सम्वेदना के स्वर

यह ब्लॉग उस सनातन उत्सवधर्मिता को जीवित रखने का प्रयास है,

जिसमें भाव रस और ताल का प्रतीक आम आदमी का भा-- बसता है.
सम्वेदनाएँ...जो कला, साहित्य, दर्शन, विज्ञान, राजनीति आदि के माध्यम से अभिव्यक्त होती हैं, आम आदमी के मन, जीवन और सरोकार से होकर गुज़रती हैं तथा तलाशती हैं उस भारत को, जो निरंतर लड़ रहा है अपने अस्तित्व की लड़ाई.....

Monday, February 28, 2011

देख लूँ तो चलूँ – लम्हों की दास्तान


समीर लाल का नाम ज़हन में आते ही राजेश रेड्डी का एक शेर सामने आ जाता है.

दिल भी इक ज़िद पे अड़ा है किसी बच्चे की तरह,
या तो सबकुछ ही इसे चाहिये, या कुछ भी नहीं.
ये एक ब्लॉगर हैं, कवि हैं, कथाकार हैं, व्यंग्य लेखक हैं, उपन्यासकार हैं, संस्मरणकार हैं, यात्रा वृत्तांत लेखक हैं और अब एक उपन्यासिका लेखक- “देख लूँ तो चलूँ.” किसी ने कहा कि यह वास्तव में उनके ब्लॉग पोस्ट का संकलन मात्र है. मुझे तो लगा कि वास्तव में यह एक उपन्यासिका है जिसके विभिन्न अंश वे ब्लॉग पर हमसे साझा करते रहे, समय समय पर.

अपनी तीन घण्टे की (आती जाती मिलाकर) मेट्रो यात्रा के दौरान इसको पूरा पढ़ गया. और शायद इस उपन्यासिका को पढ़ने का सही तरीका और जगह भी यही है. बिल्कुल सिम्यूलेटेड माहौल में. उपन्यासिका के दृश्य मेट्रो ट्रेन की खिड़की से भागते नज़र आते हैं और किरदार आपके आस पास बिखरे हुए. कनाडा हो या भारत, सब एक जैसा लगता है. भागता हुआ, आपसे पीछा छुड़ाता हुआ. बस उसी पीछा छुड़ाते हुये समय, दृश्य और भाव को पकड़ने की और उसे देखने की यात्रा है “देख लूँ तो चलूँ.”

शायद खुशवंत सिंह ने लिखा था कि एक बार वे विदेश में कहीं पहली बार गये. जहाँ उन्हें जाना था, वहाँ से कोई उनको ले जाने नहीं आया. उन्हें बताया गया था कि कोई भी टैक्सी वाला ले जाएगा. और टैक्सी का किराया इतना होना चाहिये. वो टैक्सी पर बैठ गये और निगाह मीटर पर जमा दी. टैक्सी वाले ने रास्ते में उनसे अपने घर, अपनी पत्नी से मिलवाने की गुज़ारिश की. वो कहने लगा कि मेरी पत्नी ने आज तक कोई सरदार नहीं देखा है, और वो देखना चाहती है. सिंह साह्ब ने कह दिया कि उन्हें ऐतराज़ नहीं है, मगर वो मीटर पर इसके एक्स्ट्रा पैसे नहीं देंगे. टैक्सीवाला ले गया उन्हें अपने घर, पत्नी से मिलवाया और फिर उनको छोड़कर आया. किराया उतना ही हुआ जितना उनको उनके दोस्त ने बताया था. जब वो किराया देने लगे तो टैक्सी वाले ने मना कर दिया. बोला, आज मेरी पत्नी के चेहरे पर जो खुशी आपसे मिलकर आई है, वो इस बिल से कहीं ज़्यादा है.आपने मेरा मेहमान बनकर मुझे दुगुना किराया दे दिया. खुशवंत सिंह ने कहा कि मुझे लगा कि मैं सारे रास्ते टैक्सी का मीटर देखता रहा और मैंने शहर के नज़ारे तो देखे ही नहीं,जो हर नए व्यक्ति का पहला परिचय होता है उस शहर के साथ.

समीर लाल की यह उपन्यासिका वो ग़लती नहीं दोहराती. एक हाईवे की लम्बी यात्रा पर शायद पहली बार वे अपनी हमसफर के बग़ैर निकले हैं और तब उनको दिखता है कि उनके साथ तो सारी दुनिया चल रही है. और साथ चल रहा है ख़ुद समीर लाल. जो उनसे बातें करता है. और बताता है कि तुम कनाडा में रहते हो मगर मैं हिंदुस्तानी हूँ और तुम्हारे साथ साथ 120 मील फ़ी घण्टे की रफ्तार से चल रहा हूँ. वो बातें करता है, पोंगा पंडितों की, स्वार्थी बच्चों की, बूढ़े माँ बाप की, उनकी उम्मीदों की, कानून तोड़ने वालों की और कानून के पालन करने वालों की, शिष्ट झगड़े की और बनावटी देशप्रेम की, प्यारे परिंदों के चहचहाहट की और बिल्ली का ग्रास बनने की, भ्रष्ट राजनेताओं की और देश की बदहाली की, बिगड़ी सड़कों की और ऊबड़ खाबड़ रास्तों की. पीछे पीछे आरही कोई महिला को भी देखता है और देखता रह जाता है. सब कुछ मामूल के हिसाब से घटता हुआ और साथ ही लगातार चलने वाली बातचीत. यह सब बातें कनाडा में रहने वाले समीर और जबलपुर के समीर के बीच होती है. और उपन्यासिका पढने वाला मानो पिछली सीट पर बैठा उनकी बातें सुनता जाता है चुपचाप.वे बातें जो सीधा दिल में उतरती जाती है.

भाषा बिलकुल बातचीत वाली. लगता ही नहीं कि कोई दुरूह साहित्य पढ़ रहा है कोई! कहीं कहीं पर आध्यात्म और दर्शन का पुट भी देखने को मिलता है जब वो ओशो की तरह जीने की कला छोड़कर कहने लगते हैं कि मैं मृत्यु सिखाता हूँ. उपन्यासिका के कुछ अंश दिल को छू जाते हैं, कुछ व्यथित करते हैं, कुछ गुदगुदाते हैं, कुछ सोचने पर मजबूर करते हैं. एक हाईवे की ड्राईव के बहाने इन्होंने पूरा भारत दर्शन और भारतीय महात्म्य समझाया है. मेरी मानें तो कभी लॉन्ग ड्राईव पर यह उपन्यासिका पढ़कर देखिये, स्टडी में पढ़ने से ज़्यादा मज़ा आएगा.

आख़िर में गुलज़ार साब की चंद लाईनें याद आ रही हैं

इक बार वक़्त से, लम्हा गिरा कहीं
वहाँ दास्ताँ मिली, लम्हा कहीं नहीं,
थोड़ा सा हँसा के, थोड़ा सा रुलाके
पल ये भी जाने वाला है.

वक़्त से टूटे, वे लम्हें जो कभी आपके जीवन का हिस्सा नहीं होते, भागते जाते हैं, छूटते जाते हैं. कभी उन्हें रोककर प्यार से बतियाइये तो जो दास्तान सुनाई देगी, उसी का नाम है “ देख लूँ तो चलूँ.”

Friday, February 25, 2011

कुछ भी न करते हुये – “ध्यान” है बस होना !

जीवन की आपधापी में, यदि ध्यान और उसकी चर्चा छूट गई, तो फिर एक प्रकार से हमारा इस भारत भूमि पर जन्म लेना व्यर्थ हो जायेगा।

ध्यान या मेडिटेशन के बारे में न जाने कितने “स्कूल आफ थॉट” हैं, सबकी अपनी अपनी यात्रा है. किंतु ओशो से जुड़े होने के कारण ध्यान के प्रति ओशो की दृष्टि से सहज आकर्षण है। इसी कारण “सम्वेदना के स्वर” पर अब माह में एक बार ध्यान या ध्यान विधि के बारे में चर्चा करने का मन बनाया है।

ओशो कहते हैं कि ध्यान अभियान है। सबसे बड़ा अभियान! जिस पर मनुष्य का मन निकल सकता है। ध्यान है बस होना - कुछ भी न करते हुये – कोई क्रिया नहीं, कोई विचार नहीं, कोई भाव नहीं। बस तुम हो और एक निर्मल आंनद है। कहाँ से आता है यह आंनद, जब तुम कुछ भी नहीं कर रहे हो। यह आता है, “कहीं नहीं” से या आता है “सब-कहीं” से। यह अकारण है, क्योंकि यह अस्तित्व बना है उस तत्व से जिसे कहते हैं आंनद।

जब तुम कुछ भी नहीं कर रहे हो – न शरीर से, न मन से –किसी भी स्तर पर नहीं- जब समस्त क्रियायें शून्य हैं और तुम बस हो, स्व मात्र – यह ध्यान है। तुम उसे “कर” नहीं सकते, तुम उसे समझ भर सकते हो।

जब कभी तुम्हें मौका मिले, बस होने का, तब सब क्रियाएँ गिरा देना। सोचना भी एक क्रिया है और मनन भी। यदि एक क्षण के लिये भी तुम अक्रिया में हो, बस “स्व” में हो – सम्पूर्ण विश्राम में- यह है ध्यान । और एक बार तुम्हें इसका गुर मिल जाये, फिर रह सकते हो। अंतत: चौबीस घंटे ही इसमें रहा जा सकता है।

एक बार तुम्हें अंतस के अकम्पित रहने का बोध हो जाये फिर तुम धीरे धीरे कर्म करते हुये भी यह होश रख सकते हो कि तुम्हारा अंतस निष्कंप बना रह सकता है। यह ध्यान का दूसरा आयाम है। पहले सीखो कि कैसे बस होना है: फिर छोटे छोटे कार्य करते हुये इसे साधो : फर्श साफ करते हुये, स्नान करते हुये स्व से जुड़े रहो। फिर तुम जटिल कामों के बीच भी इसे साध सकते हो।

एक ध्यान विधि (आकाश को निहारो) :

आकाश की ओर ध्यान लगाओ. जब भी तुम्हें समय मिले ज़मीन पर लेट जाओ; आकाश को निहारो. उसी को अपना ध्यान बना लो. अगर तुम प्रार्थना करना चाहते हो, तो आकाश से प्रार्थना करो. अगर ध्यान लगाना चाहते हो, तो आकाश पर ध्यान लगाओ. कभी खुली आँखों से और कभी आँखें बंद कर. क्योंकि आकाश तुम्हारे अंदर भी है; इतना विशाल है यह कि अंदर और बाहर एक समान है.

हम सिर्फ अंतस और बाह्य आकाश की चौखट पर खड़े हैं और दोनों समानुपाती हैं. जैसा अनंताकाश बाहर है, बिल्कुल वैसा ही अंदर भी है. हम तो बस चौखट पर खड़े हैं और दोनों ओर ही विलीन हो सकते हैं. और यही दो मार्ग है विलीन होने के.

यदि तुम बाह्य आकाश में विलीन हो जाते हो तो यह प्रार्थना है और यदि अंतस के आकाश में विलीन होते हो तो यह ध्यान है. किंतु लक्ष्य दोनों का एक ही है - विलीन हो जाना. और यह दो आकाश भी दो नहीं हैं. ये दो हैं केवल इस कारण कि तुम हो, तुम इनके मध्य की विभाजन रेखा हो. जब तुम समाहित हो जाते हो, तो यह विभाजन भी समाप्त हो जाता है, तब अंतस बाह्य हो जाता है और बाह्य अंतस!

(“द ओरेंज बुक” से एक ओशो ध्यान विधि)

Tuesday, February 22, 2011

छूकर मेरे मन को -प्रवेशांक

ब्लॉग जगत में और इसके इतर अंतरजाल पर भी हम बहुत कुछ पढ़ते रहते हैं, और अक्सर हमें ऐसा पढ़ने को मिलता है, जो दिल को छू जाता है या दिमाग़ को झकझोर जाता है। कई बार वह हमें हमारे दिल की बात कहता सा लगता है। ऐसे में ख्याल आया कि जो हमने पढ़ा और जिन आलेखों/कविताओं/कहानियों ने हमारे दिल को छुआ क्यों न उन्हें आपसे साझा किया जाये।

देखा जाये तो, ऐग्रिगेटर और चर्चाकार ब्लॉग जगत के दो ऐसे स्तम्भ हैं, जिनको कभी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता. ब्लॉग जगत की चहल पहल और गतिविधियों को एक साथ, एक जगह प्रस्तुत करना एक बड़ा ही दुरूह कार्य है। चर्चाकार वैसे भी कई बार विवादों के घेरे में बने रहे हैं और उन पर यह आरोप बड़ी आसानी से चस्पाँ कर दिया जाता है कि वे पक्षपात करते हैं। इस पृष्ठभूमि में हमारे लिये यह आवश्यक हो गया कि हम अपनी इस कड़ी के प्रस्तुतिकरण के पूर्व यह स्पष्ट कर दें कि हमारी ये श्रंखला “छूकर मेरे मन को” किसी प्रकार से चिट्ठा चर्चा नहीं है, बल्कि पिछले पखवाड़े में हमारी अंतरजाल पर की गयी घुमक्कड़ी के दौरान, जो कुछ इस मुए मन से बुरी तरह चिपक गया है, उसी को खंगालने का एक आयोजन भर है।

ब्लॉग जगत में किस तरह के ब्लॉग लिखे जा रहे हैं इस पर एक अप्रत्यक्ष रूप से कटाक्ष करती एक पोस्ट पढ़ने को मिली जिसका शीर्षक था “ऐग्रिगेटर”, और जिसे लिखा राहुल सिंह जी ने। इस विश्लेषण में इन्होंने सिर्फ 50 ब्लॉग्स को शामिल किये जाने की बात कही, जो कई मानदण्ड पर खरे उतरते हों, और ज़्यादातर लोगों ने कहा कि यह बहुत ही कठिन शर्तें हैं जिन्हें बहुत कम ब्लॉग ही पूरी कर सकते हैं. उनके आदर्श ब्लॉग में क्या न हो, इसका एक उदाहरण देखियेः

• कविता, खासकर प्रेम, पर्यावरण, इन्सानियत की नसीहत या उलाहना भरी, भ्रष्टाचार, नेता आदि वाली पोस्ट, जो लगे कि पहले पढ़ी हुई है।

• जिसका कहीं और दिखना संभव न हो ऐसे स्तिर वाला घनघोर 'दुर्लभ साहित्य'।

• मैं (और मेरी पोस्ट), मेरी पत्नी, मेरे आल-औलाद, मेरा वंश-खानदान आदि चर्चा या फोटो की भरमार वाली पोस्ट।

• अखबारी समाचारों वाली, श्रद्धांजलि, बधाई, शुभकामनाएं, रायशुमारी वाली पोस्ट।

• ब्लॉग, ब्लॉगिंग, ब्लॉगर, ब्लॉगर सम्मेलन, टिप्पणी पर केन्द्रित पोस्ट।

• लिंक से दी जा सकने वाली सामग्री-जानकारी वाली और पाठ्‌य पुस्तक या सामान्य ज्ञान की पुस्तक के पन्नों जैसी पोस्ट।

• नारी, दलित, शांति-सद्‌भाव-भाईचारा आदि विमर्शवादी और 'क्या जमाना आ गया', 'कितना बदल गया इंसान' टाइप पोस्ट।

ये मानदण्ड या शर्तें पूरी हों या न हों, लेकिन ब्लॉग जगत के लेखन पर एक पुनर्विचार के लिये आमंत्रित अवश्य करती हैं. हालाँकि बंधनों से लेखनी बाँधा तो नहीं जा सकता, हाँ पढ़ना, न पढ़ना हमारे बस में है, इसलिये हम क्या पढ़ें यह निर्णय तो हम ले ही सकते हैं.

ब्लॉग जगत को जब लोकतन्त्र का पाचवां खम्बा कहा जाता है तो उसका कारण, वह लेखन है जो व्यवस्था की अव्यवस्था को उजागर करता है, सच कहें तो हमारे चक्कर भी ऐसे स्थानों पर अक्सर अधिक लगते हैं, क्योकि हमें लगता है कि शुतुरमुर्ग़ की तरह आँखें बंद करने से सरोकारों से पीछा नहीं छूटता। भीतर का आक्रोश जब कविताएँ के स्वर ले ले तो बात फिर दिल को छू ही जाती है। ऐसी ही भावनाओं से दो चार हुये, कौशलेंद्र जी की बस्तर की अभिव्यक्ति पर लिखी बग़ावत कविता पढ़कर :

इन्होंने कविता की शुरुआत में बताया है कि कैसे हम एक इंसान को चुनते हैं और उसका भाषण सुनकर उसको मालाएँ पहनाते हैं. पर जैसे ही वह आम से ख़ास बनता है, वो भ्रष्ट हो जाता है. और अंतिम पंक्तियों में कही बात यह है कि :

घोटाले भी
यूँ ही होते रहेंगे
क्योंकि उन्हें इसका हक
हम आगे भी देते रहेंगे ......
और यूँ भी
हम कौन मिस्री हैं
ज़ो तीस सालों में ही
बगावत पर उतर आयेंगे?

सुदूर मिस्र में हुई जनक्रांति का आह्वान करती यह कविता, एक गहरी वेदना और नपुंसकता का बोध बरबस ही पैदा कर देती है। परंतु मृत होती संवेदनाओं पर इस पुकार का कोई असर नहीं होता। इंसानों का शहर या देश ही नहीं रहा यह.

रवींद्र कुमार शर्मा जी की फेसबुक पर मिलीं सम्वेदनाएँ छोटे छोटे अशार में दिखती हैं. कहीं व्यवस्था से नाराज़गी या कहीं कटते जंगलों की वेदना, एक बानगीः

जिन्हें सुबह से लेकर शाम तक पैसे बनाने हैं,
हमारे दौर के इंसान हैं या कारखाने हैं .
कहीं फिर पेड़ काटा है किसी ने,
तभी नन्हा परिंदा डर गया है.
हसीन रास्तों के बीच राह ढूँढ रहा हूँ,
मैं कातिलों के शहर में पनाह ढूँढ रहा हूँ.
वो उसके मरते ही वारिस को उसके ढूँढ रहे हैं,
मैं उस हजूम में पुरनम निगाह ढूँढ रहा हूँ.

क्या इसे ही कहा जाये कि सावन के अन्धे को सब हरा ही हरा नज़र आता है, पिछले पखवाड़े तीन ऐसी दिल को छू जाने वाली कहानियाँ पढ़ीं, जो तीन अलग अलग सन्दर्भों में थीं, परंतु तीनों को लिखा एक ही व्यक्ति ने था और वे हैं गिरजेश राव जी।गन्ने से सरसों तक सड़क पर बिकास की बास” इस कहानी में विकास की “इंडिया स्टोरी” और “हो रहा भारत निर्माण” के बिकास के विरोधभास का ऐसा जीवंत चित्रण है कि पढते पढते हलक ही सूख गया और आँखें भर आईं! दूसरी कहानी “लाल विश्वविधालय में नीली फिल्म’ एक करारा व्यंग है जिसे ब्रेकिंग न्यूज़ की परिधि से बाहर लाकर, देश की राजनीति और मीडिया मैनेजमैंट के लटकों झटकों के जरिये बड़ी आसानी से सुलझा दिया जाता है। और अंत में 14 फरवरी को मदनोत्सव मनाने का जो सुख तो हमें “गिरजेश राव जी” कि कहानी ‘शिलालेखों में अक्षर नहीं होते” में मिला, वो चिरस्मरणीय रहेगा। हमारी मानें तो, हर प्रेमी को इसे पढना, मस्ट है।

इसके बाद, 16 फरवरी को सभी टेलीविज़न चैनलों पर प्रधानमंत्री की कांफ्रेस छायी रही और एक सुपर पावर बनने की कोशिश करने वाले देश के प्रधानमंत्री की मजबूरी का सब अपने अपने तरीके से आकलन करते रहे। ऐसे में हमेशा की तरह सबसे रोचक रही मीडिया क्रुक्स की पोस्ट The PM’s Con-furtherance, जिसमें टेलीविज़न मीडिया के नामी और इनामी सम्पादकों द्वारा पूछें गये सवालों का आंकलन हुआ। टेलीविज़न मीडिया की समीक्षा करता हुआ मीडिया क्रुक्स इस मायने में एक बेहतरीन ब्लॉग है, जिसकी लत कम से कम हमें तो लग ही चुकी है। ज़ी टीवी के नामी पत्रकार पुण्य प्रसून बाजपेयी नें भी अपने ब्लॉग पर इस कान्फ्रेंस का पोस्टमार्टम अपने अन्दाज़ में किया। अंशुमाला जी में भी अच्छी क्लास ली प्रधानमंत्री की।

और चलते चलते एक ऐसा अनुभव जिससे शायद ही कोई बचा हो. रोज़मर्रा की ज़िंदगी में हम बहुत आसानी से किसी के नाम बदलकर उसको नया नाम दे देते हैं. कभी मज़ाक में, कभी चिढ़ाने के लिये या कभी कभी उसके स्वभाव या आदत के कारण. कुछ समय पहले तो ये नाम बड़े ज़ोर शोर से ख़बरों की सुर्ख़ियों में थे, हकला मतलब शाहरुख, टकला मतलब राकेश रोशन आदि. लेकिन ये नाम किसी के साथ इस क़दर चिपक जाए कि उसकी ज़िंदगी बरबाद कर दे, शायद कोई नहीं सोचता. ऐसे ही एक स्कूल मास्टर को बच्चे टोड कहकर बुलाते थे. और यह नाम पूरे स्कूल से निकलकर शहर में फैल गया और इसका अंजाम इतना भयानक हुआ होगा, यह तो उस स्टुडेण्ट ने भी नहीं सोचा था, जो बरसों बाद विलायत से उससे माफ़ी माँगने आया था. दो भागों में प्रस्तुत यह छोटी कहानी “टोडअनुराग शर्मा जी के ब्लॉग पर.

आप आनंद लें पूरी कहानी का और हमें दें इजाज़त. पखवाड़े की कुछ और पोस्ट लेकर हाज़िर होते हैं हम “छूकर मेरे मन को” की अगली कड़ी में.

Friday, February 18, 2011

सात ख़ून माफ़


पिछले दिनों मल्टिप्लेक्स में फ़िल्म नो वन किल्ड जेसिकादेखने गया था. उस फिल्म में एक दूसरी फ़िल्म का ट्रेलर दिखाया गया. वो मेरे लिये उस ट्रेलर का प्रीमियर था, क्योंकि टीवी मैं देखता नहीं, इसलिये टीवी पर दिखाया जाने वाला प्रोमो मैंने नहीं देखा था. ख़ैर ट्रेलर देखते हुये पहले फ्रेम से दूसरे फ्रेम तक जाते जाते मेरे मुँह से निकला कि यह विशाल भारद्वाज की फ़िल्म लगती है. और तब तक ट्रेलर ख़त्म हुआ और पर्दे पर दिखासात ख़ून माफ़” – विशाल भारद्वाज फ़िल्म.
 
तब सोचा था कि फ़िल्म के रिव्यू तो सभी लिखते हैं, मैं प्रिव्यू लिखता हूँ. सारी जानकारी समेट ली, लेकिन व्य्स्तताओं के कारण लिख नहीं पाया. और देखते देखते आज 18 तारीख हो गई, फ़िल्म के रिलीज़ होने का दिन. ऑफिस से छुट्टी की और फर्स्ट डे, फर्स्ट शो देखने चला गया फ़िल्म सात खून माफ़. मकड़ी, मक़बूल, ओंकारा,कमीने और  इश्क़िया के बाद विशाल भारद्वाज की नई फ़िल्म. बीच में एक और फ़िल्म बनाई थी इन्होंने ब्ल्यू अम्ब्रेला,जो रस्किन बॉण्ड की कहानी पर आधारित थी. फ़िल्म सात ख़ून माफ़ भी उन्हीं की कहानी पर बनी है.
 
चार पन्नों की कहानी सुज़ैन्ना सेवेन हस्बैंड्स, को ढ़ाई घण्टे की फ़िल्म में ढ़ालकर एक बेहतरीन कहानी पर्दे प्रस्तुत करना विशाल भारद्वाज के बस की ही बात है. सुज़ैन्ना का किरदार अदा किया है प्रियंका चोपड़ा ने जो उनके साथ फ़िल्म कमीने में पहले भी काम कर चुकी हैं, एक जवान लड़की से लेकर एक प्रौढ़ औरत तक का सफर प्रियंका ने बख़ूबी निभाया है. यहाँ तक कि एक सीन में प्रियंका की सूजी हुई उँगलियाँ उसकी बढ़ती उम्र को एकदम असलियत का रूप देती है. सुज़ैन्ना के इस सफर में उसके पतियों का रोल निभाया है, नील नितिन मुकेश, जॉन अब्राहम, इरफान खान, अन्नू कपूर, नसीरुद्दीन शाह और अलेक्सांद्र द्याचेंको ने.

कहते हैं एक मकड़ी, एक मकड़े को अपना पति बनाने के बाद उसको मार डालती है, और इसी मकड़ी को औरत का रूप दिया है सुज़ैन्ना के किरदार ने. फ़िल्म में एक जगह सुज़ैन्ना के मुँह से यह भी कहलवाया गया है कि हर औरत के ज़हन में अपनी ज़िंदगी में ये ख़्याल कभी कभी ज़रूर आता है कि वो अपने पति का ख़ून कर दे. और इस फ़िल्म में वो यही करती है. प्यार की तलाश उसको हर बार एक नये मर्द से मिलवाती है और उस मर्द का वहशीपन और बे‌ईमानी, उससे उनका ख़ून करवाती है. उसके इस चरित्र के पीछे एक कहानी बताई गई है. बचपन में वो पैदल स्कूल जाती थी और उसके स्कूल जाने के दो रास्ते थे, दोनों बराबर. मगर वो जिस रास्ते से जाती थी उसमें एक पागल कुत्ता रहता था, जो उसे डराता था. सुज़ैन्ना ने किसी के भी कहने से अपना रास्ता नहीं बदला और एक दिन अपने बाप की पिस्तौल छिपाकर ले गई और उस कुत्ते को मार डाला. यही थीम भी है फ़िल्म की. सुज़ैन्ना ख़ुद कहती है कि सारे बुरे और बे‌ईमान मर्द मेरी ही किसमत में क्यों लिखे हैं. और उनको सज़ा देने का पाप भी उसके ही सिर आता है.

फ़िल्म के सारे कलाकार मँजे हुए हैं और अपने रोल में समा जाते हैं. फ़िल्म के लोकेशन, फोटोग्राफ़ी, सेट और इन सबके साथ बैकग्राउण्ड म्यूज़िक ने पूरा माहौल जीवंत कर दिया है. कलाकारों के बीच उषा उठुप, विशाल भारद्वाज और ख़ुद रस्किन बॉण्ड को देखना बड़ा सुखद लगता है. उषा उठुप ने तो एक लम्बी भूमिका निभाई है, लेकिन विशाल और बॉण्ड साहब ने अतिथि कलाकार भर का ही का किया है. नसीरुद्दीन शाह के बेटे विवान शाह ने भी बहुत अच्छा काम किया है, बिल्कुल सहजता से. पूरी फ़िल्म के सूत्रधार यही हैं.

फ़िल्म में सन्गीत का भरपूर इस्तेमाल बैकग्राऊण्ड स्कोर में हुआ है, गीतों की आवश्यकता नहीं थी, लेकिन फिर भी गुलज़ार साहब के गीत अच्छे बन पड़े हैं. डार्रलिंग.. पहले ही लोकप्रिय हो चुका है.

इस फ़िल्म की सबसे बड़ी कमज़ोरी है इसकी प्री रिलीज़ पब्लिसिटी. रिलीज़ के पहले ही फ़िल्म की कहानी सबों की ज़ुबान पर है. इसलिये हॉल में रहस्य का तत्व बिल्कुल मौजूद नहीं. लोग एक नये किरदार के आते ही उसके क़त्ल का इंतज़ार करने लगते हैं. सिर्फ यह देखना बाक़ी रहता है कि मौत के लिये सुज़ैन्ना कौन सा तरीका अख्तियार करती है.

मूल कथा से फ़िल्म का अंत अलग दिखाया गया है. लेकिन ये मानना पड़ेगा कि कहानी का अंत बेहतरीन था, जबकि फ़िल्म का अंत समझौता. रस्किन बॉण्ड की कहानी एक रहस्य पर समाप्त होती है जैसा कि सुज़ैन्ना के हर शौहर की मौत के साथ था. लेकिन फ़िल्म में सुज़ैन्ना  का कनफेशन फ़िल्म को मिस्ट्री से बाहर निकालकर एक समझौते की ज़मीन पर खड़ा कर देता है.

फ़िल्म में मनोरंजन बिल्कुल नहीं है. और पूरी फ़िल्म एक अंधेरे साये की तरह चलती है. कहते हैं सुज़ैन्ना को काला रंग बेहद पसंद था, शायद इसलिये.

Tuesday, February 15, 2011

पाचवें खम्बे की अदालत में “सदरे रियासत आई.एम.एफ. सिंह”

अदालत… न्यायालय… कचहरी... प्रजातंत्र का तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण खम्बा. लेकिन आम आदमी की राय यही है कि भैय्या थाना और अदालत के चक्कर बड़े ख़राब होते हैं. इनसे तो भगवान बचाए. इसके उलट देश के ख़ास लोग अदालत से ज़रा भी नहीं घबराते. मुस्कुराते हुए जाते हैं और हँसते हुए बाहर आ जाते हैं. पूछिये तो कहते हैं कि मुझे देश की न्यायपालिका पर पूरा भरोसा है. साल भर पहले हलफनामा दायर करके एक बात कहते हैं और और एक साल बाद दूसरा हलफनामा दाखिल करके बताते हैं कि पहला हलफनामा ग़लत है. साथ में एक घिसा पिटा मुहावरा कि मुझे देश की न्यायपलिका पर पूरा भरोसा है.

आम आदमी पर लौटें तो उसे न्यायालय का मतलब सिनेमा और टीवी पर दिखाई जाने वाली ड्रामाई अदालत लगता है. सिनेमा में बी आर चोपड़ा और टीवी पर रजत शर्मा. आप की अदालत नामक घण्टे भर के प्रोग्राम से इण्डिया टीवी तक का सफर बड़ा लम्बा रहा है.

आईये इस तीसरे खम्बे के बारे में, चौथे खम्बे पर लगा रजत शर्मा का पोस्टर देखकर अब बारी है पाँचवें खम्बे की अदालत की. तो पेश है पाचवें खम्बे की अदालत.

आज का मुक़दमा हम चलाने जा रहे हैं अंधेर नगरी के सदरे रियासते आई.एम.एफ. सिंह पर. आप बहुत ही कम बोलने वाले और बिना इजाज़त नहीं बोलने वाले शासक हैं, दरसल हमारा यह एपिसोड सिर्फ इसलिये लम्बित रहा कि इन्हें बोलने की परमिशन नहीं मिली थी. और अब चुँकि यह बोलने लगे हैं, इसलिये अपनी सफ़ाई ख़ुद देंगे.

तो शुरु होता है “सदरे रियासते अंधेरनगरी IMF सिंह” पर आज का मुक्द्दमा

आरोप नम्बर : 1

आपकी कोई नहीं सुनता ?

डेविल्स ऐडवोकेट : जनता को आपसे सबसे बड़ी शिकायत यह है कि आपके दीवानेख़ास में ही आप की कोई नहीं सुनता? आपके नवरतन भी नहीं! कोई 15% पर सौदा कर रहा है (लोटसनाथ), कोई बेईमानी से लाइसेंस बेच रहा है (स्पेक्ट्रम आजा), कोई मंहगाई में आग लगाने के लिये भड़काऊ बयान दे रहा है (गर्द गंवार)... लोग माल गड़प रहे हैं और आप GDP-GDP का जाप कर रहें हैं, गायत्री मंत्र की तरह।

आई.एम.एफ. सिहं: ना जी ना! ऐसा बिल्कुल नहीं है। मैं कमजोर बिल्कुल नहीं हूं. पिछले चुनाव में एल के बागवानी ने मुझे कमजोर सदर कहा था, अब वो खुद बागवानी करता घूम रहा है। आप समझने की कोशिश करो! अर्थव्यव्था का जब वैश्वीकरण हुआ है तो भ्रष्टाचार भी तो ग्लोबल होगा न ! तुस्सी इतना तो समझदे होंगे। मनीटेक आलूवाला ने एक रिसर्च की है, जिसमें उसने बताया है कि लाखों करोड़ रुपयों के करप्शन का मतलब है 1.5 ट्रिलियन डालर की GDP तो पक्के की हो गयी और तुस्सी समझों की इतनी ही कच्चे की!

हो रहा भारत निर्माण! हो रहा भारत निर्माण!

आरोप नम्बर : 2

भ्रष्टाचार के मुद्दे पर आप निष्क्रिय रहे हैं ?

डेविल्स ऐडवोकेट : देश का लाखों करोड़ रुपया विदेशी बैंकों में जा रहा है, देश में लाखों करोड़ रुपयों के घोटाले हर रोज़ सामने आ रहे हैं, और तो और घोटालों के तार आपके दफ्तर से भी जोड़े जा रहें हैं। रिआया दबी ज़ुबान में यह भी कह रही है कि आप जब मुल्क के वज़ीरेख़ज़ाना थे तब भी रिकार्ड तोड़ शेयर घोटाला हुआ था। इस बार तो जीरा भांडिया के टेप सरकार के पास 2009 से ही थे तब आप क्यों मौनी बाबा बनकर बैठे हैं?

आई.एम.एफ. सिंह: हो रहा भारत निर्माण! हो रहा भारत निर्माण!

डेविल्स ऐडवोकेट : कमाल है क्या कह रहें है आप?

आई.एम.एफ. सिंह: अब मैं कुछ कहता हूं तो आप कहते हैं कि क्या कह रहें है आप? चुप रहता हूं तो मौनी बाबा! मनीटेक आलूवाला की पहली रिसर्च के बारे में तो मैंने बताया ही है. फिर अर्थशास्त्र की किताबों में भी यही लिखा है। मनीटेक आलूवाला की दूसरी रिसर्च कहती है कि “इंडिया स्टोरी” को कामयाब करने के लिये, अपनी पूंजी को अमेरिका और यूरोप घुमा कर इसी तरह से वाया मारिशस वापस लाया जा सकता है। जिसे आप भ्रष्टाचार कह रहे है, वैश्विक परिदृष्य़ मे उसे अपार्चुनिटिस् कहा जाता है। फिर सबसे बड़ी बात यह है कि “अमेरिका की तरक्की में ही हम सब की तरक्की है।“ ऐसा समझो की जिस तरह सामरिक दृष्टि से कमजोर पाकिस्तान हमारे लिये नुकसानदेह है उसी तरह आर्थिक रूप से कमजोर अमेरिका हमारे लिये ठीक न होगा! “अमेरिका की तरक्की में ही हम सब की तरक्की है।“

आरोप नम्बर : 3

देश में मंहगाई आपके अनर्थ शास्त्र की देन है ?

डेविल्स ऐडवोकेट : विदेशी पूंजी निवेश की जिस औषधि से आप इस देश की गरीबी दूर करने की चिकित्सा कर रहें हैं उसके परिणाम स्वरूप एक दशक में लाखों किसान आत्महत्या कर चुके हैं, बेरोजगारों की संख्या बढ़ती जा रहा ही, शिक्षा और स्वास्थ तो छोड़िये साग-सब्ज़ियां, दूध आदि जरुरत की चीज़े भी आम आदमी की पहुँच से दूर हो गयीं हैं।

आई.एम.एफ. सिहं : देखिये ऐसा दुष्प्रचार हमारे विरोधीयों की चाल है, किसानों के हमने कर्जे माफ करें है, खेती में होने वाले घाटे को देखते हुये किसानों सलाह दी जाती है कि अपनी जमीन किसी बिल्डर को बेच वह मजदूरी करे। इससे उनका स्वास्थ भी बना रहेगा और हमारे उधोगों को सस्ते मजदूर मिलते रहेंगे। हमारी मरेगा स्कीम इसी दूरदर्शी योजना का परिणाम है! हो रहा भारत निर्माण! हो रहा भारत निर्माण!

आरोप नम्बर : 4

आप की आंखों पर अमेरिका का चश्मा चड़ा है ?

डेविल्स ऐडवोकेट : आप पर इलजाम है कि देश की अर्थनीति का सारा जोर इस बात पर है कि 20 करोड़ मध्यमवर्गीय भारतीयों का बाज़ार अमेरिका को कैसे उपलब्ध हो। पहले सीधा गेहूं अमेरिका से आता था वो बन्द हुआ तो अब खाद, बीज और कीटनाशक दवायें सब बहुराष्ट्रीय कंपनियों से खरीदा जा रहा है, देश में शोर मचा है कि हम आत्म निर्भर हो गये। और तो और उस नाभकीय संधि पर आपने सरकार दाव पर लगा दी जो अमेरिका को कई बिलियन डालर का बाजार उपल्ब्ध करायेगी।

आई.एम.एफ. सिहं : देखिये मेरी बात समझने की कोशिश कीजिये। आर्थिक सुधारों की “इंडिया स्टोरी” का सीधा सीधा मतलब है भारत को इंडिया बनना है, आगे चलकर खेती बाड़ी जैसे तुच्छ कामों को अफ्रीकी देशों से करवाना है। ऐसे समझिये कि देश के हर गाँव का सपना क्या है? उसे शहर बनना है। और हर छोटे शहर को दिल्ली-मुम्बई और दिल्ली-मुम्बई को न्यूयार्क-वाशिंगटन! इसीलिये बात घूम फिर के वहीं आ जाती है कि अमेरिका हमारा रोल माडल है, और “अमेरिका की तरक्की में ही हम सब की तरक्की है।“

आरोप नम्बर : 5

आप गरीब आदमी को अनाज बाटने जैसे सवाल पर सुप्रीम कोर्ट से क्यों भिड़ गये ?

डेविल्स ऐडवोकेट : सुप्रीम कोर्ट नें जब यह कहा कि अनाज को गोदाम में सड़ाने से अच्छा है कि उसे गरीबों में मुफ्त बाँट दिया जाये इस बात पर आप सुप्रीम कोर्ट तक से भिड़ गये। क्या आम आदमी सिर्फ वोट माँगने और पोस्टर पर लगने की चीज़ बन कर रह गया है?

आई.एम.एफ. सिंह: इस सवाल का जबाब थोड़ा टेक्निकल है, जिसे एक अर्थशास्त्री ही समझ सकता है न्यायशास्त्री नहीं। जब न्यूनतम समर्थन मूल्य पर हम अनाज खरीदते हैं, तो वह मूल्य सरकार की बैलेंस शीट में जस का तस ही रहता है. बस उसका स्वरूप नकद रुपये से बदलकर वस्तु का मूल्य हो जाता है। लेकिन जैसे ही उसे सस्ते में या मुफ्त में बेचा जाता है तब सरकारी बैलेंस शीट में उस घाटे को लिखना पड़ता है. जिस कारण सरकार का वित्तीय घाटा बढ़ जाता है।

डेविल्स ऐडवोकेट : अब सरकार के वित्तीय घाटे के बढ़ने से आप हलकान हुये जा रहें है और गरीब भूखों मर रहा है उसकी कोई चिंता नहीं?

आई.एम.एफ. सिहं : देखिये विश्व बैंक में काम कर चुके एक अर्थशास्त्री के लिये वित्तीय घाटा सबसे बड़ी चिंता का कारण है, वित्तीय घाटा बड़ा दिखेगा, तो विदेशी पूंजी देश में नहीं आयेगी और यदि विदेशी पूंजी नहीं आयेगी तो हम अमेरिका कैसे बनेगें?

डेविल्स ऐडवोकेट : पर विदेशी पूंजी तो यहां नोट कमाने के लिये ही आयेगी कौन सी हमारे देश की गरीबी दूर करने आयेगी ।

आई.एम.एफ. सिहं : हमें नही भूलना चाहिये कि “अमेरिका की तरक्की में ही हम सब की तरक्की है।“ अब राजमाता से बड़ा तो कोई नहीं हो सकता इस दुनिया में! वो तक मानती हैं कि, हो रहा भारत निर्माण! हो रहा भारत निर्माण!

डेविल्स ऐडवोकेट : हद है, आपकी चाटुकारिता की ! देश का मीडिया जो अभी तक आप पर लट्टू था वह तक आप की नीतियों पर सवाल कर रहा है, ऐसे में अब आप क्या करेंगे?

आई.एम.एफ. सिहं : हमें पता है कि मीडिया को भी अमेरिका बनना है, उनका GDP पीछे कुछ कम हो गया था पर अभी हमने उन्हें कई सौ करोड़ के सरकारी विज्ञापन जारी किये हैं। आल इज़ वैल! हो रहा भारत निर्माण! हो रहा भारत निर्माण!

आज की सुनवाई पर जज साहब का निर्णय :

इस मुक़दमे का फ़ैसला सुनाने के लिये कोई न्यायाधीश नहीं है अदालत में. डेविल्स ऐडवोकेट के अभियोग एवम श्री आई.एम.एफ.सिंह की दलील सुनकर फ़ैसला आपको लेना है. ध्यान रहे कि आपका फ़ैसला मुल्क की सूरत बदल सकता है. और प्रेमचंद जी की मानें तो पंच के पद पर बैठकर न तो कोई किसी का मित्र होता है न शत्रु. तो रखिये हाथ अपने अपने दिल पर और सुनाइये फ़ैसला आज के मुक़दमे पर !

Saturday, February 12, 2011

सफर एक बरस का!

और देखते ही देखते ब्लॉग जगत में “सम्वेदना के स्वर” को एक बरस हो गया!!

पलट कर देखने पर याद आती है, 2009 की नीरा राडिया टेप खुलासों से पहले की दुनिया, जब “व्यव्स्था की अव्यवस्था” से आक्रांत, हम दोनों मित्र अपने हिस्से के 2जी स्पेक्ट्रम का उपयोग, घर-दफ्तर से लेकर दुनिया जहान की बातों पर घंटों बतियाने में किया करते थे। फिल्म, साहित्य, राजनीति और आध्यात्म... हमारी बातें अलिफ़ लैला के किस्सों सी चलती रहतीं और इनमें अखबारों की सुर्ख़ियाँ और एलेक्ट्रॉनिक मीडिया की सनसनीखेज राजनीति और अर्थनीति से प्रेरित पत्रकारिता (जिसे अब हम राडिया-एक्टिव पत्रकारिता कहते हैं) आग में घी का काम करती तथा हमें समय-असमय बेहद उद्वेलित कर देती थी।

इसी दौरान राम गोपाल वर्मा की, अमिताभ बच्चन अभिनीत एक फिल्म आयी “रण” जिसने हमारे कौतूहल को बेहद बढा दिया। फिल्म में मीडिया के सत्ता से हाथ मिला लेने की वास्तविकता को बेहद बेबाकी से कहा गया। अभिव्यक्ति की सता-नियंत्रित यह व्यवस्था हमारी भी दुखती रग थी, जिस कारण चंडीगढ़ और नोएडा के सिनेमाघरों में हमने एक साथ यह फिल्म देखी और एक तरह के कैथार्टिक अनुभव से गुजरे।

कला, साहित्य, राजनीति, अर्थशास्त्र और आध्यात्म...जीवन के विविध रंगों पर किसी बावरे भौरे की तरह हमें मंडराते देख मित्र मनोज भारती (जो पहले से गूंज अनुगूंज ब्लॉग लिखते थे) ने सलाह दे डाली कि ब्लॉग लिखो... बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जायेगी! बस फिर क्या था 12 फरवरी सलिल भाई के जन्म दिन से इस ब्लॉग को शुरु करने का मन बना और नाम दिया “सम्वेदना के स्वर.”


“सम्वेदना के स्वर” की इस एक बरस की यात्रा में बहुत से अनूठे अनुभव हुये, सबका विवरण एक पोस्ट में देना सम्भव नहीं है. हाँ, कुछ तो फिलहाल जरूर ही कह डालेंगे, क्योंकि रस्मे दुनिया भी है, मौका भी है, दस्तूर भी है...

शुरुआती दिनों में जब आस-पास देखा तो बहुतों की तरह बेहतर, स्थापित, सम्मानित और अनुभवी ब्लॉगर्स हमने भी उनको माना, जिनके ब्लॉग पर टिप्पणी करने वालों की संख्या बहुत हुआ करती थी. इसके बाद बहुत से प्रोफाईल देखे तो एक शख्स जो बहुत पसन्द आये और संजोग से नोएडा में रहते थे, वो थे बड़े भाई सतीश सक्सेना. उन्होंने अपनी पोस्ट पर किसी को अपना मोबाईल नम्बर दिया था, बस फिर क्या था आपस में मशविरा करके उन्हें फोन कर लिया. जिस शख्स की सिर्फ तस्वीर देखी थी उसकी आवाज़ सुनकर लगा कि कैसे लोग कौन बनेगा करोड़पति में अमित जी की आवाज़ सुनकर घबरा जाते होंगे. चले गये उनसे मिलने और उनसे मिलने के बाद मान लिया कि ब्लॉगजगत में अपना रजिस्ट्रेशन अब हुआ है. बाद में सतीश जी ने हमारे ऊपर पोस्ट लिख दी और हम बस आत्म मुग्ध सी स्थिति में चले गये। इसके बाद एक साल में हमारे रिश्तों में कई उतार चढ़ाव आए. लेकिन हम आज भी उनके मुरीद हैं. क्योंकि हमारा ब्लोग दुनिया से परिचय सतीश जी ने ही करवाया.

हमारी एक पोस्ट दो बीघा ज़मीन पर सोनी गर्ग नाम की एक ब्लॉगर ने लीक से हटकर टिप्पणी की थी. टिप्पणी क्या थी एक सवाल ही खड़ा कर दिया था, एक चुनौती दे डाली थी हमारे आँकड़ों को. बहुत अच्छा लगा यह देखकर कि उन्होंने हमारी पोस्ट को न सिर्फ पढ़ा था, बल्कि उसपर खूब विचार भी किया और कुछ बातों को चैलेंज किया. हमने उस टिप्पणी का जवाब अपनी पिछली पोस्ट के विस्तार में दिया एक नई पोस्ट लिखकर. अपनी बात बिना थोपे, हमने पूछा कि आपको अपने सवाल का उचित उत्तर मिला या नहीं. उन्हें अपने सवाल का उत्तर मिला और हमें मिला एक रिश्ता, सलिल जी की बेटी बन गई सोनी गर्ग और चैतन्य जी को भाई बनाया. इसके पीछे भी एक अजीब घटना हुई. वो सलिल जी को बाबूजी कहती थी और चैतन्य को भाई, उन्हें भी कई लोगों की तरह चला बिहारी के लेखक सलिल और सम्वेदना के स्वर के लेखक सलिल-चैतन्य के सलिल अलग लगते थे. बहुत मुश्किल से उसको समझाया हमने कि दोनों सलिल एक ही हैं.

पण्डित अरविंद मिश्र से हमारा रिश्ता भी अजीब तरह से बना. हमने चाँद पर अपोलो अभियान के विरुद्ध लिखा. देखा उसपर पंडित जी की टिप्पणी नहीं आई. आम तौर पर हम किसी को ज़बर्दस्ती टिप्पणी के लिए आमंत्रित नहीं करते. लेकिन सलिल उनको न्यौता दे आए, यह सोचकर कि वो साईंस ब्लॉग लिखते हैं और वैज्ञानिक विचारधारा वाले व्यक्ति हैं. उनके विचार महत्वपूर्ण होने चाहिये. अगला दिन रविवार का था और जब सलिल भाई ने पंडित जी की टिप्पणी देखी तो सन्नाटे में आ गए. उन्होंने तो न सिर्फ हमारे लेख को नकार दिया था, बल्कि हमारे बारे में कई अजीब सी बातें लिख दीं, जिस कारण शायद पहली बार हम दोनों ने उनका जवाब अलग अलग दिया. नतीजा बहसा बहसी हो गयी. बहरहाल, बहस का नतीजा जो भी रहा हो, आज भी वो पोस्ट हमारी ऑल टाईम हिट पोस्ट है यानि सबसे ज़्यादा पढ़ी जाने वाली पोस्ट है. तब से और उसके बाद से एक रिश्ता बन गया पण्डित जी से. उन्होंने इस सम्बोधन से मना भी किया, मगर हम भी ढीठ - नहीं माने.

समीर लाल समीर, ब्लॉग जगत के अमिताभ बच्चन.. प्रशंसकों की एक लम्बी कतार इनके पीछे. सालों का अनुभव और चोटी पर विराजमान. हर बड़े छोटे ब्लॉग पर टिप्पणी देते और एनकरेज करते नए ब्लॉगर्स को. इतना व्यवहार काफी था किसी दो महीने पुराने ब्लॉगर का मन मोह लेने के लिये. लेकिन तब हमें ब्लॉग जगत के कई व्यवहार मालूम नहीं थे. यह भी नहीं पता था कि यहाँ बिटविन द लाइंस ही बातें लिखी पढ़ी जाती हैं. ऐसी ही किसी बात को सलिल भाई ने अपने लिये समझ लिया और बरस पड़े समीर जी पर. लेकिन इससे कई बातें भी खुलकर सामने आईं. समीर जी विशाल हृदय का भी पता चला और कई अन्य लोगों के असली चेहरे भी दिख गये. इसी बहाने चला बिहारी ब्लॉगर बनने (यह नाम चैतन्य जी ने सुझाया था) वजूद में आया. सलिल भाई आज भी उस ब्लॉग का जनक समीर जी को ही मानते हैं.

सरिता अग्रवाल जी, इन्होंने तो अपने ब्लॉग का नाम हमारे लिये सार्थक कर दिया, ऐसा अपनत्व मिला इनसे. बहुत देर से ये जुड़ीं हमसे, लेकिन ऐसे कि बस अपना बनकर रह गईं. सलिल और चैतन्य को कभी अलग करके नहीं देखा, शुभकामनाएँ दीं तो हमारे बच्चों के नाम भी हमारे साथ जोड़कर. इनके साथ हमारे सम्बंध ब्लॉग, टिप्पणियों और पोस्ट से भी परे थे. सलिल को रात में कमेंट लिखते देख उनका टोकना कि इतनी देर तक जागना ठीक नहीं और मेल करके कहना कि बिटिया बीमार है अमेरिका जाना पड़ रहा है अचानक. क्या आवश्यकता थी यह बात हमें बताने की, सिवा इसके कि एक अपनत्व का सम्बंध है हमसे. अभी बीमार हैं, तबियत में सुधार भी है.

मनोज कुमार, हमसे शुरुआती दौर में जुड़ने वालों में मनोज जी का नाम सबसे पहले आता है. नियमित रूप से ये हमारे ब्लॉग पर आते रहे, जबकि हमने इनके ब्लॉग पर जाना ही दो तीन महीने बाद शुरू किया. उस समय हमें पता ही नहीं था कि एक व्यक्ति कई कई ब्लॉग पर, कई लोगों के साथ मिलकर कैसे लिख लेता है. तब समझ में आया कि मनोज जी के साथ अलग अलग विषय पर सर्वश्री परशुराम राय, हरीश गुप्त एवम् करण समस्तीपुरी जी उनके साथ हैं. एक सम्रर्पित व्यक्ति हैं ये. शायद ब्लॉग जगत के ये दूसरे व्यक्ति हैं जिनके साथ मिलना हुआ. और इन्हीं के साथ मिलना हुआ सर्वश्री कुमार राधारमण, अरुण चंद्र राय, राजीव सिंह आदि से भी. इनका उत्साह वर्धन हमें प्रेरित करता रहा, हमारे अवसाद के दिनों में भी. अब तो बहुत ही मधुर सम्बंध बन गये हैं हमारे बीच. शायद ही उनकी कोई दिल्ली यात्रा हो जब वे सलिल जी से न मिलते हों.

पायाति चरक जी एक विलक्षण व्यक्तित्व, एक पूर्व ब्यूरोक्रैट, एक चिंतक और एक व्यवस्था की अव्यवस्था से लेकर कुव्यवस्था के संक्रमण के गवाह. चैतन्य जी की अचानक उनके साथ हुई मुलाक़ात, शायद हमारी ब्लॉगयात्रा की सबसे महत्वपूर्ण घटना थी. उनका देश की समस्याओं को देखने का नज़रिया, उनके अनोखे और स्वयम् प्रतिपादित सिद्धांत, हमारे लिये जितनी बड़ी उपलब्धि है, शायद व्यवस्था के लिये उतनी ही बड़ी क्षति, जो उनका उपयोग न कर सकी. हम दोनों के लिये पूज्य. चैतन्य जी जब भी कभी गहरे विषाद में घिरे होते हैं, तो उनकी शरण में जाकर ही उनको शांति मिलती है और मिलती है एक शक्ति उस विषाद से लड़ने की!

स्वप्निल कुमार आतिश का ब्लोग हमारी चाँदमारी का सबसे अच्छा अड्डा है, उनकी कविताओं से परिचय होने के बाद से ही वो हमारी परिचर्चा का केंद्र रहे हैं। 25 वर्षीय, बायोटेक के शिक्षार्थी और इतनी गहरी शायरी! सलिल कहते कि इसे गुलज़ार साहब के साये से बाहर निकलना चाहिये (जबकि वे स्वयम् बहुत बड़े गुलज़ार भक्त हैं) और चैतन्य कहते कि यह मीरा बाई की तरह गुलज़ार के प्रेम में आकण्ठ डूबा है. जब सलिल से वो पहली बार मिला तो पैर छुए और सलिल भाई इतने भावुक हो गए कि जब फोन पर इस घटना के बारे में चैतन्य को बताया तो गला भर आया उनका. अपनी सही मंज़िल की तलाश है इस युवक को. हमारा आशीष है कि कामयाबी उसके क़दम चूमे.

अभी और भी ब्लॉग जगत के कितने प्यारे प्यारे लोग और कितनी मज़ेदार घटनायें एक के बाद एक याद आ रहीं है हम दोनों को..सब पर एक-एक पोस्ट लिखने का मन है...सफर तो खैर अब चलता ही रहेगा...

हमारा धन्यवाद और आभार उन सबका जो जुडे है इस यात्रा में....

बोले तो बिन्दास, उपेन्द्र, अविनाश चन्द्रा, प्रवीण शाह, अली सा, राजेश उत्साही, ज़ील (दिव्या), अनूप शुक्ल, रचना दीक्षित, डॉ. अजीत गुप्त,सुरेश चिपलूनकर,देवेंद्र पांडेय, वन्दना, शिखा वार्ष्णेय, क्षमा, गिरजेश राव, डा. अमर कुमार, अंशुमाला जी, कविता रावत, धीरु सिहं, शिवम मिश्रा, केवल राम, प्रवीण पांडेय, विचार शून्य, दिगम्बर नासवा, सोमेश सक्सेना, दीपक सैनी, दीपक बाबा, संजय अनेजा - मो सम कौन, जाकिर अली रजनीश, हंस राज सुज्ञ, संजय भास्कर, नीरज गोस्वामी नमस्कार मेडिटेशन, प्रेम सरोवर, सांझ, खुशदीप सहगल, अजय कुमार झा, पी सी गोदियाल, गिरीश बिल्लोरे, ललित शर्मा, संगीता स्वरूप एवम् पूनम श्रीवास्तव (झरोखा).

[ब्लोगर के साथ चल रही तकनीकि परेशानीयों के कारण हम लिंक उपलब्ध नहीं करा पा रहे है, स्थिति सामन्य होते ही लिंक उपलब्ध कर पायेंगें। यह पोस्ट ब्लोग रोल में दिखायी नहीं दे रही थी, इसलिये दुबारा पोस्ट करनी पड़ी]
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...