सम्वेदना के स्वर

यह ब्लॉग उस सनातन उत्सवधर्मिता को जीवित रखने का प्रयास है,

जिसमें भाव रस और ताल का प्रतीक आम आदमी का भा-- बसता है.
सम्वेदनाएँ...जो कला, साहित्य, दर्शन, विज्ञान, राजनीति आदि के माध्यम से अभिव्यक्त होती हैं, आम आदमी के मन, जीवन और सरोकार से होकर गुज़रती हैं तथा तलाशती हैं उस भारत को, जो निरंतर लड़ रहा है अपने अस्तित्व की लड़ाई.....

Wednesday, August 31, 2011

अन्ना हजारे और पीसी बाबू!!


पिछले दिनों अन्ना के आंदोलन के बीच सारा देश अन्नामय हो गया. हम भी अपवाद नहीं थे. समयानुसार टीवी, रामलीला मैदान, मोमबत्ती मार्च और शान्ति मार्च से अपना जुड़ाव और समर्थन व्यक्त करते रहे. अब चाहे चंडीगढ का सेक्टर १७ हो या नोएडा का सेक्टर १८. बारह दिनों के बाद आधी जीत तो हमने प्राप्त कर ली, लेकिन अब कुछ नए प्रश्न हमारे सामने खड़े हैं. इन सवालों का जवाब भावनात्मक नहीं, यथार्थ के धरातल पर और दिल से नहीं, दिमाग से सोचने होंगे. अब यह आधी जीत व्यवस्था के हवाले कर दी गयी है ताकि इसे पूरी जीत का जामा पहनाया जा सके.  

इस पूरे आंदोलन के बीच बार-बार, किसी न किसी बात पर पीसी बाबू बहुत याद आये। पीसी बाबू यानी पायाती चरक जी, इतनी जल्दी भूल गए आप! कभी अखबार की सुर्खियों में उनकी शक्ल नज़र आयी तो कभी दफ्तर की शतरंजी  बिसात से व्याकुल मन में पी सी बाबू का कथन व्यवस्था के कठघरे में खड़े होकर व्यवस्था से नहीं लड़ा जा सकता गूंजता रहा!

और यही दिखाई भी दे रहा है. जो जन-लोकपाल बिल अब व्यवस्था की स्टैंडिंग कमिटी को सौंपा गया है या सौंपा जाने वाला है, उसमें मौजूद लोगों में शामिल हैं अमर सिंह, मनीष तिवारी और लालू यादव जैसे लोग. हो सकता है कि इनको भावनाओं की क़द्र करने के नाम पर हटा भी दिया जाए, लेकिन सिर्फ सूरत बदलेगी, सीरत वही रहने वाली है. व्यवस्था के अंदर की अव्यवस्था कहाँ बदलने वाली है. व्यवस्था के कठघरे में खड़े होकर व्यवस्था से नहीं लड़ा जा सकता.

इसी  सोच-विचार में पी सी बाबू से हुई वो बातचीत याद हो आई, जिसमें उन्होंने वर्त्तमान आंदोलन के वैचारिक पहलू पर अपने विचार व्यक्त किये थे, जिनका सम्बन्ध दिल से नहीं दिमाग से अधिक था. प्रस्तुत है उसी बातचीत के कुछ अंश:

चैतन्य आलोक : सर! अपने देश की प्रॉब्लम आखिर है क्या ?
पी सी बाबू : सत्ता का अतिशय केन्द्रीकरण.
 चैतन्य आलोक : पर हम तो संघीय ढ़ांचे में काम करते हैं?
पी सी बाबू : नहीं, उस दिखावटी संघीय ढाँचे की बात मैं नहीं कर रहा. इसका, सच पूछो तो कोई मतलब ही नहीं है।

चैतन्य आलोक : तो फिर उससे परे क्या है?
पी सी बाबू : देखो, इस बात पर अब देश में आम राय है कि भारत के सभी संसाधनों" पर चन्द रईसों और ताकतवर लोगों का कब्जा है। रईसों और ताकतवर लोगों के बीच बनें इससशक्त गठबन्धनको सिंडीकेट या माफिया कह सकते हैं।

चैतन्य आलोक :सिंडीकेट या माफिया” !!? इतना खौफनाक क्या?
पी सी बाबू : अगर तुम्हें ये खौफनाक लगता है, तो चलो एक अलग तरह से समझने की कोशिश करतें है और देखते हैं कि देश में फैली (अ) व्यवस्था इस सिंडीकेटद्वारा किस तरह से निर्देशित और निर्धारित होती है। इसके बाद शायद मेरे इन कठोर शब्दों का आशय तुम्हे स्पष्ट हो।

चैतन्य आलोक : समझाइये सर!
पी सी बाबू : रईसों और ताकतवर लोगों का यह सिंडीकेट कुछ नियम-कायदे बनाता है ताकि जो लोग रईस और ताकतवर नहीं हैं वह इस (अ) व्यवस्था से हमेशा बाहर रहें। यह सिंडीकेट”, सभी महत्त्वपूर्ण जानकारियों और ज्ञान को अपने नियन्त्रण में रखता है।

चैतन्य आलोक : जानकारियां और ज्ञान मतलब ?
पी सी बाबू : जानकारियों से यहाँ मतलब धन बनाने, व्यापार और रोजगार की उन सम्भावनाओं से है जिनका पूर्व ज्ञान मात्र कुछ लोगों को ही रहता है।

चैतन्य आलोक : मतलब कौन सी जगह हाई-वे बनाना है, किस प्रकार की टेक्नोलोजी या उत्पाद को बढावा देना है। सरकारी और निजी व्यापार और रोजगार की बयार किस तरफ बहेगी और उससे होने वाले लाभ की गंगा किस तरह और किस किस को तरेगी, वही सब।
पी सी बाबू : बिल्कुल ठीक। फिर इन जानकारियों को सीमित पहुंच तक रखने के लिये रईसों और ताकतवरों का यह सिंडीकेटबहुत से नियम-कायदों का मकड़जाल बुनता है। नियम-कायदों के इस मकड़जाल का पहला मकसद यही होता है कि आम आदमी”, रईसों और ताकतवरों के इस वैभवशाली साम्राज्य से दूर रहे और उसे किसी भी तरह से चैलेंज करने की स्थिति में न पहुचें। नियम-कायदों के इस मकड़जाल में बहुत सी सीढ़ियां होती हैं और हर सीढ़ी पर एक गेट कीपर तैनात होता है।

चैतन्य आलोक : ह्म्म...
पी सी बाबू : यह (अ) व्यवस्था हर गेटकीपर को कुछ ताकत देती है जिनके द्वारा वह अपनी सीमा में नियत नियम-कायदों को नियंत्रित करता है।......
यह बात महत्वपूर्ण है कि गेटकीपर का अहम काम अपने उपर वाली सीढ़ी तक पहुंच को मुश्किल बनाना है, इसके परिणाम स्वरुप प्रत्येक उपर वाले गेटकीपर की ताकत कई गुना बढ़ती जाती है। और अंत में सिंडीकेट महा-शक्तिशाली हो जाता है।

चैतन्य आलोक : बहुत रोचक है, फिर..
पी सी बाबू : रईसों और ताकतवरों का यह सशक्त गठबन्धन या सिंडीकेट”, अन्य सहयोगी लोगों के शातिर नेटवर्क के द्वारा नियम-कायदों के इस मकड़जाल को नियंत्रित करता है, और यह सुनिश्चित करता है (अ) व्यवस्था की सभी संस्थायें इस शातिर नेटवर्क के द्वारा नियंत्रित की जायें। इन संस्थायों के मुखिया के पद पर जब शातिर नेटवर्क के व्यक्ति को बैठाया जाता है तो उसकी ताकत बेहद उंचे दर्जे की हो जाती है क्योकिं उसके कार्य अब विधि और संविधान सम्मत हो जाते हैं और उन्हें चैलेंज करना मुश्किल ही नहीं लगभग नामुमकिन को जाता है। सशक्त गठबन्धन या सिंडीकेटइस बात के पूरे इंतजाम करता है कि शातिर नेटवर्क के एक- एक व्यक्ति को ताउम्र पूर्ण सरंक्षण दिया जाये।

चैतन्य आलोक : पर देश का वाच डागमीडिया और इस शातिर नेटवर्क से बाहर हुये लोग क्या इतनी आसानी से इसे काम करने दे सकते हैं?
पी सी बाबू :मीडियाजो जनमानस को निरंतर प्रभावित करता है उसे भी इसी शातिर नेटवर्कद्वारा येन केन प्रकारेण नियंत्रण में रख कर वाच डाग से लैप डाग बना दिया जाता है। शातिर नेटवर्कमें उन लोगों को सहर्ष स्वीकार कर लिया जाता जो या तो येन केन प्रकारेण, “सशक्त गठबन्धन या सिंडीकेटको फायदा पहुंचाते हैं या फिर उनका बहुत विरोध करने की स्थिति में पहुंच जाते हैं। बहुत से गेटकीपर जो अपने रसूख और धनबल को बढ़ाने में कामयाब हो जाते हैं उन्हें भी शातिर नेटवर्क में शामिल कर लिया जाता है।

चैतन्य आलोक : (अ) व्यवस्था का तंत्र तो समझ आया सर। पर फिर भी इसे त्वरित रूप से चलाये कैसे रखा जाता है?
पी सी बाबू : (अ) व्यवस्था के पूरे तन्त्र को लालच रुपी इंजन से चलाया जाता है और इसके सभी कल पुर्जों में काले धन रुपी लुब्रीकैंट को डाला जाता है।

चैतन्य आलोक : सच कह रहें हैं, सर क्या इतना हौलनाक है यह खेल?
पी सी बाबू : हा..हा..हा.... (अ) व्यवस्था को देखने का एक नज़रिया यह भी है, चैतन्य बाबू!

Wednesday, August 24, 2011

नहीं रहे अमर!!


३० अगस्त को जिसका जन्मदिन हो, वो सिर्फ इस डर से कि केक पर लगी मोमबत्तियों से आँखें जलती हैं, अपनी आँखें बंद कर लेगा हफ्ता भर पहले ही... असंभव. आदमी इतना भी डरपोक होता है कहीं. खास कर वो शख्स जिसकी उपस्थिति अपने आप में जीवन होती थी, जो सारी उम्र मौत को मुंह चिढाता रहा और आखिर मौत ने चिढकर कहा, चल मेरे साथ! तेरी देखा-देखी लोग मुझसे उलझने लगे हैं. और कल वो शख्स चल दिया एक अनंत यात्रा पर.
आज सुबह-सुबह संजय अनेजा (मो सम कौन) जी का फोन आया कि सलिल भैया आपको पता चला, डॉक्टर अमर कुमार नहीं रहे! और मेरे हाथ पैर ठन्डे हो गए. डॉक्टर साहब के घर फोन की घंटी बजती रही, कोइ जवाब नहीं. तो बड़े भाई सतीश सक्सेना जी से कन्फर्म किया. हाथ पैर ठन्डे हो गए. चैतन्य को कहा तो उन्हें भी यकीन नहीं हुआ. वो इंसान जो मौत का मजाक उडाता था, जिसने कभी मौत से हार नहीं मानी, वो ऐसे खामोश कैसे हो सकता है. इतनी जल्दी साइन आउट... गलत बात है
डॉक्टर साहब! आपकी इटैलिक्स में लिखी टिप्पणियाँ, आपकी मोडरेशन के खिलाफ चुटकियाँ, आपकी शास्त्रों में पगी उक्तियाँ सब इतनी जल्दी चुक जायेंगी, हो ही नहीं सकता. इतनी सचाई इंसान में कि उम्र का फर्क बीच में नहीं आता. आख़िरी बार उनसे बात हुई अभी एकाध महीने पहले. एक पोस्ट पर उनकी टिप्पणी के सम्बन्ध में. उनकी टिप्पणी पहली बार कुछ पूर्वाग्रह से ग्रसित लगी, या फिर प्रेरित. मैंने उनको फोन किया और हकीकत बताई. उनका उत्तर यही था कि मुझे ये नहीं पता था और तुरत उन्होंने अपनी टिप्पणी हटा ली.
आज उनकी पुरानी मेल देख रहा था तो कितनी बार हंसी आयी और कितनी बार मन भर आया. नए साल पर उनको शुभकामनाएं भेजीं तो उनका जवाब देखिये:

प्रिय सलिल जी,
वर्ष के अवसान पर लेखा जोखा बनाने बैठा तो सर्वप्रथम 10 मित्रों में आपको भी पायाअहो भाग्य !
आपके पुण्यकर्मों से मैं ठीक हूँ रेडियोथैरेपी का झमेला अभी चलता रहेगा एवँ कुछ शारिरिक अशक्तता है !शेष कुशल है, मेरी ओर से नववर्ष शुभकामनायें स्वीकार करें ।
आपका अग्रज
अमर
मैंने कहा:

डॉक्टर साहब,
एंजेल साबित  हुए आप  कि  आपकी लिस्ट में मेरा नाम भी है..दशाब्दी  का  अवसान समस्त समस्याओं का अवसान सिद्ध हो आपके लिए.. नव दशाब्दि की पूर्व संध्या पर आपके चरण स्पर्श  कर आशीष चाहता हूँ और परमपिता से यही प्रार्थना है कि आपको स्वास्थ्य  प्रदान करे..
झमेला कोई भी हो आपसे नहीं लड़ सकता..
समस्त परिजनों को भी हमारा मंगल सन्देश पहुंचे!
सलिल

और उनके जन्मदिन पर मेरी बधाई का जवाब उन्होंने जिस अंदाज़ में दिया वो बस उन्हीं की जुबानी सुनिए जो सबूत है उनकी जिंदादिली का:

दुर, लोग सब एतना न मोमबत्ती खोंस दिया था कि फुँकते फुँकते अँखवा के आगे अन्हार छा गया,
तनि सँभरे त देखते हैं  केकवे गायब । आऽ त हमहूँ आपके कैटगरी में हैं.. जी ।
मुला आप पहली बेर त मुँ खोले हैं त हमहू इसको खाली नहिं रहने देंगे,
 अपना ठेकाना बताइयेगा त तनि ?
देखिये पान्छौ दिन में कैडभरी का डेब्बा पहुँचता है, कि नहीं ।
हम दत्तात्रेय जी को आदर्श मानते हैं, सामने आने वाला सभी जड़ चेतन को गुरु मानते हैं,
सो हमको अप्रेन्टीस गुरु बूझिये.. गुरुदेव का डिग्री मत दीजिये ।
सलिल जी आप सब की शुभकामनायें ही मेरे टिके रहने का सँबल है ।
अब आपको धन्यवादो देना है, का ? त उहो ले लीजिये, मुला किरपा बनाये रखीए ।
सादर - अमर

हमारी और से उस महान आत्मा को श्रद्धांजलि. कहने को बहुत कुछ है, मगर अभी तो बस इतना ही:
न हाथ थाम सके, ना पकड़ सके दामन,
बहुत करीब से उठकर चला गया कोइ!

Monday, August 15, 2011

अब हारे तो सब हारे !!


स्वतंत्रता दिवस पर आप सभी को शुभकामनायें!

हे ईश्वर, इस बार सब कुछ शुभ हो ।   
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