सम्वेदना के स्वर

यह ब्लॉग उस सनातन उत्सवधर्मिता को जीवित रखने का प्रयास है,

जिसमें भाव रस और ताल का प्रतीक आम आदमी का भा-- बसता है.
सम्वेदनाएँ...जो कला, साहित्य, दर्शन, विज्ञान, राजनीति आदि के माध्यम से अभिव्यक्त होती हैं, आम आदमी के मन, जीवन और सरोकार से होकर गुज़रती हैं तथा तलाशती हैं उस भारत को, जो निरंतर लड़ रहा है अपने अस्तित्व की लड़ाई.....

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Friday, April 16, 2010

मुख और मुखौटा


देख लो नोचकर नाख़ून से मेरा चेहरा
दूसरा चेहरा लगाया है, न चिपकाया है.

कहते हैं आईना दिल का हुआ करता है ये चेहरा, सब का.
जैसे हों दिल में उमड़ते हुए जज़्बात,
दिखा करते  हैं इस चेहरे पर.
गर किसी ने जो ओढ़ रखा हो चेहरा एक और
दिल में हों ज़हर, पर चेहरे पे तबस्सुम होगा.
ना लगाया भी हो चेहरा तो छुपा लेते हैं जज़्बात ये लोग
दिल मिले या न मिले, हाथ मिलाते हैं लोग.

माफ करना मैं दुनियादार नहीं हूँ इतना
दुनियादारी के तरीकों से है मुझे परहेज
मैंने कोशिश भी नहीं की, न हुनर सीखा है
इन  बनावट के उसूलों से बस किया है गुरेज

उस जगह जाना ही क्योंकर जहाँ सुकूँ न मिले?
दिल अगर मिल नहीं सकते मिलाना हाथ भी क्यों?
जिसकी इज़्ज़त नहीं उसको सलाम क्यों करना?

अपने चारों तरफ काँटे ही बुने हैं मैंने
फिर भी हैं प्यारे मुझे अपने ये कँटीले उसूल
इनमें उलझूँ तो कभी ख़ून निकल आता है
कभी चुभते हैं, तो एक टीस निकल जाती है.
शाम को पूछता है आईना मेरा मुझसे
यार चेहरा तो तेरा ख़ून से सना सा है!
एक हँसी होठों पे लहराती है मेरे उस वक़्त
आईना मेरा मुझे अब भी तो पहचानता है.

आप भी चाहें तो बस आजमा के देख लें आज
चाहे नाख़ून चुभो लें या काटें ख़ंजर से
मेरा चेहरा तो फ़क़त मेरा ही मेरा है दोस्त
दूसरा चेहरा लगाया है, न चिपकाया है.

( जनाब निदा फाजली  से उनके  शेर                                                                                                   
"दुश्मनी लाख सही ख़त्म न कीजे रिश्ता
दिल मिले या न मिले, हाथ मिलाते रहिये."
के अन्य सन्दर्भ में प्रयोग करने पर क्षमा याचना सहित)

चित्र साभार : गूगल
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