सम्वेदना के स्वर

यह ब्लॉग उस सनातन उत्सवधर्मिता को जीवित रखने का प्रयास है,

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सम्वेदनाएँ...जो कला, साहित्य, दर्शन, विज्ञान, राजनीति आदि के माध्यम से अभिव्यक्त होती हैं, आम आदमी के मन, जीवन और सरोकार से होकर गुज़रती हैं तथा तलाशती हैं उस भारत को, जो निरंतर लड़ रहा है अपने अस्तित्व की लड़ाई.....

Tuesday, June 8, 2010

लघु ब्लॉगर्स मीट और राजनीति !!

सलिल वर्मा जी के ब्लॉग, चला बिहारी ब्लॉगर बनने, पर सुश्री सोनी गर्ग का कमेंट आया जिसमें उन्होंने नई फिल्म राजनीति का एक सम्वाद उद्धृत किया था, जिसे नसीर साब ने फिल्म में कहा है. यह सम्वाद बहुत प्रभावशाली था और कहीं न कहीं हमारी भावनाओं को अभिव्यक्ति प्रदान करता दिखाई दिया. इस कारण हमने सोचा कि इस फिल्म को देखा जाये, हमारी इस योजना में “गूंज-अनूगुंज” ब्लॉग के मनोज भारती भी जुड़ गये.

फ़िर क्या था हम तीनों (सलिल, चैतन्य और मनोज भारती) एक साथ एक ही शो में यह फिल्म देखने गए – मनोज भारती हरियाणा के एक शहर अम्बाला में, चैतन्य चंडीगढ़ में और सलिल ने दिल्ली में यह फिल्म देखी. फिल्म देखने से यह पोस्ट लिखे जाने तक हमने इस विषय पर एक लम्बी परिचर्चा की, और इसे ही रूप दिया एक ‘लघु ब्लॉगर्स मीट’ का. इसे हमारी समीक्षा कह लें, परिचर्चा कहें या बातचीत. बिना किसी के विचारों से प्रभावित हुए, एक बेबाक बातचीत फिल्म “राजनीति” पर.


कथा का आधारः

मनोज भारती: प्रकाश झा ने इसे भारतीय राजनीति के परिप्रेक्ष्य में बनाया है और इसके कुछ पात्र महाभारत से प्रेरित हैं।
चैतन्यः फिल्म के मुख्य पात्र पृथ्वी, समर और वीरेंद्र, साथ में सूरज महाभारत के पात्रों की तरह ही थे, परंतु घालमेल इतना था कि कौन कौरव है और कौन पाण्डव, इसका पता अंत तक नहीं चला. दरअसल बिना कृष्ण की इस महाभारत से किसी भी तरह की सम्वेदनशीलता स्थापित नहीं हो पाई, फिर बिना कृष्ण के महाभारत हो भी कैसे सकती है ?
सलिल वर्मा : कथानक का आधार महाभारत से प्रेरित दिखाया गया है, किंतु फिल्म के मध्य में सिर्फ गॉड फादर है. अतः कहानी एक राजनैतिक प्रकरण न होकर एक गैंग वार होकर रह गई है.

राजनीतिः

मनोज भारती: यद्यपि फिल्म को भारतीय राजनीति के वर्तमान दौर का दर्पण कहा जा रहा है, लेकिन फिल्म में बहुत कुछ ऐसा है, जो यथार्थ से परे लगता है ।
चैतन्यः मुझे लगता है प्रकाश झा की समस्या यह रही होगी कि सैंसर बोर्ड की कैंची के चलते वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य पर सीधा-सीधा वो दिखा नहीं सकते थे, इसी कारण उन्होनें महाभारत का माध्यम चुना.
सलिल वर्मा : यह फिल्म न तो राजनीति पर प्रकाश झा की कमेंटरी है, न किसी राजनैतिक समस्या की ओर इंगित करती है, न कोई समाधान बताती है, न किसी व्यवस्था का चित्रण करती है.

महिला चरित्रः

मनोज भारती: नारी का राजनीति के लिए इस्तेमाल किया गया है। उसकी पुरूष प्रधान समाज में आज भी कोई व्यक्तिगत सोच नहीं है और वह पुरुष के हाथों की कठपुतली है। बल्कि नारी भी महत्वाकांक्षा को पूर्ण करने के लिए कुछ भी करने को तैयार दिखाई पड़ती है।
सलिल वर्मा: अभिजात्य वर्ग की महिला भी शोषण का शिकार होती दिखाई गई है, एक ओर राजनैतिक सूझबूझ वाली स्त्री, एक घरेलू महिला बनकर रह जाती है, दूसरी ओर एक स्त्री विवाह के व्यापारिक सम्बंधों की बलि चढ़ जाती है. मरी हुई सम्वेदनाओं की लाश दिखती हैं सारी महिलाएँ.
चैतन्यः इसे मैं देश, काल और परिस्थितियों से परे, नारी जीवन की विडम्बना ही कहूँगा कि जब नारी पुरषोचित कार्य करती है, तभी उसका संज्ञान लिया जाता है. यह फिल्म भी उसी दृष्टिकोण को उजागर करती है.

दलित राजनीतिः

सलिल वर्मा: यहाँ फिल्म वास्तविकता दर्शाती है कि दलितों का इस्तेमाल सिर्फ वोट हासिल करने के लिए किया जाता है. कोई राजनेता उनको दुत्कारने के लिए इस्तेमाल करता है, तो कोई सत्ता का लालच या भीख देकर.
मनोज भारती: राजनीति का केंद्र दलित और गरीब जनता है, जिसके वोट हासिल करने के लिए उसे रोटी से लेकर सत्ता में भागीदारी तक के लालच देकर उसे गुलाम बना लिया जाता है । सत्ताधीश और राजनीतिज्ञों द्वारा जनता के वोटों के लिए उसे वास्तविक मुद्दों यथा शिक्षा, स्वास्थ्य आदि से दूर ही रखा गया है ।
चैतन्यः सूरज (अजय देवगन) की दलित परिवार में परवरिश देख कर लगा कि शायद फिल्म का यह पात्र सर्वहारा की आवाज़ बनकर कानु सान्याल और चारु मज़ुमदार की विचारधारा के सामाजिक और राजनैतिक पहलू को टटोलेगा. परंतु सूरज अपने राजनैतिक इस्तेमाल को रोक नहीं पाया और उसका पूरा किरदार पिट गया.

संदेशः

चैतन्यः फिल्म में दिखाया गया निराशावाद न जानें क्यो मुझे वास्तविक लगा. जैसे व्यव्स्था में सहज हो चली अराजकता, सिर्फ विदेशी महिला को झकझोरती है. बाकी सब उसे कब से स्वीकारे हुए लगे. फिल्म में इतने खून-खराबे के बाद लगा कि न्याय व्यवस्था, विधायिका के सामने आत्म-समर्पण कर चुकी है.
मनोज भारती: इस फिल्म को देखने के बाद कोई संदेश नहीं मिलता। क्योंकि फिल्म में शुरु से लेकर अंत तक सत्ता को पाने के लिए हिंसक झगड़े दिखाए गए हैं और दोनों ही पक्षों में कोई पक्ष आदर्श दिखाई नहीं पड़ता । दोनों एक ही स्तर पर खड़ें है और सत्ता-लोलुप है । उद्देश्य मात्र स्वयं को ताकतवर बना लेना है । यह फिल्म समाज में संवेदनाओं को निरस्त करती है और जीवन में हर प्रकार के धोखे, विश्वासघात और क्रूरता की वकालत करती है ।
सलिल वर्मा: ‘हिप हिप हुर्रे’ जैसी खेल प्रधान फिल्म के बाद, उनकी फिल्मों के केंद्रीय विषय राजनीति, विशेषतः बिहार की राजनीति रहा है. फिल्म ‘दामुल’, ‘मृत्युदण्ड’ और ‘गंगाजल’ के बाद, उनकी नवीनतम फिल्म ‘राजनीति’ से यही अपेक्षा थी कि यह फिल्म राजनीति में व्याप्त अपराध अथवा राजनीति के कई अनछुए पहलू को उजागर करेगी. लेकिन अपेक्षाएँ धराशायी हो गईं. एक व्यावसायिक फिल्म से संदेश की आशा व्यर्थ है.

तकनीकी पहलूः

सलिल वर्मा: प्रकाश झा एक अच्छे निदेशक हैं, जो इस फिल्म में दिखाई देता है. फिल्म के सारे कलाकार मँजे हुए हैं और उनका अभिनय त्रुटिहीन है, फिल्मों में अपनी पहचान बनाते रनबीर कपूर ने अपनी भूमिका के साथ न्याय किया है. लम्बे अन्तराल के बाद मनोज बाजपेयी की वापसी स्वागत योग्य है. महिला चरित्र अपनी अपनी भूमिका सधे ढंग से निभाती दिखाई देती हैं. प्रकाश झा के सम्वाद स्तरीय हैं.
चैतन्यः एकाएक, मल्टीप्लैक्स सिनेमा हाल में दिखायी जाने वाली फिल्मों का तकनीकी पहलू तो बहुत ही प्रभावी हो गया है. डॉल्बी सिस्टम के साथ तो ऐसा लगता है कि हम घटना स्थल पर ही खड़े हैं.
मनोज भारती: फिल्म तकनीकी रूप से सशक्त है । फिल्म में भीड़ के दृश्यों को तकनीक के माध्यम से फिल्माया गया है । फिल्म की गति तेज है । फिल्म के आरंभ में कम्मेंटरी के माध्यम से फिल्म की भूमिका दर्शक को फिल्म को समझने और उसके कलेवर को समझने में मदद नहीं कर पाई । दर्शक कुछ समय तक असमंजस में रहता है । फिल्म में गानों की सिचुएशन नहीं है...एक गाना फिल्म में किसी तरह से डाल दिया गया है ।

अंतिम निर्णयः

चैतन्यः पैसा वसूल तो नही कहूँगा, क्योंकि लगभग दो सौ रुपये खर्च हुए. हां, घर पर बैठकर उन मुए समाचार मनोरंजन चैनल देखने से तो कहीं अच्छा अनुभव था.
मनोज भारती: फिल्म में हिंसा और रक्तरंजित खुलम-खुला राजनीति है, जिसे शायद राजनीति न कहकर गंदी राजनीति ही कहना उचित होगा । प्रकाश झा सरीखे मंझे हुए फिल्मकार ने किस उद्देश्य से बनायी है...यह तो स्पष्ट नहीं, लेकिन इतना जरूर है कि जनता को राजनीति का घिनौना चेहरा जरूर देखने को मिल जाता है ।
सलिल वर्मा: एक छोटी सी प्रतिक्रिया देने को कहा जाए तो यह फिल्म न तो राजनीति पर प्रकाश झा की कमेंटरी है, न किसी राजनैतिक समस्या की ओर इंगित करती है, न कोई समाधान बताती है, न किसी व्यवस्था का चित्रण करती है. इस फिल्म को धर्मात्मा, दयावान, सत्या और सरकार जैसी फिल्मों की श्रेणी में रखा जा सकता है, किंतु आज का एम. एल. ए., आँधी और इंक़लाब जैसी फिल्मों की श्रेणी में नहीं.

19 comments:

Satish Saxena said...

आप लोगों ने यह नया प्रयोग किया है , शायद इससे पहले यह ब्लाग जगत में किसी ने शुरू नहीं किया होगा ! आप लोग बधाई के पात्र हैं ! मेरी हार्दिक शुभकामनायें !

Satish Saxena said...

अगर बात फिल्म जगत की ही करें तो इससे फिल्म समीक्षा के नए रास्ते खुलेंगे ! आप लोगों की मेहनत रंग लायेगी ...!

माधव( Madhav) said...

achchhee charchaa

नीरज गोस्वामी said...

आप तीनो ने फिल्म की बेबाक समीक्षा की है और जो कुछ कहा बिलकुल सही कहा है...मैंने ये फिल्म देखी है इसलिए आपकी कही बात से सहमत हूँ...कृष्ण के पात्र की झलक हमें नाना पाटेकर के पात्र में दिखाई देती है जो अंत में अर्जुन बने रणबीर को दिए उपदेश में स्पष्ट भी हो जाती है. फिल्म की गति तेज है और आपको अधिक सोचने का मौका नहीं देती है...सबसे बड़ी कमी फिल्म की लम्बाई है..इस लम्बी फिल्म में बहुत से अनावश्यक दृश्य हैं जिनके ना होने से कोई फर्क भी नहीं पड़ता...फिल्म लगभग आधा घंटा और छोटी होनी चाहिए थी. फिल्म कलाकारों के उच्च-स्तरीय अभिनय के कारण देखने योग्य है. रणबीर कपूर को इस संजीदा रोल में देखना एक अनुभव है. नाना तो खैर नाना हैं ही लेकिन मनोज वाजपयी ने दिखला दिया की उनकी प्रतिभा की अवहेलना कर फिल्म जगत अपनी कितनी बड़ी हानि कर रहा है...
नीरज

सम्वेदना के स्वर said...

@सतीश सक्सेना
धन्यवाद सर!
फिल्म,राजनीति,देश,समाज आदि के बारे मे सभी तरह के विचार खुल कर आने चाहिये. यह ब्लोग जगत जागरुक विचारकों से भरा पड़ा है.
हमारी अगली फिल्म समीक्षा में आप साथ रहेंगें, न ?

soni garg goyal said...

Very bad Sir,
ये विषय तो मेरा था आप ही ने सुझाया था मेरी "क्यों ना देखू पायरेट फिल्म" पर....... सोचा था की अब इस फिल्म की समीक्षा करुँगी आखिर पैसे खर्च करके देखी थी ........लेकिन एक अच्छी कहानी सुनी थी इसलिए पहले उसे पोस्ट कर दिया ...........और अब आप तीनो ने तो कुछ लिखने लायक ही नहीं छोड़ा .........अब फिर से पैसे खर्च करने पड़ेंगे एक नई फिल्म पर .........लेकिन अभी तो पैसे खर्च करने लायक कोई फिल्म है नहीं ................ तो फिर कभी .................लेकिन बचपन में सुना एक दोहा याद आ गया
"काल करे सो आज कर, आज करे सो अब
पल में प्रलय होयगी बहुरि करेगा कब"
nyway good post ...............

सम्वेदना के स्वर said...

@सोनी गर्ग
हमें तो प्रकाश झा से अधिक आपने उकसाया था इस फिल्म को देखने के लिये. देर कहां हुई है सोनी बहन! आप अपनी समीक्षा इधर लिखने के लिये स्वतंत्र हैं. विचारणीय बिन्दु उपर दिये ही हैं.
सतीश सर ने इसे नया प्रयोग कहा है तो आप इस प्रयोग को और विस्तार दे सकतीं है.

दिलीप said...

ek nihayat hi bakwas film thi...kuch bhi kahin bhi kabhi bhi ho raha tha...na sir na pair...kunti aur karn ke samvaad hasyaspad the...antrang drishyonki bharmaar...beech me ek farji ka disco....jaane kya kya ...bandook bam..samlangikta....sir dard thi film...na koi uddeshy na koi sandesh....

honesty project democracy said...

बहुत ही सार्थकता और रोचकता से लघु ब्लोगर मिलन के बहस के जरिये तार्किक अंत तक किसी विषय को पहुँचाने की आपकी कोशिस सराहनीय है |

रंजन said...

इस समीक्षा के बाद लगा कि मुझे ये फिल्म देखनी है...

बहुत अच्छी...

keep it up!

स्वप्निल तिवारी said...

main bhi aaj dekhne wala hun ye film uske bad hi kuch keh sakunga..khair samkeesha ke chalte mujhe bahut ummed nahi rahiis film se...

soni garg goyal said...

अगर इस फिल्म को महाभारत से जोड़ कर देखा जायगा तो ये फिल्म एक नज़र में सर चकरा देने वाली ही नज़र आएगी ! .......फिल्म को सिर्फ फिल्म की तरह से देखा जायेगा तो फिल्म बुरी नहीं है और मैंने तो इसे देखते समय महाभारत का 'म' भी याद नहीं रखा और शायद इसीलिए ये फिल्म मुझे अच्छी लगी .............फिल्म की शुरुवात समझने में थोई देर लगी ......... कुछ द्रश्य और डिस्को सोंग जबरदस्ती ठूसे हुए ज़रूर लगे और फिल्म के समाप्त होने से कुछ समय पहले ही फिल्म का अंत भी तय हो गया था ! ..........फिल्म में दिखाया गया खूनी खेल, कितना यथार्थवादी राजनीति से जुड़ा है ये कहना मुश्किल है ! लेकिन हाँ कहा जा सकता है की ये खेल सही नहीं है तो गलत भी नहीं है ............अब कुछ घंटे की फिल्म में वर्षो की राजनीति समेटना मुश्किल है ! शायद इसलिए ही "प्रकाश झा" जी ने वर्षो का खेल एक फास्ट ट्रेक पर घंटो में दिखा डाला जिसे पूरी तरह से नाकारा नहीं जा सकता ! इंदु ( केटरीना) की शादी का राजनितिक गठबंधन राजनीति की असली शक्ल दिखाता है ! संवाद और लुक के चलते केटरीना से और काम लिया जा सकता था ........ आखिर मैं कहूँगी की मुझे ये फिल्म अच्छी लगी ! बस अंत थोडा ठीक नहीं था ! .............
@ संवेदना के स्वर ............आपको फिल्म देखने के लिए मैंने नहीं नसीरूदीन जी के डायलोग ने उकसाया जिसे मैंने अपने कमेन्ट में लिखा था !

मनोज भारती said...

@सोनी जी ! फिल्म राजनीति में आपको क्या अच्छा लगा...इसके खुलासे की जरूरत महसूस हो रही है । नि:संदेह अगर फिल्म के प्रचार में इसे महाभारत से प्रेरित न दिखाया जाता तो शायद दर्शक फिल्म से कहीं अधिक बंध पाते और इसकी तुलना महाभारत से नहीं करते । फिल्म के अंत से कुछ देर पहले अजय देवगन और उसकी माँ के संवाद नि:संदेह हास्यास्पद हैं और वहां महाभारत के कुंती और कर्ण के बीच के संवाद का सादृश्चय आधुनिक परिदृश्य में है...जो नारी के कमजोर पक्ष को ही उजागर करता है...और यहाँ भी माँ का ह्रदय नहीं बल्कि राजनीति (अवसरवाद) ही हावी दिखाई देती है । क्या आज की पढ़ी लिखी नारी अवसरवादी है ? क्या नारी के दूसरे मानवीय पहलुओं को दिखा कर इस फिल्म को थोड़ा संवेदनशील नहीं बनाया जा सकता था ? या फिर आधुनिक नारी ने भी इस नियतिवाद को स्वीकार कर लिया है ? फिल्म में कुछ एक समाजवादी विचारधारा से प्रेरित संवादों को छोड़ दिया जाए... तो कुछ भी मैसेज़ फिल्म में नहीं बचता है । क्या हमने हिंसात्मक राजनीति को अपने अंतस से स्वीकार कर इसे हमारी नियती नहीं मान लिया । हमें फिल्म के सकारात्मक पहलू को जान कर खुशी होगी, यदि आप इस फिल्म में कुछ देख पाई हों तो हमारे साथ अपने विचार जरूर बाँटें ।

हमारी इस समीक्षा में शामिल होने के लिए आपका आभार !!!

स्वप्निल तिवारी said...

chaitanya ji ..salil ji aur manoj ji ...

finally kal dekh hi li rajniti...dekhna tha ki itne sare achhe abhinetaon ko lekar ek buri film kaise banai ja sakti hai ..buri film nahi thi .. par jaisi filme in abhinetaon ke khate me darj hain ..us hisab se ye buri hi hai ..praksh jha ke nam se hi ummeden aasman chhoone lagti hain ..film ke kuch zaroori pahluon pe charcha karna chahunga ...

aisa lagta hai ki adhi film parksh ji ne banayi hai ..aur adhi manmohan desai jaise director ne ..kuch ek samvaad..jaise nsir sab ka shuruvai dialogue ..uske bad manoj bajpai ka dialouge " rajneeti me murde gade nahi jate..zinda rakhe jate hain ..taki waqt ane par bol saken " kafi achhe lage ... waheen sooraj(karn) aur uski maa (kunti) ke beech ka samvaad bahut bura ..bhasha aur kathya dono ke lihaaz se .. sooraj ki paidaish ka raaj jis tarah se film me nanpatekar par zahir kiya gaya hai wah melodrama se bharpoor hai ..logic se bilkul pare.. acting ke taur par..nan aur manoj avval rahe ..ranbeer bhi achhe rahe.... kahani buri tarah se predictable ho gayi interwal ke baad...matlab ki koi bhi sahaj hi andaza laga sakta tha ki kya hone wala hai .. aur ye script ki asafalta hi hai ..gane bewajah thoose gaye hain ,...shuqa hai ki ek mint se jyada nahi baje.. :)

दिगम्बर नासवा said...

भाई हमें तो बहुत अच्छी लगी ये फिल्म ..... कल ही देखी है ये फिल्म .... बाँध कर रखा ३ घन्टों तक इस फिल्म ने ... कामयाब रहे प्रकाश झा साहब ....

देवेन्द्र पाण्डेय said...

आजकल ब्लॉगर्स इस फिल्म की खूब आलोचन करके इसका जम कर प्रचार कर रहे हैं ..लगता है मुझे भी देखना ही पड़ेगा..देखें कब समय मिलता है..!

Apanatva said...

manoj jee ko lekar chavi ek bana rakhee hai man ne aaj sameeksha karte dekha to achha laga.
kai bubbdhjeeviyon ne film dekhee aur itna samay charcha ko diya kuch to vazan hai hee .
ya ye kanhoo ki aapne ise vazanee bana diya .
vaise meree chotee bitiya ka mail tha ki mai bhee dekhloo usake FTII KE PROF SCRIPT KE CO WRITER HAI .
sameeksha padne ke baad nahee lagta ki mujhe pasand aaegee.
400 bacha liye apane pati ke . :) dhanyvaad......

Arvind Mishra said...

वाह समीक्षा की क्या स्टाईल है ....हाँ गाद्फादर की बात सही है ..फिल्म चोर भी कालक्रम में कितने पीछे जाकर सेधमारी कर आते हैं !नाना पाटेकर को कुछ कुछ कृष्ण सा ही दिखाने का उपक्रम है किन्तु फिल्म किसी भी उद्येश्य में सफल होती नहींदिखती...

ZEAL said...

I agree with the views given here by the readrs.

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