सम्वेदना के स्वर

यह ब्लॉग उस सनातन उत्सवधर्मिता को जीवित रखने का प्रयास है,

जिसमें भाव रस और ताल का प्रतीक आम आदमी का भा-- बसता है.
सम्वेदनाएँ...जो कला, साहित्य, दर्शन, विज्ञान, राजनीति आदि के माध्यम से अभिव्यक्त होती हैं, आम आदमी के मन, जीवन और सरोकार से होकर गुज़रती हैं तथा तलाशती हैं उस भारत को, जो निरंतर लड़ रहा है अपने अस्तित्व की लड़ाई.....

Sunday, July 25, 2010

गुरू पूर्णिमा पर ओशो नमन !!


रजनीश या ओशो भारत के सर्वाधिक विवादास्पद नामों मे से एक है. परंतु किशोरावस्था से ही इस व्यक्ति से मैं कैसे जुड़ता चला गया, यह सोचकर आज भी अचम्भित हो जाता हूँ. सलिल भाई कि तरह मुझे बचपन में मंटों तो नहीं मिला पढ़ने को, परन्तु जब कभी किताब की दुकान से मैं रजनीश टाइम्स ले आता था पढ़ने के लिये तो घर में हंगामा हो जाता था.उस समय की रवायत के मुताबिक़ ही, मेरे घर में भी ओशो को एक ख़तरनाक एवम् भ्रष्ट सन्यासी के रूप में ही जाना जाता था. बस, जैसा स्वयम् ओशो कहते हैं कि “न या नकार” में बहुत ऊर्जा छिपी होती है और जिस चीज़ के लिए मना किया जाता है, उसके पीछे एक आकर्षण अपने आप चला आता है. शायद यही कारण रहा, मेरा ओशो को छुप छुप कर पढ़ने का.
स्कूल के बाद इंजीनियरिंग कालिज में प्रवेश मिल गया तो माशाअल्लाह!मानो जन्नत हाथ आ गयी!! दस हज़ार एकड़ में फैले, गोविन्द वल्लभ पंत कृषि एवम् प्राद्यौगिकी विश्वविधालय, पंतनगर, नैनीताल का माहौल ही कुछ ऐसा था... हरी भरी वसुन्धरा के बीच गुरुदेव रबींद्र नाथ ठाकुर के शांति निकेतन की तरह...

विश्वविधालय के बीचों बीच स्थित पुस्तकालय (इन्दिरालय नाम है इसका)...मेरे विचार से भारत के बेह्तरीन पुस्तकालयों मे से एक होगा और यहीं मेरा ओशो प्रेम परवान चढता गया.

ओशो के दृष्टिबोध को समझते समझाते जब जीवन के उतार चढाव से दो चार होना पड़ा तब कुछ कुछ समझा कि सुख और दुख से परे, आनन्द की भी एक स्थिति होती है, जहां उत्तेजना का उन्माद नहीं वरन् शुद्ध साक्षीत्व जैसी भी कोई स्थिति होती है. पढे लिखे लोगों की इस दुनिया में हम अपने तथाकथित ज्ञान के बोझ से ही दबे जा रहे हैं.... जबकि ओशो एक ऐसे मौन की तरफ इशारा करते है जो शब्दों के पार... शब्दातीत है, जहां से हम अस्तित्व से जुड़ते हैं...

ओशो कहते हैं...

मैं चाहता हूं तुम्हें निर्भार करना -
ऐसे निर्भार कि तुम पंख खोल कर
आकाश मे उड़ सको.
मैं तुम्हें हिन्दू,मुसलमान, ईसाई, जैन, बौद्ध
नहीं बनाना चाहता
मैं तुम्हे सारा आकाश देता हूं.

अक्सर ऐसा लगता है कि यह सारी आपाधापी दरअसल एस्केपिज़्म ही है...हम अपने आप से भाग रहें हैं...कभी निर्भार ही नहीं हो पाते हम...स्वयम् को किसी न किसी काम में इंगेज़ कर के ही मानते है हम...क्योंकि अकेलापन सालता है...

मै कौन हूँ? मै क्यों हूँ? यह सवाल कोंचता है भीतर तक...उत्तर माँगता है. फिर शायद इसी सवाल से बचने के लिये हम अपने सपने गढ़ते हैं और मैं फलाना....मै ढिमाका..का किस्सा आगे बढता जाता है.

ओशो कहते है कि “मेडिटेशन इज़ द ओनली मेडीसिन”. ध्यान का प्रारम्भ वस्तुत: बाहर की दौड़ से स्वयम् को भीतर खींच लेना है. ओशो मन के बारे में जो कह रहे हैं, उसका हम सभी को सीधा अनुभव है. मन या तो हमेशा आगे कूदता रह्ता है या पीछे घसीटता रह्ता है, लेकिन वह कभी वर्तमान क्षण में नहीं होता है. मन एक सतत बडबड़ाहट है, यही बडबड़ाहट हमें वर्तमान में होने और जीवन को उसकी पूर्णता में जीने से वंचित कर देती है. हम कैसे समग्रतापूर्वक जी सकते हैं जबकि हमारा मन स्वयम् के साथ ही बड़बड़ा रहा है.

एक छोटा सा प्रयोग करें दस मिनट के लिये आंखे बन्द करके बैठ जायें और अपने चारों ओर होने वाली आवाज़ों को सुनें, अपने शरीर के प्रति बोधपूर्ण होने की कोशिश करें. हम पायेंगे कि एक मिनट के अन्दर ही, मन फिर से बातें करना शुरु कर देता है. आख़िर भीतर चल क्या रहा है हमारे? किसी और को यदि हम ये बातें करते सुनें, तो निश्चित ही उसे विक्षिप्त करार देगें. ओशो बार-बार यही कहते हैं कि ध्यान में डूबो. इस बडबड़ाते मन को सीधे बन्द नहीं किया जा सकता लेकिन ध्यान के द्वारा मन का शोरगुल कुछ धीमा हो जाता है और फिर अंतत: मन विलीन हो जाता है. तब जीवन मे अमन उतरता है.ओशो समझाते हैं,साक्षी का सीधा सरल अर्थ होता है “आग्रह्शून्य तटस्थ अवलोकन : यही है ध्यान का पूरा रहस्य”

वह गुरु पूर्णिमा, मेरे जीवन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण दिन था, जब तीन दिन ध्यान ऊर्जा में नहाने के बाद मन का अहंकार समर्पण को तैयार हुआ और ओशो परम्परा में अपना यह नाम स्वामी चैतन्य आलोक मुझे मिला. ओशो का नव-सन्यास कई मायनो में अनूठा है, जहाँ आप स्वयम् के लिये अपना उत्तरदायित्व स्वीकार करते हैं और साधक बनकर जीवन जीना शुरु करते हैं.
ओशो कहते हैं:

                  मैं गुरु इस मायने में ही हूं
                  कि मेरी साक्षी में तुमने
                  स्वयम् को जानने की
                  यात्रा आरम्भ की है,
                  इससे आगे मुझसे उम्मीद मत रखना.

(ओशो के हस्ताक्षर)


उफ!! कितनी गहरी स्वत्रंता है यह!
और कितना गहरा उत्तरदायित्व भी!

अहोभाव प्यारे ओशो !!

Friday, July 23, 2010

गुमशुदा ब्लॉगर्स की तलाश

दिन के आठ घंटे अगर सोने के निकाल दें तो हम अपने लिए सोलह घंटों का समय पाते हैं. लेकिन इन सोलह घंटों में,अगर रूटीन कामों के तीन चार घंटे और परिवार के साथ बिताए गए समय निकाल दिए जाएँ, तो सबसे ज़्याद वक़्त हम अपने ऑफिस में बिताते हैं. जितना हम अपने परिवार के बारे में नहीं जानते, उससे कहीं ज़्यादा हमें अपने साथ काम करने वाले लोगों की जानकारी होती है. शर्मा जी अपनी लड़की की शादी को लेकर चिंतित रहते हैं, गुप्ता जी का लड़का बारहवीं में 97% नम्बर से पास हुआ है, सविता जी को माइग्रेन की शिकायत रहती है, वर्मा जी बहुत दुःखी रहते हैं बिना किसी कारण के. इतना ही नहीं, किसे क्या खाना पसंद है, किसमें क्या क्या ख़ूबियाँ हैं, किसका ड्रेसिंग सेंस बहुत शानदार है और कौन बिलकुल फूहड़ है. गोया एक पूरा परिवार बन जाता है हमारे आस पास.

कुछ ऐसा ही परिवार बना रखा है ब्लॉगर्स बिरादरी ने भी. हमें भी ख़बर रहती है कि कौन, क्या और कैसा लिख रहा है या रही हैं. सतीश सक्सेना जी तो इसके माहिर हैं. हमें आए पूनम पूनम एक मास ही हुए थे कि उन्होंने छाप दिया अपने ब्लॉग पर कि दो लोग मिलकर बहुत अच्छा लिखते हैं और न जाने क्या क्या,जिसके लायक न हम तब थे, न अब. पाबला जी, खुशदीप सहगल, प्रवीण पाण्डे, चला बिहारी के बारे में सक्सेना जी ने लिखा, कुछ अनजान लेकिन उत्कृष्ट ब्लॉगर्स की भी इन्होंने चर्चा की. पंडित अरविंद मिश्र जी ने सतीश पंचम जी से मिलवाया और उन्होंने ही समस्त ब्लॉग जगत को पाबला जी के साथ हुई दुर्घटना का समाचार दिया. कई ऐसे भी मंच हैं, जहाँ चुनिंदा ब्लॉगर्स की चुनी हुई पोस्ट पर चर्चा और समीक्षा भी की जाती है. श्री मनोज कुमार, श्रीमती संगीता स्वरूप, सुश्री अनामिका, श्री अनूप शुक्ल, मयंक जी आदि इस ब्लॉग यज्ञ के यजमान के रूप में प्रतिष्ठित हैं.

ऐसा माहौल देखकर कोई भी यह सोचने पर विवश हो जाएगा कि हमारा ब्लॉग परिवार कितना आदर्श परिवार है. सच भी है, यहाँ झगड़े, तकरार, बहस, इल्ज़ाम, प्रशंसा, समीक्षा सब है. कुल मिलाकर बरतनों की खटपट के साथ ही यहाँ, परिवार के सारे सुर हैं, नहीं है तो बस एक बात, जो पिछले कई दिनों से मुझे खल रही है. अचानक अगर इस परिवार से कोई सदस्य ग़ायब हो जाए, तो उसकी कहीं कोई चर्चा नहीं होती.हो सकता है कि किसी के ग़ायब होने होने की ख़बर किसी एक को हो , लेकिन किसी ने लम्बे समय तक ग़ैर हाज़िर रहने वाले किसी ब्लॉगर की सुध ली हो, मैंने तो नहीं देखा. हो सकता है कि कई लोगों के पास गुमशुदगी की रिपोर्ट, मय वज़ह के दर्ज होती हो, लेकिन सामान्य तौर पर कोई नहीं सोचता.

चैतन्य जी ने तो मेरा नाम ही शिकारी कुत्ता रख छोड़ा है (प्यार है उनका,जो मेरा है वो आधा उनका भी तो है इस दुनिया में),कहते हैं मेरी घ्राण शक्ति इतनी तीव्र है कि कहाँ से कौन है और कौन किसके साथ जुड़ा है,पल भर में बता देता हूँ.बताने की ज़रूरत नहीं कि रात-रात भर बना कर फक़ीरों का हम भेस ग़ालिब, तमाशा ए कूचा ए ब्लॉग देखते हैं. पता रहता है कौन कौन क्या कर रहा है. हर बड़ा छोटा, जो दे (कमेंट) उसका भी हाल, जो ना दे उसका भी हाल.

ऐसे में अचानक कोई गुम हो जाए तो मुझे बेचैनी हो जाती है. चैतन्य जी से कई बार कहा है, नीलेश माथुर नहीं दिख रहे आजकल, कुँवरजी लापता हैं, संजय भास्कर (जो एक बार में दो टिप्पणी डालते हैं) ग़ायब हैं, बबली की शायरी सूनी पड़ी है, मो सम कौन कई दिन बाद लौटे और जब बताया कि आ गए हैं, तब लोगों ने जाना कि छुट्टी पर थे, सुलभ सतरंगी दिखाई ही नहीं देते, कोई सोचता भी नहीं कि वो सामाजिक व्यक्ति हैं, किसी आवश्यक सामाजिक अनुष्ठान मे व्यस्त थे, अपने झा जी (ऑनेस्टी प्रोजेक्ट डेमोक्रेसी) कई महीने दूर रहे टिप्पणियों से, मुकेश कुमार सिन्हा तो चुपचाप ही निकल लिए अनजान यात्रा पर, सतीश सक्सेना जी ने युरोप यात्रा के पूर्व ही ब्लॉग मौन डिक्लेयर कर दिया ताकि लोग चिंता न करें, सरिता जी (अपनत्व) ने कुछ करीबी लोगों को बताया कि वो ऑस्ट्रेलिया जा रही हैं या अभी लंदन जाने वाली हैं तो पता भी चल गया,वर्ना किसको फिक्र होती कि वो नहीं हैं. कविवर योगेंद्र मौद्गिल "ज़िंदगी की ज़ंग" लिखकर गायब हो गए, मैंने सुधार भी किया पर न तो सुधार हुआ, न वो फिर आए. अपने स्वप्निल कुमार आतिश कभी कभार टिप्पणी देते दिख जाते हैं ,अब तो हिंद युग्म पर भी नहीं दिखते और न फेस बुक पर ही उनकी आमद दर्ज़ होती दिख रही है.दिलीप को तो शायद आप लोग अभी भी नहीं भूले होंगे, जिसकी ओजपूर्ण कविताएँ कभी 'दिनकर', कभी 'प्रसाद' की याद दिलाती थीं. लखनऊ क्या गए, बस लौट कर ही नहीं आए. आख़िरी बार पूछा था लोगों से कि किताब छपवाने का क्या रास्ता है. उसके बाद मौन.

कितना अजीब लगता है कि हमें टिप्पणियों की गिनती तो याद रहती है, टिप्पणियाँ देने वालों की गिनती हम भूल जाते हैं, टिप्पणियों की परवाह तो हम करते हैं, टिप्पणियाँ लिखने वालों की परवाह नहीं होती. ऐसा होता तो किसी ने कभी उनकी अनुपस्थिति के बारे में चिंता ज़ाहिर करने के लिए ही कोई पोस्ट लिखी होती. और अगर लिखी जाती तो कारण जानने वाले लोग अवश्य बताते कि वो ख़ैरियत से हैं,परिवार को समय दे रहे हैं.लेकिन ऐसा किसी ने लिखा हो तो हमने नहीं देखा. हमने तो इस मारे यहाँ लिख मारा कि इसे आप चाहें तो गुमशुदगी की रिपोर्ट समझें, या ब्लॉग थाने की एफ. आई. आर.

अब लगता है कि हम दो लोगों ने लिखना शुरू करके अच्छा किया कि अगर कल को कहीं ज़िंदगी की हार्ड डिस्क से मेरी फाइल डिलीट हो गई, तो कम से कम चैतन्य बाबू उस दुनिया को बता तो सकेंगे मेरे बारे में, जिसके लिए  मैं हमेशा कहा करता था कि

देखना  रोएगी, फरियाद  करेगी  दुनिया,
हम न होंगे तो हमें याद करेगी दुनिया
अपने जीने की अदा भी है निराली सबसे,
अपने मरने का भी अंदाज़ निराला होगा.

पुनश्चः देखिए मैं भी भूल गया देवेश प्रताप और "लड्डू बोलता है - इंजिनियर के दिल से" वाले लाल बुझक्कड़ साहब को.

Monday, July 19, 2010

क्यों दुखी हैं, स्वामी अग्निवेश ?

“बुद्धू बक्से का बुद्ध – लोक सभा चैनल”… अपनी इस पुरानी पोस्ट में हमने स्वामी अग्निवेश के कार्यक्रम, “विचार मंथन” को सर्वोच्च स्थान पर रखा था. कारण सिर्फ इतना कि यह बेह्तरीन कार्यक्रम, भारत और इंडिया के विभाजन को, न मालूम कितने दृष्टिकोणों से उभार कर दिखाता है. इसी कार्यक्रम के एक एपीसोड में उन्होंने “मैला उठाने वालों” को लोकसभा चैनल के स्टूडियो में बुलाया था. इस कार्यक्रम में बिना किसी लाग-लपेट और चीख-चिल्लाहट के, आधुनिक समाज में इस तरह के काम और काम करने वालों की समस्यायों को ही नहीं बताया गया, अपितु मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण की पूरी व्यवस्था को कुछ इस तरह उभार कर सामने लाया गया कि हमें ख़ुद पर शर्म आने लगी! यह आत्मग्लानि सालने लगी कि अप्रत्यक्ष रूप से हम भी इस षड़यंत्र में शामिल हैं, जिसमें देश का एक पूरा समाज जानवरों से भी बदतर जीवन जीने को मजबूर है. आखिर यह देश सबका है फिर इतनी असमानतायें क्यों ?

ख़ैर! इस कार्यक्रम का अन्त होने तक स्वामी अग्निवेश भी इतने द्रवित हो गये कि सजल नेत्रों से भावपूर्ण होकर, उन्होनें मंच पर उन सभी बुजुर्ग महिलाओं को बुलाया तथा माँ कह्कर सबके चरण स्पर्श किये और प्रतिज्ञा ली इस प्रथा के खिलाफ अपनी मुहिम जारी रखने की. उन्होंने स्वीकारा कि इस दिन से पहले अपनी माता के अतिरिक्त उन्होंने किसी स्त्री के चरण स्पर्श नहीं किए.

जब इंडिया के तुर्रम खाँ न्यूज़ चैनल; क़िकेट और बॉलीवुड की रंगीनियों की किस्सागोई कर रहे थे या किसी राजनीतिक पार्टी के पक्ष या विपक्ष में माहौल बनाने या बिगाड़ने की जुगत लगा रहे थे, तब स्वामी अग्निवेश लोकसभा चैनल पर अपने इस “विचारमंथन” कार्यक्रम में भारत के वास्तविक और ज़मीनी मुद्दों को चुन चुन कर सामने ला रहे थे, जैसे समाज मे फैलती शराबखोरी, ग्राम स्वराज –डिबरे बाज़ार, आदिवासियों की स्थिति, उपभोक्तावाद के दुष्परिणाम, खाप पंचायतों का सच, जेनेटिक फूड, कृषि क्षेत्र की समस्यायें आदि.

पिछले कुछ समय से अचानक यह कार्यक्रम बन्द हो गया. हमें एक अजीब सी परेशानी हो चली. लोकसभा चैनल के हम जैसे प्रेमियों को, इस कार्यक्रम की कमी बेहद खल रही है. रविवार की सुबह 9 बजे से 10 बजे का समय बहुत कचोटता है, इन दिनों!

अगर कार्यक्रम नहीं दिखाया जा रहा तो सवाल ये उठता है कि स्वामी अग्निवेश हैं कहाँ आजकल?

खबरों पर नज़र रखने वालों को पता होगा कि स्वामी अग्निवेश को भारत सरकार ने माओवादियों से वार्ता के लिये, अपना प्रतिनिधि बनाकर भेजा है. पिछले दिनों स्वामी अग्निवेश से सम्बन्धित सभी खबरें हम “प्रिंट-मीडिया” में ट्रैक करते रहे (क्या करें! “इलेक्ट्रॉनिक मीडिया” में तो इस तरह की खबरों की कोई जगह ही नहीं होती). खबरें तो अनेक थीं पर कोई खबर स्वामी अग्निवेश के बाबत नहीं थी.

कल रविवार दोपहर 2 बजे अचानक ही न्यूज़ एक्स चैनल पर महिला पत्रकार सीमा चिश्ती द्वारा स्वामी अग्निवेश का एक साक्षात्कार देखा, तो बहुत सी बातें खुल कर सामने आईं. इस साक्षात्कार में स्वामी अग्निवेश ने बताया कि माओवादियों के प्रतिनिधि के तौर पर किसी आज़ाद नामक व्यक्ति से उनकी बातचीत चल रही थी. भारत सरकार की ओर से 72 घंटे के सीज़-फायर का प्रस्ताव भी था. लेकिन इस बीच स्वामी जी को खबर मिली कि आदिलाबाद के जंगलों में हुए एक एनकाउंटर में आज़ाद और उत्तराखण्ड के एक पत्रकार हिमांशु पांडे को माओवादी कहकर मुठभेड़ में मार दिया गया है.

इस सारे घटनाक्रम से स्वामी अग्निवेश बहुत विचलित हुए हैं. उन्होंने बताया कि वो देश के गृहमंत्री से भी मिले, इस एनकाउंटर की जांच की विनती लेकर. परंतु गृहमंत्री जी ने एक वकील की तरह दो टूक जबाब दे दिया कि जब माओवादियों के द्वारा मारे गये सैकड़ों लोगों की हत्या की जाँच नहीं हो रही है, तो इन दो माओवादियों कि क्यों ?

बहरहाल, इतने पर भी स्वामी अग्निवेश ने आशा नहीं छोड़ी है. वो शांति-वार्ता के प्रयासों में लगे हैं!

स्वामी अग्निवेश के प्रयास सफल हों! माओवादियों में सम्वेदनाएँ जगें और सरकार भी सम्वेदनशील हों, यही आशा की जा सकती है, अब.

टेलीविज़न के स्टूडियो से निकल कर, अपनी जान हथेली पर लेकर निकले इस शांति के मसीहे की सम्वेदनाओं में हमारे स्वर भी शामिल हैं. स्वामी अग्निवेश जैसे लोगों को हम सब की दुआएँ चाहियें...

लोकसभा चैनल पर “विचारमंथन” कार्यक्रम का इंतज़ार...अब हम क़यामत तक करने को तैयार हैं.

Friday, July 16, 2010

दिल तो बच्चा है, जी!!


शर्म से लाल हुई जाती है, और गुस्से में,
लाल पीली हुई जाती है ये जानम मेरी.

कैसे गिरगिट से मैंने प्यार किया!



दिल ने ये मान लिया है कि बस मेरी हो तुम
तुमसे मिलना नहीं मुमकिन, दिमाग़ कहता है

ऑक्टोपस कहाँ जाकर बैठे!



चुप तुम भी थीं, चुप मैं भी था, दोनों चुप थे.
झगड़ा था, और खामोशी की शर्त लगी थी

उफ, कितनी बातें करती हैं आँखें तेरी!





Tuesday, July 13, 2010

हँसना मना है !!!

अंगरेज़ी की एक कहावत है – लाफ्टर, द बेस्ट मेडिसिन. हँसी का नियमित डोज़ किसी भी दवा के डोज़ से बेहतर ईलाज है और हँसने वाला आदमी हमेशा स्वस्थ रहता है. इसीलिए, कई कॉलोनियों में लाफ्टर क्लब भी बने हैं. सुबह सुबह लोग एक जगह जमा होते हैं और एक साथ हँसना शुरू कर देते हैं. लेकिन मुझे अभी तक यह समझ में नहीं आया कि यह कितना फ़ायदेमंद है. क्योंकि हँसने का मतलब ज़बर्दस्ती हँसना तो है नहीं, बिना किसी बात के. मेरे ख़याल से, हँसी की दवा का मतलब यह है कि आप किसी से मिलें तो हँसकर मिलें. कहते हैं न कि आप फोन पर भी किसी से मुस्कराकर बात करें, तो बिना 3G के भी, बात करने वाले को पता लग ही जाता है कि आप मुस्करा रहे हैं. सुबह सुबह ज़ोर से हँसना और सारे दिन मुँह लटकाए घूमना, पता नहीं ऐसे में हँसी की दवा कितना असर करती होगी और करती होगी भी कि नहीं.
कई बार तो लाफ्टर क्लब के सदस्यों की हँसी की आवाज़ बहुत डरावनी होती है, आदमी तो आदमी, जानवर भी डर जाते हैं इस आवाज़ से. पटना के चिड़ियाघर में बहुत हरियाली है. वहाँ लोग सुबह सुबह टहलते हैं. पहले वहीं लाफिंग क्लब भी चला रखा था, सुबह टहलने वालों ने. बाद में मुख्य मंत्री के हुक़्म से बंद करना पड़ा, वज़ह ये थी कि उनकी हँसी की आवाज़ से जानवर डरकर चिल्लाने लगते थे.
ख़ैर, भूमिका कुछ ज़्यादा ही लम्बी हो गई. सीधा आते हैं आज के सवाल पर, बता सकते हैं कि दुनिया के सबसे हँसमुख इंसान कौन हैं? चलिए मैं ही बता देता हूँ. सबसे हँसमुख लोग होते हैं, हिंदी फिल्मों के विलेन. आप ख़ुद ही देख लीजिए, हीरा लाल से कन्हैया लाल तक, मदन पुरी से अमरीश पुरी तक और राका से शाका तक. सब के सब इतने हँसमुख थे कि कहा नहीं जा सकता. कुछ मिसाल आपके लिए बतौर सबूत पेश हैं:

धर्मेंद्र, “कुत्ते! कमीने!! मैं तेरा ख़ून पी जाऊँगा.”
विलन, “हा हा हा हा!!!” गौर तलब है की ख़ून पी जाने की बात पर भी जनाब की हँसी नहीं रुक रही है.

शोले की बात किए बिना तो हिंदी फिल्म का इतिहास लिखा ही नहीं जा सकता.उस फिल्म में भी गब्बर सिंह के सेंस ऑफ ह्यूमर का जवाब नहीं. अपने  तीन आदमियों को गोली भी उसने हँसा हँसा कर मारी. उसकी क्रूरता का ये आलम कि एक कमसिन नौजवान को क़त्ल करने में ज़रा भी नहीं हिचकता, लेकिन हँसमुख इतना कि अपने नाकाम साथियों को मारने के पहले भी मज़ाक करने से बाज नहीं आता.


स्व. मुकुल आनंद की फिल्म “हम” में तो ठहाके लगाते हुए और मज़ाक करते करते, अनुपम खेर और अन्नू कपूर एक औरत और एक बच्ची को ज़िंदा जला डालते हैं.

मुग़ैम्बो की हँसी तो आज भी लोगों को मुग़ैम्बो से ज़्यादा खुश कर देती है. नसीरुद्दीन शाह का, फिल्म “क्रिश” में ब्रेकिंग न्यूज़ बताना उस विलन के सेंस ऑफ ह्यूमर का टीवीकरण था.
रामायण तक में रावण सीता से हँसता हुआ कहता है, “हा हा हा! कहाँ है तुम्हारा राम!”
ये तो थी बानगी हिंदी फिल्मों के विलन की, इन फिल्मों के भूतों की तो बात तो अभी बाक़ी ही है. एक सूनसान हवेली के बाहर खड़े हीरो हिरोईन. अचानक सन्नाटे को चीरती एक भूत या चुड़ैल की आवाज़, माफ कीजिए, हँसी सुनाई देती है “हिहिहिहिहि”. सब डर जाते हैं, जबकि भूत, चुड़ैल या आत्मा हँसती हुई चुपचाप इधर से उधर चली जाती है.

इन विलन लोगों की बलिष्ठ देह और गरिष्ठ स्वास्थ्य को देखकर लगता है कि वाक़ई हँसने वाला आदमी सेहतमंद होता है. क्योंकि आजकल एक नॉर्मल आदमी तो महँगाई, कमाई और पढ़ाई के बीच दबकर अपनी हँसी भूल गया है, शायद इसीलिए ऐब्नॉर्मल लोगों को हँसते हुए दिखाया जाता है.वैसे भी एक मिड्ल क्लास आदमी की बीवी अगर कभी मुस्कराकर भी देख ले, तो समझ जाना चहिए कि जेब कटी ही कटी. और अगर ऑफिस में कभी बॉस ने मुस्कराकर देखा, फिर तो ख़ैर नहीं, समझ लो काम का बोझ घर ले जाने की नौबत आने वाली है.

ये तो मज़ाक की बात थी. सच पूछें तो थका हरा आदमी घर लौटे और गृहलक्ष्मी को इंतज़ार करता चौखट पर पाए और हँसता हुआ बच्चा भागता हुआ आकर लिपट जाए, तो सारी थकान ग़ायब हो जाती है, मानो देवता के हाथ लग गए हों बदन पर. तभी निदा साहब कहते हैं
घर से मस्जिद है बहुत दूर,चलो यूँ कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाए.
 

Friday, July 9, 2010

धोनी की शादी में, दीवाना मीडिया !

बचपन में कन्हैया लाल नन्दन जी की एक कहानी पढी थी, जो कुछ इस तरह थीः
शहर में एक सड़क के किनारे एक मज़दूर महिला पत्थर तोड रही थी. अचानक वहां कुछ लोगों की भीड़ इकट्टी हो गयी और ज़ोर ज़ोर से से बोलने लगी “ देखो औरत पत्थर तोड़ रही है!... देखो औरत पत्थर तोड़ रही है! ”

वह औरत एकदम सकपका गयी और उठ कर चल दी. भीड़ उसके पीछे पीछे चलने लगी और अब बोल रही थी कि देखो! औरत जा रही है... देखो! औरत जा रही है...औरत भागने लगी और एक गली में बने अपने घर में घुस गयी....भीड़ गली में आ गयी और उस औरत के घर के सामने खड़े होकर वस्तुत: चीखने लगी, देखो! औरत घर में घुस गयी... देखो औरत घर में घुस गयी... औरत कमजोर दिल की थी.... उसने पंखे से लटक कर आत्महत्या कर ली....अगले दिन दरवाज़ा तोड़ा गया तो यह हादसा सबके सामने था.

भीड़ अब खुसर पुसर कर रही थी...देखो औरत ने आत्महत्या कर ली.. ...देखो औरत ने आत्महत्या कर ली....

इसके बाद भीड़ अगले शिकार पर निकल गयी..

यह कहानी क्या आपको जानी पहचानी नहीं लगती? भीड़ को आज के इलेक्ट्रोनिक मीडिया से बदल दीजिये और देखिये यह गन्दा खेल आज भी जोर शोर से चालू है..



माओवादी हमले में मारे जवानों की खबर को भूल कर सानिया-शोहिब की शादी के पीछे पड़ गये. मीडिया की तब बहुत छीछालेदर हुई थी. परंतु टी.आर.पी. के भूखे भारतीय इलेक्ट्रोनिक मीडिया को न जाने किसने समझा दिया है कि अगर राजश्री प्रोडक्शन शादी की फिल्में बनाकर नोट कमा सकता है, तो वो क्यों नहीं.

अब देखिये न! धोनी की शादी में अपनी कैसी गत बना रहा था यह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया. धोनी समझदार है. उसे पता था कि यदि शादी की खबर इस अपरिपक्व और बाज़ारु मीड़िया को पहले से बताई गयी तो यह कुछ न कुछ बखेड़ा खड़ा कर देगा और अपना साबुन तैल अलग से बेचेगा. लानत है! कि खबर हर कीमत पर खोजने वाला तुर्रम खाँ मीडिया चैनलों को पता ही तब चला जब धोनी की सगाई हो चुकी थी...फिर खबर आई कि शादी अक्टूबर में होगी. लेकिन रात होते होते पता चला कि शादी अगले दिन होने वाली है.

धोनी ने मीडिया को विवाहस्थल के अन्दर घुसने ही नहीं दिया, तो भी ये लोग बेशर्मी से अपना और देश का समय बरबाद करते हुए दिखाते रहे...कभी शादी में जाने वाली घोड़ी को, कभी घोड़ीवाले को, स्टूडियो में बैठे भाड़े के ज्योतिषियों को, एक चैनेल वाले तो भाड़े की दुल्हन भी पकड़ लाए कि उत्तरांचल की दुल्हन के लिबास में धोनी की दुलहन ऐसी लगेगी. देहरादून के उस होटल से जब धोनी अपनी नवविवहिता के साथ उड़न छू हो गया तब भाई लोग बेवकूफों की तरह होटल में घुस गए और बताने लगे कि यह देखिये यहाँ धोनी की शादी हुई थी, इनसे मिलिए ये हैं होटल के वेटर...जी हाँ! हमारे दर्शकों को बताइये क्या हुआ था?

कितना अभद्र था, जब IBN7 नाम के एक बाज़ारु चैनल नें यह खबर चलाई - “इधर शादी उधर तलाक” लेकिन कार्यक्रम देखने के दौरान यह पता चला कि तलाक से इन मूर्खों का मतलब उन लोगों से था, जिन्हें शादी में नहीं बुलाया गया था. धोनी की खबरों की कमाई खाने वालों की, यह शर्मनाक नमकहरामी थी !

यह सूरत है इस देश के चौथे खम्भे की. इनका काम था सत्ता और सत्ता तंत्र पर पैनी नज़र रखना, ताकि देश की व्यवस्था का कोई भी ज़िम्मेवार व्यक्ति या संस्थान शोषण न कर सके. परंतु अब लगता है कि बाड़ ही खेत को खा गयी. देश की एक मशहूर महिला टेलीविज़न पत्रकार और अंग्रेजी के एक प्रतिष्ठित समाचार पत्र के मुख्य सम्पादक के द्वारा किसी खास व्यक्ति को मंत्री पद दिलाने की कोशिशों की बातें भी चर्चा में हैं. यदि इस धुँए के पीछे लगी आग सही है, तो पत्रकारों का दलालों की इस भूमिका में होना, राम गोपाल वर्मा की फिल्म “रण” में अमिताभ बच्चन के उस डायलॉग को सही ठहराता है कि पैसे के लिये मीडिया ने सत्त्ता से हाथ मिला लिया है... जो उंगली बेईमानों पर उठनी चाहिये थी, उसने उन लोगों से हाथ मिला लिया.

सेलेब्रिटीज़ की शादियों से ईतर, समूचा भारत तरस रहा है कि इंडिया के यह टेलीविज़न पत्रकार कभी उसकी भी खबर लेने आयें. कभी देखा है आपने कि महंगाई और बदहाली से हलकान किसी गाँव या शहर में जाकर इन्होंने आम लोगों से उनकी प्रतिक्रिया जाननी चाही हो? अब इन्हें ये समझाने की ज़रूरत तो है नहीं कि बड़े शहरों के अलावा भी देश के बाक़ी हिस्से में लोग रहते हैं. लेकिन जो जागते हुए भी सोने का नाटक कर रहा हो उसे कौन जगा सकता है!

चकाचौंध से भरे इंडिया का प्रतिनिधित्व करते टेलीविज़न जगत के यह पत्रकार, बॉलीवुड, क्रिकेट और फूहड़ हास्य से परे शायद किसी और दुनिया को जानते ही नहीं.

क्या नक़ाबपोशों की इस भीड़ में कोई सच्चा पत्रकार नहीं बचा!! और अगर कुछ अच्छे लोग इनमें अभी भी बचें हैं तो वो एक्सपोज़ क्यों नहीं करते इस बेशर्म खेल को? कैसे चुपचाप सह सकते हैं वो यह सब? एक समानान्तर और स्तरीय बीबीसी जैसा मीडिया क्या नहीं बना सकते हम?



Monday, July 5, 2010

चाँद और भारत बंद


कल जब आधी रात को नींद से जाग के देखा
चाँद बेचारा
मेरे सिरहाने बैठा था आँख सुजाए
रोता, मलता अपनी आँखों को, आँसू वो पोंछ रहा था.

मैंने हाल जो पूछा उसका,
गुस्से से बोला वो मुझसे
मेरे घर आया था कोई,
अमरीकी था, या रशियन था
आया था, या देख दाख के बाहर से ही भाग गया था
तुमको क्या! तुम अपनी सोचो!!

तुम तो मान के बैठे ही थे
मेरे चेहरे पर ना जाने दाग़ हैं कितने!
बदसूरत ही मैं अच्छा हूँ
अपने चेहरे के भी दाग कभी देखे हैं
मेरे घर पर बाद में आना
पहले अपने घर की सोचो.
और चेहरे के दाग़ को देखो.

पानी लाओगे तुम कैसे, तेल तुम्हारा नहीं बचेगा
है अनाज जब पहुँच से बाहर
सोचो आखिर कब सोचोगे!
भारत बंद का नारा भले बुलंद करो तुम
क्या पाओगे!

नदियाँ अपने घर की नहीं सम्भलती तुमसे
अपनी दुनिया में फिरते हो तुम सब ख़ून ख़राबा करते
अपने अपने इल्म का झूठा रौब जमाते
इक दूजे पर,
पागल हो तुम!

साईंस तुम्हारा जितना सच्चा है, उतना ही झूठा भी है.
दाग़ मेरे जितने दिखते हैं तुम लोगो को
बस सच्चे हैं,

टीवी देखके इतना समझ नहीं पाए तुम
चाँद के दाग़ में महबूबा जो दिख जाए तो
और रोटी दिख जाए दो दिन के भूखे को
समझा देना ख़ुद को कि
ये दाग़ अच्छे हैं!

(चित्र साभार: फ्रीकिंग न्यूज़)

Sunday, July 4, 2010

पंडित अरविंद मिश्र से चाँद पर एक रार

हमारी पिछली पोस्ट सच्चा चाँद - झूठा अमेरिका पर हमारे आमंत्रण पर पंडित अरविंद मिश्र ने निम्नलिखित टिप्पणी दी थी.

यह एक क्रेजी अमेरिकी द्वारा फैलाई सनसनी मात्र है ...संशयात्मकता विज्ञान की आत्मा है मगर मूर्खता उसका कफ़न... आज अगर कोई इस बात को कहता है की चन्द्रमा पर मनुष्य का अवतरण धोखा धड़ी मात्र था और उसके पक्ष में रोचक उदाहरण और लच्छेदार शब्दों में तर्कों का पहाड़ तैयार करे तो मेरी निगाह में वह एक बड़ा अहमक ही है -मुझे क्षोभ और अफ़सोस है ऐसे लोगों पर ..अब आप रिएक्ट करें तो मेरी बला से ... यद्यपि मैं इन कड़े शब्दों के लिए आपसे क्षमा माँगता हूँ .मगर विज्ञान आप सरीखे लोगों से ही धक्के खा रहा है ..मैं छठवीं में था शायद जब यह युगांतरकारी घटना घटी थी और मेरे बाल मन ने सहज ही इसे सच मान लिया था ..मैंने इस पर एक कोलाज किया था
अगर ऐसे दावे को स्वीकार नहीं करते तो इसका मतलब आप मनुष्य की असीम शक्तियों और संभावनाओं पर भी विश्वास नही करते आप परले दर्जे के दकियानूसी चेतना के आदमी हैं ..बदलिए अपने को ...
चन्द्रमा पर मनुष्य का दूसरा अभियान जल्द ही शुरू होने पर आपको अपने जीवन काल में ही सच से सामना हो जाएगा...बाकी साईंस ब्लागर्स और साईब्लाग भी देखते रहा करिए -खुद अपनी अच्छाई के लिए .....

इस टिप्पणी के जवाब में पहली बार हम दोनों अलग अलग अपने वक्तव्य प्रस्तुत कर रहे हैं. यह पोस्ट न तो उनकी बात का खण्डन है, न हमारी बात मनवाने का पूर्वाग्रह. यह सिर्फ उनके जजमेंटल कमेंट का प्रत्युत्तर है. हमारा सवाल आज भी वहीं खड़ा है, क्योंकि यह एक राजनैतिक सवाल है, जिसका जवाब विज्ञान के ब्लॉग्स में सम्भव नहीं.


चैतन्य आलोकः
आपका गुस्सा सर माथे. परंतु एक शिकायत है आपसे, हम अहमकों को. आपने हमारे मूल प्रश्न का कोई जबाब न देकर अवैज्ञानिक भूल कर दी है, सर जी! मूल प्रश्न यही है कि अगर 1969 से 1972 के बीच दे दना दन अमरिकी अंतरिक्ष यात्री चाँद पर उतर रहे थे तो फिर तकनीकी क्रांति के युग में यह घटना पिछले चार दशकों में क्यों न दोहराई जा सकी. क्या इसीलिये नहीं कि इस दकियानूसी दुनिया को अब उस तरह बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता?
उस समय का सोवियत संघ (अब का रूस) अमरिका से अंतरिक्ष विज्ञान में आगे ही था परंतु 1969 से 1989 तक (1989 में सोवियत संघ के विघटन के शुरु होने तक) के दो दशक में वो इस अमरिकी बढत का सामना नहीं कर सका, जबकि कहा जा रहा है इस काम मे प्रयोग होने वाली तकनीक सैलफोन से भी कमतर थी. कोरिया, चीन, जापान, जर्मनी, फ्रांस, इंगलैंड कोई तुर्रम खाँ देश भी इस काम को अंजाम नहीं दे सका?
आपने हमें अवैज्ञानिक किन्हीं डिग्रियों के कारण कहा है तो सनद रहे कि मैं एनर्जी सिस्टम्स में इंजीनियरिंग का स्नातकोत्तर हूं और सलिल भाई केमिस्ट्री के स्नातकोत्तर हैं. डिग्रियों से परे विज्ञान और वैज्ञानिक सोच हमारे जीवन की परिपाटी है. हम सत्य के खोजी हैं! हमारे पूर्वाग्रहों को खंडित करने वाले सत्य भी हमें सहज स्वीकार्य हैं. मनोविज्ञान में भी हमारी रुचि है क्योंकि यह विज्ञान हमारी सोच के सन्दर्भ में है. इसी आधार पर लगता है कि आपके बाल मन की कल्पनाओं को खंडित करनें का दुस्साहस किया है, हमारी इस पोस्ट नें!
विज्ञान की श्रेष्ठता में हमारा अटूट विश्वास है. इसी विश्वास के आधार पर हम मानते हैं कि आज नहीं तो कल चाँद पर मनुष्य भी पहुचेगा और मानव बस्तियाँ भी बसेंगी.
कल रात लोक सभा चैनल पर एक चर्चा के दौरान कोई वेदांती स्वामी जी “नाभिकीय ऊर्जा” के सन्दर्भ में कह रहे थे कि वेदों में इसका स्प्ष्ट उल्लेख है, इसमें नया क्या है?. क्योंकि आज नाभिकीय रिएक्टर एक प्रामाणिक सत्य है, इस कारण क्या यह भी मानेगें आप कि “वैदिक सभ्यता की ऊर्जा आपूर्ति नाभिकीय रिएक्टर करते थें”?
वैज्ञानिक प्रयोगधर्मिता हमेशा एक परिकल्पना पर आधारित होती है. यूरी गगारिन से लेकर आज तक सम्पन्न स्पेस मिशन चाँद को छूने की मानवीय कल्पनाओं के परिणाम ही हैं. परंतु यहां बात उस अमरिकी दावे की सत्यता की है जो तब किसी और उद्देश्य की पूर्ति करता स्पष्ट दिखता है. उस दावे की हर दृष्टिकोण से पड़ताल करना एक नितांत वैज्ञानिक कृत्य है.
अरविन्द मिश्र जी, आप तो एक साईंस ब्लोग भी लिखते हैं, इस कारण आप को जानकारी होगी ही कि हर साल न जाने कितनी ही वैज्ञानिक शोधों की घोषणा होती है, जिन्हें बाद में वैज्ञानिक कम्यूनिटी ही जाली करार दे देती है!!
आइये खोजें ? प्रश्न पूछें, जबाब तलाशें और वैज्ञानिक उत्तर दें!!

सलिल वर्माः
बरसों पहले बिमल मित्र का एक उपन्यास पढा था, नाम अब याद नहीं. उसमें एक व्यक्ति का इकलौता जवान बेटा एक हादसे में मारा गया. इस घटना के बाद वह सज्जन एक अजीब सी मानसिक स्थिति में चले जाते हैं. और जब वे उबरते हैं तो उनके पास एक सिद्धांत होता है, जिसके अंतर्गत वो अपने मृत पुत्र से ऐसे बात चीत करते हैं, जैसे वो उनके पास बैठा हो, सशरीर. उनका यह सिद्धांत विश्वप्रसिद्ध होताहै और वो इस विषय पर अपना व्याख्यान देने सारी दुनिया में जाते हैं. उन्हें कई पुरस्कार भी मिलते हैं और इस विषय पर कई शोध भी होते हैं. अचानक एक दिन उनके दरवाज़े पर दस्तक होती है और उनका पुत्र जीवित उनके सामने खड़ा होता है, उनके सारे ज्ञान को नकारता हुआ. जीवित प्रमाण उनके मिथ्या ज्ञान का. उन्होंने अपने पुत्र को पहचानने से इंकार कर दिया.
पंडित अरविंद मिश्र ने भी इसी तरह छठवीं क्लास में जो कोलॉज बना रखा था, चंद्रविजय अभियान का वह आज भी अंकित है उनके मस्तिष्क में. अब उसको नकारने का दुःसाहस करना उनके बस की बात नहीं. लेकिन जो कुछ भी उन्होने कहा उसके बाद भी हमारा प्रश्न तो वहीं का वहीं है,फिर जवाब क्या दिया उन्होंने, या सवाल क्या उठाया!!
एक बच्चे ने एक सवाल किया मास्टर से, जिज्ञासा थी उसके मन में और उत्तर पर अधिकार था उसका. मास्टर ने दो जवाब दिए, “बेवक़ूफ़! इतना भी नहीं मालूम!” और दूसरा जवाब, “अहमक़! फ़ालतू के सवाल करके दूसरों का समय बरबाद करता है.” दोनों में से कौन सा जवाब सही है, यह तो पता नहीं, लेकिन आए दिन ये दोनों जवाब हर सवाल के लिए दिए जाते रहे हैं. और पंडित जी ने वही जवाब हमारे सवाल का भी दिया,बच्चा समझकर. ज्ञात हो मैं भी छठवीं में पढता था जब यह घटना घटी थी. और पंडित जी के अनुसार दुबारा यह घटना घटी तो मेरे जीवन काल में (यदि जीवित रहा) वह दूसरी घटना होगी.
विज्ञान के छात्र हम भी हैं, ये बात और है कि विज्ञान के ब्लॉग नहीं लिखते. पढ़ाया भी है कई साल तक मैंने , और जिन्हें हमने फ़ारसी पढ़ाई वो तेल भी नहीं बेच रहे हैं. लिहाजा, इतना तो सच है कि डाल्टन से लेकर नील्स बोर तक हर वैज्ञानिक ने पिछले की खाट खड़ी की है, लेकिन न बर्जीलियस ने डाल्टन को अहमक़ कहा, न अवोगैड्रो ने बर्जीलियस को बेवक़ूफ बताया और न ही नील्स बोर ने ऐवोगैड्रो को दकियानूसी.
किसी भी पूछे गए सवाल के जवाब देने से पहले की प्रक्रिया दो तरह की होती है. या तो आपको उसका जवाब पता है तथ्य सहित, या नहीं पता. पता है तो तथ्य से मेल खाने वाले प्रमाण सही उत्तर होंगे और न मेल खाने वाले प्रमाण ग़लत. लेकिन जवाब न मालूम हो तो सवाल ग़लत हो जाए ऐसा तो क़तई नहीं होता देखा. और कम से कम सवाल पूछने वाले को बेवक़ूफ़ बताकर तो बिल्कुल नहीं हो सकता.
हम तो बचपन से चाँद को मामू देखकर ही खुश होते आए हैं और चचा सैम के इस नाटक या सच्चाई पर भी ख़ुश थे. पंडित जी तब हम भी कक्षा छः में पढते थे. जब बड़े हुए और नेट से जुड़े तो लगा कि जितनी बातें चंद्र अभियान के नाटक होने पर लोगों ने लिखी हैं, वो भी तो कंविंसिंग हैं, तब तक जब तक उनका कोई काट नहीं. और इसका काट ये नहीं हो सकता कि सब बेवक़ूफ हैं, अहमक़ हैं और दकियानूसी हैं.
फ़िल्म ‘एक रुका हुआ फ़ैसला’ ऐसी ही मानसिकता को बयान करती फिल्म है, जिसमें पंकज कपूर सरीखे लोग अंत तक मानने को तैयार ही नहीं होते सच को, क्योंकि उन्हें छ्ठी क्लास में एक सच बताया गया था और वो उसके झूठ होने की कल्पना भी नहीं कर सकता है.
 
पुनश्च: आज अमेरिका का बर्थ डे है... हैप्पी बर्थ डे अमेरिका!! 

Friday, July 2, 2010

सच्चा चाँद - झूठा अमरीका !

अपनी बेटी को स्कूल का होमवर्क करवाने बैठा. विषय था, चाँद पर उतरने वाले पहले अंतरिक्ष यात्रियों का वृत्तांत. नील आर्मस्ट्रांग और बज़ एल्ड्रिन के नाम यूँ तो बचपन से ही हमें रटाये गये थे, परंतु इस बार उनका नाम बोलने में ज़ुबान लड़खड़ा रही थी. मैं अपने आप में उलझा था कि यह सही है या ग़लत, सच है या झूठ? तब लगा कि जब मैं खुद ही इस बात पर विश्वास नहीं करता, तो अपनी बच्ची से क्या कहूं? अगली पीढ़ी तक यह “मिथ्या ज्ञान” पहुचाने में सहभागी बनूँ या इसका दूसरा पक्ष भी उससे कहूँ?
कॉलेज के दिनों में इस बात को लेकर दोस्तों के बीच अक्सर यह विवाद होता था कि दरअसल “चाँद पर कोई अभी तक गया ही नहीं है” और चाँद पर उतरने की ख़बर तब के सोवियत संघ को पछाड़ देने की एक और अमेरिकी चाल भर है. पक्ष और विपक्ष में दिये गये तर्कों और सारी बहस के बाद सुई इस सवाल पर अटक जाती कि मान भी लें कि अमरीका के पास 1969 में इतनी अच्छी टेक्नोलॉजी थी, तो उसके बाद के सारे अपोलो अभियान 1969 से 1972 के बीच होकर क्यों समाप्त हो गए? उसके बाद कोई बड़ा अभियान क्यों नहीं हुआ, आदमी को चाँद पर भेजने का? और अगर हुआ भी तो सुनने में क्यों नहीं आया. एवरेस्ट विजय की कहानियाँ तो अखबारों में आती रहती है, फिर चाँद तो एवरेस्ट से भी ऊँचा है! बस, इस सवाल पर आकर सारी बहस समाप्त हो जाती थी.

आज उस तथाकथित घटना को लगभग चार दशक बीत चुके हैं, अमरीका ने शटल बनाए हैं जो अंतरिक्ष में बार बार आ-जा सकते हैं, लेकिन चाँद पर इस बीच आदमी भेजने का कोई दूसरा (और ऐसे में पहला भी) अभियान आज तक नहीं हुआ और न कोई निकट भविष्य में बताया जाता है. अमरिका के अलावा किसी और देश ने भी हिम्मत नहीं की है. भला क्यों ?

चन्द्र विजय के अमेरिकी प्रोपेगंडा के कुछ कथित कारण यह कहे जातें हैं :

1. वियतनाम युद्द से अमेरिकी जनता का ध्यान हटानाः बताने की ज़रूरत नहीं कि ठीक इसी समय, अमेरिका ने वियतनाम से अपनी सेना हटाने का निर्णय लिया था, जो अमेरिकी पराजय का ज़बर्दस्त प्रतीक था. अप्रैल 1969 में इस युद्ध में मरने वाले अमरीकी सैनिकों की संख्या कोरिया युद्ध में मरने वालों की संख्या (33629) से कहीं ज़्यादा थी. 8 जून 1969 को अमेरीकी झंडा उतार कर वियतनाम से सेना वापस बुलाने का फ़ैसला और 21 जुलाई को 1969 को चाँद पर झंडा फहराने का अमेरिकी प्रोपेगंडा, दरसल उस पराजय को पार्श्व में रखकर अमेरिकन सर्वोपरि की अवधारणा को जीवित रखने का काम किया.

2. शीत युद्द : तब के कम्युनिस्ट देशों के नेता सोवियत संघ और पूंजीवादी देशों के नेता अमेरिका के बीच हर क्षेत्र में प्रतिद्वन्दिता का माहौल था. चाँद पर अपने देश का झंडा फहरानें का ख्याल रूमानी है और जो यह काम कर लेता वो निश्चय ही जनकल्पनाओं में हीरो हो ही जाने वाला था. गलत या सही, ऐसा हुआ भी! उस समय के लोगों से जब इस विषय पर मैंने उनके अनुभव पूछे तब यही अहसास हुआ कि दुनिया के कोने कोने में चाँद की मिट्टी आदि का भरपूर प्रदर्शन हुआ था. एक अमेरिकी जूनून पैदा हो गया था, पूरी दुनिया में.

3. राजनैतिक अर्थशास्त्र : एक आकलन के अनुसार नासा ने उस समय करीब 40 बिलियन डालर की धनराशि इस अभियान पर खर्च की थी. इस का एक छोटा सा हिस्सा इस छद्म खेल को हकीकत बताने में खर्च हुआ. छ्द्म खेल मतलब इस पूरी फिल्म की शूटिंग में, जो बताया जाता है कि नासा के एक गुप्त फिल्म स्टुडिओ में हुई,जो नेवादा के रेगिस्तान में स्थित है. बाकी के डॉलर कहाँ गए..बस गप.. गपा.. गप!!!

4. जोखिम: चार दशक पहले के कम्प्यूटर क्या थे जरा स्मरण कीजिये? क्या टेक्नोलॉजी थी, ज़रा कल्पना कीजिये. उस समय आदमी को चाँद पर भेजने में आज से भी अधिक जोखिम था. मेरा इंजीनियर मन यह सोच कर ही हैरत में पड़ जाता है कि 41 साल पहले कैसे सम्भव होगा कि पहले कोई यान पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण को भेदे, फिर अंतरिक्ष में चाँद की कक्षा में प्रवेश करे, फिर चाँद के चक्कर लगता हुआ वह यान वहीं रहे और एक छोटा यान चन्द्र्मा पर दो यात्रियों के साथ उतार दे. और थोड़ी तफरीह आदि करके वह यात्री पुन; चाँद के गुरुत्वाकर्षण को भेद कर मुख्य यान में आ जायें. वह मुख्य यान अंतरिक्ष में विचरण कर पृथ्वी की कक्षा में प्रवेश करे और वापस अमेरिकी धरती पर लौट आये. मुझे याद आयी कल्पना चावला जो बस कुछ बरस पहले अमेरिकी शटल के पृथ्वी की कक्षा में प्रवेश करते ही भस्म हो जाने के कारण मारी गयीं थीं. वो तो बस अंतरिक्ष में विचरण करने ही गयीं थीं चाँद जैसी दुर्गम जगह पर नहीं.

चन्द्र यात्री की इस तस्वीर में एक यात्री तो हैल्मैट के शीशे पर है दूसरा वह है जो यह हैल्मैट पहनें है, फिर वो तीसरा कौन है जिसने यह तस्वीर उतारी है? (उनका कहना है कि चाँद पर दो लोग ही उतरे थे) एक बार गूगल पर सर्च कीजिये आपको इस विषय पर और भी रोचक जानकारियाँ मिल जाएंगी.

मैं कम्यूनिस्ट नहीं हूं परन्तु राजनीति को जानने समझने के चक्कर में, दुनिया भर में चल रही अमेरिकी चालबाज़ियाँ देख रहा हूं. आजकल हमारे देश ने जो अमेरिका होने की धुन पकड़ रखी है, वह देखकर एक भय सा लगता है.

क्या कहते हैं आप? चंदा मामा की इस झूठी कहानी के बाद, अंकल सैम की उंगली पकड़कर कितनी दूर चल सकेंगे हम? और हाँ चले भी तो कहां जायेंगे? कहाँ पहुँचेंगे?

 
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