कल जब आधी रात को नींद से जाग के देखा
चाँद बेचारा
मेरे सिरहाने बैठा था आँख सुजाए
रोता, मलता अपनी आँखों को, आँसू वो पोंछ रहा था.
मैंने हाल जो पूछा उसका,
गुस्से से बोला वो मुझसे
मेरे घर आया था कोई,
अमरीकी था, या रशियन था
आया था, या देख दाख के बाहर से ही भाग गया था
तुमको क्या! तुम अपनी सोचो!!
तुम तो मान के बैठे ही थे
मेरे चेहरे पर ना जाने दाग़ हैं कितने!
बदसूरत ही मैं अच्छा हूँ
अपने चेहरे के भी दाग कभी देखे हैं
मेरे घर पर बाद में आना
पहले अपने घर की सोचो.
और चेहरे के दाग़ को देखो.
पानी लाओगे तुम कैसे, तेल तुम्हारा नहीं बचेगा
है अनाज जब पहुँच से बाहर
सोचो आखिर कब सोचोगे!
भारत बंद का नारा भले बुलंद करो तुम
क्या पाओगे!
नदियाँ अपने घर की नहीं सम्भलती तुमसे
अपनी दुनिया में फिरते हो तुम सब ख़ून ख़राबा करते
अपने अपने इल्म का झूठा रौब जमाते
इक दूजे पर,
पागल हो तुम!
साईंस तुम्हारा जितना सच्चा है, उतना ही झूठा भी है.
दाग़ मेरे जितने दिखते हैं तुम लोगो को
बस सच्चे हैं,
टीवी देखके इतना समझ नहीं पाए तुम
चाँद के दाग़ में महबूबा जो दिख जाए तो
और रोटी दिख जाए दो दिन के भूखे को
समझा देना ख़ुद को कि
ये दाग़ अच्छे हैं!
(चित्र साभार: फ्रीकिंग न्यूज़)
17 comments:
सच ही कहा है विज्ञान और जीवन का सत्य सब एक साथ. कभी कभी दाग ही अच्छे होते हैं .
एक और स्तरीय रचना के लिए बहुत बहुत बधाई स्वीकारें
AAHA kya zabardast flow hai is kavita me... bas gaate jao..bachpan me padhi kavitaon jaisi lay hai isme... chaand bichare ke sooje hue munh ki imagination bhi nahi karni padi aapen tasveer khud hi de rakhi hai ...ek dum bhali lagi ye rachna..
बंद को बंद हो जाना चाहिए ...कविता बढ़िया लगी
badhiya prastuti.
बहुत भावमयी रचना...
Anchue bimbon ka sundar upyog.shubkamnayen.
क्या हो गया सलिल भाई ! ! यह कमेंट्स कहाँ गायब हो जाते हैं ! आपकी साईट पर भी ,मेरी तरह ,सुबह ६ बजे के बाद, एक भी कमेन्ट न पाकर दिल कुछ हल्का हुआ ;-) आखिर हूँ तो ब्लागर ही
( मेरे ब्लाग पर पिछले कई घंटे से आये सारे कमेन्ट गूगल खा गया ). एक शेर नज़र है
दिल खुश हुआ मस्जिद ए वीरान देख कर
मेरी तरह खुदा का भी खाना खराब है !
बदसूरत ही मैं अच्छा हूँ
अपने चेहरे के भी दाग कभी देखे हैं
आपकी कविता का अलग महत्व है, यह हमारे सोंदर्यबोध को धक्का गेती है, उसे तोड़ती है। इसीलिए ऐसी कविताओं का अपना एक अलग महत्व है।
नहीं मिट रहा आदमी आदमी का फासला
चले हैं हम नापने मगर चाँद का फासला
सुन्दर कविता
विज्ञान को रोज़ रोज़ के जीवन से जोड़ती रचना ... बहुत से तथ्यों को साथ लिए ... कुछ हक़ीकत साथ लिए ...
लाजवाब लिखा है ...
चलिए चाँद पर बंद नहीं होता है...
बेहतरीन भावों से सजी खूबसूरत कविता..बधाई.
गूढ़ अर्थ छिपे हैं इस कविता में..बधाई.
मैंने हाल जो पूछा उसका
गुस्से में वो बोला मुझसे
मेरे घर आया था कोई
अमरीकी था या रशियन था
आया था या देख दाख कर बाहर से ही भाग गया था ........
मेरे घर बाद में आना
पहले अपने घर की सोचो ............
पानी लाओगे कैसे जब तेल तुम्हारा नहीं बचेगा ..............
मान गए.........चाँद और बंद का खूब ताल मेल बैठाया है
काफी कुछ कह रही है आपकी ये अर्थपूर्ण कविता .........
सलिल भाई, आपके नाम को लेकर मुझसे जो भूल हुई उसके लिए माफ़ी चाहती हूँ और आपसे बदला लेने या हिसाब बराबर करने जैसा तो मेरा कोई इरादा नहीं था !
laybaddh..aur sumadhur taartamya ke sath ...
bahut bahut badhai ho
रचना के लिखे अरसे बाद भी हालात में आज भी कोई अंतर नहीं आया है !
खोज विकासशील देशों का काम है असंख्य कमिया अभी भी हम में हमारी व्यवस्था
में है ! प्राथमिक जरूरतों के ऊपर पता नहीं कब उठंगे हम ! आभार, एक अच्छी रचना पढ़वाने के लिए !
Post a Comment