सम्वेदना के स्वर

यह ब्लॉग उस सनातन उत्सवधर्मिता को जीवित रखने का प्रयास है,

जिसमें भाव रस और ताल का प्रतीक आम आदमी का भा-- बसता है.
सम्वेदनाएँ...जो कला, साहित्य, दर्शन, विज्ञान, राजनीति आदि के माध्यम से अभिव्यक्त होती हैं, आम आदमी के मन, जीवन और सरोकार से होकर गुज़रती हैं तथा तलाशती हैं उस भारत को, जो निरंतर लड़ रहा है अपने अस्तित्व की लड़ाई.....

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Wednesday, April 21, 2010

आवारा ग़ज़ल

ये इंसानों का जंगल है यहाँ सब छूट जाते हैं
बनाकर राह्बर का भेस, रह्ज़न लूट जाते हैं.

सफर कब खत्म होगा रूह का ये कौन बतलाए
ये बढ जाती है आगे जिस्म पीछे छूट जाते हैं.

किसी मासूम बच्चे की तरह ये शेर हैं नाज़ुक
ज़रा सा मुँह चिढाकर देख लो यह रूठ जाते हैं.

वो पढकर शायरी मेरी, दीवाने आम में अक्सर
सभी दादें और वाह वाह और मुकर्रर लूट जाते हैं.

दबाकर दिल की धड‌कन तुम, कदमपेशी यहाँ करना
यहाँ पर ख्वाब बिखरे हैं, जो अक्सर टूट जाते हैं.

हैं ये ‘सम्वेदना के स्वर’ कभी तीखे, कभी मद्धम
ना जाने सुनके इनको लोग क्योंकर रूठ जाते हैं.

(यह ग़ज़ल समर्पित है हरकीरत 'हीर' को जिनकी प्रेरणा ने इस आवारा ग़ज़ल को एक मुकाम दिया)
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