सम्वेदना के स्वर

यह ब्लॉग उस सनातन उत्सवधर्मिता को जीवित रखने का प्रयास है,

जिसमें भाव रस और ताल का प्रतीक आम आदमी का भा-- बसता है.
सम्वेदनाएँ...जो कला, साहित्य, दर्शन, विज्ञान, राजनीति आदि के माध्यम से अभिव्यक्त होती हैं, आम आदमी के मन, जीवन और सरोकार से होकर गुज़रती हैं तथा तलाशती हैं उस भारत को, जो निरंतर लड़ रहा है अपने अस्तित्व की लड़ाई.....

Tuesday, June 1, 2010

झूठा इल्ज़ाम

आज स्वप्निल कुमार आतिश से लम्बी साहित्यिक चर्चा होती रही. एक जैसा सोचने वाले मिल जाएँ तो ये फैसला मुश्किल हो जाता है कि विचार किसके हैं और आए किसके दिमाग़ में हैं. बात मण्टो से शुरू हुई और राही मासूम रज़ा पर खतम हुई. अब खतम हुई कि एक नए सिलसिले की शुरुआत हुई, ये तो वक़्त ही बताएगा, बहरहाल, मैंने ये क़बूल किया कि मैं ख़ुशकिस्मत हूँ कि मुझे मेरे पिताजी ने उस उम्र में मण्टो पढने को दिया जिस उम्र में लोग प्रेमचंद पढते हैं ( वो मैं पढ चुका था). फिर ज़िक्र आया मण्टो के अदालती चक्करों का और उनपर लगने वाले अश्लीलता के इल्ज़ाम का.

अब जब ज़िक्र निकला ही है तो डा. राही मासूम रज़ा की बात न हो, हो ही नहीं सकता. क्योंकि साहित्य में धड़ल्ले से गालियाँ लिखने की रवायत इन्होंने ही शुरू की है. और इस बारे में मैं अभी तक कन्फ्यूज़ हूँ कि मैं क्या कहूं। अपने गुरु डा. राही मासूम रज़ा के उपन्यास " ओस की बूँद" से उनकी भूमिका यहाँ पर कोट करना चाहूँगा। उनकी कलम से निकले शब्द, मेरे शब्दों से ज्यादा वज़नदार साबित होंगे।

"बड़े बूढों ने कई बार कहा कि गालियाँ न लिखो, जो आधा गाँव में इतनी गालियाँ न होतीं तो तुम्हें साहित्य अकादेमी का पुरस्कार अवश्य मिल गया होता. परन्तु मैं यह सोचता हूँ कि क्या मैं उपन्यास इसलिए लिखता हूँ कि मुझे साहित्य अकादेमी का पुरस्कार मिले? पुरस्कार मिलने में कोई नुकसान नहीं, फायदा ही है. परन्तु मैं साहित्यकार हूँ. मेरे पात्र यदि गीता बोलेंगे तो मैं गीता के श्लोक लिखूंगा. मैं कोई नाज़ी साहित्यकार नहीं हूँ कि अपने उपन्यास के शहरों पर अपना हुक्म चलाऊँ और हर पात्र को एक शब्दकोश थमाकर हुक्म दे दूं कि जो एक शब्द भी अपनी तरफ से बोले तो गोली मार दूंगा. कोई बड़ा बूढा यह बताये कि जहाँ मेरे पात्र गाली बकते हैं वहां मैं गालियाँ हटाकर क्या लिखूं? डोट डोट डोट. तब तो लोग अपनी तरफ से गालियाँ गढ़ने लगेंगे और मुझे गालियों के सिलसिले में अपने पात्रों के सिवा किसी पर भरोसा नहीं.

गालियाँ मुझे भी अच्छी नहीं लगती. मेरे घर में गाली की परंपरा नहीं है. परन्तु लोग सडकों पर गालियाँ बकते हैं. पड़ोस से गालियों की आवाज़ आती है. और मैं अपने कान बंद नहीं करता, यही आप भी करते होंगे. यदि मेरे पात्र गालियाँ बकते हैं तो आप मुझे क्यों दौड़ाते हैं.? वे पात्र अपने घरों में गालियाँ बक रहे हैं. वे न मेरे घर में हैं - न आपके घर में. इसीलिए साहब, साहित्य अकादेमी के इनाम के लिए मैं अपने पात्रों की जुबान नहीं काट सकता। "

आखिर में निदा फाजली साब के कलाम के साथ ये स्वीकार करना चाहता हूँ कि

कभी कभी यूं भी हमने अपने जी को बहलाया है,
जिन बातों को खुद नहीं समझे, औरों को समझाया है।

12 comments:

sonal said...

मैंने मंटो साहब को उस उम्र में पढ़ा जब वो मेरे लिए वर्जित किया गया था और आशापूर्णा देवी ,शिवानी पढने को दी गई .... पर वो मुझे तब भी अश्लील नहीं लगे थे ना आज लगते है. उनके पात्र,घटनाये ,परिस्थितिया कुछ ऐसी होती है जिनमे सब कुछ सहज लगता है ... अब देखने वालों को तो "राम तेरी गंगा मैली " में मंदाकनी का बच्चे को दूध पिलाना भी अश्लील लग सकता है .. पर वो भी मुझे राज साहब की अनमोल कृति लगती है ...

honesty project democracy said...

उम्दा विवेचनात्मक प्रस्तुती ,सार्थक ब्लोगिंग ...

L.Goswami said...

कलाकार को श्लील - अश्लील के विवाद से परे ही रखना चहिये

डा० अमर कुमार said...


श्रीमती लवली कुमारी गोस्वामी से शब्दशः सहमत
"कलाकार को श्लील-अश्लील के विवाद से परे ही रखना चाहिये"
केवल यदि वह कथानक और पात्रों के चरित्र की माँग हो, न कि इसे चटपटा बनाने या विवादित करार होने की टी.आर.पी. का लाभ लेने के लिये न घुसेड़ा गया हो ।

मनोज भारती said...

गालियाँ ...पात्र विशेष की होती हैं और उस पात्र के चित्रण में यदि वे सहज रूप से आती हैं...तो उन्हें कथानक में आने दिया जाना चाहिए ।

सम्वेदना के स्वर said...

@Dr. Amar kumar/L. Goswami:
आप दोनों की बात से सहमत हूँ मैं… अफसोस होता है जब मण्टो के अफसानों से ज़्यादा सफे, उनके मुक़दमे की बयानबाज़ी पर सर्फ किए गए पाता हूँ... और अश्लीलता की बात पर तो ख़ुद राही मासूम साहब ने लिखा है कि मेरा यह उपन्यास पूरी तरह अश्लील है – ज़िंदगी की तरह.
और आप अवश्य सहमत होंगे कि ये दोनों कलाकार टीआरपी की दौड़ से कहीं आगे हैं. परमात्मा इनकी आत्मा को शांति प्रदान करे!

मनोज कुमार said...

सार्थक प्रस्तुति।

soni garg goyal said...

गलिया या अन्य कोई चीज़ जिसे शील या अश्लील करार दिया जाये अगर वो किसी सार्थक लेखन की मांग है तो उनके इस्तेमाल पर किसी तरह का विरोध उत्पन्न नहीं होना चाहिए ! क्योकि वास्तविकता मैं ही सार्थकता निहित है !

सम्वेदना के स्वर said...

सही कहा आपने सलिल भाई!
कई बार गुस्से या आक्रोश की अभिव्यक्ति बिना गाली के हो ही नही पाती. याद है! WEDNESDAY फिल्म देखने के बाद हम दोनों इसी निष्कर्ष पर पहुचें थे कि आम आदमी का पूरा frustration नसीर की उसी एक गाली में था!? फिल्म के पर्दे पर, व्यबस्था को पड़ती उस एक गाली से आम आदमी का जो गुस्सा विसर्जित होता है वह अगर उस के भीतर रह जाये तो समाज के लिये और घातक हो सकता है. जिस तरह "दाग अच्छे हैं" उस विज्ञापन के लिये...उसी तरह कई बार "गाली भी अच्छी है"...व्यक्ति और समाज के लिये....भावनाओं का एक अतिरेक गाली भी है.

उधर, आपके गुलज़ार भाई नें तो "कमीना" शब्द को नये मायने ही दे डाले हैं. कल आप ही कहते न सुने जायें कि " ख्वाहिश ही रही की कोई हमें कमीना कहता"!!

दिगम्बर नासवा said...

जहाँ तक मैने मंटो साहब को पढ़ा है ... गालियाँ तो नही नज़र आती जिनको हमारा भद्र समाज गालिया कहता है ..... हाँ कुछ लोगों को अश्लील लग सकता है ...

अनूप शुक्ल said...

सुन्दर है !

स्वप्निल तिवारी said...

:) :)

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