ये इंसानों का जंगल है यहाँ सब छूट जाते हैं
बनाकर राह्बर का भेस, रह्ज़न लूट जाते हैं.
सफर कब खत्म होगा रूह का ये कौन बतलाए
ये बढ जाती है आगे जिस्म पीछे छूट जाते हैं.
किसी मासूम बच्चे की तरह ये शेर हैं नाज़ुक
ज़रा सा मुँह चिढाकर देख लो यह रूठ जाते हैं.
वो पढकर शायरी मेरी, दीवाने आम में अक्सर
सभी दादें और वाह वाह और मुकर्रर लूट जाते हैं.
दबाकर दिल की धडकन तुम, कदमपेशी यहाँ करना
यहाँ पर ख्वाब बिखरे हैं, जो अक्सर टूट जाते हैं.
हैं ये ‘सम्वेदना के स्वर’ कभी तीखे, कभी मद्धम
ना जाने सुनके इनको लोग क्योंकर रूठ जाते हैं.
(यह ग़ज़ल समर्पित है हरकीरत 'हीर' को जिनकी प्रेरणा ने इस आवारा ग़ज़ल को एक मुकाम दिया)