सम्वेदना के स्वर

यह ब्लॉग उस सनातन उत्सवधर्मिता को जीवित रखने का प्रयास है,

जिसमें भाव रस और ताल का प्रतीक आम आदमी का भा-- बसता है.
सम्वेदनाएँ...जो कला, साहित्य, दर्शन, विज्ञान, राजनीति आदि के माध्यम से अभिव्यक्त होती हैं, आम आदमी के मन, जीवन और सरोकार से होकर गुज़रती हैं तथा तलाशती हैं उस भारत को, जो निरंतर लड़ रहा है अपने अस्तित्व की लड़ाई.....

Tuesday, December 28, 2010

कबिरा खड़ा बजार में!!

घर से निकलते ही कुछ दूर चलते ही दिख गया मुझको एक ट्राफिक हवलदार. अपन को डर नहीं लगता उन हवलदारों से. अपना सब कुछ दुरुस्त होता है. बाइक पर हों तो सिर पर कवच यानि हेल्मेट के बिना और कार में बैठे हों तो यज्ञोपवीत अर्थात सीट बेल्ट के बिना कभी सफर नहीं किया. कौन झेले अच्छे खासे सफर पर इन हवलदारों के साथ सफरिंग. इनकी गिद्ध दृष्टि से तो बचना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है. इतनी मुस्तैदी से तो वो डॉन को नहीं ढूँढते, वर्ना जिसे ग्यारह मुल्कों की पुलिस पकड़ पाई उसे मिण्टों में धर दबोचें और उससे पूछें कि बेटा डॉन! खई के पान बनारस वाला, तुमरी अकल का ताला काहे नहीं खुला जो धराए गए एहाँ. असल में बेटा जौन हरा पान तुम बनारस वाला समझ के खाए रहे, तौन कलकतिया रहा बनारसी नहीं.
 (चित्र साभारः nomad4ever.com)
अब अपनी भी आदत नेताओं वाली हो गई है. भाषण में सब बात कह जाएँगे, काम के मुद्दे पर लास्ट में आएँगे, जब तक जनता मस्त एक नींद ले चुकी होगी. तो इसके पहले कि आपको मेरी बातें लोरी समान लगने लगें, मैं सड़क पर जाता हूँ, जहाँ सामने खड़ा एक हवलदार किनारे सजे पोरवाल जूस सेंटर के ठेले से बड़े वाले ग्लास में असली फलों का मिक्स जूस पी रहा था. अब जूस अनार का था और चुकन्दर का इसलिए लाल लग रहा था. दूर से लगा कि हवलदार साहब (यह साहब कहने से कई बार रिश्वत में रियायत मिल जाती है) उस बेचारे पोरवाल ठेलेवाले का ख़ून तो नहीं पी रहे. फिर ख़ुद से घृणा हुई कि मेरा दिमाग़ भी कम्बख़्त आगे की सोचने लगता है, अभी ऐसे दिन नहीं आए! देखा जूस के ठेले के पास ही एक बाईक खड़ी थी और एक निरीह सा युवक (थोड़ी देर पहले यह देश का भविष्य जॉन अब्राहम बना होगा) उस हवलदार के गिलास की तरफ देख रहा था कि वे कब जूस समाप्त करें.

कारण यह नहीं था कि जूस वाले के पास वही एक गिलास था, जिसमें हवलदार साहब के बाद जूठे पानी से धोकर वह उस युवक को जूस पिलाने वाला था. कारण था कि उस जॉन अब्राहम ने (मुझे तो यही नाम जँच रहा है) हेल्मेट नहीं लगाया था और माबदौलत जूस पीने के बाद ताज़िराते हिंद और यातायात कानून की कोई दफा लगाकर उस युवक को दफ़ा करने वाले थे. हवलदार साहब ने जूस ख़तम किया और कर्तव्यबोध के कारण कर्तव्यबोझ से दबे जूसवाले को पैसे देना भी भूल गए. उन्होंने उस युवक को कोपचे में लिया (आम तौर पर यह काम भाई लोग करते हैं,पर वे भी हमारे बड़े भाई हैं सेवा में सदा तत्पर), कानून का डर दिखाया, उसकी खोपड़ी की कीमत बताई जो भारतवर्ष के भविष्य की कुंजी की फैक्टरी है और सौ रुपये लेकर दफा कर दिया. हाँ जाते जाते उसको सीख दी कि सिर्फ सौ रुपये में यह मत समझ कि तेरी जान की कीमत इतनी ही है, इसलिए इस जान की हिफ़ाज़त कर और हेल्मेट लगा!

जॉन ने सवा लाख की बाइक घुमाई और अगली टाँग उठाकर पिछली टाँग पर बाइक भगाकर ग़ायब हो गया. मानो मौत को चैलेंज कर रहा हो कि हिम्मत है तो मुझसे आगे निकल के दिखा. लगता है वो हवलदार आज अपने बच्चे का मुँह देखकर उठा था, वरना आईना देखने पर तो उसको सभी हेल्मेट लगाए और बेल्ट लगाए सभ्य नागरिक ही मिलने थे. एक कार जैसे ही निकली बगल से, उन्होंने झाँक लिया और उनको दिख गया कि चलाने वाले (मालिक ख़ुद थे, वर्ना मुझे पता है कि उसे आम भाषा में चलाने वाले नहीं, ड्राइवर कहते हैं) बिना बेल्ट लगाए चला रहे थे. जनता की गाड़ी (फोक्स वैगन) चलाते हुए, बेल्ट लगाना भूल गए थे. अब बेल्ट लगाकर तो पता ही नहीं चलता कि इंसान गाड़ी चला रहा है या उसे बाँधकर गाड़ी इंसान को चला रही है. गाड़ी चलाने वाला बहुत जल्दी में था, इसलिए उसने ना किसी को मोबाइल से फोन लगाया, कुछ हू इज़ हू के नाम उस हवलदार को बताए, शक्ति प्रदर्शन किया और ही किसी खादी की तलवार की धार याद दिलाई. चुपचाप गाँधीगीरी (पाँच सौ का पत्ता) दिखाई और बेल्ट लगाकर चलते बने.

हवलदार की आँखों की चमक देखकर लग रहा था कि आज वो बहुत खुश है. दिन भर में पिए जाने वाले पोरवाल जूस सेंटर के जूस का कड़वा स्वाद”, आज वो लौटते हुए ठेके पर ही मिटाएगा. मैं आज हिलने को ही तैयार था. छुट्टी भले करनी पड़े, लेकिन आज बिना इस मनोविज्ञान की क्लास पूरी हुए मैं हिलने वाला नहीं. हेल्मेट जब सिर पर हो तो एक्सीडेण्ट और हवलदार पास नहीं फटकते. फिर काहे का डर.
 
वैसे एक और निडर सवारी सीना तानकर सड़क पर घूम रही थी, तिपहिया सवारी. सरसों से पीले सलवार सूट पर धानी चूनर ओढ़े. किसी भी दो सवारी के बीच से बचती, बलखाती, निकलती हुई. उसका मालिक (या किराएदार) दोनों हाथों से हैण्डल पकड़े उसको रास्ता दिखा रहा था. कमाल की बात यह थी कि उसने हेल्मेट नहीं पहन रखा था, जबकि बनावट के हिसाब से वो तीन पहिये का स्कूटर ही तो था. और अगर उसको चार पहिये की गाड़ियों (मोटरगाड़ी) के समकक्ष समझा भी जाए तो उसपर बेल्ट लगाने का नियम लागू होना चाहिये. और अगर कुछ भी हो तो भी उसकी हिफ़ाज़त के नाम  पर ताज़िराते हिंद या ट्रैफिक कानून में कोई इंतज़ाम नहीं. हिफ़ाज़त सही कम से कम इन हवलदारों का तो कुछ सोचा होता, जिनको इनका चालान करने के लिए गलत पार्किंग या ओवरलोडिंग के कानून पर ही डिपेण्ड करना पड़ता है.
 
तभी तालियाँ बजाता वहाँ किन्नरों का दल गया, रुकने वाली गाड़ियों के शीशे रोल होने से पहले हाथ पसारता, बाइक चालकों की बलाएँ लेता, कुछ औरतों को दुपट्टे से मुँह छिपाते हुए देखकर भी उनके शौहर से पैसे मांगता. जो दे उसका भला, ना दे उसका भी भला की तर्ज़ पर बेख़ौफ़ तालियाँ बजाता ट्रैफिक के महासमुद्र में तिपहिया वाहनों की तरह आराम से निकलता हुआ. मैं बस इसी स्टडी में लगा था और जाने कहाँ गुम था कि वो हवलदार कब मेरे पास गया पता ही चला. आते ही बोलाबड़ी देर से देख रिया हूँ, यहाँ बाइक खड़ी करके तमाशा देख रियो है. जाता क्यों नहीं. लड़की ताड़ रहा है के! निकल ले वर्ना  ताज़िराते हिंद  की...! आगे की दफ़ा के अंकगणित को सुनने से पहले ही मैं दफा हो लिया!!

Friday, December 24, 2010

व्यवस्था के कठघरे में रहकर व्यवस्था से लड़ना - पीसी बाबू से साक्षात्कार (अंतिम भाग)


चैतन्य :  मैं तो कई बार इस आधुनिकता की दौड़ में स्वयम को शहरी बंधुआ मज़दूर महसूस करता हूं! रोबोट की तरह व्यवस्था का अंग बने काम करते हुए बड़ी कोफ्त होती है. पर हर बार वही सवाल मुंह बाये सामने आ जाता है कि जायें तो जायें कहां? 
सलिल : हम हमेशा के लिये पुरातनपंथी भी तो नहीं रह सकते? आधुनिकता तो आज की जरुरत है। 

पायाति  चरक :  हम तो असली गाँधी की बात जानते हैं, महात्मा गाँधी की! जिसे आज आधुनिकता कह कर प्रचारित किया जा रहा है, उस आधुनिकता की महात्मा गाँधी  हिन्द स्वराज में विश्लेषण करके कड़ी आलोचना करते हैं, उनका कहना है कि यह आम आदमी को पराश्रित बनाती है। अपनी जिन्दगी की हर जरूरत के लिये वह अनजान व्यवस्था पर आश्रित होता है। पराधीन होता है। वह जरुरत की चीजें खुद पैदा नहीं करता या कर पाता है। वह कहीं नौकरी करके पैसा कमायेगा और फिर उस पैसे से उन चीजों को खरीदेगा जिनकी उसे आवश्यकता है। वह जितना आगे बढता है उत्पादन से उसका सम्बन्ध उतना ही दूर होता जाता है और वह उतना ही पराश्रित होता जाता है। ऊपर से उसे सूचनाओं की बाढ़ को भी लगातार झेलना होता है। उसकी चर्चाओं के केंद्र में यही विभिन्न प्रकार की सूचनायें ही तो होती हैं! और ये ताजा खबर या सूचनायें इस प्रकार होती हैं कि उनसे वह कोई ठोस नतीजे नहीं निकाल पाता अपने जीवन के लिये।

सलिल : जीवन में निश्चित जैसी कुछ नहीं है।
चैतन्य : सन्देह, सन्देह और सिर्फ सन्देह !!  

पायाति  चरक :  तुम्हें नहीं लगता कि स्थिति अजीब है. ज्ञान के नाम पर सन्देह बढता जाता है. एक सूचना, एक जानकारी, दूसरी सूचना या जानकारी के विरुद्ध दिखती है। निश्चित निष्कर्ष निकालना लगभग नामुमकिन हो गया है। भ्रम फैला है कि सूचना ही ज्ञान है। इस माहौल में  आम आदमी अपने काम से काम रखने को बाध्य है । वह अन्य व्यक्ति, समाज, देश के लिये कुछ करने के प्रति पूरी तरह उदासीन होता चला जाता है । दुनिया और सरकारें अपने रास्ते चलती रहती हैं । विकास की बड़ी-बड़ी बातें, बड़े घोटालों और सरकारी धन की हेराफेरी के बड़े अवसर उपलब्ध कराती हैं। गलत घटित होता रहता है, गुस्सा भी आता है, पर यह गुस्सा किसी अन्दोलन या विद्रोह में तब्दील नहीं होता।  

सलिल : फिर भी प्रगति तो हुई है। जीवन पहले से बेहतर तो हुआ है।
चैतन्य : आर्थिक प्रगति तो ठीक है सर! परंतु मन में बहुत कुन्ठायें भी भर दी हैं, इस आधुनिकता ने।  

पायाति  चरक :  यही कारण है कि आम आदमी अपनी इस कुंठा का ईलाज, पैसे में ढूँढता है, मन बदलाव या मन बहलाव के लिये पैसे खर्च करता है। मनोरंजन उद्योग उन्नति कर रहा है। हिन्दुस्तान में मोबाइल फोनों की संख्या 70 करोड़ हो गयी है, यानि करीब हर तीन व्यस्कों के बीच दो मोबाइल फोन हैं। यह आकड़े चौकाने वाले हैं, वह भी भारत जैसे गरीब देश में । अगर कहीं से ये पता चल सके कि भारत में लोग फोन पर कितना खर्च करते हैं तो यह और भी चौंकाने वाला होगा? मोबाइल फोन पर कितनी काम की बातें होती हैं और कितनी फज़ूल की, हिसाब लगाना मुश्किल है। आम आदमी की जेब खाली होती है और गुणगान इस फोन के होते हैं। एक तरफ सार्वजनिक मुद्दों के लिये समय निकालना मुश्किल हो गया है, दूसरी ओर मनोरंजन पर अधिक से अधिक खर्च हो रहा है। मोबाइल फोन वाली बात तो एक उदाहरण भर हैं..देखा जाये तो जीवन के हर क्षेत्र में कमोबेश यही स्थिति है।

चैतन्य : तो आप क्या कहते हैं, रास्ता क्या है आगे का?   

पायाति  चरक : देश में ऐसे लोगों की कमी नहीं जो वर्तमान व्यवस्था को बदलना चाहते हैं। उसके लिये कोई बड़ा आन्दोलन चलाने की जुगत में वो रहते भी हैं, परंतु एक बात निश्चित है कि पढे-लिखे शहरों में रहने वाले मध्यम वर्ग की क्षमता के बाहर है यह बात। वे सम्वेदनहीन हो गये हैं, उन्हें फुर्सत नहीं है। आन्दोलन तो जिन्हें शहर की हवा नहीं लगी है और जिन पर पढाई लिखाई का कम असर हुआ है, उनसे ही मुमकिन होगा। इसके लिये वर्तमान व्यवस्था को बदलने के लिये किसी आन्दोलन चलाने वाले को भारत की सत्तर प्रतिशत जनता कैसे सोचती हैं, उसकी मान्यताये क्या हैं, इस बात की गहरी समझ चाहिये और उनकी मान्यताओं से इत्तेफाक रखना जरुरी है।

सलिल : क्या जे.पी. आन्दोलन जैसा कोई आन्दोलन दुबारा सम्भव है?

पायाति  चरक :  निर्भर करता है कि आन्दोलन करने वाले नेताओं की क्या समझ है  और उन्हें क्या अपनी ताकत का अंदाजा भी है? व्यवस्था के कठघरे में खड़े होकर व्यवस्था से लडना सम्भव नहीं है। महात्मा गाँधी को समाज की और व्यवस्थाओं की गहरी समझ थी इसलिये वो किसी कठघरे में नहीं खड़े हुए!

Tuesday, December 21, 2010

विज्ञान से भ्रमित आम आदमी और संवेदनहीनता - पीसी बाबू से एक साक्षात्कार

पिछले दिनों देश में घटने वाली हलचल ने हमें काफी परेशान कर रखा था. कुछ व्यक्तिगत परेशानियां तो चल ही रही थीं. ऐसे में अचानक हमारा आपस में मिलने का संयोग हो गया. कुछ ऑफिस का काम और हमारी पर्सनल मुलाक़ात. मिले तो कई मुद्दों पर गर्मागरम बहस छिड़ गई. घर में औरतों और बच्चों को यह सिग्नल देना कि हम झगड़ रहे हैं, उचित नहीं लगा और हम गाड़ी लेकर निकल गए. फिर दोनों के मुंह से एक साथ निकला कि पायाती बाबू से हमारी मुलाक़ात को काफी समय हो गया है. बस फिर क्या था, थोड़ी ही देर में हम दोनों के उनके साथ थे. जाड़ों कि नरम धूप में  खुले पार्क में टहलते हुए हमने उनसे बातचीत की.


सलिल: सर, देश में व्यवस्था का एक गम्भीर संकट खड़ा जान पड़ता है। एक अजीब सी त्रासदी दिख रही है। आप क्या सोचते हैं इस बारे में?
चैतन्य: एक बात और सर! वैज्ञानिक क्रांति के इस युग में, यह विकास की सहज प्रक्रिया है या फिर कोई अराजकता ?

पायाति  चरक : दुरुस्त है, व्यवस्था का गम्भीर संकट तो कहा ही जा सकता है वर्तमान हालात को! मुझे लगता है इसका मुख्य कारण है पिछले साठ सालों में सत्ता का दिल्ली में केन्द्रित होकर रह जाना। फिर आर्थिक उदारीकरण के पिछले 20 सालों ने तो अर्थ और सत्ता को और अधिक सीमित हाथों में स्थापित कर दिया है जिससे समाजवाद जैसे शब्द, मात्र भारतीय सम्विधान की प्रस्तावना में शोभा बढ़ाते नज़र आते हैं। दूसरी ओर, वैज्ञानिक क्रांति की बात ही करें तो यहाँ तो स्थिति और भी विरोधाभास से भरी दिखती  है। प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया में रोज़ रोज़ नई खोजों और अविष्कारों की बात होती है। पर अब देखो न, यह कितनी आम बात हो गयी है कि विज्ञान अपनी ही खोज को कुछ समय बाद नकार देता है या कोई नयी खोज पुरानी खोज पर प्रश्न चिन्ह लगा देती है।

सलिल : व्यव्स्था की अव्यव्स्था वाली बात से तो हम दोनों शतप्रतिशत सहमत हैं।   परंतु, जिसे आप विरोधाभास कह रहे हैं उसे तो हम अभी तक विज्ञान में निरंतर प्रगति का द्योतक मानते आ रहे हैं।

पायाति  चरक :  हाँ, तुम लोग उन पढ़े-लिखे लोगों की श्रेणी में हो, जिनकी संख्या इस देश की आबादी में बहुत कम है। लेकिन मैं आम आदमी की बात कर रहा हूं. इस तरह की विरोधाभासी बातों का असर गाँव, कस्बों और छोटे शहरों में बसने वाले आम आदमी पर बहुत नकारात्मक होता है, वह चारों तरफ से सन्देह और शंका से घिर जाता है। एक तरफ तो पढे लिखे समाज में इन खोजों या रिपोर्टों की चर्चा होती है. और दूसरी तरफ दिमाग में कहीं यह बात भी घर कर जाती है कि इन रिपोर्टों पर या नये अनुसन्धान या खोजों पर पूरी तरह विश्वास नहीं किया जा सकता।

चैतन्य : समझे नहीं सर! मनुष्य की वैज्ञानिक बुद्धि ही तो इस विकास प्रक्रिया का आधार स्तम्भ है? 

पायाति  चरक : यहाँ बात वैज्ञानिक बुद्धि के विकास की बिल्कुल नहीं है. बल्कि जनमानस पर इसके क्या परिणाम होते हैं, उसकी है। उदाहरण के लिये, आजकल मोबाइल टावर और फोन से निकलने वाली इलैक्ट्रो-मैगनैटिक तरंगों द्वारा शरीर पर होने वाले नुकसान को लेकर बड़ी चर्चा है। सलिल कनाट प्लेस में जहाँ तुम काम करते हो, वहाँ तो मोबाईल टावरों का पूरा जंगल है, और चैतन्य बता ही रहा था कि चंडीगढ़ में उसके घर के दोनों ओर दो दो मोबाईल टावर लगें हैं। लेकिन बात यह कि यह सारा मामला सिर्फ चर्चा तक रह जाता है। असल में आम आदमी किसी बात पर पूरी तरह यकीन नहीं कर पाता और निरीह हो जाता है। वह एक कन्फ्यूज़न की स्थिति में रहता है और किसी बात पर निर्णय लेना उसके बूते से बाहर की बात हो जाती है। मजबूरी में सुविधा का भोग करता रहता है, पर भीतर से उसका विश्वास डिगा हुआ ही रहता है। यह बात नये नये यन्त्रों, दवाइयों, स्वास्थ की जांच रिपोर्टों, आर्थिक रिपोर्टों और सर्वेक्षणों से निकाले गये निष्कर्षॉं, पर्यावरण सम्बन्धी रिपोर्टों आदि के सम्बन्ध मे भी लागू होती है। खाने पीने की चीजों को लेकर, पानी और दूध में मिलावट को लेकर भी तमाम खबरें रोजाना छपती हैं। बोतलबंद पानी पीने में भी आम पढ़ा लिखा आदमी घबराने लगा है.
यहाँ तक कि ईमानदारी का भी यही हाल है। खबर मिलती है कि फलाँ आदमी ईमानदार है और तुरत दूसरी खबर आती है कि नहीं वह भी भ्रष्ट है। किसी भी बात पर यकीन करना मुश्किल हो गया है।

सलिल : सही कहा आपने! हर बात पर विश्वास डगमगाया ही लगता है।
चैतन्य : बिल्कुल, ईश्वर और परंपरा में आस्था तो पहले डगमगाई हुयी है।

पायाति  चरक : अपनी ही बात लो, जरा बताओं तो कि नये अनुसन्धानों और खोजों से तुम्हारा कितना विश्वास है?

सलिल : मैं देखता हूं कि बीमारियों के जो कारण बताये जाते है वो हमारी समझ से बाहर होते हैं, ज्यादातर कारणों को एक नया नाम दे दिया जाता है। नाम का अर्थ जो ज़्यादातर उसका प्रयोग करते हैं वो भी नहीं जानते। कोई रिसर्च कहती है कि चाय पीने से नुकसान होता है कोई कहती है इतनी मात्रा से फायदा होता है? अब इसमे फाईनल जैसा कुछ भी नहीं है।  
चैतन्य : मात्र नाम जानकर हम इस भ्रम में रहते हैं कि जान गये पर असलियत में तो समझ में कुछ भी नहीं आता।  

पायाति चरक : बिल्कुल ठीक! अब देखो, समाज में बढ़ती संवेदनहीनता को भी मैं इसी का कारण मानता हूं, क्योंकि आम पढ़ा-लिखा वर्ग तेजी से सन्देह और भय से घिरता जा रहा है। दूसरी ओर एक वज़ह यह भी है कि रोज़ की आपाधापी में वह इतना व्यस्त हो गया है कि सोचने-विचारने, किसी अन्य के बारे में सोचने की उसे न तो फुर्सत है और न ऐसा करके कुछ अच्छा होगा इस बात का विश्वास उसे रह गया है। वह अपने में संकुचित हो गया है. या ऐसा कहो कि आधुनिक जीवन शैली ने उसे ऐसा करने पर मजबूर कर दिया है। रास्ता चलते किसी असहाय की मदद करना, किसी दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति को अस्पताल पहुचाना अब उसे भारी लगने लगा है। कुछ अपनी व्यस्तता के कारण, कुछ आत्म संकुचित होने के कारण और कुछ सम्वेदनहीनता की वजह से या व्यव्स्था की जकडन के भय से, कि कौन पचड़े में पड़े?
                                                                .......जारी
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