Tuesday, February 22, 2011

छूकर मेरे मन को -प्रवेशांक

ब्लॉग जगत में और इसके इतर अंतरजाल पर भी हम बहुत कुछ पढ़ते रहते हैं, और अक्सर हमें ऐसा पढ़ने को मिलता है, जो दिल को छू जाता है या दिमाग़ को झकझोर जाता है। कई बार वह हमें हमारे दिल की बात कहता सा लगता है। ऐसे में ख्याल आया कि जो हमने पढ़ा और जिन आलेखों/कविताओं/कहानियों ने हमारे दिल को छुआ क्यों न उन्हें आपसे साझा किया जाये।

देखा जाये तो, ऐग्रिगेटर और चर्चाकार ब्लॉग जगत के दो ऐसे स्तम्भ हैं, जिनको कभी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता. ब्लॉग जगत की चहल पहल और गतिविधियों को एक साथ, एक जगह प्रस्तुत करना एक बड़ा ही दुरूह कार्य है। चर्चाकार वैसे भी कई बार विवादों के घेरे में बने रहे हैं और उन पर यह आरोप बड़ी आसानी से चस्पाँ कर दिया जाता है कि वे पक्षपात करते हैं। इस पृष्ठभूमि में हमारे लिये यह आवश्यक हो गया कि हम अपनी इस कड़ी के प्रस्तुतिकरण के पूर्व यह स्पष्ट कर दें कि हमारी ये श्रंखला “छूकर मेरे मन को” किसी प्रकार से चिट्ठा चर्चा नहीं है, बल्कि पिछले पखवाड़े में हमारी अंतरजाल पर की गयी घुमक्कड़ी के दौरान, जो कुछ इस मुए मन से बुरी तरह चिपक गया है, उसी को खंगालने का एक आयोजन भर है।

ब्लॉग जगत में किस तरह के ब्लॉग लिखे जा रहे हैं इस पर एक अप्रत्यक्ष रूप से कटाक्ष करती एक पोस्ट पढ़ने को मिली जिसका शीर्षक था “ऐग्रिगेटर”, और जिसे लिखा राहुल सिंह जी ने। इस विश्लेषण में इन्होंने सिर्फ 50 ब्लॉग्स को शामिल किये जाने की बात कही, जो कई मानदण्ड पर खरे उतरते हों, और ज़्यादातर लोगों ने कहा कि यह बहुत ही कठिन शर्तें हैं जिन्हें बहुत कम ब्लॉग ही पूरी कर सकते हैं. उनके आदर्श ब्लॉग में क्या न हो, इसका एक उदाहरण देखियेः

• कविता, खासकर प्रेम, पर्यावरण, इन्सानियत की नसीहत या उलाहना भरी, भ्रष्टाचार, नेता आदि वाली पोस्ट, जो लगे कि पहले पढ़ी हुई है।

• जिसका कहीं और दिखना संभव न हो ऐसे स्तिर वाला घनघोर 'दुर्लभ साहित्य'।

• मैं (और मेरी पोस्ट), मेरी पत्नी, मेरे आल-औलाद, मेरा वंश-खानदान आदि चर्चा या फोटो की भरमार वाली पोस्ट।

• अखबारी समाचारों वाली, श्रद्धांजलि, बधाई, शुभकामनाएं, रायशुमारी वाली पोस्ट।

• ब्लॉग, ब्लॉगिंग, ब्लॉगर, ब्लॉगर सम्मेलन, टिप्पणी पर केन्द्रित पोस्ट।

• लिंक से दी जा सकने वाली सामग्री-जानकारी वाली और पाठ्‌य पुस्तक या सामान्य ज्ञान की पुस्तक के पन्नों जैसी पोस्ट।

• नारी, दलित, शांति-सद्‌भाव-भाईचारा आदि विमर्शवादी और 'क्या जमाना आ गया', 'कितना बदल गया इंसान' टाइप पोस्ट।

ये मानदण्ड या शर्तें पूरी हों या न हों, लेकिन ब्लॉग जगत के लेखन पर एक पुनर्विचार के लिये आमंत्रित अवश्य करती हैं. हालाँकि बंधनों से लेखनी बाँधा तो नहीं जा सकता, हाँ पढ़ना, न पढ़ना हमारे बस में है, इसलिये हम क्या पढ़ें यह निर्णय तो हम ले ही सकते हैं.

ब्लॉग जगत को जब लोकतन्त्र का पाचवां खम्बा कहा जाता है तो उसका कारण, वह लेखन है जो व्यवस्था की अव्यवस्था को उजागर करता है, सच कहें तो हमारे चक्कर भी ऐसे स्थानों पर अक्सर अधिक लगते हैं, क्योकि हमें लगता है कि शुतुरमुर्ग़ की तरह आँखें बंद करने से सरोकारों से पीछा नहीं छूटता। भीतर का आक्रोश जब कविताएँ के स्वर ले ले तो बात फिर दिल को छू ही जाती है। ऐसी ही भावनाओं से दो चार हुये, कौशलेंद्र जी की बस्तर की अभिव्यक्ति पर लिखी बग़ावत कविता पढ़कर :

इन्होंने कविता की शुरुआत में बताया है कि कैसे हम एक इंसान को चुनते हैं और उसका भाषण सुनकर उसको मालाएँ पहनाते हैं. पर जैसे ही वह आम से ख़ास बनता है, वो भ्रष्ट हो जाता है. और अंतिम पंक्तियों में कही बात यह है कि :

घोटाले भी
यूँ ही होते रहेंगे
क्योंकि उन्हें इसका हक
हम आगे भी देते रहेंगे ......
और यूँ भी
हम कौन मिस्री हैं
ज़ो तीस सालों में ही
बगावत पर उतर आयेंगे?

सुदूर मिस्र में हुई जनक्रांति का आह्वान करती यह कविता, एक गहरी वेदना और नपुंसकता का बोध बरबस ही पैदा कर देती है। परंतु मृत होती संवेदनाओं पर इस पुकार का कोई असर नहीं होता। इंसानों का शहर या देश ही नहीं रहा यह.

रवींद्र कुमार शर्मा जी की फेसबुक पर मिलीं सम्वेदनाएँ छोटे छोटे अशार में दिखती हैं. कहीं व्यवस्था से नाराज़गी या कहीं कटते जंगलों की वेदना, एक बानगीः

जिन्हें सुबह से लेकर शाम तक पैसे बनाने हैं,
हमारे दौर के इंसान हैं या कारखाने हैं .
कहीं फिर पेड़ काटा है किसी ने,
तभी नन्हा परिंदा डर गया है.
हसीन रास्तों के बीच राह ढूँढ रहा हूँ,
मैं कातिलों के शहर में पनाह ढूँढ रहा हूँ.
वो उसके मरते ही वारिस को उसके ढूँढ रहे हैं,
मैं उस हजूम में पुरनम निगाह ढूँढ रहा हूँ.

क्या इसे ही कहा जाये कि सावन के अन्धे को सब हरा ही हरा नज़र आता है, पिछले पखवाड़े तीन ऐसी दिल को छू जाने वाली कहानियाँ पढ़ीं, जो तीन अलग अलग सन्दर्भों में थीं, परंतु तीनों को लिखा एक ही व्यक्ति ने था और वे हैं गिरजेश राव जी।गन्ने से सरसों तक सड़क पर बिकास की बास” इस कहानी में विकास की “इंडिया स्टोरी” और “हो रहा भारत निर्माण” के बिकास के विरोधभास का ऐसा जीवंत चित्रण है कि पढते पढते हलक ही सूख गया और आँखें भर आईं! दूसरी कहानी “लाल विश्वविधालय में नीली फिल्म’ एक करारा व्यंग है जिसे ब्रेकिंग न्यूज़ की परिधि से बाहर लाकर, देश की राजनीति और मीडिया मैनेजमैंट के लटकों झटकों के जरिये बड़ी आसानी से सुलझा दिया जाता है। और अंत में 14 फरवरी को मदनोत्सव मनाने का जो सुख तो हमें “गिरजेश राव जी” कि कहानी ‘शिलालेखों में अक्षर नहीं होते” में मिला, वो चिरस्मरणीय रहेगा। हमारी मानें तो, हर प्रेमी को इसे पढना, मस्ट है।

इसके बाद, 16 फरवरी को सभी टेलीविज़न चैनलों पर प्रधानमंत्री की कांफ्रेस छायी रही और एक सुपर पावर बनने की कोशिश करने वाले देश के प्रधानमंत्री की मजबूरी का सब अपने अपने तरीके से आकलन करते रहे। ऐसे में हमेशा की तरह सबसे रोचक रही मीडिया क्रुक्स की पोस्ट The PM’s Con-furtherance, जिसमें टेलीविज़न मीडिया के नामी और इनामी सम्पादकों द्वारा पूछें गये सवालों का आंकलन हुआ। टेलीविज़न मीडिया की समीक्षा करता हुआ मीडिया क्रुक्स इस मायने में एक बेहतरीन ब्लॉग है, जिसकी लत कम से कम हमें तो लग ही चुकी है। ज़ी टीवी के नामी पत्रकार पुण्य प्रसून बाजपेयी नें भी अपने ब्लॉग पर इस कान्फ्रेंस का पोस्टमार्टम अपने अन्दाज़ में किया। अंशुमाला जी में भी अच्छी क्लास ली प्रधानमंत्री की।

और चलते चलते एक ऐसा अनुभव जिससे शायद ही कोई बचा हो. रोज़मर्रा की ज़िंदगी में हम बहुत आसानी से किसी के नाम बदलकर उसको नया नाम दे देते हैं. कभी मज़ाक में, कभी चिढ़ाने के लिये या कभी कभी उसके स्वभाव या आदत के कारण. कुछ समय पहले तो ये नाम बड़े ज़ोर शोर से ख़बरों की सुर्ख़ियों में थे, हकला मतलब शाहरुख, टकला मतलब राकेश रोशन आदि. लेकिन ये नाम किसी के साथ इस क़दर चिपक जाए कि उसकी ज़िंदगी बरबाद कर दे, शायद कोई नहीं सोचता. ऐसे ही एक स्कूल मास्टर को बच्चे टोड कहकर बुलाते थे. और यह नाम पूरे स्कूल से निकलकर शहर में फैल गया और इसका अंजाम इतना भयानक हुआ होगा, यह तो उस स्टुडेण्ट ने भी नहीं सोचा था, जो बरसों बाद विलायत से उससे माफ़ी माँगने आया था. दो भागों में प्रस्तुत यह छोटी कहानी “टोडअनुराग शर्मा जी के ब्लॉग पर.

आप आनंद लें पूरी कहानी का और हमें दें इजाज़त. पखवाड़े की कुछ और पोस्ट लेकर हाज़िर होते हैं हम “छूकर मेरे मन को” की अगली कड़ी में.

31 comments:

  1. रचना दीक्षितFebruary 22, 2011 at 12:52 PM

    चर्चाकार और एग्रीगेटर के बाद अब एक नया टर्म देने को मन कर रहा है आप दोनो के लिए युग्म्कार. बहुत बढ़िया संकलन प्रस्तुत किया, शायद एक जगह मिलना मुश्किल है. कई बार समय का अभाव हमे सुंदर प्रस्तुतियों से रूबरू होने से महरूम कर देता है. बहुत बधाई और आभार.

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  2. ये सही है ...अब कुछ ख़ास पढने को मिलेगा कुछ पढ़ चुकी हूँ ..कुछ आराम से

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  3. अच्छी पहल की आपने, इनमे से कुछ पोस्ट तो पढ ली है जो नही पढी उनकी तैयारी है
    आभार

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  4. बहुत अच्‍छा संकलन हैं लेकिन एग्रीगेटर के न होने से कई पोस्‍ट छूट जाती हैं। ढेर सारे ब्‍लाग्‍स के फोलोवर बन गए हैं लेकिन फिर भी अनेक पोस्‍ट ऐसी है जो बहुत अच्‍छी होती हैं और वे छूट जाती हैं। आपके प्रयास से इन्‍हें पढने का अवसर मिलेगा।

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  5. आपसे सहमत हूँ ... अक्सर ही चर्चाकार कटघरे में खड़ा नज़र आता है ... पर इस में सरासर उसकी ही गलती है ... वैसे यह भी सच है कि हर बार हर किसी को खुश नहीं किया जा सकता !

    बेहद सार्थक प्रयास है आपका ... जारी रखें ... हार्दिक शुभकामनाएं !

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  6. ्सुन्दर अन्दाज़ मे अच्छा संकलन्।

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  7. बहुत ही बढ़िया प्रयास...ज्यादातर लिंक्स पढ़े हुए हैं...पर जो छूट गए...उन्हें भी पढ़ने की कोशिश होगी
    और सबसे अच्छी बात कि आप किसी चर्चा का दावा नहीं कर रहे....अपनी पसंद बता रहे हैं.

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  8. बहुत अच्छा संकलन ..सारे पढ़ लिए ...

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  9. शानदार है, पठन-भ्रमण कहूँगा!!

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  10. बहुत अच्छा प्रयास किया है चैतन्य भाई ! शायद आप जैसा ईमानदार व्यक्तित्व, ब्लॉग जगत में कार्यरत कुछ बेहतरीन लेखनियों के कुछ नए और अनछुए पहलू, दिखा सके ! मेरी शुभकामनायें !

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  11. Bahut rochak...! Agali kadee ka intezaar! Ab jo nahee padha hai,use padhna shuru kartee hun!

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  12. एक दो को छोड़ दूं तो ये हवा इधर से भी गुज़री है :)

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  13. बहुत अच्छा प्रयास है ये तो..काफी लिंक्स पढ़े हुए हैं इसमें से ..बाकियों पर भी अब नजर जायेगी.

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  14. बहुत नायब प्रयास है। रोचक रहने वाली है शृंखला। इंतज़ार रहेगा अगली कड़ियों का।
    इनमें से कोई भी पढी हुई नहीं थी। यहीं पढ लिया। वहां भी पढेंगे।

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  15. सलिल जी से बातचीत के दौरान एक बार मैंने कहा था आप लोग प्रयोगधर्मी है, अच्छा लगता है जब अपनी सोच को कन्फ़र्मेशन मिल जाती है:)
    उल्लेखनीय पोस्ट्स से रूबरू करवाने का एक नया अंदाज पसंद आया।
    चर्चाकार वाली बात पर अपना मत ये है कि जो कुछ करता है,उसीकी आलोचना की जाती है। ऐसी राय को तारीफ़ ही मानना चाहिये।

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  16. वाह पहले ही अंक में मेरी पोस्ट का जिक्र बड़ी ख़ुशी हो रही है, का कहू ज्यादा समझ नहीं आ रहा है बस आप दोनों का धन्यवाद | बाकि लिंक मे से एक दो पोस्ट पढ़ी है बाकि भी पढ़ डालते है |

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  18. प्रवेशांक ही जोरदार है-जे पर भनिति सुनत हरषाहीं ऐसे नर थोडेहू जग माहीं -
    आपकी गुणग्राहकता अनुकरणीय है !

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  19. ब्लॉग चर्चा का ये अंदाज मुझे अच्छा लगा वर्ना ज्यादातर चर्चाएँ तो किसी पोस्ट का लिंक देना भर ही होती हैं.



    नोट : मेरे उपरोक्त विचार आपके लेख को पढ़ कर ही उत्पन्न हुए हैं जिन्हें मैं "तेरा तुझको अर्पण" वाली तर्ज पर यहाँ टिपण्णी रूप में दर्ज कर रहा हूँ. इस टिपण्णी के पीछे कोई अन्य छिपा हुआ मंतव्य नहीं है. आप इसे उधार में दी गयी टिपण्णी समझ कर प्रतिउत्तर में मेरे ब्लॉग पर टिपण्णी करने के लिए बाध्य नहीं हैं.

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  20. सलिल भाई और चैतन्य जी ! साधुवाद !!!
    अभी-अभी एक ऊबड़-खाबड़ ...कंटीली झाड-झंखाड़ वाली गली में अनजाने ही घुस गया था ....ठोकर भी लगी ...कुछ कांटे भी लगे ........पर अच्छा हुआ ...अक्ल आ गयी. अभी मरहम पट्टी में लगा था कि यह आपका एकदम साफ़-सुथरा राजमार्ग दिखाई दे गया ........दौड़ के आ गया इधर ....उफ्फफ्फ्फ़ ! अब चैन आया .......मैं भी कहाँ-कहाँ चला जाता हूँ ...इतने सुन्दर राजमार्ग को छोडकर ......जिसके दोनों ओर हैं सुन्दर-सुगन्धित पुष्पों से आच्छादित वृक्ष और लताएँ ......घनी छाया. देखभाल और खाद पानी डालने के लिए दो-दो कुशल माली .....हिन्दी ब्लॉग जगत के साफ़-सुथरे महारथी............
    पर मुझे अपने ऊपर ही गुस्सा आ रहा है अब .....अभी तक क्यों नहीं आया इधर ....और सलिल भैया से भी शिकायत है कि मुझे नहीं सूझा तो क्या बता भी नहीं सकते थे कि नेट पर उन्होंने भी चंडीगढ़ के एक कारीगर को लाकर वहीं जैसा एक साफ़ -सुथरा राजमार्ग तैयार कर लिया है जिस पर बेधड़क शुभ यात्रा की जा सकती है. चलिए ...आपसे तो कदमकुआं में ही निपटूंगा. फिलहाल मेरी अनंत शुभकामनाएं ...इस अद्भुत राजमार्ग के लिए स्वीकार कर लीजिये जो आप दोनों ने बड़ी कुशलता से तैयार किया है....
    और आज के लिए एक काम - इस ब्लॉग पर आज काला टीका लगा दीजिएगा ...और मिर्चा भी उतार कर फेक दीजिएगा.

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  21. आपकी यह पोस्ट हमारे मन को भी छू गयी। जहाँ तक राहुल सिंह जी के मूल प्रश्न की बात है, मुझे लगता है (व्यक्तिगत धारणा, कोई गिनती नहीं) कि अच्छे ब्लॉगों के लिये 50 की संख्या काफी कम है, हिन्दी में ऐसे ब्लॉग सैकडों की संख्या में तो होंगे ही, मगर हमारी अपनी सीमायें (जैसे समय की कमी, ऐग्रीगेटर की कमी आदि) हैं जिनके कारण हम उनसे अपरिचित रह जाते हैं।

    [पिछली टिपण्णी में आदरणीय राहुल सिंह जी का नाम गलत लिख जाने के कारण यह टिपण्णी फिर से दे रहा हूँ]

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  22. अच्छा है यह अंदाज!

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  23. राहुल जी की ने बहुत पते की बात की है।

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  24. आपका प्रयास अच्छा है, सुन्दर संभावनाओं की स्वर लहरी की गूंज सुनाई दे रही है !
    प्रवेशांक प्रशंसनीय है !
    शुभकामनाएँ !

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  25. आपका प्रयास एवं मेहनत सराहनीय है , चुनिन्दा लेख पढने अब यहीं आया करुँगी ।

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  26. ये बहुत अच्छा पहल किया है आपने. आगामी अंकों की प्रतीक्षा रहेगी.

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  27. आपका प्रयास बहुत अच्छा है.

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  28. आपकी इस पोस्‍ट और उसमें मेरे पोस्‍ट का जिक्र पता लगा, धन्‍यवाद. स्‍वागतेय प्रस्‍तुति.

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  29. ....यह पोस्ट तो छूट ही रही थी!

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