सम्वेदना के स्वर

यह ब्लॉग उस सनातन उत्सवधर्मिता को जीवित रखने का प्रयास है,

जिसमें भाव रस और ताल का प्रतीक आम आदमी का भा-- बसता है.
सम्वेदनाएँ...जो कला, साहित्य, दर्शन, विज्ञान, राजनीति आदि के माध्यम से अभिव्यक्त होती हैं, आम आदमी के मन, जीवन और सरोकार से होकर गुज़रती हैं तथा तलाशती हैं उस भारत को, जो निरंतर लड़ रहा है अपने अस्तित्व की लड़ाई.....

Monday, April 26, 2010

भिक्षुक

(फोटो साभार: Ronn Ashore - Flickr)

[वह आता,
दो टूक कलेजे के करता
पछ्ताता पथ पर आता – निराला ]


दिसंबर की ठिठुरती ठंड में
दिल्ली के जनपथ पर
मुझे याद आ गए कविवर निराला
जब दिखा ‘भिक्षुक’ मुझे इक
ख़ुद में गठरी की तरह सिमटा हुआ
और माँगने को रुपए - दो रुपए सभी को ताकता.
उसकी आँखों में था एक प्रतिबिम्ब पीड़ा का
थे पेट और पीठ मिलकर एक होते
भूख से पीड़ित, विवश था माँगने को भीख
इक करुणा भरी आवाज़ देता
“ईश्वर के नाम पर भूखे कुछ भी दे दे बाबा !
एक रुपया दे दे बाबा !!”

थी बड़ी पीड़ा असीम, उसके करुण स्वर में,
थी सच्चाई भरी चेहरे के भावों में,
औ’ मर्मान्तक थी उसकी याचना, जो
बींधती सी पार होती थी हृदय से.

मैंने दस का नोट पाकिट से निकाला,
आँसुओं को रोकने का यत्न करते,
उस भिखारी की फटी झोली में डाला.
एक पल में मैं मुड़ा, निकला वहाँ से.
उसके क्रंदन से तुरत पीछा छुड़ा के.

एक सज्जन हँस के तब कहने लगे,
“ये ऐक्टर हैं साले, सब के सब!
फ़िज़ूल ही आपने पैसे गँवा डाले.”
मैं अपनी गीली आँखों में ज़रा सा मुस्कुराया,
और उन साहब की नासमझी को दुत्कारा.
बस इतना मन ही मन में गुन सका,
यदि ऐक्टिंग है ये तो अद्भुत है!
करोड़ों से तो कम अमिताभ भी लेता नहीं
इस ऐक्टिंग के,
इस बेचारे ने करोड़ों का ख़ज़ाना
कौड़ियों के मोल बेचा है.

तभी जनपथ पे बैठा भीख देखो माँगता है!
तभी जनपथ पे बैठा भीख देखो माँगता है!!

समर्पण:

यह कविता समर्पित है श्री सतीश सक्सेना को,
जिनकी   संवेदना को हम अपने   निकट पाते   हैं.

Saturday, April 24, 2010

SMS पोल की खोलो पोल


सन 1975 के पहले तो सब यही सोचते थे कि एक सिक्का हवा में उछाला जाए तो उसके ‘चित्’ या ‘पट’ आने की सम्भावना 50% है यानि आधी आधी. लेकिन 1975 की फिल्म शोले ने तो उस सम्भावना में भी नई सम्भावनाएँ जगा दीं, अगर सिक्का किनारे पर खड़ा हो जाए… फिर तो न ‘चित्’ न ‘पट’… और कहीं सिक्का दोनों तरफ से एक सा हुआ तो 100% सम्भावना है कि ‘पट’ ही आएगा.

इधर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने इस विज्ञान में महारत हासिल कर ली है. एक से बढकर एक आँकड़े और उनसे निकाले गए नतीजे इस तरह परोस रहे हैं जैसे फ़ायदा न हो तो पैसे वापिस. कौन सी पार्टी चुनाव में आगे रहेगी, कौन अपराधी है, किसे सज़ा मिलनी चाहिए, देश की नीति और दिशा कैसी होनी चहिए वगैरह वगैरह... लब्बो लुआब ये कि हर मर्ज़ का ईलाज है हक़ीम लुक़्मान के पास... और गोली सिर्फ एक … आँकड़े, यहाँ वहाँ से इकट्ठा किए हुए. इस थेरेपी का नाम दिया “ओपिनियन पोल” और चुनाव के संदर्भ में “एक्ज़िट पोल”.

इलेक़्ट्रोनिक मीडिया के इसी भ्रामक और निहित स्वार्थ द्वारा प्रायोजित “ओपिनियन पोल” के कारण पिछ्ले लोक-सभा चुनाव में चुनाव आयोग ने चुनाव के दौरान “एक्ज़िट पोल” या “ओपिनियन पोल” को प्रतिबन्धित कर दिया था. यह प्रतिबन्ध सिद्ध करता है कि इन हथकंडों के द्वारा इलेक्ट्रोनिक मीडिया लोगों के ओपिनियन को प्रभावित करने की स्थिती मे रह्ता है और यह बात भारत सरकार और चुनाव आयोग दोनों मानते है.

इसी ऋंखला में एक नई कड़ी है समाचर मनोरंजन चैनेलों द्वारा किए जाने वाले SMS पोल. देश दुनिया की ब‌ड़ी से बड़ी समस्या का कारण और निदान, आधे घण्टे के प्रोग्राम में नेता और जनताके सामने. दूसरे शब्दों में, ये समाचर मनोरंजन चैनेल सम-समायिक विषयों के कार्यक्रमों के दौरान SMS पोल कराते हैं. दर्शकों को बताया यह जाता है कि कार्यक्रम के दौरान इतने प्रतिशत SMS द्वारा जनता ने अपनी राय ज़ाहिर की. कार्यक्रमों के अंत में, इन SMS पोल मे हां या नहीं का प्रतिशत बता कर कार्यक्रम का एंकर, उस विषय पर देश की राय की घोषणा भी कर देता है.

जहाँ तक विश्वस्नीयता का सवाल है, इन चैनलों की तरह, इन SMS पोल की विश्वसनीयता भी खोखली है. NDTV के न्यूज़ पाइंट कार्यक्रम के एंकर अभिज्ञान प्रकाश तो कार्यक्रम शुरू होते ही हां या नहीं का प्रतिशत बताते है. यह प्रतिशत कार्यक्रम के दौरान आये SMS के साथ बदलते हुए, कार्यक्रम के अंत तक एकदम बदल जाता है.

अब अगर इस पूरी प्रक्रिया का सतही विश्लेषण करें तो यह पता चलता है कि कार्यक्रम की लोकप्रियता का आलम ये है कि कार्यक्रम के शुरू होने से पहले ही लोग, सिर्फ चैनल पर दिखाई जाने वाली स्क्रोल लाइन को पढकर ही, दनादन SMS दागने लगते हैं! और परिचर्चा में भाग लेने वाले महापुरुषों की अमृत वाणी से प्रभावित होकर कार्यक्रम के दौरान भी सिर्फ और सिर्फ SMS ही करते रहते हैं. और अंत में एंकर के प्रभावशाली व्यक्तित्व से, उसके देश के प्रति उत्तरदायित्व  बोध से, महापुरुषों के चिंता व्यक्त करने तथा उनकी समस्या के प्रति सोच से प्रभावित होकर देश के लोग अपना फैसला बता देते हैं, जो कभी कभी उनकी पूर्व धारणा या पूर्वाग्रह से अलग होता है. क्या बात है! वॉट ऐन आइडिया सर जी!!

क्या किसीने किसी एल्क्ट्रोनिक मीडिया पत्रकार से ये सवाल पूछने का साहस नहीं किया कि इस तरह के SMS पोल में ये क्यों नहीं बताया जाता कि:

क) कुल प्राप्त SMS की संख्या कितनी थी?
ख) एक मोबाइल नम्बर से एक से ज़्यादा प्राप्त हुए SMS मान्य होते हैं या नहीं? (यदि हां तो क्यों?)
ग) क़्या चैनल से जुड़े लोगों को इस SMS पोल मे भाग लेने से वंचित किया गया है या नहीं?
      (वे तो वैसे भी भाग नहीं लेते होंगे … क्यों पैसे बरबाद करें...उनको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त)
घ) देश के किन किन भागों से कितने SMS प्राप्त हुए?

मान लीजिये कि “मीडिया बकवास परोसता है?” इस विषय पर मात्र 5 SMS प्राप्त हुए जिसमे 3 ‘हां’ और 2 ‘नहीं’ हैं (जबकि 2 “नहीं” वाले SMS चैनेल ने स्वयं भेजे हैं) तो “मीडिया बकवास परोसता है” इस विषय पर देश की राय “हां” मे होगी - 60%. बस हो गया फ़ैसला, 5 लोगों ने 125 करोड़ लोगों की राय जता दी.

अब अगर हम कहें कि SMS पोल के परिणामों के साथ उन प्रश्नों के उत्तर भी दिए जाएँ जो हमने ऊपर पूछे हैं, तो SMS पोल की पोल खुल जायेगी! परंतु यह बताकर ख़ुद समाचार व्यापारी समाचार का धन्धा क्यों मन्दा करना चाहेगें ?

Thursday, April 22, 2010

एक सम्वेदना


चढते हुए पारे ने चालीस का स्तर पार कर लिया है
परिंदे प्यास के मारे दम तोड़ रहे हैं...
आइए...
 अपनी सम्वेदनशीलता को जीवित करें
अपने घर, आँगन, छत, मुंडेर, बाग, बगीचे, कहीं भी
एक बरतन में पानी रखें
उन परिंदों के लिए,
उनके जीवन के लिए
धरोहर हैं ये हमारी... इन्हें जीवन दान दें!!

आज पृथ्वी दिवस है - २२ अप्रैल २०१०:  हरियाली ही खुशहाली है!!

Wednesday, April 21, 2010

आवारा ग़ज़ल

ये इंसानों का जंगल है यहाँ सब छूट जाते हैं
बनाकर राह्बर का भेस, रह्ज़न लूट जाते हैं.

सफर कब खत्म होगा रूह का ये कौन बतलाए
ये बढ जाती है आगे जिस्म पीछे छूट जाते हैं.

किसी मासूम बच्चे की तरह ये शेर हैं नाज़ुक
ज़रा सा मुँह चिढाकर देख लो यह रूठ जाते हैं.

वो पढकर शायरी मेरी, दीवाने आम में अक्सर
सभी दादें और वाह वाह और मुकर्रर लूट जाते हैं.

दबाकर दिल की धड‌कन तुम, कदमपेशी यहाँ करना
यहाँ पर ख्वाब बिखरे हैं, जो अक्सर टूट जाते हैं.

हैं ये ‘सम्वेदना के स्वर’ कभी तीखे, कभी मद्धम
ना जाने सुनके इनको लोग क्योंकर रूठ जाते हैं.

(यह ग़ज़ल समर्पित है हरकीरत 'हीर' को जिनकी प्रेरणा ने इस आवारा ग़ज़ल को एक मुकाम दिया)

Monday, April 19, 2010

BPL बनाम IPL

पिछले दिनों समाचार पत्रों और समाचार मनोरंजन चैनलों पर दो खबरें छायी रहीं, एक खबर BPL-वाले भारत से थी : “दंतेवाड़ा मे CRPF के 76 जवानों का नक्सलवादी हमले में शहीद होना” और दूसरी खबर IPL-वाले इंडिया से थी: “केन्द्रीय मंत्री शशि थरूर का IPL विवाद के चलते मंत्रिमन्डल से इस्तीफा देना.” इन दोनों घटनाओं ने भारत और इंडिया के बीच की विभाजन रेखा को एकदम स्पष्ट कर दिया है, जिसकी चर्चा हम प्रायः अपने इस ब्लॉग के ज़रिए करते रहते हैं.
एक स्पष्ट विरोधाभास दिखाई देता है हमारे देश में और देश वासियों में और तब हम सोचने पर मजबूर हो जाते हैं, जब पता चलता है कि यह भेद विधाता ने नहींबीच, भारत भाग्यविधाता ने बनाया है.

BPL-वाला भारत, जिसके प्रतिनिधित्त्व का दावा करते हुए नक्सलवादी कह्ते हैं कि वे BPL (Below Poverty Line/गरीबी रेखा) से थोड़ा ऊपर और उससे नीचे वाले सभी वर्गों के लिये लड़ रहे हैं. इस BPL-वाले भारत की संख्या, भारत सरकार द्वारा गठित अर्जुन सेन गुप्ता कमेटी कुल आबादी का 78 प्रतिशत बताती है. आश्चर्यजनक है कि सुरेश तेन्दुल्कर कमेटी उसी आबादी को मात्र 39 प्रतिशत मानती है. ऐसे में हमारा मत यह है कि 39 प्रतिशत आबादी भुखमरी का जीवन जी रही है और कुल 78 प्रतिशत हिस्सा गरीबी के दायरे में है.
हिसाब करें तो बचाखुचा 22 प्रतिशत हिस्सा यानि मात्र 27 करोड़ लोग उस IPL-वाले इण्डिया में हैं, जो आर्थिक बयार में सराबोर होकर BPL-वाले भारत के लिये मनरेगा (महात्मा गाधीं राष्टीय ग्रामीण रोज़गार गारण्टी योजना) जैसी योजना बनाते है.
यह एक ऐसी ड्रीम योजना है जो सरकारी एजेंसियों द्वारा पहचान किए गये, हर गरीब परिवार के, एक व्याक्ति को साल मे 100 दिन का रोज़गार मुहैया कराने की “गारण्टी” है. अब यह सोचने की फिक्र किसे है कि साल मे 365 दिन होते हैं और ग़रीब के घर में दो बच्चों और माता-पिता को मिलाकर औसतन 6 सदस्य होते हैं.
BPL-वाले भारत के सिर्फ घरों मे ही नहीं, ज़िन्दगियों में भी घना अन्धकार है.

दूसरी ओर IPL-वाला इंडिया, जिसके प्रतिनिधि ललित मोदी का इण्टरनेशनल ब्रान्ड, क्रिकेट है और जिसमें बॉलीवुड के ग्लैमर का तड़का है, चियर गर्ल्स का भोंडा नाच है और भरा पड़ा है भ्रष्ट नेताओं तथा भ्रष्ट उधोगपतियों का काला धन.
BPL-वाले भारत से “जबरन छीने संसाधनों” के मज़े लूटता, IPL-वाला इंडिया बालीवुड और क्रिकेट की अफीम के नशे में “वन्स मोर”, “वन्स मोर” की पुकार मचा रहा है.
ये IPL-वाले इंडिया में ही सम्भव है कि किसी केन्द्रीय मंत्री की “महिला मित्र” को, उसके द्वारा कोच्ची टीम की इमेज़ चमकाने के लिए शीत-ताप-नियंत्रित कमरे में बहाए गये पसीने की कीमत 75 करोड़ रुपए लगायी जाती है, जबकि प्रेमचंद के भारत का होरी सिर्फ 100 रुपए में अपना ख़ून पसीना बेचता है.

क्या नारा दें हम अपने देश को I Love my India या मेरा भारत महान. कब तक भारत नारों को गूँधकर वादों की आँच पर BPL की रोटियाँ खाने को मजबूर रहेगा ?

Friday, April 16, 2010

मुख और मुखौटा


देख लो नोचकर नाख़ून से मेरा चेहरा
दूसरा चेहरा लगाया है, न चिपकाया है.

कहते हैं आईना दिल का हुआ करता है ये चेहरा, सब का.
जैसे हों दिल में उमड़ते हुए जज़्बात,
दिखा करते  हैं इस चेहरे पर.
गर किसी ने जो ओढ़ रखा हो चेहरा एक और
दिल में हों ज़हर, पर चेहरे पे तबस्सुम होगा.
ना लगाया भी हो चेहरा तो छुपा लेते हैं जज़्बात ये लोग
दिल मिले या न मिले, हाथ मिलाते हैं लोग.

माफ करना मैं दुनियादार नहीं हूँ इतना
दुनियादारी के तरीकों से है मुझे परहेज
मैंने कोशिश भी नहीं की, न हुनर सीखा है
इन  बनावट के उसूलों से बस किया है गुरेज

उस जगह जाना ही क्योंकर जहाँ सुकूँ न मिले?
दिल अगर मिल नहीं सकते मिलाना हाथ भी क्यों?
जिसकी इज़्ज़त नहीं उसको सलाम क्यों करना?

अपने चारों तरफ काँटे ही बुने हैं मैंने
फिर भी हैं प्यारे मुझे अपने ये कँटीले उसूल
इनमें उलझूँ तो कभी ख़ून निकल आता है
कभी चुभते हैं, तो एक टीस निकल जाती है.
शाम को पूछता है आईना मेरा मुझसे
यार चेहरा तो तेरा ख़ून से सना सा है!
एक हँसी होठों पे लहराती है मेरे उस वक़्त
आईना मेरा मुझे अब भी तो पहचानता है.

आप भी चाहें तो बस आजमा के देख लें आज
चाहे नाख़ून चुभो लें या काटें ख़ंजर से
मेरा चेहरा तो फ़क़त मेरा ही मेरा है दोस्त
दूसरा चेहरा लगाया है, न चिपकाया है.

( जनाब निदा फाजली  से उनके  शेर                                                                                                   
"दुश्मनी लाख सही ख़त्म न कीजे रिश्ता
दिल मिले या न मिले, हाथ मिलाते रहिये."
के अन्य सन्दर्भ में प्रयोग करने पर क्षमा याचना सहित)

चित्र साभार : गूगल

Monday, April 12, 2010

अभिव्यक्ति उत्सव - ब्लॉग जगत में दो माह

मैं… जब भी कुछ मह्सूस किया, आदतन उसे सामने पड़े किसी भी काग़ज़ के टुकड़े पर, या अखबार के किसी कोरे हाशिये पर, नज़्म की शक्ल में लिखा, दोहराया, कुछ दिन सम्भाला और फिर कहीं किसी कोने में रखकर भूल गया. लगा जैसे मन की बात को पर लग गये और जज़्बात के परिंदे उड़कर सरहद पार चले गये...अपनी ही कुछ नज़्मों से तो दुबारा मुलाक़ात भी नहीं हुई मेरी.

और वो...खबरों की तह तक पहुँचते, शतरंज की बिसात पर, सियासत के प्यादे से लेकर रानी तक की चाल पर नज़र रखते, व्यवस्था से नाराज़ और ‘वो सुबह कभी तो आएगी’ की उम्मीद लेकर ही हर रात सोने जाते..जितना सियासत, सत्ता और शकुनी के खेल देखते, उतना खून खौलता और तेज़ाब नसों में गर्दिश करने लगता. इस उबलते तेज़ाब के अंदर है, एक कोमल कवि हृदय, आध्यात्म से जुड़ा, शांति की तलाश में भटकता.

और यहीं से जुड़े मैं और वो..बना हमारा नाता...मैंने सोचा, अब अपनी बात ज़ाया नहीं होने दूँगा और उनको समझाया कि चलो ब्लॉग लिखें. मक़सद एक आम आदमी की ज़ुबान बनना, जो कहीं शायर है, तो कहीं क्रंतिकारी. वो वेदना जो हमने बरसों झेली उसे नाम दिया “सम्वेदना के स्वर”.

ब्लॉग लिखना हमारे लिये मात्र अभिव्यक्ति का माध्यम है. हमारा उद्देश्य ऐसे मुद्दे उठाना है जो आम आदमी से सरोकार रखते हों. हमारी चेष्टा रही है कि कहीं भी हमारे वक्तव्य से ऐसा न लगे कि हम भी उसी थैले के चट्टे-बट्टे हैं, जिनकी हम आलोचना कर रहे हैं. मक़सद हंगामा खड़ा करना नहीं, ये भी नहीं कि समाज या मुल्क़ की सूरत बदल जाये या हमारी बात से कोई इंक़लाब आ जाये. अगर हमारी बात किसी भी दिमाग़ में एक सोच को जन्म देती है, तो बस यही हमारी क़ामयाबी है. कुछ बातें हल्की फुल्की, कुछ संजीदा, पर दिलों को छूती हुई, सम्वेदनाओं को सहलाती हुई.

आज से दो महीने पहले जब लिखना शुरू किया था तो सिर्फ दो थे, आज इक्कीस हैं. खुशी है, लेकिन घमंड नहीं; गर्व है, पर अभिमान नहीं, हमने अपने लिये कुछ मानदंड निर्धारित किये. जहाँ तक हो सके, हम दूसरों के ब्लॉग पढते हैं और अपनी प्रतिक्रिया भी देते हैं. हमारी प्रतिक्रिया ब्लॉग के विषय और व्याख्या पर आधारित होती है. कभी भी सामान्य प्रतिक्रिया नहीं दी हमने,जो देखते ही रस्मअदायगी सी लगे और उस दिन के सारे ब्लॉगों पर चिपकी मिले. हमारे विषय जो भी हों, अगर कहीं भी हमने किसी के कोई बयान को किसी भी रूप में लिया है तो उसका उल्लेख भी किया और उनका आभार भी व्यक्त किया.

हमारा मानना है कि यह एक दोतरफा माध्यम है. अगर इसे सम्वाद के तौर पर लिया जाये तो मज़ा कई गुना बढ जाता है. भले ही इससे विस्तार थोड़ा कम होता है, लेकिन परिचर्चा का वातावरण बनता है, जो ब्लॉग का मुख्य उद्देश्य है.

इसके साथ ही हम आभार व्यक्त करना चाहते हैं उन सभी का जो हमसे जुड़े हैं और आगे भी हमारे साथ बने रहेंगे, ऐसी हम आशा रखते हैं. कुछ नाम,जिनका उल्लेख आवश्यक हैः

विवेक शर्माः फिल्म भूतनाथ के निदेशक… एक सुलझे हुए इंसान, अपने ब्लॉग के द्वारा एक लम्बे समय से जन साधारण से जुड़े हुए... और सही अर्थों मे ब्लॉग लेखन के धर्म को निभाते हुए...उनके, दिलों को छूते, ब्लॉग पर आपकी प्रतिक्रिया का तुरत जवाब देना और एक सान्निध्य स्थापित कर लेना...सही अर्थों में हमारी प्रेरणा ..

समीर लाल (उड़न तश्तरी) : कनाडा में बसे… सनदी लेखाकार और सहित्य सेवा… एक बेहतरीन कॉन्ट्रास्ट देखने को मिला... नपी तुली प्रतिक्रियाएँ, किंतु सटीक...बेबाक लेखन और विचारों की रफ्तार का तो कहना ही क्या...सचमुच उड़न तश्तरी ...

देवेश प्रतापः बड़े नियमित और ईमानदार ब्लॉगर...इतने ईमानदार कि अपने परिचय में ये भी लिख डाला कि मैंने जीवन में कुछ भी हासिल नहीं किया अब तक...और सादगी यह कि हमारे कहने से उसे हटा भी दिया... हम आभारी हैं आपके कि आपने हमें ये सम्मान दिया.

मनोज भारतीः एक शांत पाठक... एक गम्भीर साहित्य सर्जक...हमारे पथ प्रदर्शक एवं प्रेरणा स्रोत ..उनकी तकनीकी सलाह और मार्गदर्शन के लिए हम उनके ऋणी हैं ...उनके नए ब्लॉग के लिए हमारी शुभकामनाएँ..

विनोद कुमारः नियमित मेहमान... सधी और काव्यात्मक टिप्पणी देते रहते हैं..उनके विचारों में पैनापन है और कथन में धार..

कृष्ण मुरारी प्रसादः इनके लड्डू की मिठास से शायद ही कोई बचा हो... इनके नियमित लेखन (लगभग प्रतिदिन) से इनकी स्फूर्ति का अनुमान लगाया जा सकता है… अमीर खुसरो पर लिखा गया हमारा ब्लॉग, आपकी ही प्रेरणा है.

शांत रक्षितः हमारे ब्लॉग के नियमित मेहमान... सधी हुई प्रतिक्रिया होती है इनकी...

नवीन रावतः आग उगलती और शीतलता प्रदान करती टिप्पणियाँ एक अद्भुत प्रभाव उत्पन्न करती हैं.

ऊर्मि चक्रवर्तीः इनका नियमित और विभिन्न विधाओं पर लिखना हमें प्रेरणा प्रदान करता है... इनकी कविताओं में एक सचाई है...क्योंकि इनकी कविताएँ निश्छल हैं.

मनोज कुमारः सजग नियंत्रक...आभार आपका कि हमारी पोस्ट को आपने चर्चा मंच 11.04.2010 में स्थान दिया.

इसके अतिरिक्त हमारे इन सुधि पाठकों ने भी हमारे आँगन में पदार्पण किया...भले ही एक या दो बार, किंतु हम इनके आभारी हैं:

अजय कुमार झा, संजीत त्रिपाठी, निशाचर, प्रिया, राकेश नाथ, बेचैन आत्मा, अरविंद मिश्रा, रणविजय, सतीश सक्सेना, सुमन, मीनाक्षी, भारतीय नागरिक, स्वामी चैतन्य आलोक, नवीन, एरिना दास, गुड्डू, अरशद अली, रोशन जायसवाल, विशाल गोयल, पुनीत चौहान, कौशल तिवारी, ललित शर्मा, ओम प्रकाश, निर्भाब,  अनुभव प्रिय, अरुण सारथी, अभिव्यक्ति, एस्पी, क्षमा, राजेंद्र, ख़यालात, झरोखा, क्षितिज के पार, विकास एवं शलभ गुप्ता 'राज' एवं अज्ञात. यदि कहीं किसी का आभार प्रकट करने में कोई चूक हो गयी हो तो क्षमा प्रार्थी हैं.

इस विशाल अंतर्जाल में एक विंदुमात्र का स्थान रखते हुए, हमने यह प्रयास किया है कि अपनी अनुभूतियों को ईमानदारी से व्यक्त कर सकें और आपके साथ बाँट सकें, बिल्कुल वैसे ही जैसा हमने अनुभव किया.


Saturday, April 10, 2010

किरन खेर : मुर्गा-लड़ाई मे घुसी शेरनी



अचानक इस विषय पर लिखना पड़ेगा, ऐसी हमारी तैयारी भी न थी और योजना भी नहीं. लेकिन एक घटना ने हमें विवश कर दिया लिखने पर. पिछली रात, पौने ग्यारह का समय था ! बुद्दू बक्से के रिमोट पर उंगली क़िकेट खेल रहा था कि अचानक NDTV 24 X 7 पर चल रही मुर्गा-लडाई दिखाई दी. आगे बढने को ही था कि खास मुर्गों पर नज़र पड़ी. स्टूडियो में थे कॉंग्रेस के अभिषेक मनु सिंघवी, भा.ज.पा. के रवि शंकर प्रसाद और मुम्बई से अप्रत्यक्ष रूप से इस मुर्ग़ा लड़ाई में शामिल थीं बॉलिवुड अभिनेत्री और भा.ज.पा. की नेत्री किरण खेर. दूसरी तरफ NDTV ने अपने प्रतिद्वंद्वी चैनेल से बिठा रखा था IBN7 के आशुतोष को.

किरण के बारूदी तेवर पहले देख चुका था और NDTV पर IBN-7 के आशुतोष को देखकर लगा कि बैकग्राउंड में “मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है” बज रहा होगा. बात चौंकने वाली थी. उस पर मुर्गा लडाई का शीर्षक था “ क्या मीडिया को सेलेब्रिटीज़ के व्यक्तिगत जीवन मे इस कदर दखल देना चाहिये जैसा शोएब–आयशा-सानिया विवाद मे हुआ?”

इतना आकर्षण बहुत था उंगलियों को रिमोट से हटाकर आराम देने के लिये और हमारी वैचारिक खुजली मिटाने के लिये. और इस मुर्ग़ा लड़ाई में तो पीछे बैठने वाला सयाना स्वयम चोंचबाज़ी करने आया था, तो सोचा कुछ देर यहीं ठहर कर तफरीह की जाये.

इस संक्षिप्त सी मुर्ग़ा लड़ाई की उससे भी संक्षिप्त सी झलकी प्रस्तुत है. भीड़ की प्रतिक्रिया कोष्ठक में दी गई हैः

निधि राज़दान : हमारे प्रतिद्वन्दी चैनल के आशुतोष जी आज के विषय पर पहला सवाल है कि क्या शोएब–आयशा-सानिया विवाद का इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने ज़रुरत से ज़्यादा एक्स्पोज़र किया है ?

(बहिन जी! ये 'जरुरत भर' भी आप ही बताती हैं और 'जरुरत से ज़्यादा भी'....पब्लिक तो बस साबुन-तैल-शैम्पू चुनने के लिये ऐसे वहियात कार्यक्रम देखती है)

आशुतोषः (अ....आ....के बीच, अपनी हिन्दी सोच को तुरंत-फुरंत अंग्रेज़ी के कपड़े पहिनाते हुए) देखिये! यह कहना गलत होगा कि इस विवाद को मीडिया ने जरुरत से ज़्यादा एक्स्पोज़र दिया है. अ....आ..... आखिर सेलेब्रिटीज़ को इसके लिये तैयार रहना ही चाहिये, सेलिब्रिटीज़ पब्लिक आइकोन हैं, तो मीडिया ये सब दिखायेगा ही...

निधि राज़दान:  हां, बिल्कुल ठीक, सेलेब्रिटीज़ मीडिया का इस्तेमाल करके पब्लिसिटी के द्वारा ही तो सेलिब्रिटीज़ बनते हैं.

(जैसे ये मीडिया पब्लिसिटी फ्री मे चैरिटी के नाम पर करता होगा, है न??? भैय्या हमको मालूम है जन्नत की हकीकत...लेकिन.....)

आशुतोष : अ....आ....प्रिंट मीडिया ने भी खूब छापा है इस विषय पर. दरअसल इलेक्ट्रानिक मीडिया एक अलग तरह का माध्यम है जो 24 घण्टे काम करता है. अ...आ...अभी हम भी, इसे पूरी तरह से समझ नहीं पाये हैं?

(हा.. हा.. हा....हमें पता है ! आप ही देर से समझे ,आशुतोष भाई. वास्तव में “ये बन्दर के हाथ उस्तरा लगने वाली कहानी है !!)

इसके साथ ही रविशंकर प्रसाद ने भी टी.आर.पी. की बात उछाली और अभिषेक मनु सिंघवी ने भी क्लिष्ट सी विधि की भाषा में कुछ कहा, जिनका सारांश ये था कि मीडिया ये सारे एक्स्पोज़र सस्ती लोकप्रियता यानि टी.आर.पी. के लिए करता है.

(सत्य वचन महाराज. विरोधियों की सीडियाँ दिखवाकर आप भी तो अपनी टी.आर.पी. इनके माध्यम से ही बढवाते हैं और आज रत्नाकर से वाल्मीकि बने रामायण बाँच रहे हैं...धन्य प्रभु, वाह वाह!!)

आशुतोष : ऐसा आप नहीं कह सकते कि हम सिर्फ सेलेब्रिटी के एक्स्पोज़र ही दिखाते हैं. हमने तो महिला आरक्षण बिल पर भी सुबह 9 बजे से देर रात तक परिचर्चा दिखाई थी.

(लो कल्लो बात!! हम भी हफ्ता भर झूठ बोलने और रिश्वतखोरी करने के बाद मज़ार पर चादर और मंदिर में सवा किलो लद्दू चढा देते हैं. अब इसका ढिंढोरा क्या पीटना)

निधि राज़दान : किरण खेर जी आपका इस विषय़ पर क्या कहना है ?

किरण खेर : आज संस्क्रति Guilt और Shame को केन्द्र मे रखकर चल रही है. इंसान Guilt झेल लेता है क्योंकि वह उसके अंदर होता है. लेकिन Shame एक सामजिक पीड़ा है, जो अधिक कष्ट पहुँचाती है. अभी हाल ही में अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के प्राध्यापक द्वारा की गई आत्महत्या इस बात का सबूत है. वह आदमी अपने guilt के साथ रह रहा था, लेकिन मीडिया ने एक्स्पोज़ करके उसे shame के दलदल में धकेल दिया. नतीजा आपके सामने है. वह अपराधी था या नहीं, ये बहस का मुद्दा हो सकता है, लेकिन उसके अपराध की सज़ा कम से कम मौत तो नहीं ही हो सकती.
फिर ये कहना भी गलत होगा कि सेलेब्रिटीज़ बहुत ताकतवर हैं, जबकि इस देश मे “सरकार” और “मीडिया” ही सर्वशक्तिशाली हैं. मैं आप से पूछती हूँ कि क्या मीडिया पर्सनालिटीज़ सेलेब्रिटीज़ नहीं हैं? क्या निधि राज़दान, आशुतोष, बरख़ा दत्त, राजदीप सरदेसाई सेलेब्रिटीज़ नहीं हैं? फिर ऐसा क्यों है कि इन पर कोई एक्स्पोज़ करने के कार्यक्रम नहीं होते? इनकी लाइफ स्टाइल की चर्चा क्यों नहीं होती?

(हा...हा...हा... किरण जी आप ने कहाँ के सवाल पूछ लिये. मंदिर में बैठकर भगवान के अस्तित्व का प्रश्न उठा दिया आपने... जिन्होंने अपना सारा जीवन समाज की बुराइयाँ एक्स्पोज़ करने में लगा दिया हो, उनके चरित्र पर प्रश्न चिह्न लगाना आपको शोभा नहीं देता..)

मुर्गा लड़ाई में कोई मुर्गी इस तरह बेतकल्लुफ हो जायेगी, कतई अप्रत्याशित था! बहरहाल... मुर्गा-लडाई का यह खेल थोड़ी देर और चला...घर बुलाए मेहमान, आशुतोष, के घाव पर मरहम पट्टी की गई और बात सबसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर आ गई यानि कॉमर्शियल ब्रेक.

चंडीगढ की शेरनी ने जो सवाल सबके लिए छोड़ा शायद उसपर कभी चर्चा न हो. लेकिन मन में एक नई सोच लिए, मैंने रिमोट पर उंगली दबाई और IPL की अफीम चाटकर सोने के लिए हमने मोहाली के मैच का रुख किया. चड़ीगढ़ के पठ्ठे इधर भी फट्टे चक रहे थे.

Tuesday, April 6, 2010

मुर्गा लड़ाई- लखनऊ के चौक से, टेलिविज़न स्टूडियो तक

(चौथे खम्भें मे लगी दीमक भाग -3)


नवाबों का शहर लखनऊ और नवाबी ठाठ का एक नमूना – मुर्गा लड़ाई. मीर और मिर्ज़ा की शतरंज की तरह, मुर्गा लड़ाई भी नवाबी शौक का एक हिस्सा थी. अपने-अपने मुर्गे को दाना पानी खिला-पिलाकर एक दूसरे से भिड़ा देते थे. शहर के चौक पर मुकाबला होता और चारों तरफ लोगों का हुजूम.

इधर मुर्गे उछल-उछल कर एक दूसरे पर चोंच और पंजों से वार करते और उधर लोग चीख-चीखकर मुर्गों की हौसला अफजाई करते. इस चीखोपुकार में कब वो भीड़ सफ़ेद और काले मुर्गे के हक में या खिलाफ खड़ी हो जाती, पता ही नहीं चलता. खेल की शुरुआत में जिस भीड़ की मुर्गों से कोई जान-पहचान भी नहीं होती, खेल के दौरान, काले या सफ़ेद मुर्गे के खेमे में बंट जाती और खेल खतम होने पर उन मुर्गों की हार या जीत पर कभी खुशी कभी गम मनाती हुई लौटती.

खेल के बीच भीड़ के पीछे चुपचाप कुछ सयाने इस लड़ाई को बड़े तजुर्बेकार नज़रों से देखते, तोलते और बोलते कि किस मुर्गे पर बड़ा दांव खेला जा सकता है. बड़े बड़े रईस इनकी राय पर बड़े से बड़ा दांव लगाते. इन मुर्गों पर लगी होती थी नवाबों की दौलत और पुश्तों की कमाई इज्ज़त. ये सयाने दरसल इन नवाबों के आदम मुर्गे होते थे.


वक्त बदला, देश और समाज बदला. जानवरों के खिलाफ अत्याचार की बात संजीदगी से ली जाने लगी और मुर्गा लड़ाई बंद हो गयी. लेकिन इंसान की सिफत है, आदतें मुश्किल से ही जाती हैं. और नशे की आदतें तो जाती ही जान के साथ हैं. नवाबों को नूरा कुश्ती का नशा और सयानों को सौदेबाजी का - इतनी आसानी से कहाँ छूटने वाली हैं ये लतें और ऐसे में भीड़ को भी तो मिलना चाहिये, अपना जोश और गुबार निकालने का कोई ज़रिया..

आज मुर्गा लड़ाई कि ये सांस्कृतिक विरासत संभाली है, हमारे न्यूज़ इंटरटेनमेंट यानि समाचार मनोरंजन चैनलों ने. शहर का चौक बना है उनका स्टूडियो और मुर्गे हैं तीन सियासी पार्टियां... काली, सफ़ेद और चितकबरी. इनको लडाता हुआ जोर जोर से बा-आवाज़-ए-बलंद चीखता रहता है न्यूज़ चैनल का एंकर. ऐसा दिखाने कि कोशिश हो रही होती है कि बस देश कि सूरत बदल डालेंगे. राय, सलाह, चेतावनी, हवाले, इलज़ाम, बचाव, पलटवार... लब्बो-लुआब ये कि कोई भी मुर्गा दूसरे को हराने का कोई भी दांव नहीं छोडना चाहता.

हर चौक पर अलग अलग मुर्गों की लड़ाई चल रही होती है. जहां मुर्गों की अहमियत होती है वहाँ इसे नाम दे दिया “बिग फाईट” (NDTV 24X7) या “मुकाबला” (NDTV INDIA), जहां भीड़ कि अहमियत साबित करनी हुई, वहाँ नाम दिया “we, the people” (NDTV 24X7) या “हम लोग” (NDTV INDIA). कोई कोई तो सीधा नाम दे डालता है “मुद्दा” (IBN7).

नाम चाहे जो भी हो, लड़ाई के उसूल वही रहते हैं और सबकी कोशिश यही हो रही होती है कि कोई हारे भी नहीं और नतीजा भी न निकले. क्योंकि असल मकसद तो साफ़ है कि ज़्यादा से ज्यादा दांव लगें ताकि भरपूर कमाई की जा सके. सप्ताहांत में चलने वाला ये खेल, आने वाले हफ्ते को खनकती शुरुआत जो देता है, सिक्कों की खनक से गूंजती सुनहरी सुबह.

कभी गौर से स्टूडियो में चलने वाली इस लड़ाई को देखें तो आपको जॉर्ज ओरवेल की “एनीमल फ़ार्म” का आखिरी हिस्सा याद आ जाएगा, जहां उन्होंने लिखा था कि उन सबके चेहरे इस क़दर आपस में मिल गए थे कि ये फैसला करना बड़ा ही मुश्किल था कि उनमें आदमी कौन है और “मुर्गा” कौन ?
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