Tuesday, October 19, 2010

पीपली [लाइव] - दौलत डायन खाए जात हैं!

हमारी फ़िल्मी दुनिया को गुरुदत्त साहब ने कागज़ के फूल कहा था. और यह बात गलत तो कतई नहीं थी. यह वही दुनिया है, जहाँ एक ओर कुंदन लाल सहगल को सिर पर बिठाया गया और दुसरी तरफ उनकी ज़िंदगी अंगरेज़ी शराब की बोतल में कच्ची शराब पीकर ग़र्क हो गई. भारत भूषण, मीना कुमारी, गीता दत्त, नादिरा, परवीन बाबी और न जाने कितने ऐसे कलाकार जिन्हें लोगों ने पलकों पर उठाया और उनका अंत हुआ गुमनामी और शराब के अंधेरे में.

वो सच, वो भाईचारा, वो एकता और वो ख़ुलूस जो यह फिल्मी दुनिया हर मौक़ों पर दिखाती और जताती है, वास्तव में सिर्फ खोखलापन है. सचमुच कागज़ के फूल. ख़ूबसूरत बेइंतिहाँ, मगर ख़ुशबू नदारद. एक ऐसा ही फूल हमारे सामने पेश हुआ था कुछ महीने पहले. हमने उसकी चर्चा भी की, कई ब्लॉग्स पर उसके बारे में लिखा भी गया. अख़बारों ने तारीफ के पुल बाँध दिये. यह फूल था पीपली लाइव.

रविवार को इंडियन एक्स्प्रेस में इसकी निदेशिका और सह निर्देशक अनुषा रिज़वी और महमूद फ़ारूक़ी का इण्टरव्यू पढा और पढने के बाद मन ख़राब हो गया. एक बार फिर भारत छला गया इण्डिया के हाथों. हालाँकि इसमें कोई ताज्जुब की बात नहीं, लेकिन अफसोस तो होता ही है. फ़िल्म 36 चौरंगी लेन की मिसेज स्टोनहैम की पीड़ा आज महसूस हुई, ऐसा ही लगा होगा उन्हें जब वो बच्चे जिन्हें वो प्यार करने लगी थी, दरसल उनके प्यार का नाजायज़ फायदा उठाकर उनके घर को अपनी ऐशगाह बनाए बैठे थे.
                                                  महमूद फ़ारूक़ी और अनुषा रिज़वी

पीपली लाइव को सबने वास्तविकता से लबरेज़, मीडिया पर करारा व्यंग्य करती, गाँव की पीड़ा दर्शाती और वर्त्तमान भारत का एक दर्पण कहा. लेकिन ख़ुद इसके निदेशक दल का यह मानना है कि उन्होंने ख़ुद ही अपने आप को इस फ़िल्म से अलग कर लिया था. महमूद बताते हैं कि हम तो बिना किसी कॉन्ट्रैक्ट के फ़िल्म बनाने में जुट गये थे. हमारा मक़सद तो करोड़ रुपये कि कमाई नहीं था हम तो सीधी सादी दिल्ली युनिवर्सिटी की मानसिकता से निकले थे.

हालाँकि ख़ुद वो भी मानते हैं कि यह कोई अफसोस करने की बात नहीं है, क्योंकि एक पूँजीवादी फिल्मी दुनिया में इस तरह की बातें आम हैं. आमिर ख़ान पर पाँच एपिसोड की एक सीरीज़ बनाकर सारे समाचार मनोरंजन चैनेल में बाँट दी जाती है. वे सारे चैनेल बारी बारी से यह सब मुफ्त दिखाते रहते हैं. हमें उनके हाथ बंदर बनना मज़ूर नहीं था, लिहाजा हम अलग हो गए.

इनके अफसोस की वज़ह बहुत हद तक जायज़ भी है. ये कहते हैं कि इस फिल्म के लिये हमें अपनी तरफ से कई लोगों का आभार व्यक्त करना था,लेकिन हमें ऐसा करने से मना कर दिया गया और बताया गया कि किसको क्रेडिट देना है यह प्रोड्यूसर का ज़िम्मा है यानि आमिर ख़ान साहब का. और कई ऐसे लोग छूटे रह गए जिन्हें उनके सहयोग के लिये धन्यवाद देना चाहिये था.

फिल्म का गीत और एकमात्र गीत जिसने सफलता देखी वह था महंगाई डायन. यह गीत सीधा सीधा व्यवस्था पर करारा व्यंग्य था. बताते हैं कि जब उन्होंने कई स्थानीय लोकगीत सुने तो यह गीत इतना पसंद आया कि उन्होंने इसके लिए अलग से जगह बनाई फिल्म में. इस गीत का यह असर था कि देश के प्रमुख विरोधी दल ने इसे सरकार के विरुद्ध इस्तेमाल करने की इजाज़त माँगी जिसे आमीर ख़ान ने मना कर दिया.

और अब किसी अज्ञात कारणों से यह गीत फिल्म के एलबम से निकाल दिया गया है. उसकी जगह एक रीमिक्स गाना पाया जाता है. उस गाने से आत्मा गायब है, जो आपके दिलोदिमाग़ तक पहुँचती है. बात भी सही है सरकार से टक्कर लेना आसान काम नहीं है. इस गाने को सीडी से हटाने के पीछे कारण यह बताया गया कि यह गाना बेकार है और पब्लिक इससे बोर होगी.

बड़ी सोची समझी रणनीति के तहत इस फिल्म को ग्रामीण क्षेत्रों में रिलीज़ नहीं किया गया. व्यापार का गणित बिल्कुल सीधा और सरल है. गोरखपुर के एक थियेटर और दिल्ली के मल्टीप्लेक्स की उगाही के बीच बहुत बड़ा अर्थशास्त्र है. इसलिए एक फिल्म जिन लोगों की व्यथा को दर्शाती है, वह उन तक नहीं पहुँचती. पहुँचनी चाहिये भी नहीं, क्योंकि यह एक ऐसी समस्या है जिसपर अंगरेज़ी में विचार किया जाना चाहिये, पेप्सी के घूँट और पॉप कॉर्न के स्वाद के बीच वेरी सैड, पिटी, रियलिस्टिक जैसे शब्दों और अभिव्यक्तियों के साथ.

जब आमीर ख़ान किसी फिल्म में अभिनय करते हैं तो वह आमीर ख़ान की फिल्म होती है, जब निर्देशन करते हैं तब भी वो आमीर ख़ान की फिल्म होती है और जब उन्होंने प्रोड्यूस की तब भी फिल्म उन्हीं की रहने वाली थी. और अब तो यह फिल्म ऑस्कर के लिये नामित हो चुकी है, लिहाज़ा अगर इसे ऑस्कर मिल भी जाता है तो यह आमीर ख़ान की फिल्म ही कही जाएगी.

आज एक बहुत पुरानी बात याद आ गई जिसे लोगों ने सत्यजीत राय जैसे महान फ़िल्मकार के साथ चिपका रखा है कि उन्होंने पॉथेर पांचाली के माध्यम से भारतवर्ष की ग़रीबी को विदेशों में भुनाया और शोहरत पाई. आज वह आलोचक वर्ग कहाँ है जो अनुषा और महमूद की इस बात को ख़ुद उनकी ज़ुबानी सुनकर आमीर ख़ान के लिये भी वही कहने को तैयार है?

पुनश्चः इण्डियन एक्स्प्रेस ने यह ख़बर दी है कि ऑस्कर में पीपली (लाइव) की आधिकारिक प्रविष्टि से निदेशक जोड़ी ने ख़ुद को बाहर कर लिया है. आमीर ख़ान से इस बारे में पूछे जाने पर उन्होंने किसी भी प्रतिक्रिया से मना कर दिया.

27 comments:

  1. 6/10

    पठनीय पोस्ट
    कैमरे की लाईट के पीछे का अँधेरा दिखाता /
    कई विद्रूपताओं को उजागर करता बढ़िया लेख

    ReplyDelete
  2. परदे के पीछे का सच बताता बढ़िया रोचक आलेख ....

    ReplyDelete
  3. बाकी सबका तो पता नहीं। हां, जब मैंने फिल्‍म देखी तो एक बात जरूर अखरी थी कि डायन खाए जात है गाना पूरा नहीं था उसमें। तब लगा कि थियेटर वालों ने कुछ कांट छांट कर दी होगी।

    अनुषा भले ही अपने को फिल्‍म से अलग कर लें,पर फिल्‍म नाम से तो उनके ही जानी जाएगी।

    ReplyDelete
  4. भारतीय रचनात्मकता का यह घिनौना नग्न सत्य-धिक्कार है!
    परदे के पीछे की बाजारू शक्तियां -शेम शेम

    ReplyDelete
  5. हाँ पेपर में निकला था ये सब और आपने परदे के पीछे के सच का विश्लेषण बहुत जबरदस्त किया है

    ReplyDelete
  6. jyada kuch kahne ki sthiti me nahi hun ..par bahut dukh hua is film ka yah sach jankar....

    ReplyDelete
  7. अपने एक अलग अंदाज के कारण आमिर खान मेरे पसंदीदा हीरो रहे हैं पर जब उन्होंने अपनी पहली पत्नी को छोड़ कर दूसरी शादी कि तब से मुझे वो एक आम अभिनेता से ज्यादा कुछ नहीं लगते . उनका व्यव्हार फिल्म जगत से जुड़े एक आम आदमी सा व्यवहार है जिससे मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ. महमूद और अनुषा के लिए ये एक शानदार शुरुवात है जो उनके लिए बहुत से मनचाहा कार्य करने के अवसर लाएगी.

    ReplyDelete
  8. क्या नया है ? कुछ ही तो नहीं.

    ReplyDelete
  9. परदे के पीछे भी एक पीपली लाइव है।

    ReplyDelete
  10. अभी तक फ़िल्म नहीं देखी।
    पर अब तो नहीं ही देखूंगा।
    आमीर के लटके झटके ... उफ़्फ़ !

    ReplyDelete
  11. ओह ! ये एक नयी बात पता चली.

    ReplyDelete
  12. विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया गया है.
    - विजय

    ReplyDelete
  13. व्यवसायीकरण के इस दौर में काबिलियत और सच्चाई की कीमत क्या है.... ? अफ़सोस हुआ जानकर...

    ReplyDelete
  14. बेहद अफ़सोस हुआ ये सब पढ़कर ! अपनी प्रतिक्रिया केवल एक शब्द...

    'निंदनीय'

    ReplyDelete
  15. उड़ जा उड़ जा प्यासे पंछी...
    नादान तमन्ना रेती में उम्मीद की कश्ती खेती है
    इक हाथ से देती है दुनिया दो हाथों से ले लेती है
    ये खेल है कब से जारी
    बिछड़े सभी बारी बारी

    @ बड़ी सोची समझी रणनीति के तहत इस फिल्म को ग्रामीण क्षेत्रों में रिलीज़ नहीं किया गया. व्यापार का गणित बिल्कुल सीधा और सरल है. गोरखपुर के एक थियेटर और दिल्ली के मल्टीप्लेक्स की उगाही के बीच बहुत बड़ा अर्थशास्त्र है. इसलिए एक फिल्म जिन लोगों की व्यथा को दर्शाती है, वह उन तक नहीं पहुँचती. पहुँचनी चाहिये भी नहीं, क्योंकि यह एक ऐसी समस्या है जिसपर अंगरेज़ी में विचार किया जाना चाहिये, पेप्सी के घूँट और पॉप कॉर्न के स्वाद के बीच वेरी सैड, पिटी, रियलिस्टिक जैसे शब्दों और अभिव्यक्तियों के साथ.

    खरी बात

    ReplyDelete
  16. @ डॉ. मोनिका शर्मा said...
    अफ़सोस हुआ जानकर...

    @ali said...
    केवल एक शब्द...
    'निंदनीय'

    @गिरिजेश राव said...
    खरी बात

    @ ZEAL said...

    smiles.

    ब्लॉगजगत के रंगमंच पर हर तरह के रंग है....... एक विचारपूर्ण लेख पर रंग बिरंगी टिपण्णी है.

    भारत में ये कोई नई बात नहीं है. यहाँ सदियों से (एकलव्य के अंगूठे से लेकर) यही होता आया है ... और यही होगा. आज के कलाकार या फिर खिलाड़ी अपने कला या फिर खेल के साथ साथ कोई नया व्यवसाय शुरू करते है.. तो ये दुःख नहीं होता की ये पूंजी के प्रवाह में शामिल हो रहे है...... अपितु कुछ सकूं सा होता है कि चलो बुदापे का इंतज़ाम तो कर रहे है.

    ReplyDelete
  17. विचार शून्य पाण्डे जी के बात से सहमत हैं हम भी..लगभग हमरे मन में भी ओही फीलिंग है.. अऊर सिखा वार्ष्णेय जी का बात तो गिरह लगा देता है...

    ReplyDelete
  18. all that glitters....

    आमिर खान हमारे भी फ़ेवरेट कलाकार हैं, लेकिन जब हम रुपहले पर्दे के आधार पर किसी के व्यक्तित्व के बारे में ऐसी छवि बना लेते हैं, तो प्राय: अंत में धक्का ही लगता है। रेफ़रेंस - फ़िल्म ’गुड्डी’।

    सच कहूँ तो यह बात पता चलने से कोई आश्चर्य नहीं हुआ। चमकती तस्वीरों के पीछे मकड़ी के जाले होने की पूरी संभावना रहती ही है।
    आपने यह पक्ष प्रकट करके सार्थक काम किया है।

    ReplyDelete
  19. बेहद दुखद है ....पर क्या करें अब तो आदत सी होती जा रही है इन सब बातों की सो ज्यादा अफ़सोस नहीं होता है !
    हर जगह आपको ऐसा कुछ ना कुछ मिलेगा .....!

    ReplyDelete
  20. ..गोरखपुर के एक थियेटर और दिल्ली के मल्टीप्लेक्स की उगाही के बीच बहुत बड़ा अर्थशास्त्र है. इसलिए एक फिल्म जिन लोगों की व्यथा को दर्शाती है, वह उन तक नहीं पहुँचती. ...

    ...यह एक कटु सत्य है और इसे जितनी जल्दी स्वीकार कर लिया जाय उतनी पीड़ा कम होगी। फिल्म ही क्यों ...कविता, कहानी, लेख..सभी तो जिनके लिए लिखे जाते हैं वहाँ तक नहीं पहुंचते..गलती से पहुंच गए तो हटा दिए जाते हैं..महंगाई डायन...

    ..अच्छा आलेख.

    ReplyDelete
  21. blog jagat ke lekhan aur tippani programme swe kabhi kabhi dil uth jata hai ... shukra hai ki aap jaise lkhak- pathak maujud hain ..warna main to bhaag hee jata .... aise hee kuch purani post padh raha tha yahaan ... to socha upasthiti panijka me apna ego :) bana dun ... :)

    ReplyDelete
  22. आज एक बहुत पुरानी बात याद आ गई जिसे लोगों ने सत्यजीत राय जैसे महान फ़िल्मकार के साथ चिपका रखा है कि उन्होंने पॉथेर पांचाली के माध्यम से भारतवर्ष की ग़रीबी को विदेशों में भुनाया और शोहरत पाई. आज वह आलोचक वर्ग कहाँ है जो अनुषा और महमूद की इस बात को ख़ुद उनकी ज़ुबानी सुनकर आमीर ख़ान के लिये भी वही कहने को तैयार है?

    शुरुआत से अंत तक एक बंधा हुआ आलेख ...कहीं कोई शब्द न ज्यादा और न कम ... इसे कहतें हैं चिंतन और सोच से उपजा सम्यक लेखन । बधाई !!! इस पैन्नी नजर को ।

    ReplyDelete
  23. ये ग्लेमर की दुनिया का सच है ... आमिर ख़ान भी इससे जुदा नही हैं ...
    जिस हिसाब से सिनेमा और राजनमीति चल रही है ..... भविष्य में आमीर ख़ान, शाहरुख ख़ान कांग्रेस में जाने वाले हैं

    ReplyDelete