Thursday, December 2, 2010

ईमानदारी की मार्केटिंग, प्रधान-मंत्री और नमक का दारोगा

बहुत समय पहले, हमें एक धर्म गुरु की प्रवचन सभा में जाने का अवसर मिला, तो बैठ गये हम उन्हें सुनने। दया धर्म, लोभ और मोह आदि की बातों के बीच वह धर्म गुरु बार बार एक बात पर ज़ोर दे रहे थे कि धर्म और आध्यात्म में लीन होने से पूर्व वह एक बड़े सरकारी पद पर थे, जहाँ उन्हें लाखों रुपये रिश्वत में रोज़ पेश किये जाते थे. पर मजाल है कि उन्होनें किसी से कभी उसे हाथ भी लगाया हो! वह आगे कहते कि यदि उन्होंने वह पैसे लिये होते तो आज वह करोड़ों रुपये के मालिक होते। प्रवचन सुनने वालों में अधिकांशतः व्यापारी वर्ग और सरकारी तंत्र से जुड़े अधिकारी लोग थे, जो विस्मित आखों से इन खुलासों को सुनते और ज़ोर ज़ोर से ताली बजाते।

प्रवचन के बाद हम दोनों देर तक इस बात पर चर्चा करते रहे कि क्या यह ईमानदारी की मार्केटिंग नहीं है? एक रिश्वतखोर अधिकारी और बेईमान व्यापारी पैसा लेकर आखिर क्या चाहता है? वो सारी सुख सुविधायें जो इन्हें समाज में सम्मान दिला सकें। आज जब समाज के बदले मूल्यों में आर्थिक सम्पन्नता ही सर्वोपरि हो गयी है, तो यह सामाजिक सम्मान और मह्त्वपूर्ण हो जाता है। हमारी बातचीत इसी विन्दु पर केन्द्रित हो गयी कि निश्चय ही यदि सामाजिक प्रतिष्ठा इसका एकमात्र कारण नहीं तो एक प्रमुख कारण तो है ही।

फिर इसके दूसरे पहलू पर जब विचार किया तो हमें लगा कि इस ईमानदारी की मरिचिका के पीछे भी तो वही सामाजिक प्रतिष्ठा हासिल करना ही मुख्य उद्देश्य है? वर्ना क्या कारण है कि उन धर्मगुरु को भी अपनी ईमानदारी का बार स्मरण करना पड़ रहा है?

इन दिनों देश में घोटालों का बाजार गर्म है, जिन्हें लेकर सरकार परेशान दिखायी दे रही है। बात बात पर यह बताया जा रहा है कि प्रधानमंत्री बहुत ईमानदार व्यक्ति हैं. प्रधानमंत्री बहुत ही ईमानदार व्यक्ति हैं, ऐसा प्रतीत होता भी है. परंतु, 120 करोड़ लोगों के देश में, राज्यसभा से चुन कर आये एक नेता की व्यक्तिगत ईमानदारी का कोई क्या करे, जब इतिहास के रिकार्ड तोड़ घोटाले सब ओर मुँह बाए खड़े हैं। उस पर तुर्रा ये, कि समाधान के नाम पर वही ईमानदार प्रधानमंत्री तमाम विरोधों के बाद केन्द्रीय सतर्कता आयुक्त एक ऐसे व्यक्ति को बना दे, जो खुद एक घोटाले का आरोपी हो।

आज मुंशी प्रेमचन्द की एक कहानी 'नमक का दारोगा' बेहद याद आयी। भ्रष्टाचार के दलदल में आकण्ठ डूबे तंत्र में मुंशी वंशीधर एक पात्र है, जो दबाब के आगे नहीं झुकता और भ्रष्टाचारियों को न्याय के समक्ष प्रस्तुत करता है। लेकिन अदालत उसे ही सजा देती है और उसकी दरोगा की पट्टी उतार लेती है। पर वह निराश नहीं होता। घर आता है तो बाप की गालियाँ खाता है। फ़िर आता है वह भ्रष्टाचारी जिसे अदालत ने निर्दोष करार दिया था। बाप उस से अपने बेटे की गलती की माफ़ी मांगने लगता है। पर यहाँ तो चमत्कार होता है, वह धनी व्यक्ति उनके बेटे को अपने व्यापार को सँभालने का न्योता देता है. पिता भौँचक रह जाते हैं, पर बेटा मना कर देता है. कहता है मैं भ्रष्टाचार का व्यापार नहीं करता। वह धनी व्यक्ति कहता है, मुझे तुम जैसे ईमानदार इंसान की जरूरत है, तुम जैसे चाहो मेरा व्यापार चलाना।

उस भ्रष्टाचारी अलोपीदीन का यह ऑफर पाकर मुंशी वंशीधर की जो हालत हुई उसे प्रेमचंद ने यों व्यक्त किया है कि वंशीधर की ऑंखें डबडबा आईं। हृदय के संकुचित पात्र में इतना एहसान न समा सका। एक बार फिर पंडितजी की ओर भक्ति और श्रध्दा की दृष्टि से देखा और काँपते हुए हाथ से मैनेजरी के कागज पर हस्ताक्षर कर दिए।

47 comments:

  1. sach much shayad manmohan singh jee ke sath bhi vanshidhar wala kissa ho gaya hai ... aur haan aaj hee mere ek mitra "mukul" kee ek kavita padhi..rukiye le aata hun link

    http://mukulmohamad.blogspot.com/

    han ye raha ..is par arthi ke vyapar ke bare men baat ho rahi hai ...bazaarwad kahaan nahi apne paanv faila raha hai ...

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  2. सवेदना के सम्मिलित स्वर ...

    एक ईमानदार सरदार जब बेईमान गिरोह की सरदारी मात्र अपनी 'सरदारी' बचाने के लिए करता है तो 'ईमानदार' शब्द एहसान तले दब जाते हैं और श्रधा और भक्ति एक ही परिवार में ही निहित हो जाती है.

    किंतु पक्षपात और न्याय का क्या मेल? जहाँ पक्षपात हो, वहाँ न्याय की कल्पना नहीं की जा सकती।

    बरसों पहले जब प्रेमचंद ये कहानी लिखी होगी तो शायाद उन्हें मालूम ही न होगा की आने वाले समय में पक्षपात और न्याय का ही मेल होगा.

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  3. ईमानदारी एक स्वभावगत बात है, इसमें कोई अपेक्षा नहीं है। फिर ईमानदारी मात्र रिश्वतखोरी के सन्दर्भ में ही नहीं है, जीवन के हर आयाम में फैली है, स्वम के साथ शुरु होकर अस्त्तिव के विस्तार तक...

    प्रधानमंत्री को क्या कहा जाये? वो इस पद को भी नौकरी माने बैठे हैं?

    नमक का दरोगा तो सचमुच आज के सन्दर्भ में लिखी कहानी ही लगती है। तो क्या पिछले लगभग एक दशक में भी कुछ नहीं बदला क्या?

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  4. "मुझे तुम जैसे ईमानदार इंसान की जरूरत है, तुम जैसे चाहो मेरा व्यापार चलाना।"

    ईमानदार प्रधानमंत्री को यही निर्देश मिले लगते हैं।
    जय, जय, जय, जय हो।

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  5. :)सुन्दर व्यंग..

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  6. सलिल जी आज ईमानदारी पर बहस व्यर्थ सा लगता है जानते हुए भी अधिकांश लोग इमानदार रहना चाहते हुए भी नहीं रह पाते हैं.. क्योंकि अपने सिस्टम में ईमानदार रहना क्रन्तिकारी होने जैसा है.. ... जैसे अपने पी एम वास्तव में ईमानदार होंगे लेकिन रह कहाँ पाए... भ्रस्ताचार में लिप्त सरकार का नेतृत्व तो कर ही रहे हैं...

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  7. @ स्वप्निल कुमार "आतिश"

    मुकुल जी की कवितायें पढी,उनका व्यंग तीखा है और कवितायें भी अच्छी लगीं।

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  8. @ दीपक डुडेजा जी
    @ नवीन जी
    @ imemyself

    जो आपने कहा उन्हीं कारणॉं से हमें लगा कि ईमानदारी की भी मार्केटिंग की जा रही है जबकि वह तो इस देश की जनता को महसूस होनी चाहिये।

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  9. सब चाहते हैं कि उनके अधीनस्थ लोग ईमानदार रहें।

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  10. @ अरुण चन्द्र राय जी

    अधिकांश लोग इमानदार रहना चाहते हुए भी नहीं रह पाते हैं.. क्योंकि अपने सिस्टम में ईमानदार रहना क्रन्तिकारी होने जैसा है.. ...

    आपकी बेबाक टिप्पणी नें "विवशता का दंश" और बढ़ा दिया है।

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  11. @ प्रवीण पाण्डेय जी
    "सब चाहते हैं कि उनके अधीनस्थ लोग ईमानदार रहें।"

    यह बात "उनके" उच्च्स्थ के सन्दर्भ में ली जाये या अधीनस्थ के?

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  12. गुरु प्रवचन का यह कथन “यदि उन्होने यह पैसे लिये होते तो आज करोडों रुपये के मालिक होते”

    धन के महत्व को रेखांकित कर जाता है। अप्रत्यक्ष ही सही गुरु में धन पिपासा शेष हैं। अतः यह इमानदारी का मार्केटिंग ही है।

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  13. खुद बेईमान भले ही न हों न रिश्वत लेते हों..पर बेईमानों का साथ देना भी बेईमानी ही है.

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  14. आज के दौर में इमानदारी की पूछ कहाँ ?

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  15. bade pyaar se sehla-sehla kar vayangya kiya hai....

    kunwar ji,

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  16. मेरे पूर्व के कमेंट में दशक को शताब्दी पढा जाये।

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  17. @सोनल रस्तोगी जी
    @कुवंर जी
    @ नवीन जी

    :) समझ गये आपके ईशारे!

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  18. @सुज्ञ जी
    अन्दर की यात्रा में लगे व्यक्ति का : स्थूल अहंकार कब सूक्ष्म अहंकार बन जाता है, पता ही नहीं चल पाता!
    बाहर की यात्रा में लगे व्यक्ति कब :अपनी ईमानदारी की मार्केटिंग करने लगते हैं,पता ही नहीं चल पाता!

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  19. @zeal ji
    बाजारवाद की इस रेलमपेल में, "ईमानदारी की मार्केटिंग" होती रहे बस काफी है, बाकी ईमान का तो यह है कि,

    मुझसे मेरा ईमान मत पूछ मुन्नी
    शिया के साथ शिया, सुन्नी के साथ सुन्नी।

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  20. naa jane kitneemarketing ka zamana hai to fir sadhu swamy mahant peeche kyo rahe.........

    namak ke daroga kahanee ke sandarbh matr se na jane kitnee bachapan kee yade jeevant ho aaee.

    naitikata kee bali shasan karne ke loulup ne le lee hai....isee se ye haal hai........

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  21. मेरे प्रिय लेखक जेम्स हेडली चेज़ के एक उपन्यास का शीर्षक है There is always a price tag..इंसान भी इस प्राइस टैग से अछूता नहीं है.. कितने लोग तो इसलिए ईमानदार हैं कि उनको सही प्राइस नहीं ऑफर की गई उनकी..

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  22. आज के समय मे आदमी इमानदार होना भी चाहे तो लोग रहने नही देते,
    सरदार जी के केस मे
    “बकरे की माँ कब तक खैर मनायेगी“

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  23. खुद बेईमान भले ही न हों न रिश्वत लेते हों..पर बेईमानों का साथ देना भी बेईमानी ही है.

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  24. चैतन्य जी,
    अपनी तो वही ’अपने ढफ़ली अपना राग।’
    कायदे से ईमानदार और ईमानदारी कागजों में ही पसंद किये जाते हैं। धीरे धीरे बेईमानी ने हमारे जीवन में इतनी पैठ बना ली है कि ईमानदार होना एक अपवाद लगता है। लेकिन ईमानदारी की मार्केटिंग और भी हास्यास्पद है। भगवती चरण वर्मा की के उपन्यास ’सबहिं नचावत राम गोंसाईं’ के शुरुआती प्रसंग में बाबा अपने नवजात पोते को झुलाते हुये लोरी गाते हैं, "मेरा तो कमती तोलेगा, मेरा तो डांडी मारेगा" आज शायद शिशु मां के पेट में ही यह खुराक पा चुका होता है।
    भ्रष्टाचार को स्वीकृति मिल चुकी है, एक पूर्व प्रधानमंत्री का कथन याद कीजिये, "Corruption is an international phenomenon." आपकी तूती बज रही है{कहना चाहता था, ’एक आप हैं कि नक्कारखाने में तूती बजा रहे हैं’ फ़िर सोचा हम भी थोड़ी सी मार्केंटिंग कर देखें:)}

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  25. मुझे तो चला बिहारी की प्रतिक्रिया ही ठीक लग रही है ...
    शुभकामनायें !

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  26. बहुत बार ये वाक्य सुना है कि कलयुग में हर चीज बिकाऊ होती है पर इसके साथ साथ ये बात भी सच है कि कलयुग में हर चीज को बेचने का जुगाड़ किया जाता हैं चाहे वो हमारी ईमानदारी हो, हमारे कर्तव्य हों या फिर हमारे उसूल हम सभी कि मार्केटिंग कर ज्यादा से ज्यादा फायदा उठा लेना चाहते हैं.

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  27. जैसे सत्य की ही अंत में विजय होती है वैसे ही ईमानदारी की भी।

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  28. में आई कम इन सर ?
    दुबारा हाज़िर हूँ आपकी क्लास में चैतन्य सर !
    हाजिरी ले ली हो तो अर्ज है
    इच्छाएं योगियों की भी उतनी ही हैं जितनी हम भोगियों की , हाँ स्वरुप बदल जाता है ! उन्हें पैसे नहीं चेले चाहिए जो गुरु में श्रद्धा रखें और गुरु को अकेला न छोड़ें और चेले धनवान और समर्थ होने ही चाहिए ! जहाँ यह संगम हुआ तो श्रद्धालु चेला हीरे जडित टोपी और गुरु के लिए रथ देता है तो

    हानि बता जग तेरी क्या है
    मुफ्त मुझे बदनाम न कर ,
    मेरे टूटे दिल का है बस
    एक खिलौना मधुशाला ,

    बिना पिये जो मधुशाला को
    बुरा कहे, वह मतवाला,
    पी लेने पर तो उसके मुह
    पर पड़ जाएगा ताला,
    दास द्रोहियों दोनों में है
    जीत सुरा की, प्याले की,
    विश्वविजयिनी बनकर जग में आई मेरी मधुशाला।

    मध्यम वर्गीय लोग,(गरीबों को तो गाली देने का समय ही नहीं है ) घोटालों को गाली देते रहते हैं जब तक उन्हें एक घोटाले का चांस नहीं मिल जाता ...!
    :-)

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  29. ईमानदारी के वगैर ये जीवन निरर्थक है ये अलग बात है की इन भ्रष्ट मंत्रियों और कुकर्मी उद्योगपतियों को तब समझ में आएगा जब ये कितने इंसानों की बलि लेकर खुद की बलि के कगार पर होंगे.....

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  30. @अपनत्व दी
    बचपन में पढी "नमक का दारोगा" कहानी आज यथार्त की तरह इस तरह दिखेगी किसने सोचा था?

    @देवेन्द्र पांडेय जी
    मित्र बहुत समय बाद आगमन हुआ आपका? सब कुशल मंगल!

    @दीपक सैनी जी
    @ठाकुर इस्लाम विनय जी
    @मनोज जी

    मनोज जी की बात बहुत आस बन्धाती है "जैसे सत्य की ही अंत में विजय होती है वैसे ही ईमानदारी की भी।"

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  31. @ मो सम कौन?

    "एक पत्थर" तबीयत से उछालने की तबीयत कम्बख्त जाती ही नहीं, हम दोनों की!

    आसमान में सुराख का ईरादा तो आपका भी है भाईजान! और फिर तूती बजाने वाले तो आप सहित और भी हैं। इस पोस्ट के टिप्पणीकर्ता ही देख लीजिये।

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  32. @ विचार शून्य जी
    बाजारवाद की इस रेलमपेल में हर चीज बाजारु बनती जा रही है।

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  33. @ सतीश सक्सेना जी

    में आई कम इन सर ?
    सर जी! इस ब्लोग पर आने और लिखने के लिये किसी अनुमति की आवश्यकता नहीं है।
    माडरेटर तक नहीं!
    दुबारा हाज़िर हूँ आपकी क्लास में चैतन्य सर!
    शायद आप गलत क्लास में घुस आए! यहा दो दो सर हैं, चैतन्य और सलिल सर! पुनरागमन पर भी प्रतिबंध नहीं!
    हाजिरी ले ली हो तो अर्ज है
    इरशाद!!

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  34. @ सतीश सक्सेना जी

    इच्छाएं योगियों की भी उतनी ही हैं जितनी हम भोगियों की , हाँ स्वरुप बदल जाता है ! उन्हें पैसे नहीं चेले चाहिए जो गुरु में श्रद्धा रखें और गुरु को अकेला न छोड़ें और चेले धनवान और समर्थ होने ही चाहिए ! जहाँ यह संगम हुआ तो श्रद्धालु चेला हीरे जडित टोपी और गुरु के लिए रथ देता है तो
    “भोगी और योगी की इच्छाओं” की तात्विक मीमांसा तो एक प्रत्युत्तर टिप्पणी में नहीं की जा सकती है इस सीमा को आप भी समझते होंगें। हाँ, इतना जरूर कहेंगे कि “सच्चे भोगी” और “सच्चे योगी” को इस प्रकार के द्वैत के धरातल पर तो नहीं ही समझा जा सकता। वैज्ञानिक बुद्दि वाले आइंस्टीन की भाषा में कहें तो you cannot solve problems by using the kind of thinking that produced the problem in first place.

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  35. ....
    देखा जाये तो: इच्छाएँ, योगी, भोगी, पैसे. श्रद्धा, धनवान, समर्थ, हीरे, टोपी, रथ... और घोटाला, बयान, देशप्रेम, भाईचारा, हज़ारों से लाखों करोड़, ईमानदारी, दुकानदारी, वर्ल्ड क्लास सिटी, इंजीनियरिंग का नमूना... यह भी एक द्वैत है।

    “पोस्ट के सन्दर्भ में ही बात करे” तो नवीन जी की टिप्पणी हमारी बात को शायद और बेहतर कहती है कि : ईमानदारी एक स्वभावगत बात है, इसमें कोई अपेक्षा नहीं है। फिर ईमानदारी मात्र रिश्वतखोरी के सन्दर्भ में ही नहीं है, जीवन के हर आयाम में फैली है, स्वम के साथ शुरु होकर अस्त्तिव के विस्तार तक...

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  36. बहुत सार्थक बात कही है ...

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  37. @ सतीश सक्सेना जी

    हानि बता जग तेरी क्या है
    मुफ्त मुझे बदनाम न कर ,
    मेरे टूटे दिल का है बस
    एक खिलौना मधुशाला ,


    जब हानि कोई नहीं तो फिर टूटा दिल किसलिए, क्या अवसाद रह गया? यदि टूटे दिल का खिलोना है मधुशाला तो इसे शराबखाना कहना ठीक होगा?
    बिना पिये जो मधुशाला को
    बुरा कहे, वह मतवाला,
    पी लेने पर तो उसके मुह
    पर पड़ जाएगा ताला,
    दास द्रोहियों दोनों में है
    जीत सुरा की, प्याले की,
    विश्वविजयिनी बनकर जग में आई मेरी मधुशाला।


    बच्चन जी जिन प्रतीक को कह रहें हैं उन्हे शायद ठीक से समझा ही नहीं गया। जीवन का एक आत्यांतिक रस भी है, जिसे पीकर मीरा दीवानी हुयी, कबीर बौरा गये! (इसे पहले भी हमने राम खुमारी कहा था, जिसे समझा नहीं गया था!)

    अब इस राम-खुमारी को यदि बार बार, विजय मल्ल्या की कम्पनी की बोतलों में या सड़े अंगूर के पानी से तोला जायेगा तो फिर क्यों न हम किसी और विषय पर मगजमारी करें?

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  38. @ सतीश सक्सेना जी

    मध्यम वर्गीय लोग,(गरीबों को तो गाली देने का समय ही नहीं है ) घोटालों को गाली देते रहते हैं जब तक उन्हें एक घोटाले का चांस नहीं मिल जाता ...!
    :-)


    चांस तो बिखरे पड़े हैं सड़कों पर और रेत के ढ़ेर में जिनके अंदर ग़ुलामी की चादर ओढ़े न जाने कौन हैं वो जो “लोंग लिव द किंग” का गान करते मस्त हैं, पस्त हैं और व्यस्त हैं। इसमें आश्चर्य भी नहीं कि कुल्हाड़ी में अगर लकड़ी का दस्ता न होता, तो लकड़ी के कटने का रस्ता न होता.

    यह एक नया शगल शुरु हुआ है, मध्यमवर्ग को दोगला कहने का, और वह भी स्वंम मध्यमवर्ग के भीतर के ही एक वर्ग द्वारा। देखा जाये तो यह “दुविधाग्रस्त” मध्यमवर्ग ही है जो प्रत्येक सामाजिक परिवर्तन का कारण बनता है। क्योकि चिंतन की थीसिस और एंटी-थीसिस दोनों की पीड़ा से यही वर्ग गुजरता है, इसे अंतिम सत्य नहीं पता, इसे कहीं पहुंचना है, रास्तों पर सशय हो सकता है परंतु इसकी जिजीविषा पर नहीं।

    हमें गर्व है कि हम मध्यमवर्ग है। और आपको?

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  39. संवेदना के स्वर बंधुओ ,

    नातेदारियों में उलझा रहा , पहुँचने में बला की देरी हुई , भाईयों ने टीप टीप के लाल कर दी पोस्ट :)

    आज हमारी खालिस हाजिरी से काम चलाइयेगा !

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  40. हम सामान्यतया भ्रष्टाचार का अर्थ बेहिसाब पैसे के लेन-देन को ही समझते हैं। परंतु अपने कर्तव्य से विमुख हो अकर्मण्यता और नाकारापन की पराकाष्ठा को ईमानदारी का नाम देना क्या भ्रष्टाचार नहीं है। जब गाँधी जी अनुसार पाप को सहन करने वाला भी पाप करने वाले के बराबर दोषी है तो अकर्मण्य होकर अपनी नाक के नीचे होते भ्रष्टाचार को होता देखना क्या उच्चतम सीमा का भ्रष्टाचार नहीं है।

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  41. हम सामान्यतया भ्रष्टाचार का अर्थ बेहिसाब पैसे के लेन-देन को ही समझते हैं। परंतु अपने कर्तव्य से विमुख हो अकर्मण्यता और नाकारापन की पराकाष्ठा को ईमानदारी का नाम देना क्या भ्रष्टाचार नहीं है। जब गाँधी जी अनुसार पाप को सहन करने वाला भी पाप करने वाले के बराबर दोषी है तो अकर्मण्य होकर अपनी नाक के नीचे होते भ्रष्टाचार को होता देखना क्या उच्चतम सीमा का भ्रष्टाचार नहीं है।

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  42. "आज जब समाज के बदले मूल्यों में आर्थिक सम्पन्नता ही सर्वोपरि हो गयी है" मैं सहमत नहीं हूँ :)
    आर्थिक सम्पन्नता कल भी सर्वोपरि थी और तब भी यही कहा जाता था कि 'आज' समाज की हालत ऐसी हो गयी है. तब भी मूल्यों को को सम्मान देने वाले कुछ ही थे. आज भी वही हालत है.

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  43. @ अभिषेक ओझा जी
    "आज जब समाज के बदले मूल्यों में आर्थिक सम्पन्नता ही सर्वोपरि हो गयी है"

    इस वाक्य में हमारा जोर "सर्वोपरि" पर है। हमारे विचार से बाजारवाद को जिस तरह सभी समस्यायों के ईलाज की एक्मात्र दवा की तरह अपना लिया गया है उसने समाजिक और सांस्कृतिक जीवन में मूल्यों की फिर से परिभाषित करने का दबाब बनाया है। सापेक्षिक रूप से सही पर, जीवन के लिये न्यूनतम जरुरते पाना भी मुश्किल हुआ है और अर्थ ही एक मात्र नीति बन गया है।

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  44. जैसे सत्य की ही अंत में विजय होती है वैसे ही ईमानदारी की भी।

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