सम्वेदना के स्वर

यह ब्लॉग उस सनातन उत्सवधर्मिता को जीवित रखने का प्रयास है,

जिसमें भाव रस और ताल का प्रतीक आम आदमी का भा-- बसता है.
सम्वेदनाएँ...जो कला, साहित्य, दर्शन, विज्ञान, राजनीति आदि के माध्यम से अभिव्यक्त होती हैं, आम आदमी के मन, जीवन और सरोकार से होकर गुज़रती हैं तथा तलाशती हैं उस भारत को, जो निरंतर लड़ रहा है अपने अस्तित्व की लड़ाई.....

Monday, November 29, 2010

अब तो अपनी लेखनी से नाड़ा ही तू डाल रे - एक मर्सिया चौथे खम्बे के पहरेदारों पर

आज देश में लोकतंत्र का चौथा खम्बा श्वानों के लिए ही खुशी का कारण रह गया है. और उनकी गिरवी रखी कलम की जो धूम इन दिनों मची है, उससे तो यही लगता है कि उन्होंने अब कलम सिर्फ नाड़ा डालने के लिए ही रख छोड़ी है. पिछले दिनों हमें हमारी ही एक कविता की सच्चाई देखने को मिली. यह कविता एक पाकिस्तानी कवि हबीब जालिब की उर्दू कविता का तर्जुमा थी, उसी कविता को आगे बढ़ाते हुए, एक मर्सिया चौथे खम्बे के पहरेदारों की गिरवी रखी कलम के नाम:



देश की भलाई का विचार आज टाल दो
राष्ट्र के निर्माण को दिमाग़ से निकाल दो
ध्वज नहीं, सवाल है, जवाब तो उछाल दो.
गर्त्त में है आत्मा ये क्या हुआ है हाल रे
अब तो अपनी लेखनी से नाड़ा ही तू डाल रे!

अप्रवासी भारतीय प्यार करता देश से
कौन मंत्री बने तो कौन बाहर रेस से
ऐसे काम में मदद करो छिपे ही भेस से
क्या बुरा है इसमें मिलता जेब में जो माल रे
अब तो अपनी लेखनी से नाड़ा ही तू डाल रे!

नीरा की सुरा पिए हैं देश के ये पहरेदार
बरखा नोट की बरस रही है आज बेशुमार
वीर दुम दबाये हुये घूम रहा लगातार
पूरे घटनाक्रम पे क्यों उठा नहीं सवाल रे
अब तो अपनी लेखनी से नाड़ा ही तू डाल रे!

बोलता मुकेश कांगरेस तो दुकान है
दाम दो खरीद लो, ये मंत्री सामान है
बेचकर भी लेखनी बची ये इनकी शान है
दत्त सांघवी पे क्यों मचा नहीं बवाल रे
अब तो अपनी लेखनी से नाड़ा ही तू डाल रे!

अर्थ तो रिलायंस का भरोसा है तू सीख ले
टाटा के नमक से तू नमकहलाली सीख ले
टेलिकॉम के नाम पर करोड़ों की तू भीख ले
पूरे लोकतंत्र पर बिछा है नोटजाल रे
अब तो अपनी लेखनी से नाड़ा ही तू डाल रे!

Saturday, November 27, 2010

सौवी पोस्ट - चुनावतंत्र के नए मंत्र

स्मरण होता है कि अपने कार्यकाल में पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एम. एस. गिल ने सुझाव दिया था कि जनप्रतिनिधि कानून में यदि निम्नलिखित दो संशोधन किये जायें, तो लोकतंत्र को बेहतर बनाने में एक प्रभावी कदम होगा :
1.       प्रत्येक क्षेत्र में दो चरण में चुनाव :  चुनावों को दो चरणों में किया जाये, प्रथम चरण में चुनाव उसी तरह हों जैसे अभी हो रहें हैं. दूसरे चरण के चुनाव, प्रथम चरण में पहले और दूसरे नम्बर पर आये प्रत्त्याशिओं के बीच कराये जायें. इनमें जो 51% वोट हासिल करें उसे ही विजयी घोषित किया जाये. यह स्थिति पहले कि 21% वोट से बेहतर होगी क्योकिं 51% वोट के लिये नेता को और अधिक सर्वमान्य होना होगा. हां यदि उपरोक्त में से कोई नहीं को 51% वोट मिलते हैं तब उस सीट को खाली ही रखा जाये तथा 6 महीने बाद फिर चुनाव हों जिसमे पिछले चरण के सभी प्रत्त्याशी अयोग्य हों

2.       लोकसभा में "अविश्वास प्रस्ताव" के बजाय "विश्वास प्रस्ताव" का प्रावधान :
1977 में जनता पार्टी की 2 साल की सरकार , 1989 में देवगौडा की सरकार, पहले 13 दिन और फिर 13 महीनें की बाजपेयी की सरकार ने देश पर असमय चुनाव थोप दिये थे. ऐसा होने का एक कारण है अविश्वाश प्रस्ताव जिसके कारण बिना किसी विकल्प के पहले तो सरकार गिरा दी जाती है और फिर किसी नाम पर सहमति न होने पर दुबारा चुनाव का सबब बनती है.
इसके विपरीत यदि विश्वास प्रस्ताव लाया जाए, तो इस तरह की स्थिति से निबटा जा सकता है. संसद का कार्यकाल 5 साल रहेगा इस बीच कभी भी किसी के पक्ष में विश्वास प्रस्ताव लाकर उसे सरकार बनाने के लिये आगे लाया जा सकता है. इस तरह बिना विकल्प के कभी भी सरकार नहीं गिर सकती.

इसे विडम्बना ही कहा जायेगा कि इन सुझावों को देने वाले पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त श्री एम एस गिल, ने रिटायरमेण्ट के बाद कांग्रेस पार्टी से राज्य सभा के टिकट का जुगाड कर मंत्री पद हासिल कर लिया. फिर सिद्ध हुआ कि सत्ता की मलाई के आगे देश की भलाई और चुनाव सुधार जैसी चीज़े टुच्ची बातें हैं.
भारत और इंडिया के जिस अघोषित युद्द की बात हम करते हैं उसका एक पहलू यह भी है कि देश की संसद पर इंडिया का परोक्ष और अपरोक्ष कब्जा है. संसद में अधिंकांश सदस्य करोड़पति और अरबपति हैं. इन्होनें लोकतंत्र को हाईजैक कर लिया है भारत जाये तो कहां जाये.           

वैकल्पिक व्य्वस्था:
इस गोरखधन्धे को कौन समझेगा कि आज जब अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस, कनाडा, आस्ट्रेलिया जैसे देश भी पेपर बैलट का इस्तेमाल करते हैं, तब बीस रुपये रोज़ पर ज़िन्दा 77% आबादी को ईवीएम नाम का हाई-फाई खिलौना देने की क्या मजबूरी हैं.
बहरहाल, यह किस पंडित ने बताया है कि चुनाव एक दिन में ही करवानें हैं? इसके बदले इण्टरनेट का इस्तेमाल करते हुए, क्यों नहीं ऐसी व्यवस्था स्थापित की जाती, जिसमें वोट डालने की लाइनें महीने भर खुली रहें, कुछ  इस प्रकार:
1.       चुनाव प्रक्रिया लगभग महीनें भर के लिये खुली रहे तथा इसके लिये प्रत्येक चुनाव क्षेत्र में निश्चित जगह पर चुनाव आयोग द्वारा अनुमोदित साइबर कैफे स्थापित किए जाएँ, जहाँ जा कर कोई भी अपनी वोट डाल सके.
2.       वोटो का संग्रहण ईवीएम में भी हो और चुनाव आयोग के सेंट्रल सर्वर में भी रहे. इससे यह लाभ होगा कि किसी विवाद की स्थिति में वोटों को क्रॉस एक्ज़ामिन किया जा सकता है. चुनाव परिणाम भी सीधे दिल्ली स्थित मुख्य चुनाव आयोग कार्यलय से घोषित हो सकें और पूरे देश मे पागलपन भी न रहे.
3.       विशिष्ट पहचान पत्र को दिखाकर, कोई भी किसी भी नज़दीकी चुनाव आयोग के साइबर कैफे में जाकर, अपने क्षेत्र के लिये वोट डाल सकेगा, और अपने चुनाव क्षेत्र में जाकर ही वोट डालने की बाध्यता से मुक्त हो सकेगा.
4.       चुनाव परिणामों के बाद भी प्रत्येक मतदाता को यह सुविधा होनी चाहिये कि वो इण्टरनेट पर अपनी मतदाता पहचान संख्या पंच  कर, यह जाँच सके कि उसका वोट उसी प्रत्याशी को गया है जिसे उसने वोट दिया था.
5.       दूरदराज़ के इलाकों में मोबाइल साइबर कैफे ले जाकर यह सुविधा उप्लब्ध करायी जा सकती है. वी-सैट और थ्री जी टैक्नोलोजी से सुसज्जित भारत के लिये यह मुश्किल कार्य नहीं होना चाहिये. पूरी कोशिश इसी बात की हो कि लगभग सभी मतदाता के सामने वोट डालने की सुविधा दी जाये. तभी लोकतंत्र का मतलब है. 
लाभ :
1.       महंगी चुनावी सुरक्षा व्यव्स्था से पूरी तरह निजात मिल जायेगी.
2.       ईवीएम के घपले की सम्भावना में कमी.
3.       मतदान के प्रतिशत में अप्रत्याशित उछाल
आमतौर पर कमजोर मतदाता को दबंग दबा कर रखते हैं और उन्हें चुनाव में या तो भाग ही नहीं लेने दिया जाता या अपनी निगरानी में वोट डलवाया जाता है. जब चुनाव पूरे माह चलेंगे और वोटर को देश के किसी भी हिस्से में जाकर वोट डालने का हक होगा तो किसी मतदाता को बरगलाया नहीं जा सकता. 

इस ऋंखला की पिछली पोस्टः

Friday, November 26, 2010

26/11 - An Impression

26/11/2008… मुम्बई पर हमला और उसमें बिहार रेजिमेण्ट के जवानों का बलिदान... बिहार रेजिमेण्ट के जवानों का ज़िक्र इसलिए कि उस समय मुम्बई में बिहार विरोधी (उत्तर भारतीय विरोधी) हवा चल रही थी. इस कविता के केंद्र में है मुंबई...
हमारी श्रद्धांजलि उन सभी दिवंगत आत्माओं को, जिनका दोष सिर्फ यह था कि उनका कोई दोष नहीं.... उन शहीदों को जिन्होंने देशवासियों की रक्षा के लिए प्राणों की आहूति दी

हो गए हैं लोग पागल
ख़ामख़्वाह आँसू बहाते
एक बेजाँ लाश पर
जबकि पता है
चंद दिन में लाश ये फिर से उठेगी
चलने फिरने बोलने हँसने लगेगी
भागती और दौड़ती ज़िंदा सड़क पर.

जब तलक पर ये नहीं होती है ज़िंदा
लाश ही कहना पड़ेगा
मौत का मातम मनाना ही पड़ेगा.

पर भला वो लोग आख़िर कौन हैं
लाशों के दस्तरख़्वान पर पर बैठे
चिता पर सेंककर ये रोटियाँ
इन बोटियों का नाश्ता करने चले हैं
आँसुओंका जाम भरकर चूमते हैं
मौत के त्यौहार पर ये झूमते हैं.

गिद्ध ही होंगे नहीं इंसान कोई
गिद्ध से भी ये गए गुज़रे हुए हैं
गिद्ध तो मरने तलक आकाश में ही घूमता है
अधमरी लाशोंको खाना इनकी फ़ितरत में नहीं है.

लाश ये सागर किनारे से उठेगी
कुछ दिनों में ही
ये चलकर जाएगी आशिक़ से अपने पूछने
तू कौन सा ओढ़े क़फ़न चेहरा छिपाए,
था छिपा यूँ मुँह चुराकर
मौत का मातम मनाना दूर
मेरी मौत पर तू
फ़ातिहा पढ़ने को भी आया नहीं क्यूँ.

तुझसे बेहतर तो वो नामालूम बंदे थे
तेरे कहने पे नफ़रत दी जिन्हें
तेज़ाब उगला, गालियाँ दी
संग की बारिश भी की उनपर.

मेरा क्या!
मैं तो कितनी बार मरकर भी
नहीं मरती कभी
लेकिन ज़रा उनकी तो सोचो
जिनको नफ़रत से नवाज़ा उम्र भर
उसने हिफ़ाज़त के लिए मेरी
लगा दी जान की बाज़ी
हैं बिखरी लाश उनकी
जो नहीं मेरी तरह दो चार दिन में
चलने फिरने बोलने हँसने लगेगी
भागती और दौड़ती ज़िंदा सड़क पर.

Wednesday, November 24, 2010

मियाँ लिक्खाड़, टाइम टेस्टेड मसाले और कौमी एकता

मियाँ लिक्खाड़ के हाथ में कलम आते ही न जाने कहाँ से शेख़पीर की आत्मा सवार हो जाती है दिलो दिमाग़ पर और एक सन्निपात की सी हालत हो जाती है उस वक़्त. और जब यह दौरा उतरता है तो बस सामने काग़ज़ होता है, होती हैं उसपर लिखी कुछ इबारतें और रोता हुआ शेख़पीर कि कमबख़्त उसकी दुकान बंद करवा गया. लेकिन शेख़पीर तो चुप हो जाता है रोधोकर, परेशान हो जाता है वो बेचारा. ये ईबारतें,जो कल को एक साहित्यिक धरोहर होने वाली हैं, प्रकाशक यह कहकर वापिस कर देते हैं कि जनाब ये इतने आला दर्ज़े का शाहकार है कि जब तक हमारा प्रकाशन उस मेयार को हासिल न कर ले, हम इसकी हिफ़ाज़त नहीं कर पाएँगे.

कम्बख़्त मारे प्रेमचंद के रीप्रिंट पर कोई ऐतराज़ नहीं है और इस बेहतरीन अफसाने को शाया करने से गुरेज. ख़ैर यू नॉट ऐण्ड करेक्ट,ऐण्ड नॉट ऐण्ड करेक्ट... तू नहीं और सही, और नहीं और सही (तर्जुमा). लेकिन महीनों की मशक्कत के बाद पता लगा कि शेख़पीर के साथ कम्पीटिशन में इतना बेहतर अफसाना लिख डाला है कि कोई भी इसे छापने से डर रहा है.

फिर एक रोज़ मियाँ लिक्खाड़ के हाथ लग गया एक लैप टॉप. और जैसे किसी आदमख़ोर के मुँह से ख़ून लग जाता है, उँगलियों को की बोर्ड लग गया और लैपटॉप के स्लॉट को ब्रॉडबैंड और छाप डाला उन्होने अपना पहलौठी का अफसाना. और इस तरह एक नई दुनिया को मिला एक नया शेख़पीर. मगर परमात्मा का मज़ाक. पता कैसे चले कि जचगी के बाद जो बच्चे की नुमाइश लगाई है, उसमें किसी ने बच्चे को निहारा कि नहीं, किसी ने कहा कि नहीं कि बच्चा तो चाँद सा सुंदर है, लला की बलाएँ ले लो, कोई हंगामा कि सज रही गली मेरी अम्मा. अरे परमात्मा किस जनम का बैर निकाल रहा है, हुनर दिया है तो हुनरमंद तो भेज, जो इस हुनर की तारीफ करे.

परमात्मा ने कहा तथास्तु. बच्चे को कौन बुरा कहता है. अच्छा ही होगा सोचकर लोग बाग बिना देखकर समय बरबाद किए, कह गए कि बहुत सुंदर, अद्भुत, बिल्कुल रामलला की छवि. और मोगैम्बो ख़ुश हुआ. लेकिन पता नहीं कहाँ से एक सिरफिरा आ गया और उसने बच्चे को सरापा देखने का हौसला जुटाया और ताड़ गया कि बच्चे ने तो शुश्शू की है. वो कह गया कि बच्चे की नैपी बदल दें, वो कब से गीले में है. इतना सुनना था कि मोगैम्बो आग बबूला. अंधे कहीं के, इतने लोगों में सिर्फ तुझे ही दिख रहा है कि बच्चे ने गीला कर रखा है, तेरे बच्चे नहीं हैं क्या, तुझे समझ क्या है बच्चे पालने की, कितने जायज बच्चे हैं तेरे. बेचारा अपनी पैण्ट गीली करवाकर ही टला.

एक गरम चाय की प्याली हो (अब सबकी सोच की एक सीमा होती है) और मसाले दार लेपचू की चाय हो तो अदीब बनते कितनी देर लगती है. ख़यालात का क्या है, आते ही रहते हैं. प्रेमचंद ख़्वामख्वाह खेतों की मेंड़ पर बैठकर अफसानानिगारी करते थे. अफसानों में माटी से लेकर मसाले तक की ख़ुशबू खेतों में बैठने से थोड़े ही आती है, वो आती है ए.सी. ड्राईंग रूम में बैठकर ख़यालों के मसालों से भुने अफसाने को बिरयानी से. कुछ आम मसाले तो आए दिन किचन गार्डेन में उगाए जा सकते हैं. मसलन क़ौमी एकता का मसाला तो हर मौसम में उगाया जा सकता है. इसके अलावा भाईचारा, नफरत, दया, सहानुभूति वगैरह मसालों से सजाकर एक अच्छी लज़ीज़ बिरयानी तैयार की जा सकती है.

और ये मसाले तो टाइम टेस्टेड मसाले हैं. इनसे बनी बिरयानी की ख़ुशबू ही काफी है. कोई खाए न खाए, तारीफ से बाज नहीं आएगा. और ग्राहकों की तारीफें सलामत तो दुकान चलने से कौन रोक सकता है. कौन सा अमित जी वही क्रीम इस्तेमाल करते हैं जिसकी दुहाई दिन भर देते रहते हैं, या फिर सैफ़ वही पेण्ट इस्तेमाल करते हैं, जो वो बताते हैं कि बेहतरीन है.

ग़ौरतलब है कि यहाँ मिसाल देने के नाम पर भी क़ौमी एकता को ध्यान में रखते हुए भाईचारा और सौहार्द मेंटेन रखते हुए, अमित जी और सैफ़ दोनों को बराबर दर्ज़ा दिया गया है. यही नहीं सर्दियों में मलमल का कुर्ता पहने, भाई चारे की गर्मी बनाए रखने के लिए हिंदी और उर्दू दोनों के लफ्ज़ों का बराबर वज़न बनाए रखने की कोशिश काबिले गौर है. और आख़िर में ई एण्ड ओ ई.. यानि गुंजायश है कि गिनती में ग़लतियाँ हो सकती हैं (लफ्ज़ हैं कोई टिप्पणी नहीं कि सही गिनती बता दें)… कहीं कोई इंच टेप लेकर गिनने और नापने बैठ जाए कि कितने लफ्ज़ हिंदी के और कितने शब्दब उर्दू के हैं और कमी बेशी होते ही पिल पड़े और साम्प्रदायिक न डिक्लेयर कर दे.

एक सबसे अहम बात तो रह ही गई. यह पोस्ट महज़ एक मज़ाहिया शाहकार है . इसमें ज़रा भी तंज़ नहीं. किसी भी ज़िंदा शख्स को लगता है कि ये उसकी ज़ाती ज़िंदगी से मुतासिर होकर लिखी गई है तो इसे महज़ इत्तेफाक़ समझा जाए और माफी का हलफनामा दाख़िल माना जाए. और अगर किसी मुर्दे को लगे तो उसकी किसे परवाह है. 120 करोड़ मुर्दों के मुल्क़ में एक मुर्दा क्या उखाड़ लेगा.

Sunday, November 21, 2010

मीडिया की मौत पर शोक

कल की एक खबर के बाद मीडिया का मौन मौत के सन्नाटे से कम नहीं था. हमने भी इस मौत पर मातम का एलान कर दिया है.





(चित्र साभार: गूगल)

Friday, November 19, 2010

डेमोक्रेसी किडनैप्ड


दो बड़ी मशहूर कहावतें या कहें बड़े संगीन इल्ज़ाम हमेशा लगते रहे हैं लोकतंत्र के ऊपर. पहली बात तो ये कि लोकतंत्र वो प्रक्रिया है, जहाँ जनता के प्रतिनिधि चुनकर आते हैं, उन लोगों के द्वारा, जो मतदान नहीं करते. इस इल्ज़ाम के जवाब में हमने अपनी दलील पिछली पोस्ट पर दी. 
आज बारी है लोकतंत्र से जुड़ी उस दूसरी कहावत की जहाँ कहा गया है कि जम्हूरियत वह तर्ज़ेहुक़ूमत है जहाँ इंसानों को तोला नहीं, गिना जाता है. सच है यह कहावत, और अगर इसे कटाक्ष मानें तो बहुत सच्ची बात है और अगर स्टेटमेण्ट मानें तो एक अर्धसत्य! आइए देखें इंसानों की गिनती का यह खेल.

एक बार फिर आँकड़े निर्वाचन आयोग की वेबसाईट पर उपलब्ध लोकसभा चुनाव 2009 केः 

एक, गिनती में कुल मतदाताओं की संख्या (72 करोड़) के छठवें हिस्से से भी कम (11.91 करोड़) होते हुए भी एक दल 72 करोड़ मतदाताओं और 120 करोड़ जनता के ऊपर राज कर रहा होता है और उस पर तुर्रा ये कि ख़ुद को उसी जनता का सेवक बताता है.


दो, तहलका यह मचा है कि हम मशीनों के सहारे वोटिंग करके / कराके प्रगतिशील हो गए हैं, लेकिन बहुमत की इस छ्द्म अवधारणा का क्या, जो चीख़ चीख़ कर यह एलान कर रही है वह बहुमत सिर्फ एक अल्पमत है (16. 61% कुल मतदाताओं की संख्या का ).

तीन, अगर बहुमत की ही सरकार है, तब तो बहुमत यह कहता है कि 83.39% (कुल मतदाताओं की संख्या का) या 71.45% (कुल मतों का) मत उस दल के पक्ष में हैं ही नहीं. फिर कैसे बनी यह बहुमत की सरकार. यह तो वही बात हो गई कि मुट्ठी भर अंग्रेज़ पूरे भारतवर्ष पर शासन करते रहे, या अल्पसंख्यक गोरे दक्षिण अफ्रीक़ा में.

चार, यदि दो प्रमुख पार्टियाँ, कॉन्ग्रेस और भाजपा के मतों और सीटों पर नज़र डालें तो और भी आश्चर्य होता है. एक ओर 8 करोड़ मतों का अर्थ भाजपा के लिए 116 सीटें है, वहीं दूसरी ओर ओर उनसे सिर्फ 50% अधिक वोटों की मदद से कॉन्ग्रेस को लगभग 100% अधिक सीटें (206) मिल जाती हैं.

तालिका में दिये गए आँकड़े क्या विश्व के इस “महानतम् लोकतंत्र” पर प्रश्नचिन्ह नहीं लगाते हैं?
लोकतांत्रिक जनादेश के नाम पर देश के आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक ढ़ाँचे को छिन्न भिन्न करने वालों से क्या यह नहीं पूछा जाना चाहिये कि भारतीय जनता ने यह अधिकार वास्तविक रूप से उन्हें दिया भी है या यह लोकतंत्र का अपहरण है?

एक आवश्यक सूचनाः इन आँकड़ों को गणित के सूत्रों के आधार पर पढना, समय की बरबादी के अतिरिक्त कुछ नहीं है, क्योंकि जहाँ दो और दो पाँच बनाए जाते हों, वहाँ सारी गिनतियाँ बेकार साबित होती हैं.

क्षेत्रीय पार्टियों का गणित और भी चौंकाने वाला है. यह रहे क्षेत्रीय पार्टियों के आँकड़ेः
कैसे 120 करोड़ की जनसंख्या वाले देश मे मात्र कुछ लाख वोटों को हथियाकर, क्षेत्रीय पार्टियाँ लोकतंत्र के इस महाभोज का आनन्द लेने दिल्ली पहुँच जाती हैं, उसकी एक बानगी इस तरह है :-

बिहार के लालू यादव की आरजेडी को कुल वोट मिले मात्र 50.80 लाख और सीटें मिलीं 4, जबकि नीतिश कुमार की जेडी (यू) को कुल वोट मिलें 59.36 लाख और सीटे मिलीं 20.
यानि वोटों की बढ़त सिर्फ नौ लाख और सीटें बढ़ गयीं पाँच गुना।

उत्तर प्रदेश में तो स्थिति और मज़ेदार है. मायावती की बसपा जहाँ 2.57 करोड़ वोट लेकर 21 सीटें ला पायी,वहीं मुलायम सिंह की सपा ने 23 सीटें कुल 1.34 करोड़ वोट लेकर ही हासिल कर लीं।
बसपा के लिए वोट ज़्यादा, सीटें कम!

तमिलनाडु में जयललिता की पार्टी एडीएमके को कुल वोट मिलें मात्र 69.53 लाख और सीटे हासिल की 9 जबकि करूणानिधि की डीएमके कुल 76.25 लाख वोट लेकर भी दो गुना यानि 18 सीटें जीत लीं।
वोटों की गिनती समान, वोटों का मूल्य समान, लेकिन असली मूल्य तो सीटों की संख्या का है. वो बराबर नहीं.

पश्चिम बंगाल में 1.33 करोड़ वोट लेकर ममता बनर्जी की तृणमूल पार्टी को मिली 19 सीटें तो 2.22 करोड़ वोट लेकर सीपीआई (एम) कुल 16 सीटे ही जीत पायी।
क्या आपको समझ आया कि जनता मैंडेट क्या था!!

केरल में मुस्लिम लीग मात्र 8 लाख वोट हासिल करके 2 सीटें जीत जाती है तो तेलंगाना में 26 लाख वोट हासिल करने के बाद भी मात्र 2 सीटें पाती है। जम्मू कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस मात्र 5 लाख वोट लेकर 3 सीटं लोकसभा में पा जाती है। महाराष्ट्र में शिवसेना मात्र 62.87 लाख वोट लेकर 11 सीटें जीत जाती है तो आन्ध्र प्रदेश में 1.04 करोड़ वोट लेकर तेलुगू देशम को मात्र 6 सीटे ही मिल पाती हैं।

यदि देश के संसाधनों पर सबका समान हक है तो फिर ऐसे विरोधभास क्यों?
भारतीय लोकतन्त्र का यह कैसा अबूझ गणित है, जिसमें एक वोट की कीमत अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग है. किंतु जैसे ही यह सारे वोट सीटों में परिवर्तित हो दिल्ली पहुँचते हैं, उनके मान बराबर हो जाते हैं और शुरू हो जाती है गिनती, दो और दो पाँच करने की.

बचपन में कितनी दफ़ा पढ़ा है कि अगर आठ घोड़ों की कीमत रु. 500 दी हुई है, तो पाँच घोड़ों की कीमत कैसे निकाली जाती है. आज अगर यही सवाल हल करना हो, तो पसीने छूट जाएँ. क्योंकि ये तो अब समझ में आया है कि एक जैसे दिखने वाले घोड़ों की कीमत हमेशा बराबर नहीं होती, इस सवाल का हल तभी सम्भव है जब यह पता हो कि घोड़ा किस प्रदेश का है, और कौन सी नस्ल का है.
(इस कड़ी में हमारी अगली समापन पोस्ट में चर्चा होगी,  वैकल्पिक समाधानों की, इस सन्दर्भ में आपके विचारों  का इंतज़ार रहेगा )

Tuesday, November 16, 2010

भारतीय लोकतंत्र की पोस्ट मार्टम रिपोर्ट- (भाग एक)


हमारा देश 1947 में आज़ाद हुआ और फिर 1951 में प्रथम आम चुनाव हुए. तब से अबतक 15 वीं लोकसभा अपना कार्यकाल पूरा करने को है. इस बीच देखा जाये तो देश ने सभी क्षेत्रों में उत्तरोत्तर प्रगति की है. परंतु जहाँ तक चुनावों पर आधारित लोकतांत्रिक व्यवस्था का प्रश्न है, वह दिनोंदिन गर्त्त की तरफ जाती दिखती है। यह एक गम्भीर स्थिति है, जिसे नज़रअन्दाज़ करना, देश को बहुत महँगा पड़ रहा है। संवैधानिक संस्थाओं के इस क्षरण को यदि रोकना है, तो लोकतंत्र को मजबूत करना होगा, जिसके लिए चुनाव प्रक्रिया को दुरुस्त करने की ज़रूरत है और बगैर चुनाव प्रक्रिया की कमियों को बारीकी से समझे इनका समाधान खोजा भी नहीं जा सकता। इस सन्दर्भ में हमने चुनाव आयोग की वेबसाईट पर उपलब्ध 2009 के ताजे आंकड़ों का अध्ययन किया तो हैरान कर देने वाले सत्य उद्घाटित हुए. एक बानगी देखें :
देश के कुल मतदाताओं की संख्या : 71.69 करोड़
वोट डालने वाले कुल मतदाता : 41.71 करोड़
वोट न डालने वाले कुल मतदाता : 29.98 करोड़

120 करोड से अधिक आबादी वाले देश में जहाँ 72 करोड मतदाता हैं वहाँ मात्र इतने कम वोटों का प्रतिशत लेकर जिस तरह यह राजनैतिक पार्टियाँ हमें लोकतंत्र का पाठ पढाती हैं, उसे देखकर आश्चर्य होता है. परिणाम स्वरूप, देश के सभी संसाधनों पर इन गिरोहों के सरगना ऐश करते हैं. विचारधारा के स्तर पर यह सब राजनैतिक दल एक दूसरे के विरोधी हैं और इनका कुल जमा भी आधे मतदाताओं से भी कम है. हैरान करने वाली बात यह है कि आज़ादी के 60 वर्षो बाद भी हम इस सड़ेगले लोकतंत्र के आसरे अपनी समस्याओं के समाधान ढूंढ रहे हैं, जिसका ढोल एक षड़यंत्र की तरह ज़ोर ज़ोर से बजाया जाता है और उसकी आड़ में लूट का खेल बखूबी चलता रहता है.

आईये देखें कि एक आदर्श चुनाव क्षेत्र में यह खेल किस तरह होता है :-

कुल मतदाता = 100 मतदान करने वाले लोग = 60
कुल गम्भीर उम्मीदवार = 3 (हालाँकि एक पूरी बरात खड़ी होती है चुनावों में) जीतने वाले प्रत्याशी को न्यूनतम वोटों की आवश्यकता = 21 (60/3= 20 से 1 अधिक यानि 21)

मतलब यह कि किसी एक क्षेत्र में औसतन मात्र 21% लोगों को यदि पटा लिया जाये, तो आप उस क्षेत्र से लोकतंत्रिक रूप से चुने गए प्रतिनिधि होंगे. यही कारण है कि धन, बल, आरक्षण आदि हथकंडों से 21% वोटों का जुगाड किया जाता है. इस बात को महान लोकतंत्र का बिगुल बजाकर भुला दिया जाता है कि इन 21% वाले महाशय को 79% का समर्थन प्राप्त नहीं है!

वोट न डालने वाले लोग 30 करोड़ ? आज वोट न डालने वाले 30 करोड़ लोगों को अपमानित करने के लिये कहा जाता है कि उनकी वज़ह से लोकतन्त्र की हालत ऐसी है. पर थोड़ा अन्वेषण करें, तो वोट न डालने के प्रमुख कारण इस प्रकार उभर कर सामनें आते हैं :

क) साँपनाथ और नागनाथ में से एक को चुनने से इंकार :

हम स्वयम् को इसी श्रेणी में पाते हैं और इसी कारण पिछले चुनाव में वोट डालने से इंकार कर दिया था. हाँ! अगर “उपरोक्त में से कोई नहीं” चुनने का विकल्प होता या हमारी पसन्द का प्रत्याशी होता तो हम ज़रूर वोट देते. अब जब सामने रखे गये विकल्प में साँपनाथ और नागनाथ में से ही किसी एक का चुनाव करना है, तो हम चुनाव करने से इंकार क्यों न करें. क्योंकि हमारा मानना है कि यदि हम कम जहर वाले साँपनाथ को भी चुनकर संसद में भेजने के कार्य में सहयोग करें, तो कल को सत्ता का दूध पीकर यह साँपनाथ भी नागनाथ बन जाता है.

ख) आज की व्यव्स्था में चुनाव लडने के लिये ज़रुरी है काला धन :

एक अनुमान के अनुसार लोकसभा चुनाव लड़ने के लिये एक गम्म्भीर प्रत्याशी को कम से कम 10 करोड़ रुपये की दरकार होगी. कोई भी ईमानदार समाज सेवी इतना धन लाने में अक्षम है, इस कारण धनबलियों ने लोकतंत्र का अपहरण कर लिया है, यह कहना गलत नहीं होगा.

ग) इंकार का अधिकार :

मतदान करते वक्त “इनमें से कोई भी नहीं” विकल्प और “यह वाला तो बिल्कुल नहीं” विकल्प ज़रुर होने चाहिये. इन विकल्पों के बिना मतदाता की राय जानने की घोषणा करना बेमानी है. आखिर इन मतों को लेकर देश की सरकार बनती है और ये लोग देश-दुनिया में मतदाता का नाम लेकर ऐसे ऐसे समझोते कर डालते हैं, जिनकी बात तो मतदाता से कभी हुई भी नहीं थी. चुने जाने के पाँच साल तक इन लोगों को ऐसे कानून बनाने का हक मिल जाता है, जिनका सीधा असर हमारे आपके आर्थिक-समाजिक जीवन पर पड़ता है.

घ) अतिशय गरीब कैसे वोट डालेगा ? और किसे चुनेगा?

अर्जुनसेनगुप्ता रिपोर्ट कहती है कि देश में 77% लोग मात्र 20 रुपये रोज़ की आय पर ज़िन्दा हैं. वोट न डालने वालों का यह हिस्सा अपनी रोज़ीरोटी का इंतज़ाम करें या वोट डाले. ऐसे लोगों में कुछ को या अधिकांश को सिर्फ 500 रुपये का नोट देकर (उनकी लगभग एक माह की कमाई) वोट खरीदना बहुत आम हो चला है, इस महान लोकतंत्र में. अनेक राजनैतिक दलों पर यह इल्ज़ाम पिछले चुनाव में बहुत जोरशोर से लगा था. 5 करोड़ रुपये में 1,00,000 वोट मिल सकते हों, तो पूरा खेल ही बदल जाता है. धन बल का इससे अच्छा उदाहरण और क्या होगा?

च) अपने चुनाव क्षेत्र से दूर लोगों के लिये वोट डालने की कोई व्यव्स्था का न होना ?

रोज़ी-रोटी के लिये जूझता आम आदमी एक शहर से दूसरे शहर ताउम्र भटकता रहता है. ऐसे में चुनाव के रोज़ अपने चुनाव क्षेत्र में जाकर वोट डालना महंगा काम है और यह काम समय भी मांगता है. अब दिल्ली में रहने वाला सीतापुर का आदमी 2000 रुपये खर्च करके अपने परिवार के साथ सीतापुर जाकर वोट डालेगा? उसका मालिक तीन दिन की छुट्टी देगा? तीन दिन का वेतन क्या मालिक या सरकार उसे देगी ?

ननी पालकीवाला ने अपनी पुस्तक “वी, द पिपुल” के समर्पण में कहा है कि यह पुस्तक उन देशवासियों को समर्पित है जिन्होंने ख़ुद को एक विशाल सम्विधान दिया लेकिन उसको सम्भालने की योग्यता नहीं. क्या हम इस अवधारणा को बदल नहीं सकते!

(हमारी अगली पोस्ट में चुनाव आयोग के कुछ और आंकड़ॉ के आधार पर हम विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र की एक और तस्वीर लेकर प्रस्तुत करेंगे।)

Friday, November 12, 2010

ऐंटिलिया का वैभव

ऐंटिलिया नाम जब गूगल पर खोजने की कोशिश की तो पता चला कि पुर्तगाल के पश्चिम, अतलांतिक महासागर में स्थित क्षेत्र है ऐंटिलिया. किसी कालखण्ड में यह सात द्वीपों का एक समूह था. भारतवर्ष की वित्तीय राजधानी कही जाने वाली मुम्बई भी वास्तव में सात द्वीपों का एक समूह है. है न अनोखी समानता, किंतुआज अचानक इन दो स्थानों की चर्चा और उनमें समानता जताने का क्या प्रयोजन है भला! कारण सीधा सादा है, मुम्बई शहर के भीतर एक ऐंटिलिया है. यह क्या पहेली हुई भला!

चलिये पहेली के उत्तर में एक नई पहेली बुझाते हैं. किसी भी महानगर में आज बड़ी बड़ी होर्डिंग पर ख़ूबसूरत मकानों की तस्वीरें देखी जा सकती हैं, साथ ही यह भी कि इन मकानों में कितनी सुविधाएँ मौजूद हैं. इन्हें देखकर क्या आपने कभी कल्पना की है कि किसी मकान में कितनी सुविधाएँ हो सकती हैं और वह मकान कितनी कीमत में तैयार हो सकता है!

आइए आपको ले चलें दुनिया के सबसे कीमती मकान में, जो एक बिलियन डॉलर की कीमत का आँकड़ा पार करने वाला पहला रिहाइशी मकान है. एक मिलियन यानि दस लाख और हज़ार मिलियन यानि एक बिलियन अब तकरीबन एक बिलियन डॉलर की लागत वाले इस मकान की लागत में कितने ज़ीरो लगे होंगे यह आप सोचिये. हम ले चलते हैं आपको इसके दर्शन करवाने.
यह अट्टालिका 570 फीट ऊँची है, इसके छः तलों की पार्किंग में 160 गाड़ियों को खड़ा करने की व्यवस्था है, घर के हर सदस्य के लिए ख़ास हेल्थ क्लब है, पूरी ईमारत काँच की बनी है और इसमें पैनिक रूम (ख़ुद को ज़रूरत के सम्य क़ैद करने का कमरा) के अलावा सिनेमा घर भी है और देखभाल के लिए करीब 600 नौकर चाकर. यह 27 मन्ज़िला बिल्डिंग है और इसकी छत पर तीन हेलिपैड भी हैं. क्यों,सुनने में यह किसी सम्राट के महल का वर्णन लगता है न, आधुनिक सम्राट! तो जान लीजिये कि इस मकान का क्षेत्रफल वर्साइल्स के महारज लुई चौदहवें के महल के क्षेत्रफल से कहीं अधिक है. शायद सस्पेंस बहुत ज़्यादा हो गया, इसलिये बताना ही होगा कि यह महल है पॉलियेस्टर राजकुमार स्व.धीरू भाई अम्बानी के ज्येष्ठ सुपुत्र श्री मुकेश अम्बानी का, जो बहुत जल्द हक़ीक़त बनने जा रहा है, गृहप्रवेश इसी वर्ष के किसी शुभ दिन बताया जाता है.

मुकेश अम्बानी एक ऐसा नाम है जिसे परिचय की आवश्यकता नहीं. रिलायंस इण्डस्ट्रीज़ के सर्वेसर्वा मुकेश, मध्य पूर्व में 29 बिलियन डॉलर की हैसियत रकहने वाले सबसे अमीर पुरुष हैं, ऐसा फोर्ब्स पत्रिका का कहना है. मुम्बई के ऑल्टामाउण्ट रोड पर पर उगने वाली यह अट्टालिका कुछ आधिकारिक सूत्रों के अनुसार मात्र 350 करोड़ रुपयों की लागत से बनी है, जबकि अनौपचारिक आँकड़े बताते हैं कि यह रकम करीब 1 बिलियन डॉलर के लगभग है. हाँ, एक बात का अफसोस हो सकता है श्री अम्बानी को कि दुनिया की सबसे कीमती ईमारत होकर भी इसे फोर्ब्स पत्रिका में स्थान नहीं मिला क्योंकि यह मकान बिकाऊ नहीं है और फोर्ब्स पत्रिका बिकने वाले मकानों को उनकी कीमत के हिसाब से जगह देती है, मगर यह मकान तो लागत के आधार पर सबसे महँगा मकान है.

फोर्ब्स पत्रिका ने बताया कि आख़िरी बार सन 2009 नवम्बर में जब इस प्रकार की लिस्ट उन्होंने जारी की थी तब कैंडी स्पेलिंग के बेवर्ली हिल्स मैंशन ने सर्वोच्च स्थान पाया था, जिसकी कीमत थी 150 मिलियन डॉलर. तब से अब तक कई मकान और ईमारतें बनीं जो कीमत में कहीं ज़्यादा थी, किंतु ऐंटिलिया हर लिहाज़ से दुनिया का सबसे कीमती रिहायशी मकान है. इस कैटेगरी में वर्ष 2010 में दूसरे मकान की कीमत जो इसके कहीं भी आस पास नहीं फटकती वो मात्र 47 मिलियन से 72 मिलियन डॉलर के बीच आँकी गई है. और इस आधार पर तो ऐंटिलिया कुछ वर्षों तक तो कीमती मकानों में चोटी पर रहने वाला है, क्योंकि पहले नम्बर और दूसरे नम्बर के बीच का फ़ासला बहुत बड़ा है.

ख़ैर ऐंटिलिया में रहने जा रहे हैं अम्बानी दम्पत्ति नीता और मुकेश साथ में उनकी माँ और उनके तीन बच्चे, और हाँ 600 नौकर चाकर भी इन छः लोगों की सेवा के लिए.

Monday, November 8, 2010

छठ की छटा !

एक बड़ा ही प्रचलित मुहावरा है हमारे समाज में कि दुनिया उगते सूरज को सलाम करती है. इसका अर्थ यह है कि जो व्यक्ति सफल है अथवा उच्चपदस्थ है, उसे सब पूजते हैं, जिस प्रकार उठते सूर्य को. किंतु बिहार एक ऐसा प्रदेश है जहाँ अस्त होते हुये सूर्य की पूजा की जाती है. अपने ढंग की एक अनोखी पूजा और शायद उस कहावत का अपवाद. यह पूजा बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में छठ पूजा के नाम से जानी जाती है. दीवाली के चौथे दिन से शुरू होकर, षष्ठी को अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देने के बाद, सप्तमी के दिन उदित सूर्य को अर्घ्य देकर पारण करने के साथ, व्रत की पूर्णाहुति होती है.

आज भी बिहार में किसी नवजात शिशु के बारे में यह माना जाता है कि छठी के दिन छठी माता उस शिशु का भाग्य लिखती हैं. और छठी माता को प्रसन्न करने से अधिक हर माता अपने बच्चे की सुख और समृद्धि के लिये सूर्य को साक्षी मानकर इस व्रत का पालन करती हैं. इसीलिए इस पूजा को सूर्यषष्ठी व्रत भी कहते हैं.

पर्व का प्रारम्भ चतुर्थी के दिन से हो जाता है, जब व्रती, पुरुष या महिला, नहा धोकर स्वयम अपने हाथ से चावल, लौकी डालकर चने की दाल और आँवले की चटनी आदि बनाकर, भोजन ग्रहण करते हैं और उसके बाद ही बाकी घर के लोग खाना खाते हैं. आम तौर पर जिन घरों में पूजा होती है वहाँ इस दिन के बाद से सात्विक भोजन बनता है.

पंचमी के दिन व्रती सारे दिन का उपवास रखकर,संध्या वेला में स्नान कर लकड़ी जलाकर प्रसाद बनाते हैं. यह प्रसाद बिहार के अलग अलग हिस्सों में गुड़ की खीर या चावल दाल होता है. प्रसाद बनाकर पाँच अलग अलग मिट्टी के पात्र में रखकर , दीप जलाकर देवी की आराधना करके उनको आमंत्रित किया जाता है. पूजा के बाद, व्रती एकांत में प्रसाद ग्रहण करते हैं और शेष प्रसाद समस्त परिवार और आस पड़ोस में वितरित कर दिया जाता है. चंद्रोदय से पूर्व व्रतीको जल ग्रहण करने की अनुमति है, उसके उपरांत सप्तमी से पूर्व अन्न और जल वर्जित कहा गया है.

षष्ठी के दिन पुनः प्रसाद बनाने के काम में सारे परिवारकी महिलाएँ सहयोग करती हैं. यह प्रसाद आटे और गुड़ के मिश्रण से बना घी में पगा हुआ एक पकवान है जिसे स्थानीय बोली में ठेकुआ कहा जाता है. सम्भवतः गुड़ और आटे के मिश्रण को गूँधकर जो लोई बनती है, उसे हथेली से ठोककर घी में छान लिया जाता है. इसी ठोंकने की क्रिया से ही इस पकवान का नाम ठेकुआ पड़ा होगा. प्रसाद तैयार करने वाली महिलाएँ उपवास करके प्रसाद तैयार करती हैं.इसलिए इस काम में महिलाएँ समूह बनाकर सहयोग देती हैं, ताकि एक समूह जब भोजन करने जाए तो दूसरा समूह उनकी जगह ले सके.
संध्या वेला में सारा प्रसाद, जिसमें ठेकुआ के अलावा नारियल, केला अदि कई फल होते हैं, एक सूप में सजा दिए जाते हैं और इसी तरह कई सूपों में सजा प्रसाद एक बड़े से टोकरे, जिसे दौरा कहा जाता है, में लाल या पीले कपड़े में बाँधकर रख दिया जाता है. यह दौरा सिर पर उठाकर लोग किसी पोखर, नदी, तालाब या कोई जलाशय आदि के किनारे ले जाते हैं. इतनी श्रद्धा जुड़ी है इस पर्व के साथ कि हर कोई उस दौरे को सिर पर उठाकर अपना सहयोग देना और छठी माता के प्रति अपनी उपासना व्यक्त करना चाहता है. सारी औरतें व्रती के साथ साथ गीत गाती हुई चलती हैं. हर धार्मिक गीत की तरह इसमें भी छठ माता और सूर्य्य देव कि महिमा गाई जाती है. इन गीतों की सबसे बड़ी विशेषता इनकी धुन है. यह एक विशेष धुन है जिसे दूर से भी सुनकर, बिना गीत के शब्दों को सुने यह पता चल जाता है कि यह छठ का गीत है
नदी में जाकर व्रती स्नान करते हैं और उन्हीं गीले वस्त्रों में कमर तक नदी में खड़े होकर हाथ में प्रसाद से भरे सूप को लेकर वहीं जल में पाँच बार एक स्थान पर  परिक्रमा करते  हैं और सभी परिजन जल से अर्घ्य देते हैं. अर्घ्य देते समय यह ध्यान रखा जाता है पूरी प्रक्रिया सूर्यास्त के पूर्व सम्पन्न हो जाए. और इस प्रकार षष्ठी व्रत का समापन होता है, किंतु छठ पूजा के लिए अभी एक रात और शेष है.
सप्तमी के दिन, सुर्योदय से पूर्व उठकर सारे सूपों में प्रसाद पुनः सजाए जाते हैं तथा उनमें नए दीप रखे जाते हैं. एक बार फिर पिछले दिन की सारी प्रक्रिया दोहराई जाती है, मात्र थोड़े से अंतर के साथ. इस बार व्रती का मुख पश्चिम दिशा के स्थान पर पूर्व की ओर होता है, क्योंकि आज उदीयमान सूर्य को अर्घ्य देना है और वो भी दूध का अर्घ्य. पूरी प्रक्रिया दोहरा लेने के बाद व्रती प्रसाद खाकर और जल अथवा शर्बत आदि पीकर अपना व्रत तोड़ता है. इस प्रकार छठ पूजा सम्पन्न होती है.

मान्यताओं के अनुसार पूजा विधियों में थोड़ा बहुत परिवर्तन होता रहता है. कई बार स्थान एवं पारिवारिक परम्पराओं के कारण भी परिवर्तन देखने में आते हैं. किंतु एक बात पूरी पूजा के दौरान देखने में आती है और वो है पवित्रता. सारा शहर और लोग इस बात का पूरा ध्यान रखते हैं कि किसी भी कारण से पूजा या उससे जुड़ी कोई वस्तु अपवित्र न हो.

एक माता अपने शिशु को कोख में नौ महीने सुरक्षा प्रदान कर जीवन देती है और इस जीवन की रक्षा के लिए इतने कष्ट सहकर व्रत और उपवास रखती है. एक माता की पुकार छठ माता से. आस्था की पराकाष्ठा का एक अद्भुत उदाहरण है यह पर्व, छठ पूजा!

छठ का एक मधुर गीत आप सबके लिये :
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