जिस वैकल्पिक चिंतन और व्यवस्था की बात पी सी बाबू ने शुरु में की थी, उसका आशय अब स्पष्ट हो चला था. अपनी आगे की बातचीत में पी सी बाबू से मिले एक करोड़ के गणितीय सूत्र से देश के अर्थशास्त्र का जो समाजशास्त्रीय आकलन हमने मिल बैठ के किया वह कुछ इस तरह था :

1. कामनवैल्थ खेलों में खर्च 70,000 करोड़ : 70,000 स्कूल या अस्पताल और 7 लाख रोज़गार, और 70 लाख लोगों को शिक्षा या स्वास्थ्य!

2. 3जी स्पेक्ट्रम से कमाये 1,07,000 करोड़ रुपये : यानि 1,07,000 स्कूल या अस्पताल और 10 लाख रोज़गार, और 1 करोड़ लोगों को शिक्षा या स्वास्थ्य!

3. 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में गवायें 70,000 करोड़ रुपये : यानि 70,000 स्कूल या अस्पताल और 7 लाख रोज़गार, और 70 लाख लोगों को शिक्षा या स्वास्थ्य!

4. लुटियन की दिल्ली में खड़ा एक सरकारी बंगला 300 करोड़ : यानि 300 स्कूल या अस्पताल और 3 हज़ार रोज़गार, और 30 हजार लोगों को शिक्षा या स्वास्थ्य ! 
क्या अगली बार कामनवेल्थ समापन समारोह में 40 करोड़ रुपये के गुब्बारे से लटकी कठपुतलियों को देखकर हमें याद आएगा कि ये मात्र कठपुतलियाँ नहीं, अधर में लटके हुए 40 स्कूल या अस्पताल, 400 लोगों के जीवन भर का रोज़गार और 4000 लोगों को मिलने वाली शिक्षा या स्वास्थ्य है!
पी सी बाबू पर कुछ पिछली पोस्ट :

1. राहुल गांधी की दाढ़ी और पा(पायाति) प(पर्सुएशन इंडस्ट्री)
2. मॉल कल्चर का छलावा और पर्सुएशन इंडस्ट्री!!
3. भांडिया के भांड

Wednesday, October 6, 2010

पायाति चरक – एक (अ) साधारण व्यक्तित्त्व

एक बहुत बड़ी ख़राबी है मुझमें कि सस्पेंस बिल्कुल बर्दाश्त ही नहीं होता. जासूसी उपन्यास भी मैं पहले पिछले पन्नों से शुरू करके सस्पेंस पढने के बाद ही शुरू करता था. या फिर बीच में जब सस्पेंस बढ जाए तो पिछले पन्नों पर जाकर इत्मिनान कर लिया और तब बिना नर्वसनेस के आराम से किताब पढी.

इतनी भूमिका सिर्फ इसलिए कि चैतन्य जी ने पायति बाबू का ऐसा समाँ बाँधा कि बिना उनसे मिले मुझे चैन नहीं पड़ने वाला था. और फोन पर उनका पायाति पुराण सुन सुनकर अपनी तो बस दिल की धड़कन थामे नहीं थम रही थी. लिहाजा हमने रुख़ किया चंडीगढ‌ की ओर.
ज़िरकपुर का मकान नम्बर 151 ए, दरवाज़े पर साधारण सी नेम प्लेट “पायाति चरक”, अहाते में खड़ा पुराना बजाज स्कूटर और पास ही चमचमाती काली पल्सर, सामने बरामदे में पड़े बेंत के सोफ़े और उनपर पड़ा कुशन जिसपर हाथों का बना कवर डला था, दरवाज़े के ठीक ऊपर राजा रवि वर्मा की फ्रेम की हुई पेंटिंग. बेल बजाया तो दरवाज़ा एक प्रौढ महिला ने खोला. और पूछा, “जी!”

“मैं पहले भी आया था पयाति सर से मिलने.” चैतन्य जी ने बताया और उन्होंने पहचान भी लिया. “ये मेरे मित्र हैं, दिल्ली से आए हैं, सर से मिलने.”

“आप लोग अंदर तो आइए. अभी आपको कुछ देर बैठना होगा. यह समय उनके ध्यान का है.”

“कितनी देर पूजा करते हैं वो?”

“पूजा नहीं करते. अच्छा हुआ आपने उनके सामने नहीं कहा. वे बस ध्यान करते हैं. कहते हैं इससे एकाग्रता पैदा होती है और एकाग्रता से मन नियंत्रण में रहता है.”

अब तक हमलोग बैठ चुके थे. कमरे में सजी हुई आलमारियाँ किताबों से भरी हुई, घुसते हुए देख लिया था मैंने कि वे किताबें अलग अलग विषयों की थी, दीवारों पर राजा रवि वर्मा की अन्य पेंटिंग्स, एक कोने में सितार, सामने शो केस में म्युज़िक सिस्टम और करीने से सजी कई सीडी, आश्चर्य इस बात का था कि इनके कमरे में इनकी कोई भी तस्वीर नहीं थी, न व्यक्तिगत जीवन की न सामाजिक और न व्यावसायिक जीवन की.

“अच्छा मैम! मैं पहले भी मिला हूँ सर से, लेकिन कभी पूछने का साहस नहीं हुआ. अगर आप को बुरा न लगे तो पूछूँ कि सर करते क्या थे या करते क्या हैं?” चैतन्य जी ने साहस करके उनकी पत्नी से पूछा (उन्होंने मुझे धीरे से बता दिया था कि ये स्त्री पीसी बाबू की पत्नी हैं).

“इसमें बुरा लगने की कोई बात ही नहीं है. ये सिविल सर्विसेज़ में चुने जने के बाद, भारतीय प्रशासनिक सेवा के दौरान कई जगहों पर काम करते रहे. हमारा विवाह नौकरी में इनके आते ही हो गया था. और विश्वास नहीं होगा आपलोगों को कि उन्होंने ख़ुद यह शर्त रखी थी कि लड़की को एक जोड़ी कपड़े में विदा कर दीजिए. बस तबसे इनके साथ, इनकी अनुगामिनी हूँ.” कहकर वो मुस्कुराने लगीं. उनकी आँखों में एक असीम श्रद्धा का भाव साफ झलकता था.

“तो फिर वो रिटायर कब हुए और यहाँ कैसे आए?”

“रिटायर कहाँ हुए वो!” इतना कहते हुए वो शून्य में ताकने लगीं, जैसे बीते हुए समय को पकड़ने की कोशिश कर रही हों. हमने टोकना उचित नहीं समझा.

वो ख़ुद ही बोल पड़ीं, “ कई जगहों पर काम किया. मगर जहाँ भी काम किया ईमानदारी से, ख़ुद को बिना बॉस समझे और अपने साथ काम करने वाले लोगों को खुश रखकर. फिर भी इनको खुशी नहीं मिली काम में. हमेशा कहते थे कि इस तंत्र को जितना समझता हूँ, उतनी ही मुझे इससे चिढ़ होती जाती है और यह सोचकर ख़ुद से नफरत होती है कि मैं भी इसी तंत्र का हिस्सा हूँ. मैं पढ़ना चाहता हूँ, पढाना चाहता हूँ, एक साधारण आदमी की तरह जीना चाहता हूँ, मुझे पसंद नहीं कि मेरी गाड़ी का दरवाज़ा कोई बढकर खोले, जो मैं ख़ुद भी कर सकता हूँ, मुझे बिलकुल नहीं पसंद कि अंगरेज़ों के ज़माने की तरह कोई मेरे सिर पर रस्सी खींचता पंखा झलता बैठा रहे. और ऐसे ही अचानक ये एक दिन शाम को लौटे और मुझसे बोले कि आज कहीं घूमने चलते हैं. मेरे पूछने पर कि क्या बात है, कहने लगे आज स्वतंत्रता दिवस है. मैंने कहा पागल हैं आप, जून में स्वतंत्रता दिवस. तो ये बोले, मैंने इस्तीफा दे दिया है, अब मैं आज़ाद हूँ.”

“फिर इतना लम्बा समय… मेरा मतलब क्या करते रहे इतने दिन?”

“इन्होंने कहा कि मैं ऐसी जगह रहना चाहता हूँ, जो हिमाचल के हमारे पुश्तैनी गाँव के भी करीब हो और शहर भी न हो. जहाँ ये अपनी किताबों के बीच रह सकें. आयुर्वेद, जैविक खेती, मनोविज्ञान, समाज शास्त्र और न जाने कहाँ कहाँ के रिसर्च पेपर पढते रहे. मुझे तो ऐसा लगने लगा था कि एक साथ दो दो छात्र रह रहे हैं हमारे घर में. पिता और पुत्र.”

“एक और बात मैम! अगर न चाहें तो मत कहें...”

“अरे भाई, ऐसा कुछ भी नहीं है जो छिपाने जैसा या पर्सनल सा है. आप पूछिए.”

“मैम, यह नाम कुछ विचित्र सा है. हिमाचल में भी ऐसे नाम नहीं होते.”

वो मुस्कुराने लगीं. “मैं यही सोच रही थी कि कोई भी सबसे पहले यही पूछता है और आपने अभी तक नहीं पूछा. वास्तव में जब ये पैदा हुए थे तो कोई बौद्ध भिक्षु इनके घर आया और इनको देखते ही इनके पिता जी से कहने लगा कि इसका नाम पायाति होना चाहिए. और इससे अधिक मत पूछो मुझसे कुछ. बस यह नाम रख दिया माता पिता ने. बाद में जाति विरोधी होने के कारण इन्होंने जाति सूचक नाम हटा दिया और आयुर्वेद से जनता की सेवा करने का व्रत लेने के कारण इन्होंने नाम के साथ चरक लगा लिया.”

“अगर इण्टरव्यू समाप्त हो गया हो तो मैं भी बैठ लूँ आपके बीच.” कहते हुए पायति चरक जी कमरे में दाख़िल हुए और हमारे साथ बैठ गए. मुझे देखकर उन्होंने परिचय भी नहीं पूछा, पहचान गए कि चैतन्य जी के साथ मैं ही हो सकता हूँ.

उसके बाद बहुत सी बातें हुईं. कई विषय पर बातें सुनीं उनकी. इतने सुलझे हुए विचार कि किसी को आसानी से समझ में आ जाएँ. अगर सारी बातें लिखने बैठूँ तो न जाने कितनी पोस्ट लिखनी पड़े. मगर कुछ ख़ास बातें तो ज़रूर शेयर करेंगे हम सभी पढने वालों से.

इतने गहरे विचार, अध्ययन और ज्ञान से भरे होने पर भी वो इतने साधारण से आदमी होंगे, कोई सोच भी नहीं सकता. उनके व्यक्तित्व में ऐसा कुछ भी न था जिसे आकर्षक कहा जा सके, लेकिन आवाज़ ऐसी थी कि बाँध लेती थी. कुछ था जो मुझे अंदर तक झकझोर गया. सम्मोहित करने वाली आवाज़. इतनी सहजता व्यवहार में और आत्मीयता कि लगा ही नहीं कि वो मुझसे पहली बार मिल रहे थे.
(अगली पोस्ट में “पी सी बाबू का गणितीय सूत्र यानि अर्थशास्त्र का समाजशास्त्र”)

पी सी बाबू पर कुछ पिछली पोस्ट :

Sunday, October 3, 2010

दोस्त चिड़िया


सुबह सुबह तेज़ हवा के झोंके ने बेडरूम की खिड़की को खट की आवाज़ के साथ खोल दिया. फिर ठंडी हवा के झोंको ने पूरे घर में धमा-चौकड़ी मचानी शुरू कर दी.

आम तौर पर घोड़े बेच कर सोने वाली आशी के नन्हे गालों पर जब हवा के एक झोंके की हल्की सी चपत लगी, तो नींद में ही वो मुस्कुरा दी! फिर न जाने कहाँ से एक लम्बी पूँछ वाली काली चिडिया आ कर ख़िड़की पर बैठ गयी और चीं-चीं की सरगम पर गाना गाने लगी. गाना शायद बहुत मधुर था, तभी तो इस गाने ने आशी के मन में, गायक को देखने की चाह जगा दी. अपने तकिये को अभी भी जोर से पकड़े-पकड़े, आशी ने उस आवाज़ की दिशा का मन ही मन अन्दाज़ा लगाया और अपनी एक आंख खोल कर उस ओर देखा. आशी की नज़रें सीधी लम्बी पूँछ वाली काली चिडिया पर एक बार जो ठहरी, तो फिर दोनों आंखे यंत्रवत खुलती ही चली गयीं. और फिर तो, नींद की नदी में नहा कर ताजगी से भरी आशी और उस छोटी काली चिडिया में मस्ती की एक होड़ सी लग गयी। उस छोटी काली चिडिया का चीं चीं गान और बिस्तर पर औंधी पड़ी आशी के पैरों की एक जुगलबन्दी शुरू हो गई.

अचानक चिडिया फुर्र से उड़ गयी और मस्ती की यह जुगलबन्दी, क्षण भर को टूट ही गयी. शायद यह पल भर में घटी इस दोस्ती का जादू ही होगा जो सब कुछ छोड़ छाड़ कर उठ भागी आशी, उसके पीछे पीछे, बालकनी तक. चिडिया अब मज़े से एक पतली सी टहनी पर बैठी झूला झूल रही थी और बुला रही थी आशी को. जैसे कह रही हो, आ जाओ न अब नीचे, बागीचे में. आशी उसको बस एक टक देख रही थी विस्मित सी. चिडिया के पंखों का खुलना और आसमान में उड़ना... उड़ते जाना. वो सोच रही थी काश उसके भी पंख होते और वो भी उड़कर चिडिया के पास पहुँच जाती।

तभी मम्मी की आवाज़ पड़ी उसके कानों में, “चलो! अब स्कूल जाने को तैयार हो जाओं!” मम्मी की बात को अनसुना कर आशी अब भी मस्त थी, उस चिड़िया की उछल कूद देखने में, रात की बारिश से बागीचे में जो पानी जमा हो गया था, उसमें अब नहा रहीं थीं चिड़िया रानी. इधर मम्मी की आवाज़ रह रहकर घर के अलग अलग कोनों से अब भी आशी के कानों में जब तब पड़ रही थी. पर चिडिया के नये नये करतबों को देखने में लगी आशी इस मज़े को छोड़ना ही नहीं चाहती थी. समय हो चला था. इसलिए अब ख़ुद मम्मी वहाँ आ धमकीं और हाथ पकड़ कर खींचकर ले गईं आशी को और जा धकेला उसे बाथरूम में, यह कहकर कि आज गणित का टेस्ट है, तैयार होकर जल्दी स्कूल जाओ.

अनमने ढंग से आशी तैयार हुई और जब नाश्ता किया तो ब्रेड का एक टुकड़ा बचा लिया उसने, यह सोचकर कि जब नीचे बागीचे से गुजरेगी, तो वह उस लम्बी पूँछ वाली काली चिडिया को दे देगी, दोस्ती का यह उपहार. फिर पापा के साथ स्कूल जाती हुई जब वो गुजरी बागीचे से, तो उसकी नज़रें दूर तक खोजती रहीं अपनी दोस्त चिड़िया को, पर नहीं मिली वो. आंखों मे गहरी उदासी लिये चल दी वो बस्ते का बोझ ढोते-ढोते, पापा के साथ स्कूल के रास्ते. कुछ चिडिया मिलीं भी उसे पेड़ों पर. लेकिन वो नहीं जिसकी उसे तलाश थी.

नौ बजे का समय था. कक्षा में गणित का टेस्ट शुरु हो चुका था, खिड़की के पास वाली कुर्सी पर बैठी आशी ने ब्लैक-बोर्ड से गणित के प्रश्न अपनी कापी में उतार लिये थे और जबाब लिखने की कोशिश मे लगी थी. तभी कक्षा के बाहर वाले मैदान में खड़े नीम के पेड़ पर उसकी नज़र पड़ी तो उसने देखा कि वही लम्बी पूँछ वाली काली चिडिया एक गीली टहनी पर लटकी झूला झूल रही थी. उफ! कितनी खुश हो गयी आशी, जैसे कोई बिछड़ा दोस्त मिला हो उसे अभी अभी, किसी अनमोल खज़ाने जैसा.

अब वो कक्षा में बस नाम को ही रह गयी, मन और हृदय उस चिडिया के साथ झूला झूल रहे थे, और ऊँची ऊँची पींगे भरने की मानो होड़ लगी थी दोनों में. न जाने कितनी देर तक चला यह सिलसिला. नीम के कोने कोने को थका गया दिया इन दोनों की बेमतलब की भाग-दौड़ ने.

तभी ज़ोर के घंटे की आवाज़ से आशी अपनी कुर्सी पर वापस आयी, जल्दी जल्दी, जैसे तैसे प्रश्न हल करके दिये उसने टीचर को और भाग के फिर जा पहुँची नीम के तले. मगर चिडिया अब फिर से जा चुकी थी, वहाँ से. उदास आशी ने लंच भी नहीं किया उस रोज़, बाकी कक्षा में भी बैठी रही वह - अनमनी सी अलग थलग.

आखिरी कक्षा में गणित की टीचर फिर आयीं टेस्ट का रिज़ल्ट लेकर. आशी ने भी उदास मन से लिया जब अपना पर्चा तो देखा, उसमें दो बड़े बड़े ज़ीरो थे अंडे जैसे. और न जाने क्या सोचकर, अचानक खुश हो गयी आशी, बिल्कुल चिडिया के जैसी. अपनी सहेली से बोली, “तुझे पता है! मेरी चिड़िया के अंडे हैं ये! इनसे जब बच्चे निकलेंगे तो हम दोनों मिलकर उनसे खेलेंगे.”

Friday, October 1, 2010

राष्ट्रमंडल खेलों पर अब कुछ एस.एम.एस जोक्स


1. ख़ास ख़बरः सुरेश कालमाडी ने सीडब्ल्यूजी स्टेडियम की छत से लटक कर आत्महत्या करने की कोशिश की. छत गिर जाने के कारण उनकी कोशिश नाकामयाब!

2. सरकार ने थोक एस एम एस पर रोक लगा दी है. कारण अयोध्या विवाद पर कोर्ट का फ़ैसला नहीं, कालमाडी पर भेजे जा रहे एस एम एस जोक्स को रोकना है.

3. हमें इन खेलों के देशभक्ति के पक्ष को देखना चाहिए, जितने देश खेलों से पलायन करेंगे उतने हमारे जीतने की सम्भावना बढ जाएगी.

4. आतंकवादियों ने ख़राब सुरक्षा और डेंगू के कारण इन खेलों के दौरान आतंक फैलाने से मना कर दिया है.

5. प्रश्नः ज. ने. स्टेडियम में एक बल्ब बदलने में कितने मज़दूर लगे?
उत्तरः दस लाख. एक मज़दूर ने बल्ब बदला और 9,99,999 स्टेडियम की छत को पकड़ने के लिए लगे.

6. प्रश्नः एक परीक्षार्थी और सी.डब्ल्यू.जी. में क्या समानता है?
उत्तरः दोनों अंतिम समय में तैयारी शुरू करते हैं.

7. प्रिंस चार्ल्स चाहते हैं की महारानी डेंगू प्रभावित दिल्ली में खेलों के उद्घाटन करने अवश्य जाएँ, क्योंकि यह उनके महाराज बनने का अंतिम प्रयास होगा.

8. एक अंगरेज़ी कहावतः A collapse every day, keeps the athlete away.

9. एक अंगरेज़ी शिशु गीतः Ba ba Kalmadi, have you any shame.
No sir, No sir, its a Common Loot Game.
Crores for my partner, crores for the dame,
crores for me too, for spoiling India's name!

10. C W G : करप्शन वाला गेम

11. 100 मीटर की दौड़ वाले ट्रैक पर लगा बोर्डः कृपया आहिस्ता दौड़ें, कार्य प्रगति पर है.

12. आश्चर्यजनक किंतु सत्यः यदि आप इस वाक्य को पुनः सजाएँ SIR U MADE LAKHS, तो Suresh Kalmadi बनेगा.

13. दो देश ऐरिकामोनिआ और क्रेमेम्निया ने दिल्ली आने से इंकार कर दिया, तब पता चला कि इस नाम के देश भी इस पृथ्वी पर हैं.

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