घर से निकलते ही कुछ दूर चलते ही दिख गया मुझको एक ट्राफिक हवलदार. अपन को डर नहीं लगता उन हवलदारों से. अपना सब कुछ दुरुस्त होता है. बाइक पर हों तो सिर पर कवच यानि हेल्मेट के बिना और कार में बैठे हों तो यज्ञोपवीत अर्थात सीट बेल्ट के बिना कभी सफर नहीं किया. कौन झेले अच्छे खासे सफर पर इन हवलदारों के साथ सफरिंग. इनकी गिद्ध दृष्टि से तो बचना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है. इतनी मुस्तैदी से तो वो डॉन को नहीं ढूँढते, वर्ना जिसे ग्यारह मुल्कों की पुलिस न पकड़ पाई उसे मिण्टों में धर दबोचें और उससे पूछें कि बेटा डॉन! खई के पान बनारस वाला, तुमरी अकल का ताला काहे नहीं खुला जो धराए गए एहाँ. असल में बेटा जौन हरा पान तुम बनारस वाला समझ के खाए रहे, तौन कलकतिया रहा बनारसी नहीं.
(चित्र साभारः nomad4ever.com)
अब अपनी भी आदत नेताओं वाली हो गई है. भाषण में सब बात कह जाएँगे, काम के मुद्दे पर लास्ट में आएँगे, जब तक जनता मस्त एक नींद ले चुकी होगी. तो इसके पहले कि आपको मेरी बातें लोरी समान लगने लगें, मैं सड़क पर आ जाता हूँ, जहाँ सामने खड़ा एक हवलदार किनारे सजे पोरवाल जूस सेंटर के ठेले से बड़े वाले ग्लास में असली फलों का मिक्स जूस पी रहा था. अब जूस अनार का था और चुकन्दर का इसलिए लाल लग रहा था. दूर से लगा कि हवलदार साहब (यह साहब कहने से कई बार रिश्वत में रियायत मिल जाती है) उस बेचारे पोरवाल ठेलेवाले का ख़ून तो नहीं पी रहे. फिर ख़ुद से घृणा हुई कि मेरा दिमाग़ भी कम्बख़्त आगे की सोचने लगता है, अभी ऐसे दिन नहीं आए! देखा जूस के ठेले के पास ही एक बाईक खड़ी थी और एक निरीह सा युवक (थोड़ी देर पहले यह देश का भविष्य जॉन अब्राहम बना होगा) उस हवलदार के गिलास की तरफ देख रहा था कि वे कब जूस समाप्त करें.
कारण यह नहीं था कि जूस वाले के पास वही एक गिलास था, जिसमें हवलदार साहब के बाद जूठे पानी से धोकर वह उस युवक को जूस पिलाने वाला था. कारण था कि उस जॉन अब्राहम ने (मुझे तो यही नाम जँच रहा है) हेल्मेट नहीं लगाया था और माबदौलत जूस पीने के बाद ताज़िराते हिंद और यातायात कानून की कोई दफा लगाकर उस युवक को दफ़ा करने वाले थे. हवलदार साहब ने जूस ख़तम किया और कर्तव्यबोध के कारण कर्तव्यबोझ से दबे जूसवाले को पैसे देना भी भूल गए. उन्होंने उस युवक को कोपचे में लिया (आम तौर पर यह काम भाई लोग करते हैं,पर वे भी हमारे बड़े भाई हैं सेवा में सदा तत्पर), कानून का डर दिखाया, उसकी खोपड़ी की कीमत बताई जो भारतवर्ष के भविष्य की कुंजी की फैक्टरी है और सौ रुपये लेकर दफा कर दिया. हाँ जाते जाते उसको सीख दी कि सिर्फ सौ रुपये में यह मत समझ कि तेरी जान की कीमत इतनी ही है, इसलिए इस जान की हिफ़ाज़त कर और हेल्मेट लगा!
जॉन ने सवा लाख की बाइक घुमाई और अगली टाँग उठाकर पिछली टाँग पर बाइक भगाकर ग़ायब हो गया. मानो मौत को चैलेंज कर रहा हो कि हिम्मत है तो मुझसे आगे निकल के दिखा. लगता है वो हवलदार आज अपने बच्चे का मुँह देखकर उठा था, वरना आईना देखने पर तो उसको सभी हेल्मेट लगाए और बेल्ट लगाए सभ्य नागरिक ही मिलने थे. एक कार जैसे ही निकली बगल से, उन्होंने झाँक लिया और उनको दिख गया कि चलाने वाले (मालिक ख़ुद थे, वर्ना मुझे पता है कि उसे आम भाषा में चलाने वाले नहीं, ड्राइवर कहते हैं) बिना बेल्ट लगाए चला रहे थे. जनता की गाड़ी (फोक्स वैगन) चलाते हुए, बेल्ट लगाना भूल गए थे. अब बेल्ट लगाकर तो पता ही नहीं चलता कि इंसान गाड़ी चला रहा है या उसे बाँधकर गाड़ी इंसान को चला रही है. गाड़ी चलाने वाला बहुत जल्दी में था, इसलिए उसने ना किसी को मोबाइल से फोन लगाया, न कुछ हू इज़ हू के नाम उस हवलदार को बताए, न शक्ति प्रदर्शन किया और न ही किसी खादी की तलवार की धार याद दिलाई. चुपचाप गाँधीगीरी (पाँच सौ का पत्ता) दिखाई और बेल्ट लगाकर चलते बने.
हवलदार की आँखों की चमक देखकर लग रहा था कि आज वो बहुत खुश है. दिन भर में पिए जाने वाले पोरवाल जूस सेंटर के जूस का “कड़वा स्वाद”, आज वो लौटते हुए ठेके पर ही मिटाएगा. मैं आज हिलने को ही तैयार न था. छुट्टी भले करनी पड़े, लेकिन आज बिना इस मनोविज्ञान की क्लास पूरी हुए मैं हिलने वाला नहीं. हेल्मेट जब सिर पर हो तो एक्सीडेण्ट और हवलदार पास नहीं फटकते. फिर काहे का डर.
वैसे एक और निडर सवारी सीना तानकर सड़क पर घूम रही थी, तिपहिया सवारी. सरसों से पीले सलवार सूट पर धानी चूनर ओढ़े. किसी भी दो सवारी के बीच से बचती, बलखाती, निकलती हुई. उसका मालिक (या किराएदार) दोनों हाथों से हैण्डल पकड़े उसको रास्ता दिखा रहा था. कमाल की बात यह थी कि उसने हेल्मेट नहीं पहन रखा था, जबकि बनावट के हिसाब से वो तीन पहिये का स्कूटर ही तो था. और अगर उसको चार पहिये की गाड़ियों (मोटरगाड़ी) के समकक्ष समझा भी जाए तो उसपर बेल्ट लगाने का नियम लागू होना चाहिये. और अगर कुछ भी न हो तो भी उसकी हिफ़ाज़त के नाम पर ताज़िराते हिंद या ट्रैफिक कानून में कोई इंतज़ाम नहीं. हिफ़ाज़त न सही कम से कम इन हवलदारों का तो कुछ सोचा होता, जिनको इनका चालान करने के लिए गलत पार्किंग या ओवरलोडिंग के कानून पर ही डिपेण्ड करना पड़ता है.
तभी तालियाँ बजाता वहाँ किन्नरों का दल आ गया, रुकने वाली गाड़ियों के शीशे रोल होने से पहले हाथ पसारता, बाइक चालकों की बलाएँ लेता, कुछ औरतों को दुपट्टे से मुँह छिपाते हुए देखकर भी उनके शौहर से पैसे मांगता. जो दे उसका भला, ना दे उसका भी भला की तर्ज़ पर बेख़ौफ़ तालियाँ बजाता ट्रैफिक के महासमुद्र में तिपहिया वाहनों की तरह आराम से निकलता हुआ. मैं बस इसी स्टडी में लगा था और न जाने कहाँ गुम था कि वो हवलदार कब मेरे पास आ गया पता ही न चला. आते ही बोला, बड़ी देर से देख रिया हूँ, यहाँ बाइक खड़ी करके तमाशा देख रियो है. जाता क्यों नहीं. लड़की ताड़ रहा है के! निकल ले वर्ना ताज़िराते हिंद की...! आगे की दफ़ा के अंकगणित को सुनने से पहले ही मैं दफा हो लिया!!
18 comments:
सर जी, सत श्री अकाल..
हाँ जी,
सर जी, भूल गए....... पिछले हफ्ते तुसी मेरा चालान किता सी,
मैं दारू पी के गाड़ी चला रहिया सी........
हूँ कि प्रोग्राम है,
कुज नहीं सर जी, आपको देखा तो रुक गया.......
पी राखी है........
हाँ जी, सर जी,
चल जल्दी निकल जा.......... अज वडी गडी पकडनी है...........
आपके साथ उस चौराहे पर खड़े होकर सारा तमाशा कुछ हंसी, कुछ मुस्कान और गाम्भीर्य के साथ देखता रहा और आप हैं कि उसकी एक घुड़की से फुट लिए। पीछे हमें भी तो बैठा लेते, माना कि हेलमेट एक ही था ... पर सब चलता है जब जेब में गांधी जी वाला पता ... नहीं नहीं पत्ता हो तो ...!!
अरे वो आप थे.. जहाँ से आप वो तमाशा देख रहे थे वही. हम भी थे ..आम है ये द्रश्य
इन गम्भीर घटनाओं का प्रत्यक्षदर्शी बनना भी समस्या उत्पन्न कर सकता है।
शानदार लेख ।
बधाई।
इन ट्रैफ़िक वालों का भी एक पूरा मनोविज्ञान है, कमेंट में नहीं समायेगा। कभी मुलाकात हुई तो एक डिस्कशन इस पर भी। यहाँ तो ऐसा ही एक आँखों देखा वाकया -
एक बूढ़ा अपने से भी बूढ़ी ’चल मेरी लूना’ पर जाते हुये धर लिया गया। कागज, लाईसैंस, इंश्योरेंस, प्रदूषण सर्टिफ़िकेट - सब का जवाब ’न’ हवलदार ने कहा, "ताऊ, हजार का चालान कटेगा।" ताऊ ने आव देखा न ताव, स्टैंड लगाया और चल दिया ये कहते हुये, "तू ही राख लै इसनै, हजार की तो यो खुद भी ना है।" हवलदार ने पीछे से भागकर ताऊ को पकड़ा और वो अड़ंगा वापिस सौंपा। ताऊ को कई बार बिंदास घूमते देखा उसके बाद भी, हवलदार जरूर आंखें फ़ेर लेता था।
वाह...धारदार मजेदार लेख...पढते वक्त कई जगह खुल कर हंसना लाज़मी हो गया...आपकी पैनी नज़र और लेखन कला ने दीवाना बना दिया है...कमाल का लेखन...बधाई..
नीरज
दृश्य का सुन्दर वर्णन ...
हा इन हवलदारो का एक और मनोविज्ञान है की ये गाड़ी चला रही महिलाओ को जल्दी नहीं पकड़ते है जानते है की मिलने वाला कुछ नहीं है ना एक नंबर में ना दो नंबर में खाई पिली टाइम खोटी होगा |
बच गए बच्चू !हा हा !
बहुत शानदार. पूरा लेख मजेदार है.
आंखों देखा हाल अच्छा लगा।
मजेदार दृश्य का रोचक वर्णन।
उम्दा पोस्ट !
नव वर्ष(2011 की शुभकामनाएँ !
सर्वस्तरतु दुर्गाणि सर्वो भद्राणि पश्यतु।
सर्वः कामानवाप्नोतु सर्वः सर्वत्र नन्दतु॥
सब लोग कठिनाइयों को पार करें। सब लोग कल्याण को देखें। सब लोग अपनी इच्छित वस्तुओं को प्राप्त करें। सब लोग सर्वत्र आनन्दित हों
सर्वSपि सुखिनः संतु सर्वे संतु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यंतु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत्॥
सभी सुखी हों। सब नीरोग हों। सब मंगलों का दर्शन करें। कोई भी दुखी न हो।
बहुत अच्छी प्रस्तुति। नव वर्ष 2011 की हार्दिक शुभकामनाएं!
सदाचार - मंगलकामना!
यही तो फर्क है जनाब खास-ओ-आम में ! एक ही जगह पर खड़े थे आप लोग , पर आपने पोस्ट लिख ली और सोनल रस्तोगी जी को कमेन्ट से ही काम चलाना पड़ा :)
बहुत ही सुंदर............
नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाए...
*काव्य- कल्पना*:- दर्पण से परिचय
*गद्य-सर्जना*:-जीवन की परिभाषा…..( आत्मदर्शन)
Ha,ha,ha!Bada maza aaya padhke! Aapne hawaldar se poochha nahee,ki,wo receipt de raha hai ya nahee?
"कबीरा खड़ा बाजार में " के सहारे व्यवस्था को बाजार में खड़ा कर दिया आपने.सरकारी तंत्र का एक मोहरा( पुलिसवाला ) ऐसा है तो सारा तंत्र कैसा होगा.बेहतरीन,प्रासंगिक एवं सामयिक पर मीठा व्यंग्य..
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