पिछले साल जयपुर में किसी उत्सव में भाग लेने गुलज़ार साहब भी आए थे. वहाँ एक नज़्म सुनाई थी उन्होंने. चैतन्य जी ने वो नज़्म सुनी और उसके टुकड़े-टुकड़े भाव मुझे सुनाए. मुझे भी कुछ बिखरा-बिखरा सा ख्याल आया कि शायद ये नज़्म कहीं पढ़ी/सुनी है. नेट पर खोजा और अपनी आलमारी की सारी गुलज़ार साहब कि किताबें खंगाल डालीं. उनके “स्कूल ऑफ थॉट” के कुछ स्टुडेंट्स से भी दरयाफ्त की. मगर नतीजा सिफर का सिफर!
दो दिन पहले उनका नया मजमुआ “पन्द्रह पांच पचहत्तर” लेकर आया. पन्द्रह सेक्शन में पांच-पांच नज्मों का बेहतरीन संकलन. और उसी के बीच मिली “इमली..” चैतन्य भाई की दीवानगी को बढाते हुए आज सुबह वो नज़्म उनको पढकर सुनाई और अब ये खट्टी इमली आपकी नज़र.
कोसबाद के नुक्कड़ पर
इक मुस्टंडा पेड़ खडा है इमली का
उसका गुस्सा नहीं उतरता.
अदरख जैसी मोटी-मोटी गिरहें पड़ी हैं जोड़ों में
सारा दिन खुजलाता है, एक्जिमा है.
जिस मोड़ पे है, उस मोड़ पे जब बस रुकती है
जल्दी-जल्दी बीड़ी बुझाकर उसके बदन पर,
लोग बसों में चढ जाते हैं.
पान की पीक भी थूक दिया करते हैं उसपर
चक्कू से काटे हैं लोगों ने उसकी शाखों के डंठल
खड़े-खड़े बस यूं ही उस पर ढेले फेंका करते हैं
इसीलिये तो उसका गुस्सा नहीं उतरता!!
भूरे लाल मकोडों को
ज़िंदा ही निगल जाता है अक्सर
बाँह झटक कर नीचे फेंक दिया करता है
“अड्डी-टप्पा” खेलती गोल गिलहरी को
च्यूँटियाँ पाल रखी हैं उसने
टेक लगाए कोइ, या कोइ जूता झाड़े उसपर तो...
च्यूँटियाँ छोड़ दिया करता है!
उसका गुस्सा नहीं उतरता
कोसबाद के नुक्कड़ पर
इक मुस्टंडा पेड़ खडा है इमली का!!
- गुलज़ार
(पन्द्रह पांच पचहत्तर से)
बहुत अच्छी लगी यह नज़्म ...आभार गुलज़ार साहब की नज़्म पढवाने का .
ReplyDeleteगहन अर्थ...कहीं दूर तक ले जाती हुई नज्म ,खाके खींचते हुए खुद गुम सा हो गया हूं !
ReplyDeleteव्यंग्य युक्त अच्छी रचना। आभार।
ReplyDeleteकुछ दिनों के बाद, बाद क्या अभी से ...
ReplyDeleteहमारी भी यही हालत होने वाली है, बड़े भाई।
सुंदर प्रस्तुति ।
ReplyDeleteयह सिलसिला चलता रहे ...
ReplyDeleteइस नज़्म से परिचित कराने के लिये आभार।
ReplyDeleteअब गुलजार साहब जो भी लिख दें कविता बन जाती है !
ReplyDeleteBahut hee gahan arth hai is nazm ka!
ReplyDeleteअरे वाह, अच्छा लगी गुलजार साहब की यह नज्म।
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आज आपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है .....
ReplyDelete...आज के कुछ खास चिट्ठे ...आपकी नज़र .तेताला पर
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अप्रतिम रचना है ...शब्द और भाव अनूठे हैं
ReplyDeleteइतनी सारी ज्यादतियों के बाद गुस्सा तो आना ही चाहिये पर गुस्सा आता कहाँ दिखता है । खैर...प्रतीक तो गुलजार जी के अनूठे होते ही हैं ।
ReplyDeleteबेहतरीन, मुस्तण्डा पेड़ भी जीवन्त है।
ReplyDeleteगुलजार की ये नज्म पढ़ाने के लिए धन्यवाद बहुत अच्छी लगी |
ReplyDeletebahut-bahut dhanywad....gulzar sahab ki nazm hum tak lane ke liye.
ReplyDeletebariya
ReplyDeleteगुलज़ार साहब की नज़्म पढवाने के लिये आभार!
ReplyDeleteअरविंद मिंश्र जी की बात सही लगी! :)
ReplyDeleteइति!!
ReplyDeleteye iti kuch samjh nahee aaya...........
ReplyDeleteaur ha ise blog par koi post itne din ho gaye kyo nahee?
mai padtee rahtee hoo par star itna ucha hota hai ki comment dene layak apne ko nahee samjhatee......
Ab Gulzar jee kee rachana ke bare me kya pratikriya dee jaa saktee hai........vo bhee mere jaise angootha chap vyktitv se.....( sahity ko le )
गुलज़ार साहब की लाजवाब नज़्म पढवाने के लिए आभार
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