सम्वेदना के स्वर

यह ब्लॉग उस सनातन उत्सवधर्मिता को जीवित रखने का प्रयास है,

जिसमें भाव रस और ताल का प्रतीक आम आदमी का भा-- बसता है.
सम्वेदनाएँ...जो कला, साहित्य, दर्शन, विज्ञान, राजनीति आदि के माध्यम से अभिव्यक्त होती हैं, आम आदमी के मन, जीवन और सरोकार से होकर गुज़रती हैं तथा तलाशती हैं उस भारत को, जो निरंतर लड़ रहा है अपने अस्तित्व की लड़ाई.....

Wednesday, March 30, 2011

इस मौसम की बदसूरती के खिलाफ – (मोहाली से सीधा प्रसारण)

मोहाली में पँजाब क्रिकेट एसोसिएशन के स्टेडियम से कुछ दूरी पर घर है, पंजाबी कवि अमरजीत कौंके का। उनकी एक कविता “इस मौसम की बदसूरती के खिलाफ” न जाने क्यों अनायास ही स्मरण में आ गयी, सोचा पोस्ट के माध्यम से आज क्यों न इसी का सीधा प्रसारण कर दिया जाये !

इस मौसम की
बदसूरती के खिलाफ
मैं इतना करुंगा -

मैं उखाड़ कर फेंक दूंगा
गमलों में उगे तुम्हारे कैक्टस
और बोऊंगा इस मिट्टी में

गुलाब के बीज



तुम देखोगे
कि इस मिट्टी में
जहाँ उगे थे तुम्हारे
कटींले कैक्टस
वहीं खिलेंगे – सुर्ख गुलाब

जो महका देंगे
समूचा वातावरण

मै इतना करुंगा
कि मै घर में पालूंगा
एक बुलबुल
जिसके गीत टकराएंगे
इन काली खबरों से
और यकीन है मुझे
कि लौटेंगे विजयी हो कर

इस मौसम की
बदसूरती के खिलाफ

मैं अपने बच्चों के
होठों पर बांसुरी
और हाथों पर पुस्तकें रखूंगा

मैं इतना करूंगा !

Saturday, March 26, 2011

अर्थ आवर - अंधियारा भारत बनाम चमकता इंडिया (एक रीपोस्ट)

“अर्थ आवर” का अर्थ, पढे लिखे लोगों के लिये बहुत गहरा है. आज दुनिया के 121 देशों ने इस महायज्ञ में भाग लिया और वहाँ की जनता ने रात साढे आठ बजे से साढे नौ बजे के बीच घर की बत्तियाँ गुल कर दीं. हमारे देश की गिनती भी उन देशों में है.
लेकिन ठहरिये! ये कैसा योगदान है कि एक तरफ आम आदमी घर की बत्ती गुल किये बैठा रहा. दिल्ली में लाल क़िले और क़ुतुब मीनार को अंधेरे के हवाले कर दिया गया. मक़सद ये कि इससे तपती धरती को ठंडक मिले. वहीं हज़ारों वाट की दूधिया रोशनी में हो रहे क्रिकेट के खेल के दौरान कोई “अर्थ आवर” नहीं मनाया गया. क्योंकि सवाल Earth का नहीं ‘अर्थ’ का है, करोड़ों रुपयों के आर्थिक दाँव का.

ज़रा सोचिये ! इंडिया के अंदर एक भारत भी बसता है. एक ओर इंडिया ने “अर्थ आवर” के नाम पर घंटे भर बत्तियाँ बुझा दीं, वहीं दूसरी तरफ भारत, इस आस में बिजली के खम्बों की ओर देख रहा था कि शायद आज आधे घंटे के लिये भी उनको बिजली के दर्शन हो जायें.
गुलज़ार साहब ने तो कहा है - हिंदुस्तान में दो दो हिंदुस्तान दिखाई देते हैं. उनका मतलब कतई इस बात से नहीं होगा कि एक तरफ इंडिया घंटे भर का “अर्थ आवर” celebrate करता है और दूसरी तरफ बरसों से “अर्थ आवर” की मजबूरी झेल रहा है - हमारा भारत.

Thursday, March 24, 2011

पाँचवें खम्बे की अदालत में “गजब बेशर्मा”


आज का मुक़दमा हम चलाने जा रहे हैं बुद्धू बक्से के धंधे के सबसे चतुर व्यापारी श्री गजब बेशर्मा पर। आप पूरे एलेक्ट्रानिक मीडिया के समाचार मनोरंजन व्यवसाय के प्रेरणा-स्रोत हैं। आपके कुशल मार्गदर्शन में भौंडिया टीवी के व्यापार में कैसे दिन दूनी रात चौगुनी वृद्धि हुई, यह किसी से छिपा नहीं है.
तो शुरु होता है गजब बेशर्मापर आज का मुकदमा:

आरोप नम्बर : 1
आपके भौडिया टीवी ने निम्नस्तरीय खबरों को राष्ट्रीय मह्त्त्व का बना दिया है?

डेविल्स ऐडवोकेट : जनता को आपसे सबसे बड़ी शिकायत यह है कि आपने गली मुहल्लों की खबरों को राष्ट्रीय महत्व की खबरों से अधिक महत्व दिया है। मेरे पास यह आपके चैनल की क्लिपिंग है जिसमें आपके चैनल पर दिखाया गया था कि झुमरी तलैय्या में एक भैस पिछले चार दिन से खाना नहीं खा रही है, जबकि इसी समय की सबसे बड़ी खबर थी महाराष्ट्र के यवतमाल में पांच किसानों द्वारा आत्महत्या करने की. इसी समय सूडान का अकाल भी विश्व समाचारों की सुर्खियों में था।  

गजब बेशर्मा: देखिये मीडिया के काम में हम किसी भी तरह की दखलन्दाजी स्वीकार नहीं कर सकते. यह एडिटर-इन-चीफ का अधिकार है कि वो किस समाचार को कितना महत्त्व देता है। परसेप्शन का फर्क तो हमेशा ही रहेगा. मुझे कहते हुये गर्व है कि हमारे स्ट्रिंगर देश के गाँव गाँव में फैले हैं और समाजवाद की भावना से ओतप्रोत, वे आदमी और जानवर दोनों की ही समस्यायों से सरोकार रखते हैं, इसमे गलत क्या है? जिन खबरों का जिक्र आप कर रहें हैं वो हमारी खबर-पट्टी पर जरूर चल रही होगी, क्योंकि बाकी चैनलों पर ताजा खबर क्या है, उस पर तो हमारी हर पल निगाह रहती है.

आरोप नम्बर : 2
आप का चैनल एकदम बेहूदा है?

डेविल्स ऐडवोकेट : आप के चैनल पर दूसरा आरोप यह है कि आपके चैनल ने बेहूदगी की सभी हदें पार कर रखी हैं। कभी पृथ्वी के नष्ट होने की खबर दी जाती है, कभी फिल्मी सितारों की अंतरंग झूठी बातें मज़े ले लेकर बतायीं जाती हैं। अक्सर ही कोई अजीबोगरीब आदमी या औरत आप के स्टूडियों में बैठा होता है... किसी के कान से पत्ते निकल रहे होते हैं, तो कोई आवाज़ निकाल कर शरीर का मोटापा कम करने का दावा कर रहा होता है। 

गजब बेशर्मा: (एक कुटिल से मुस्कान के साथ) आप कौन सी दुनिया के हैं वकील साब?
(हा..हा..हा...जनता का प्रीरिकार्डिड ठहाका गूंजता है)  मेरे चैनल की टीआरपी का कुछ पता है आपको? जरा अपने वातानुकूलित कमरों से बाहर निकल कर देखिये कि भारत की जनता ने आपकी इन आभिजात्य खबरों को कब का बेहूदा करार कर रखा है। टाई सूट पहनकर, फर्राटा अंगेजी में 2जी-3जी करने वाले डिस्क्शन्स हों या बिग फाईट जैसी प्रायोजित मुर्गा-लड़ाईयाँ जो आप दूसरे तथाकथित सोबर चैनलों में देखते हैं, वो गाँवों और गली-मुह्ल्लों की जनता न देखती है न समझती है.

आरोप नम्बर : 3
देश में अन्ध विश्वास को बढ़ावा देने में आपका स्थान पहला है।   

डेविल्स ऐडवोकेट : हमारे पास खबरची एसोसिएशन की रूल बुक है, जिसमें साफ-साफ़ लिखा है कि कोई भी चैनल ऐसा कार्यक्रम नहीं दिखायेगा, जिससे आम जनता में अन्धविश्वास फैले। आप इस संस्था के सम्मानित एवं जीवन-पर्यंत सदस्य हैं, तब भी आपके चैनल द्वारा सर्वाधिक कार्यक्रम अन्धविश्वास को बढावा देने वाले होते हैं।

गजब बेशर्मा: इस देश में रूल बुक का मतलब सिर्फ इतना है कि आपको पता रहे कि आप कौन कौन से रूल तोड़ कर तरक्की कर सकते हैं। वरना बहुत समय उल्टा रास्ता ढूँढने में ही लग जाता। अब जब एक ओर देश के प्रतिभावान वैज्ञानिक नासा की नौकरी कर रहें हैं और दूसरी तरफ एंट्रिक्स में बैठे बिठाये मुफ्त की खाने को मिल रही है, तो कहां से और क्यों लाएं हम वैज्ञानिक खोज की खबरें। यह न भूलें कि भारत की जनता हमेशा से आस्थावान रही है. भारत हमेशा से मानता रहा है कि इस दुनिया को भगवान राम चला रहें हैं, वो पेड़ के पत्ते भी हिला रहें हैं और वही इन वैज्ञानिकों को डिग्रियां भी दिला रहें हैं। आपको पता है कि हमने भारतीय उपग्रह के सफल प्रक्षेपण के बाद एक खबर यह भी दिखायी थी कि इसरो (भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन) के मुखिया ने तिरुपति बालाजी को प्रसाद चढाया. यह देश इसी राम के भरोसे चल रहा है मिस्टर डेविल्स ऐडवोकेट, हम दैवीय चमत्कारों पर आम भारतीय की आस्था को बनाये रखने का महति काम कर रहे हैं।    
 
आरोप नम्बर : 4
पद्मश्री पुरस्कार न मिलने के कारण आप बेवज़ह पत्रकारिता से बदला ले रहें हैं ?

डेविल्स ऐडवोकेट : आप पर इलजाम है कि आपके बाद आने वाले टेलीविज़न मीडिया के लोगों को पद्मश्री मिल गयी, पर आपको नहीं मिली. इस कारण आप अपना गुस्सा अब मुख्य धारा की टेलीविज़न पत्रकारिता को टेबलाएड पत्रकारिता बनाकर ले रहे हैं।  

गजब बेशर्मा: (एक कुटिल मुस्कान के साथ) नहीं... बिल्कुल नहीं! मुझे भला दूसरों के पद्मश्री होने पर क्यों आपत्ति होगी? चरखा भक्त भाग्यशाली थी जो उसकी बनाई सरकार सत्ता में आ गयी. मेरी बनाई हुई आती तो मुझे मिल जाता। यह तो सब लाबिइंग का खेल है. उल्टा अब तो मैं खुश हूँ यह सोचकर कि वीर गति को प्राप्त होने और जीरा का तडका लगने से मैं बच गया! भृगु बावला की सीधी बात, कब उल्टी पड़ जाये, यह रिस्क अब बढते जा रहे हैं धंधे में। रही टेलीविज़न पत्रकारिता को, टेबलाएड पत्रकारिता बनाने के इलज़ाम की, तो सच यही है जनाब डेविल्स ऐडवोकेट कि यह फोर्थ एस्टेट अब रियल-एस्टेट हो गया है, जो हमने शुरु किया अब सभी वही कर रहें हैं क्योंकि धंधे का सच यही है।
(स्टूडियो दर्शकों के तालियों के बीच गजब बेशर्मा की कुटिल मुस्कान के साथ डेविल्स एडवोकेट दर्शकों से मुखातिब होता है)
आज की सुनवाई पर जज साहब का निर्णय :

इस मुक़दमे का फ़ैसला सुनाने के लिये कोई न्यायाधीश नहीं है अदालत में. डेविल्स ऐडवोकेट के  अभियोग एवम श्री गजब बेशर्मा की दलील सुनकर फ़ैसला आपको लेना है. ध्यान रहे कि आपका फ़ैसला चौथे खम्बे की सूरत बदल सकता है. और प्रेमचंद जी की मानें तो पंच के पद पर बैठकर तो कोई किसी का मित्र होता है शत्रु. तो रखिये हाथ अपने अपने दिल पर और सुनाइये फ़ैसला आज के मुक़दमे पर !

Friday, March 11, 2011

भारत में (अ) व्यवस्था किस तरह से काम करती है ?

पिछले दिनों बार बार, किसी न किसी बात पर पी सी बाबू याद आये। कभी अखबार की सुर्खियों में उनकी शक्ल नज़र आयी तो कभी दफ्तर की चौसर से व्याकुल मन में पी सी बाबू का कथन “ व्यव्स्था के कठघरे में खड़े होकर व्यवस्था से नहीं लड़ा जा सकता” गूंजता रहा!

यही कारण था, कि इस रविवार मन नहीं माना और मै जा पहुचां पी सी बाबू के घर!

पी सी बाबू की बैठक में पहले ही से कई लोग बैठे थे और बातचीत में आसपास की समस्यायॉ से लेकर देश और समाज के समकालीन प्रश्नों पर भी सब अपनी अपनी राय दे रहे थे। इसी पृष्ठभूमि में पी सी बाबू से लम्बी बातचीत हुयी जो हमेशा की तरह अविस्मर्णीय रही : -

चैतन्य आलोक : सर! अपने देश की प्रोब्लम है क्या आखिर?
पी सी बाबू : सत्ता का अतिशय केन्द्रीकरण ।

चैतन्य आलोक : पर हम तो संघीय ढ़ांचे में काम करते हैं?
पी सी बाबू : नहीं, उस दिखावटी संघीय ढांचे की बात मैं नहीं कर रहा, जिसका कोई मतलब ही नहीं है।

चैतन्य आलोक : तो फिर उससे परे क्या है?
पी सी बाबू : देखो, इस बात पर अब देश में आम राय है कि “भारत के सभी संसाधनों" पर चन्द रईसों और ताकतवर लोगों का कब्जा है। रईसों और ताकतवर लोगों के बीच बनें इस “सशक्त गठबन्धन” को “सिंडीकेट या माफिया” कह सकते हैं।

चैतन्य आलोक : “सिंडीकेट या माफिया” !!? इतना खौफनाक क्या?
पी सी बाबू : चलों, एक अलग तरह से समझने की कोशिश करतें है और देखते हैं कि देश में फैली (अ) व्यवस्था इस “सिंडीकेट” द्वारा किस तरह से निर्देशित होती है। इसके बाद शायद मेरे इन कठोर शब्दों का आशय तुम्हे स्पष्ट हो।

चैतन्य आलोक : समझाइये सर!
पी सी बाबू : रईसों और ताकतवर लोगों का यह “सिंडीकेट” कुछ “नियम-कायदे” बनाता है ताकि जो लोग रईस और ताकतवर नहीं हैं वह इस (अ) व्यवस्था से हमेशा बाहर रहें। यह “सिंडीकेट”, सभी महत्त्वपूर्ण जानकारियों और ज्ञान को अपने नियन्त्रण में रखता है।

चैतन्य आलोक : जानकारियां और ज्ञान मतलब ?
पी सी बाबू : जानकारियों से यहाँ मतलब धन बनाने, व्यापार और रोजगार की उन सम्भावनाओं से है जिनका पूर्व ज्ञान मात्र कुछ लोगों को ही रहता है।

चैतन्य आलोक : मतलब कौन सी जगह हाई-वे बनाना है, किस प्रकार की टेक्नोलोजी या उत्पाद को बढावा देना है। सरकारी और निजी व्यापार और रोजगार की बयार किस तरफ बहेगी और उससे होने वाले लाभ की गंगा किस तरह और किस किस को तरेगी, वही सब।
पी सी बाबू : बिल्कुल ठीक। फिर इन जानकारियों को सीमित पहुंच तक रखने के लिये रईसों और ताकतवरों का यह “सिंडीकेट” बहुत से नियम-कायदों का मकड़जाल बुनता है। नियम-कायदों के इस मकड़जाल का पहला मकसद यही होता है कि “आम आदमी”, रईसों और ताकतवरों के इस वैभवशाली साम्राज्य से दूर रहे और उसे किसी भी तरह से चैलेंज करने की स्थिति में न पहुचें। नियम-कायदों के इस मकड़जाल में बहुत सी सीढ़ियां होती हैं और हर सीढ़ी पर एक गेट कीपर तैनात होता है।

चैतन्य आलोक : ह्म्म...
पी सी बाबू : यह (अ) व्यवस्था हर गेटकीपर को कुछ ताकत देती है जिनके द्वारा वह अपनी सीमा में नियत नियम-कायदों को नियंत्रित करता है।......

पी सी बाबू : यह बात महत्वपूर्ण है कि गेटकीपर का अहम काम अपने उपर वाली सीढ़ी तक पहुंच को मुश्किल बनाना है, इसके परिणाम स्वरुप प्रत्येक उपर वाले गेटकीपर की ताकत कई गुना बढ़ती जाती है। और अंत में सिंडीकेट महा-शक्तिशाली हो जाता है।

चैतन्य आलोक : बहुत रोचक है, फिर..

पी सी बाबू : रईसों और ताकतवरों का यह सशक्त गठबन्धन या “सिंडीकेट”, अन्य सहयोगी लोगों के “शातिर नेटवर्क” के द्वारा नियम-कायदों के इस मकड़जाल को नियंत्रित करता है, और यह सुनिश्चित करता है (अ) व्यवस्था की सभी संस्थायें इस “शातिर नेटवर्क” के द्वारा नियंत्रित की जायें। इन संस्थायों के मुखिया के पद पर जब शातिर नेटवर्क के व्यक्ति को बैठाया जाता है तो उसकी ताकत बेहद उंचे दर्जे की हो जाती है क्योकिं उसके कार्य अब विधि और संविधान सम्मत हो जाते हैं और उन्हें चैलेंज करना मुश्किल ही नहीं लगभग नामुमकिन को जाता है। “सशक्त गठबन्धन या सिंडीकेट” इस बात के पूरे इंतजाम करता है कि “शातिर नेटवर्क” के एक- एक व्यक्ति को ताउम्र पूर्ण सरंक्षण दिया जाये।

चैतन्य आलोक : पर देश का “वाच डाग” मीडिया और इस “शातिर नेटवर्क” से बाहर हुये लोग क्या इतनी आसानी से इसे काम करने दे सकते हैं?

पी सी बाबू : “मीडिया” जो जनमानस को निरंतर प्रभावित करता है उसे भी इसी “शातिर नेटवर्क” द्वारा येन केन प्रकारेण नियंत्रण में रख कर “वाच डाग” से “लैप डाग” बना दिया जाता है। “शातिर नेटवर्क” में उन लोगों को सहर्ष स्वीकार कर लिया जाता जो या तो येन केन प्रकारेण, “सशक्त गठबन्धन या सिंडीकेट” को फायदा पहुंचाते हैं या फिर उनका बहुत विरोध करने की स्थिति में पहुंच जाते हैं। बहुत से गेटकीपर जो अपने रसूख और धनबल को बढ़ाने में कामयाब हो जाते हैं उन्हें भी शातिर नेटवर्क में शामिल कर लिया जाता है।

चैतन्य आलोक : (अ) व्यवस्था का तंत्र तो समझ आया सर। पर फिर भी इसे त्वरित रूप से चलाये कैसे रखा जाता है?

पी सी बाबू : (अ) व्यवस्था के पूरे तन्त्र को लालच रुपी इंजन से चलाया जाता है और इसके सभी कल पुर्जों में काले धन रुपी लुब्रीकैंट को डाला जाता है।

चैतन्य आलोक : सच कह रहें हैं, सर क्या इतना हौलनाक है यह खेल?
पी सी बाबू : हा..हा..हा.... (अ) व्यवस्था को देखने का एक नज़रिया यह भी है, चैतन्य बाबू!
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पी सी बाबू (पायति चरक जी) से हुयी हमारी पिछली बातॉं का एक लेखा-जोखा :


Tuesday, March 8, 2011

नारी

(photo coursey : Gender Jehad)

वो मेरी तुमसे पहली पहचान थी
जब मैं जन्मा भी न था
मैं गर्भ में था तुम्हारे
और तुम सहेजे थीं मुझे.

फिर मृत्यु सी पीड़ा सहकर भी
जन्म दिया तुमने मुझे
सासें दीं, दूध दिया, रक्त दिया तुमने मुझे.

और जैसे तुम्हारे नेह की पतवार
लहर लहर ले आयी जीवन में

तुम्हारी उंगली को छूकर
तुमसे भी ऊँचा होकर
एक दिन अचानक
तुमसे अलग हो गया मैं.

और जिस तरह नदी पार हो जाने पर
नाव साथ नहीं चलती
मुझे भी तुम्हारा साथ अच्छा नहीं लगता था
तुम्हारे साथ मैं खुद को दुनिया को बच्चा दिखता था.

बचपन के साथ तुम्हें भी खत्म समझ लिया मैने
और तब तुम मेरे साथ बराबर की होकर आयीं थीं..

बादलों पर चलते
ख्याब हसीं बुनते
हम कितना बतियाते थे चोरी के उन लम्हों में
दुनिया भर की बातें कर जाते थे

मै तुम पर कविता लिखता था
खुद को “पुरूरवा”
तुम्हें “उर्वशी” कहता था.

और जैसा अक्सर होता है
फिर एक रोज़
तुम्हारे “पुरूरवा” को भी ज्ञान प्राप्त हो गया
वो “उर्वशी” का नहीं लक्ष्मी का दास हो गया

तुम फिर आयीं मेरे जीवन में
मैने फिर तुम्हारा साथ पाया

वह तुम्हारा समर्पण ही था
जिसने चारदीवारी को घर बना दिया
पर व्यवहार कुशल मैं
सब जान कर भी खामोश रह गया

और उन्मादी रातों में
तुम जब नज़दीक होती
यह “पुरूरवा”, “वात्सायन” बन जाता
खेलता तुम्हारे शरीर से और रह जाता था अछूत
तुम्हारी कोरी भावनाऑ से

सोचता हूं ?
इस पूरी यात्रा में
तुम्हें क्या मिला
क्या मिला

एक लाल
और फिर यही सब .....

और जब तुमने लाली को जना था
तो क्यों रोयीं थीं तुम
क्यों रोयीं थीं???

Friday, March 4, 2011

छूकर मेरे मन को -2

“छूकर मेरे मन को” का प्रवेशांक सबों ने पसंद किया. हम सबका आभार व्यक्त करते हैं.मार्च का प्रथम अंक लेकर हम आपके सामने प्रस्तुत हैं. क्रिकेट का आई सी सी वर्ल्ड कप 2011 शुरू हो चुका है और कई दिग्गज टीमें अपने ख़राब फ़ॉर्म को बेहतर बनाने में जुटी हैं.वैसे फ़ॉर्म सुधारने और आत्ममुग्ध होने के लिये कनाडा, निदरलैंड्स, कीन्या और आयरलैंड जैसी टीम तो हैं ही. 50 ओवर के मैच को आठ दस ओवरों में समेटकर अपनी पीठ ठोंकने का सुनहरा मौक़ा है. “चलो खिलाड़ी वाहे वाहे” के जयकारे के बीच हज़ारों मेगावाट की दूधिया रौशनी में गाँवों की लालटेन को जीभ दिखाता ये टूर्नामेण्ट, अपने साथ एक और काला खेल लेकर आता है, सट्टे का खेल. लेकिन ख़बर इस बार और बुरी है. महानगर में ड्रग्स के बाद, इस रोग से ग्रसित हो रहे हैं, स्कूली और कॉलेज जाने वाले युवा. यह हमारी ख़बर नहीं है, एसोचैम की रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली के छात्र सट्टेबाजी पर सबसे ज्यादा पैसा लगा रहे हैं। वे सट्टेबाजी पर 5000 से 80000 रुपए खर्च कर रहे हैं। मुंबई के छात्र 10000 से 60000 और चंडीगढ़ के छात्र 10000 से 40000 रुपए लगा रहे हैं। इस मामले में चौथे नंबर पर अहमदाबाद, पाँचवें नंबर पर कोलकाता, छठे पर बेंगलुरु और आखिर में हैदराबाद के छात्रों का नंबर आता है। पूरी रिपोर्ट क्रिकेट वर्ल्ड कप का कोना (लेखक सीमांत सुबीर, हिंदी वेबदुनिया पर) पर देख सकते हैं आप. एक चेतावनी है ये, सुरक्षा से सावधानी भली.

क्रिकेट के साथ साथ अपने देश की राजधानी में वार्षिक बजट मैच भी खेला गया संसद के कुँए में.एक समय था जब लोग इस मैच का आँखों देखा हाल सुनने के लिये वैसे ही रेडियो से चिपककर बैठे होते थे जैसे बिनाका गीतमाला का वर्षिक कार्यक्रम सुनने के लिये. लेकिन अब तो इसका हुस्न भी मलिका सहरावत की तरह फिस्स्स्स हो गया है. अब तो ये मीठी गोलियों और रेवड़ी बाँटने का खेल रह गया है. वास्तव में ये मैच चुनाव नामक ग्रैंड फिनाले के सेमी फ़ाईनल जैसा होने लगा है. लिहाजा हमारा ध्यान यूपीए से हटकर टीडीए की तरफ गया, ताऊ रामपुरिया की ताऊ नीत गठबंधन (TDA)सरकार के बजट पर. ख़ास ब्लॉगर्स के, ब्लॉगर्स के लिये, ब्लॉगर्स के द्वारा बने इस बजट में तीखी मिर्ची और मसाले का संगम है, लेकिन इसको ताऊ ने नाम दिया है रेवड़ियाँ बाँटने का. हमारी बातों पर न जाईये और ख़ुद स्वाद चखिये ब्लॉगर्स को बाँटी जाने वाली इन बजट रेवड़ियों का और ख़ुद फ़ैसला कीजिये कि ये मीठी मीठी हैं कि तीखी मिर्ची हैं. और तुलना करके देखिये कि दोनों में से कौन सा खेल मज़ेदार रहा.

पिछले दिनों लंदन स्थित शिखा वार्ष्णेय ने एक परिचर्चा आयोजित की जिसमें हिंदी ब्लॉगिंग के भविष्य पर चर्चा की गई. हमने बचपन से अभियक्ति के जो माध्यम देखे हैं उनमें सिनेमा, समाचार पत्र और साहित्य मुख्य रहे हैं. यहाँ भी अच्छे और बहुत अच्छे के बीच, घटिया और बेहद घटिया एक्सप्रेशन देखने को मिले. ऐसे में एक नया माध्यम उभरा सोशल नेटवर्किंग और ब्लॉगिंग का. न तो यहाँ पर अच्छा और बहुत अच्छा दिखने की होड़ है और न ही बुरा और बहुत बुरा दिखने का डर है. बिना किसी बनावट के मन की बात रखने का माध्यम. युवाओं में बहुत ही लोकप्रिय, वह पीढ़ी जो क्रांति की मशाल जला सकती है और नशे की नींद भी सुला सकती है. फेसबुक पर भाषा कोई बंधन नहीं है, सिर्फ अभिव्यक्ति महत्वपूर्ण है. और अभिव्यक्ति जब भी जन जन की बोली में उभरी है या तो वंदे मातरम् का जयघोष बनकर उभरी है या फिर मिस्र की मौजूदा क्रांति बनकर. इस इंक़लाब में फेसबुक के रोल से एक व्यक्ति इतना प्रभावित हुआ कि उसने अपनी बच्ची का नाम ही फेसबुक रख दिया. बात हँसी की हो सकती है लेकिन उस व्यक्ति के जज़्बे को सलाम. पूरी रिपोर्ट लाईव हिंदुस्तान पर उपलब्ध है. ख़बर तो ये भी है कि जुलियन असांजे (विकिलीक्स) और फेसबुक के निर्माता मार्क जुकरबर्ग का नाम नोबल शांति पुरस्कार के लिये संस्तुत किया गया है.

एक और क्रांति की मशाल देखने को मिली जब “साधो ये मुर्दों का गाँव” दिल्ली में बाबा रामदेव के आह्वान पर कुछ ज़िंदा ज़मीर के लोग जैसे अण्णा हज़ारे, किरण बेदी, सुब्रमनियण स्वामी, देशबंधु गुप्ता आदि ने एक भ्रष्टाचार विरोधी विशाल जनसमूह को सम्बोधित किया. देश में रातों रात उगे भ्रष्टाचार के ज़हरीले कुकुरमुत्तों का सफाया करने का आह्वान. देश की मुख्य धारा के सारे चैनेल उस रविवार को छुट्टी मना रहे थे. बात भी सही है एक किटकैट ब्रेक तो बनता है भाई. बेचारे आर्क लाईट की रौशनी में 24X7 समर्पण भाव से काम करने वालों के हिस्से में भी इतवार होना चाहिये. बीबीसी की एक छोटी सी ख़बर इसपर आपके लिये. बीबीसी रेडियो की हिंदी सेवा बंद हो गयी है, लेकिन विश्वसनीयता अभी भी बनी हुई है.

इन सब के बीच एक ब्लॉग ऐसा भी है, जो चौथे खम्बे की अच्छी खबर लेता रहता है। मीडिया क्रुक्स की एक सनसनीखेज पोस्ट ने ऐसी खबर दी जिसमें टेलीविज़न मीडिया के पितामह कहे जाने वाले डा. प्रणव राय पर चल रही उस सीबीआई जांच का हवाला दिया गया जिसे शायद अब ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है। “बेख़ौफ़” मीडिया के इन मुद्दों पर मौनी बाबा बने रहने पर क्या अब आश्चर्य होता है, आपको? इन हैरतअंगेज खुलासों की कड़ी में बहुत सी विचित्र जानकारीयां मिली, जब विकी-पीडिया में राहुल गाँधी का बायोडाटा पढा।

सूचना क्रांति के युग में ये सभी व्हिसल ब्लोअर हैं. लेकिन बात को यू टर्न देते हुए आपका ध्यान घर के दरवाज़े पर लगी कॉल बेल की ओर दिलाना चाहेंगे। व्हिसल ब्लोअर्स की सीटी का असर आप पर हो न हो, कॉल बेल की आवाज़ पर आपके व्यवहार में जो त्वरित परिवर्तन आते हैं, वो एक मनोवैज्ञानिक विषय है और दरवाज़े पर लगी साँकलों की जगह कॉल बेल के आ जाने से हुआ परिवर्तन एक समाजिक विषय है. इन दोनों जटिल विषयों पर एक सम्वेदनशील कविता प्रस्तुत की है श्री अरुण चंद्र रॉय (ब्लॉग सरोकार) ने. इस एक मामूली से लगने वाले यंत्र ने हमारे यांत्रिक जीवन में कितना बदलाव लाया है, आप भी देखिये.

तो अब समाप्त करते हैं यह अंक छूकर मेरे मन को मार्च –I. बजट, भ्रष्टाचार, क्रिकेट आदि की चर्चा हुई, मगर वो बेख़बर है जिसके बारे में ये सारी चर्चा हुई. हमारी कोशिश उस बेख़बर को बाख़बर करना है. ऐसे में दुष्यंत कुमार का यह शेर बहुत याद आता हैः

न हो कमीज़, तो पैरों से पेट ढ़ँक लेंगे,
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिये!
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