पिछले दिनों मल्टिप्लेक्स में फ़िल्म “नो वन किल्ड जेसिका” देखने गया था. उस फिल्म में एक दूसरी फ़िल्म का ट्रेलर दिखाया गया. वो मेरे लिये उस ट्रेलर का प्रीमियर था, क्योंकि टीवी मैं देखता नहीं, इसलिये टीवी पर दिखाया जाने वाला प्रोमो मैंने नहीं देखा था. ख़ैर ट्रेलर देखते हुये पहले फ्रेम से दूसरे फ्रेम तक जाते जाते मेरे मुँह से निकला कि यह विशाल भारद्वाज की फ़िल्म लगती है. और तब तक ट्रेलर ख़त्म हुआ और पर्दे पर दिखा “सात ख़ून माफ़” – अ विशाल भारद्वाज फ़िल्म.
तब सोचा था कि फ़िल्म के रिव्यू तो सभी लिखते हैं, मैं प्रिव्यू लिखता हूँ. सारी जानकारी समेट ली, लेकिन व्य्स्तताओं के कारण लिख नहीं पाया. और देखते देखते आज 18 तारीख हो गई, फ़िल्म के रिलीज़ होने का दिन. ऑफिस से छुट्टी की और फर्स्ट डे, फर्स्ट शो देखने चला गया फ़िल्म सात खून माफ़. मकड़ी, मक़बूल, ओंकारा,कमीने और इश्क़िया के बाद विशाल भारद्वाज की नई फ़िल्म. बीच में एक और फ़िल्म बनाई थी इन्होंने ब्ल्यू अम्ब्रेला,जो रस्किन बॉण्ड की कहानी पर आधारित थी. फ़िल्म सात ख़ून माफ़ भी उन्हीं की कहानी पर बनी है.
चार पन्नों की कहानी सुज़ैन्ना’ज़ सेवेन हस्बैंड्स, को ढ़ाई घण्टे की फ़िल्म में ढ़ालकर एक बेहतरीन कहानी पर्दे प्रस्तुत करना विशाल भारद्वाज के बस की ही बात है. सुज़ैन्ना का किरदार अदा किया है प्रियंका चोपड़ा ने जो उनके साथ फ़िल्म कमीने में पहले भी काम कर चुकी हैं, एक जवान लड़की से लेकर एक प्रौढ़ औरत तक का सफर प्रियंका ने बख़ूबी निभाया है. यहाँ तक कि एक सीन में प्रियंका की सूजी हुई उँगलियाँ उसकी बढ़ती उम्र को एकदम असलियत का रूप देती है. सुज़ैन्ना के इस सफर में उसके पतियों का रोल निभाया है, नील नितिन मुकेश, जॉन अब्राहम, इरफान खान, अन्नू कपूर, नसीरुद्दीन शाह और अलेक्सांद्र द्याचेंको ने.
कहते हैं एक मकड़ी, एक मकड़े को अपना पति बनाने के बाद उसको मार डालती है, और इसी मकड़ी को औरत का रूप दिया है सुज़ैन्ना के किरदार ने. फ़िल्म में एक जगह सुज़ैन्ना के मुँह से यह भी कहलवाया गया है कि हर औरत के ज़हन में अपनी ज़िंदगी में ये ख़्याल कभी न कभी ज़रूर आता है कि वो अपने पति का ख़ून कर दे. और इस फ़िल्म में वो यही करती है. प्यार की तलाश उसको हर बार एक नये मर्द से मिलवाती है और उस मर्द का वहशीपन और बेईमानी, उससे उनका ख़ून करवाती है. उसके इस चरित्र के पीछे एक कहानी बताई गई है. बचपन में वो पैदल स्कूल जाती थी और उसके स्कूल जाने के दो रास्ते थे, दोनों बराबर. मगर वो जिस रास्ते से जाती थी उसमें एक पागल कुत्ता रहता था, जो उसे डराता था. सुज़ैन्ना ने किसी के भी कहने से अपना रास्ता नहीं बदला और एक दिन अपने बाप की पिस्तौल छिपाकर ले गई और उस कुत्ते को मार डाला. यही थीम भी है फ़िल्म की. सुज़ैन्ना ख़ुद कहती है कि सारे बुरे और बेईमान मर्द मेरी ही किसमत में क्यों लिखे हैं. और उनको सज़ा देने का पाप भी उसके ही सिर आता है.
फ़िल्म के सारे कलाकार मँजे हुए हैं और अपने रोल में समा जाते हैं. फ़िल्म के लोकेशन, फोटोग्राफ़ी, सेट और इन सबके साथ बैकग्राउण्ड म्यूज़िक ने पूरा माहौल जीवंत कर दिया है. कलाकारों के बीच उषा उठुप, विशाल भारद्वाज और ख़ुद रस्किन बॉण्ड को देखना बड़ा सुखद लगता है. उषा उठुप ने तो एक लम्बी भूमिका निभाई है, लेकिन विशाल और बॉण्ड साहब ने अतिथि कलाकार भर का ही का किया है. नसीरुद्दीन शाह के बेटे विवान शाह ने भी बहुत अच्छा काम किया है, बिल्कुल सहजता से. पूरी फ़िल्म के सूत्रधार यही हैं.
फ़िल्म में सन्गीत का भरपूर इस्तेमाल बैकग्राऊण्ड स्कोर में हुआ है, गीतों की आवश्यकता नहीं थी, लेकिन फिर भी गुलज़ार साहब के गीत अच्छे बन पड़े हैं. ओ डार्रलिंग.. पहले ही लोकप्रिय हो चुका है.
इस फ़िल्म की सबसे बड़ी कमज़ोरी है इसकी प्री रिलीज़ पब्लिसिटी. रिलीज़ के पहले ही फ़िल्म की कहानी सबों की ज़ुबान पर है. इसलिये हॉल में रहस्य का तत्व बिल्कुल मौजूद नहीं. लोग एक नये किरदार के आते ही उसके क़त्ल का इंतज़ार करने लगते हैं. सिर्फ यह देखना बाक़ी रहता है कि मौत के लिये सुज़ैन्ना कौन सा तरीका अख्तियार करती है.
मूल कथा से फ़िल्म का अंत अलग दिखाया गया है. लेकिन ये मानना पड़ेगा कि कहानी का अंत बेहतरीन था, जबकि फ़िल्म का अंत समझौता. रस्किन बॉण्ड की कहानी एक रहस्य पर समाप्त होती है जैसा कि सुज़ैन्ना के हर शौहर की मौत के साथ था. लेकिन फ़िल्म में सुज़ैन्ना का कनफेशन फ़िल्म को मिस्ट्री से बाहर निकालकर एक समझौते की ज़मीन पर खड़ा कर देता है.
फ़िल्म में मनोरंजन बिल्कुल नहीं है. और पूरी फ़िल्म एक अंधेरे साये की तरह चलती है. कहते हैं सुज़ैन्ना को काला रंग बेहद पसंद था, शायद इसलिये.
21 comments:
Kisi film ke review/preview ke maddenazar aapka ye andaaz bahut hee badhiya laga!
TV ka ghar me astitv mai bhool jaati hun aur film dekhneke mauqe aate hee nahee!
Wiase film ke banisbat aapka preview yaqeenan zyada achha hai!
lagta hai film dekhni hi padegi
"सात खून माफ़" की समीक्षा आपने अच्छे तरीके से की है ...वैसे एक ही औरत का बाप बेटे से रोमांस करना ....क्या गजब है ...
बढ़िया समीक्षा ...
सलिल सर एक ही फिल्म जो मैंने देखी हैं विशाल जी की और मूल रचना भी पढ़ी है वह है ओंकारा जो कि 'ओथेल्लो' पर आधारित है और उस से उनकी प्रतिभा का अंदाज़ा मिलता है... आपके प्रीव्यू के बाद फिल्म देखनी ही पड़ेगी... एक जिंदगी में हज़ार बार मरने बजाय सात बार मारना बेहतर है...
विशाल भारद्वाज की फिल्मे मुझे भी पसंद है उनके गुरु की झलक दिखती है एक कामर्सियल फिल्म को संजीदगी से यथार्थवादी रूप में बनाने की | फिल्म की तारीफ तो काफी सुनी थी मुझे लगता है सब फिल्म अकेले ही देखने वाले है कोई अपनी पत्नी को ये फिल्म नहीं दिखने वाला है :))
कल ही बॉण्ड साहब का एंटरव्यू पढ़ा है कहीं और इस फ़िल्म का जिक्र था उसमें। क्रेज तो है देखने का, बैठाते हैं जुगाड़।
अपने फिल्म देखने के लिए मुझे मजबूर कर दिया... जल्द ही देखने जाना पड़ेगी....
आज देखने का विचार है...अब आपका प्रीव्यू देखने के बाद इच्छा बलवती हो गयी है...
नीरज
yani bade bhaiya iss movie ko five star aap de rahe ho...fir to dekhna parega..:)
जबर्दस्त फिल्म लगती है यह तो -देखते हैं भाई -इस प्रतिशोध सुन्दरी को !
यह भी एक तरीका है, अपराधी का पता रहे और रोमांच बना रहे, याद करें जेम्स हेडली चेइज को.
uffffffffffffoooooo.......
ek to main pehle hi pareshaan thi ke kab ye film dekhungi....upar se aapne utsukta aur badha di......hmphhhhh
बेहतरीन समीक्षा।
बाक़ी फ़िल्म देख कर बताऊंगा।
अमूमन भारतीय समाज की सुजैन्ना(ओं)के पास कुत्ते को गोली मारने वाली पिस्तौल मयस्सर नहीं हुआ करती सो आगे के एकाधिक खून और कपड़ों की मानिंद रिश्ते बदलने का ख्याल ही अपवाद जैसा लगता है !
फिर भी किसी और इंसानी समाज के सच बतौर पेश की गई इस कथा से रिश्तों और ज़ज्बातों के सर्द होते जाने का अहसास तो होता ही है ! पर उस जगह रिश्तों को बदलना इस कदर आसान है कि क़त्ल की गुंजायश तभी बनती है जबकि मुख्य किरदार खुद ही किसी मानसिक समस्या से जूझ रहा हो !
मैंने फिल्म देखी नहीं है इसलिए कह नहीं भी सकता कि आपके प्रीव्यू पर मेरी प्रतिक्रिया / मेरी अनुभूति फिट बैठेगी भी कि नहीं :)
कल ही देखि मैंने ... ज्यादा उमीदें लेकर नहीं गई थी तभी शायद ज्यादा पा गई ... क्या डायलोग,क्या गीत ,क्या निर्देशन और अभिनय ..मज़ा आ गया . लगा नोवेल पढ़ रही हूँ .....
"फ़िल्म में मनोरंजन बिल्कुल नहीं है. और पूरी फ़िल्म एक अंधेरे साये की तरह चलती है. कहते हैं सुज़ैन्ना को काला रंग बेहद पसंद था, शायद इसलिये."
पर जब मामला विशाल भारद्वाज का हो और वह भी रस्किन बॉण्ड की एक मशहूर कहानी को आधार बना कर ... तो कह सकते है कि ... "सात ख़ून माफ़" !! क्यों है ना !?
थोड़ा थोड़ा कर के पोस्ट पढ़ लिया, क्यूंकि इस फिल्म को देखने जाना है आजकल में :)
इसका गाना 'ड्ड्डार्लिंग्ग' एक यादगार गाना होगा...
आपकी समीक्षा से तो लगता है देखनी ही पड़ेगी फिल्म ..
देखने लायक फिल्म लग रही है।
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