पिछले दिनों अन्ना के आंदोलन के बीच सारा देश अन्नामय हो गया. हम भी अपवाद नहीं थे. समयानुसार टीवी, रामलीला मैदान, मोमबत्ती मार्च और शान्ति मार्च से अपना जुड़ाव और समर्थन व्यक्त करते रहे. अब चाहे चंडीगढ का सेक्टर १७ हो या नोएडा का सेक्टर १८. बारह दिनों के बाद आधी जीत तो हमने प्राप्त कर ली, लेकिन अब कुछ नए प्रश्न हमारे सामने खड़े हैं. इन सवालों का जवाब भावनात्मक नहीं, यथार्थ के धरातल पर और दिल से नहीं, दिमाग से सोचने होंगे. अब यह आधी जीत व्यवस्था के हवाले कर दी गयी है ताकि इसे पूरी जीत का जामा पहनाया जा सके.
इस पूरे आंदोलन के बीच बार-बार, किसी न किसी बात पर पीसी बाबू बहुत याद आये। पीसी बाबू यानी पायाती चरक जी, इतनी जल्दी भूल गए आप! कभी अखबार की सुर्खियों में उनकी शक्ल नज़र आयी तो कभी दफ्तर की शतरंजी बिसात से व्याकुल मन में पी सी बाबू का कथन “ व्यवस्था के कठघरे में खड़े होकर व्यवस्था से नहीं लड़ा जा सकता” गूंजता रहा!
और यही दिखाई भी दे रहा है. जो जन-लोकपाल बिल अब व्यवस्था की स्टैंडिंग कमिटी को सौंपा गया है या सौंपा जाने वाला है, उसमें मौजूद लोगों में शामिल हैं अमर सिंह, मनीष तिवारी और लालू यादव जैसे लोग. हो सकता है कि इनको भावनाओं की क़द्र करने के नाम पर हटा भी दिया जाए, लेकिन सिर्फ सूरत बदलेगी, सीरत वही रहने वाली है. व्यवस्था के अंदर की अव्यवस्था कहाँ बदलने वाली है. व्यवस्था के कठघरे में खड़े होकर व्यवस्था से नहीं लड़ा जा सकता.
इसी सोच-विचार में पी सी बाबू से हुई वो बातचीत याद हो आई, जिसमें उन्होंने वर्त्तमान आंदोलन के वैचारिक पहलू पर अपने विचार व्यक्त किये थे, जिनका सम्बन्ध दिल से नहीं दिमाग से अधिक था. प्रस्तुत है उसी बातचीत के कुछ अंश:
चैतन्य आलोक : सर! अपने देश की प्रॉब्लम आखिर है क्या ?
पी सी बाबू : सत्ता का अतिशय केन्द्रीकरण.
चैतन्य आलोक : पर हम तो संघीय ढ़ांचे में काम करते हैं?
पी सी बाबू : नहीं, उस दिखावटी संघीय ढाँचे की बात मैं नहीं कर रहा. इसका, सच पूछो तो कोई मतलब ही नहीं है।
चैतन्य आलोक : तो फिर उससे परे क्या है?
पी सी बाबू : देखो, इस बात पर अब देश में आम राय है कि “भारत के सभी संसाधनों" पर चन्द रईसों और ताकतवर लोगों का कब्जा है। रईसों और ताकतवर लोगों के बीच बनें इस “सशक्त गठबन्धन” को “सिंडीकेट या माफिया” कह सकते हैं।
चैतन्य आलोक : “सिंडीकेट या माफिया” !!? इतना खौफनाक क्या?
पी सी बाबू : अगर तुम्हें ये खौफनाक लगता है, तो चलो एक अलग तरह से समझने की कोशिश करतें है और देखते हैं कि देश में फैली (अ) व्यवस्था इस “सिंडीकेट” द्वारा किस तरह से निर्देशित और निर्धारित होती है। इसके बाद शायद मेरे इन कठोर शब्दों का आशय तुम्हे स्पष्ट हो।
चैतन्य आलोक : समझाइये सर!
पी सी बाबू : रईसों और ताकतवर लोगों का यह “सिंडीकेट” कुछ “नियम-कायदे” बनाता है ताकि जो लोग रईस और ताकतवर नहीं हैं वह इस (अ) व्यवस्था से हमेशा बाहर रहें। यह “सिंडीकेट”, सभी महत्त्वपूर्ण जानकारियों और ज्ञान को अपने नियन्त्रण में रखता है।
चैतन्य आलोक : जानकारियां और ज्ञान मतलब ?
पी सी बाबू : जानकारियों से यहाँ मतलब धन बनाने, व्यापार और रोजगार की उन सम्भावनाओं से है जिनका पूर्व ज्ञान मात्र कुछ लोगों को ही रहता है।
चैतन्य आलोक : मतलब कौन सी जगह हाई-वे बनाना है, किस प्रकार की टेक्नोलोजी या उत्पाद को बढावा देना है। सरकारी और निजी व्यापार और रोजगार की बयार किस तरफ बहेगी और उससे होने वाले लाभ की गंगा किस तरह और किस किस को तरेगी, वही सब।
पी सी बाबू : बिल्कुल ठीक। फिर इन जानकारियों को सीमित पहुंच तक रखने के लिये रईसों और ताकतवरों का यह “सिंडीकेट” बहुत से नियम-कायदों का मकड़जाल बुनता है। नियम-कायदों के इस मकड़जाल का पहला मकसद यही होता है कि “आम आदमी”, रईसों और ताकतवरों के इस वैभवशाली साम्राज्य से दूर रहे और उसे किसी भी तरह से चैलेंज करने की स्थिति में न पहुचें। नियम-कायदों के इस मकड़जाल में बहुत सी सीढ़ियां होती हैं और हर सीढ़ी पर एक गेट कीपर तैनात होता है।
चैतन्य आलोक : ह्म्म...
पी सी बाबू : यह (अ) व्यवस्था हर गेटकीपर को कुछ ताकत देती है जिनके द्वारा वह अपनी सीमा में नियत नियम-कायदों को नियंत्रित करता है।......
यह बात महत्वपूर्ण है कि गेटकीपर का अहम काम अपने उपर वाली सीढ़ी तक पहुंच को मुश्किल बनाना है, इसके परिणाम स्वरुप प्रत्येक उपर वाले गेटकीपर की ताकत कई गुना बढ़ती जाती है। और अंत में सिंडीकेट महा-शक्तिशाली हो जाता है।
चैतन्य आलोक : बहुत रोचक है, फिर..
पी सी बाबू : रईसों और ताकतवरों का यह सशक्त गठबन्धन या “सिंडीकेट”, अन्य सहयोगी लोगों के “शातिर नेटवर्क” के द्वारा नियम-कायदों के इस मकड़जाल को नियंत्रित करता है, और यह सुनिश्चित करता है (अ) व्यवस्था की सभी संस्थायें इस “शातिर नेटवर्क” के द्वारा नियंत्रित की जायें। इन संस्थायों के मुखिया के पद पर जब शातिर नेटवर्क के व्यक्ति को बैठाया जाता है तो उसकी ताकत बेहद उंचे दर्जे की हो जाती है क्योकिं उसके कार्य अब विधि और संविधान सम्मत हो जाते हैं और उन्हें चैलेंज करना मुश्किल ही नहीं लगभग नामुमकिन को जाता है। “सशक्त गठबन्धन या सिंडीकेट” इस बात के पूरे इंतजाम करता है कि “शातिर नेटवर्क” के एक- एक व्यक्ति को ताउम्र पूर्ण सरंक्षण दिया जाये।
चैतन्य आलोक : पर देश का “वाच डाग” मीडिया और इस “शातिर नेटवर्क” से बाहर हुये लोग क्या इतनी आसानी से इसे काम करने दे सकते हैं?
पी सी बाबू : “मीडिया” जो जनमानस को निरंतर प्रभावित करता है उसे भी इसी “शातिर नेटवर्क” द्वारा येन केन प्रकारेण नियंत्रण में रख कर “वाच डाग” से “लैप डाग” बना दिया जाता है। “शातिर नेटवर्क” में उन लोगों को सहर्ष स्वीकार कर लिया जाता जो या तो येन केन प्रकारेण, “सशक्त गठबन्धन या सिंडीकेट” को फायदा पहुंचाते हैं या फिर उनका बहुत विरोध करने की स्थिति में पहुंच जाते हैं। बहुत से गेटकीपर जो अपने रसूख और धनबल को बढ़ाने में कामयाब हो जाते हैं उन्हें भी शातिर नेटवर्क में शामिल कर लिया जाता है।
चैतन्य आलोक : (अ) व्यवस्था का तंत्र तो समझ आया सर। पर फिर भी इसे त्वरित रूप से चलाये कैसे रखा जाता है?
पी सी बाबू : (अ) व्यवस्था के पूरे तन्त्र को लालच रुपी इंजन से चलाया जाता है और इसके सभी कल पुर्जों में काले धन रुपी लुब्रीकैंट को डाला जाता है।
चैतन्य आलोक : सच कह रहें हैं, सर क्या इतना हौलनाक है यह खेल?
पी सी बाबू : हा..हा..हा.... (अ) व्यवस्था को देखने का एक नज़रिया यह भी है, चैतन्य बाबू!