सम्वेदना के स्वर

यह ब्लॉग उस सनातन उत्सवधर्मिता को जीवित रखने का प्रयास है,

जिसमें भाव रस और ताल का प्रतीक आम आदमी का भा-- बसता है.
सम्वेदनाएँ...जो कला, साहित्य, दर्शन, विज्ञान, राजनीति आदि के माध्यम से अभिव्यक्त होती हैं, आम आदमी के मन, जीवन और सरोकार से होकर गुज़रती हैं तथा तलाशती हैं उस भारत को, जो निरंतर लड़ रहा है अपने अस्तित्व की लड़ाई.....

Thursday, September 30, 2010

राष्ट्रमंडल खेलों पर अब बिफरा – सर्वोच्च न्यायालय

माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजनों में व्याप्त भ्रष्ट्राचार के मामलों में बुधवार को सरकार को फटकार लगाई। कोर्ट ने जवाहरलाल नेहरु स्टेडियम के पास फ़ुट ओवरब्रिज के ताश के पत्तों की तरह ढह जाने पर सरकार की भर्त्सना की।

न्यायमूर्ति जी. एस. सिंघवी और ए.के. गांगुली की पीठ ने कहा
“इस देश में काम हुए बिना ही भुगतान कर दिया जाता है। नवनिर्मित पुल ताश के पत्तों की तरह ढह गया। 70 हजार करोड़ रुपये की बात है। देश में इतना भ्रष्ट्राचार है। हम आंख मूदं कर नहीं बैठ सकते।“
नेहरु स्टेडियम के पास ओवरब्रिज ढह जाने पर चिंता जताते हुए पीठ ने कहा
“15 अक्टूबर तक राष्ट्रमंडल खेल सार्वजनिक मामला है । इसके बाद सब कुछ निजी हो जायेगा। “
पीठ ने यह टिप्पणी एक मामले की सुनवाई के दौरान की। उसमें आरोप लगाया गया है कि नई दिल्ली नगर पालिका परिषद (एन डी एम सी) ने संरक्षित स्मारक जंतर-मंतर के समीप एक ऊचीं इमारत बनायी है।

भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण ने आरोप लगाया है कि एन.डी.एम.सी. की इमारत कानून की अनदेखी करके बनाई गयी है। कानून के अनुसार संरक्षित स्मारक के 100 मीटर के दायरे में इस प्रकार के निर्माण पर रोक है।

सुनवाई के दौरान इस बात की ओर भी ध्यान दिलाया गया कि जंतर मंतर के समीप अन्य भवनों की इजाज़त दी गई। पीठ ने तल्ख अन्दाज में टिप्पणी कीः

"कितने बुद्धिहीन और अराजक हैं आप। न तो इतिहास के प्रति कोई सम्मान है और न संविधान के लिये। यह सरकार पूरी तरह अनैतिक है। इसके पास किसी प्रकार के मूल्य ही नहीं हैं । सिर्फ पैसे से लेना देना है। आप जंतर मंतर के स्थान पर होटल या मॉल क्यों नहीं बना देते। भारत निर्माण हो जायेगा।"
पीठ भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण द्वारा 2006 में दायर याचिका पर सुनवाई कर रही थी।

(प्रेस ट्रस्ट की खबर)

Monday, September 27, 2010

सी डब्ल्यू जी की सी.आई.डी. जाँच – भाग 2


(ब्यूरो में, पूरी टीम मौजूद है, फ्रेडरिक्स कुर्सी पर बैठा ऊँघ रहा है. विवेक कम्प्यूटर के कुछ कीज़ खटखटाता है और इंतज़ार करता है.)

विवेकः (मॉनिटर की तरफ देखते हुए) सर! इसका रिकॉर्ड तो है हमारे पास.
प्रद्युम्नः गुड! बताओ, क्या पता चला इसके बारे में.
विवेकः सर! यह सी.डब्ल्यू.जी. तो खिलाड़ियों का खिलाड़ी है. यह कुछ सालों के गैप में अलग अलग मुल्कों में दिखाई देता है और हर मुल्क में इसका काम ठेके पर एक पूरी टाउनशिप बनवाने का है. इसने हमारे देश में एक नई कॉलोनी और पूरी टाउनशिप बनवाने के लिए 2003 में टेंडर निकाला था. और यह कॉन्ट्रैक्ट एक कालमेडिल एण्ड कं. को दिया गया था. इसने यमुना के किनारे का पूरा इलाका साफ करवा कर यह कॉलोनी बनाने की जगह देखी थी.

दयाः और सर, यमुना किनारे उसी कॉलोनी से हमें वह बॉडी मिली है.
अभिजीतः अब समझा उस के वॉलेट से निकले कागज़ के टुकड़े पर जो “काल” लिखा था उसका मतलब है कालमेडिल एण्ड कं.
प्रद्युम्नः (हँसते हुए) हा हा हा! अभिजीत!! अब मेरी समझ में सब बातें आ गईं. काल का मतलब है कालमेडिल एण्ड कं., 114 का मतलब है कि इस कम्पनी ने कॉन्ट्रैक्ट की रकम से 114 गुना ज़्यादा ख़र्च कर दिया और इसपर अब तक 70000 करोड़ रुपये ख़र्च हो गये हैं. याद है अभी हाल ही में किसी विदेशी चैनेल ने यह ख़बर दिखाई थी… (उँगली घुमाते हुए) क्या नाम था उसका..!
विवेकः उसका नाम माइक था सर! इस कम्प्यूटर में ये सारी बातें भी हैं.
दयाः हो न हो यह किसी ब्लैकमेलिंग का केस लगता है. कॉन्ट्रैक्टर ने इस सी डब्ल्यू जी को और कीमत देने के लिए ब्लैकमेल किया होगा. वह और पैसे नहीं देना चाह्ता होगा, क्योंकि पहले ही सत्तर हज़ार करोड़ रुपये ख़र्च हो चुके हैं. तो उसने कोर्ट की धमकी दी होगी और फिर कालमेडिल एण्ड कं. के पार्टनर्स ने इसका ख़ून करने की कोशिश की होगी.
अभिजीतः विवेक! पता लगाओ, इतने सारे रुपये ख़र्च कहाँ कहाँ हुए और क्या क्या काम हुए. क्योंकि एक पूरी टाउनशिप पर होने वाले ख़र्च का कुछ तो हिसाब होगा.
ताशाः सर यही तो सारा खेल है कि काम के हिसाब से ख़र्च ज़्यादा बताया है और हिसाब के नाम पर कोई रिकॉर्ड नहीं. मुझे तो लगता है कि यही फ़साद कि जड़ है.
अभिजीतः एक काम करो. इस कम्पनी के जितने भी ऑफिसर्स हैं, उन सबकी लिस्ट चाहिए मुझे. देखते हैं इसमें से कौन है असली अपराधी.
प्रद्युम्नः कोई भी हो अभिजीत, सी आई डी से बचकर कहाँ जाएगा.
विवेकः (चिल्लाता हुआ) सर इस पूरी कम्पनी में सिर्फ एक औरत है जिसका नाम है मिस डी. पूरा नाम कहीं भी नहीं आया है. लेकिन इसका उठना बैठना काफी बड़े लोगों में है. बताते हैं बहुत सख़्त टाइप की औरत है और बगैर इसकी मर्ज़ी से इस कम्पनी में कोई पत्ता भी नहीं हिलता.
प्रद्युम्नः तुम लोग एक काम करो. यमुना किनारे जो कॉलोनी बनी है वहाँ जाकर देखो,एक एक फ्लैट,एक एक कमरे को छान मारो. कुछ न कुछ तो मिलेगा ही वहाँ.

(पूरी टीम ब्युरो से बाहर निकल जाती है. अगले सीन में सब के सब यमुना के किनारे बनी एक नई टाउनशिप में दिखाई देते हैं)


ताशाः सर यह तो बिल्कुल नई कॉलोनी है.
अभिजीतः किसी एक कमरे में देखते हैं कि कुछ पता चल सकता है क्या.

(सभी हाथ में अपनी अपनी पिस्तौल निकालकर दरवाज़े को धकेलते हैं. दरवाज़ा खोलते ही अंदर से कुछ कुत्ते निकल कर भाग जाते हैं)

प्रद्युम्नः सब लोग फैल जाओ और अच्छी तरह जाँच करो. देखो यहाँ कुछ मिलता है क्या!
फ्रेडरिक्सः सर यहाँ आइए! बिस्तर पर कुछ बाल और कुछ अजीब से निशान मिले हैं.
अभिजीतः सर! यह तो कुत्तों के पंजों के निशान हैं. और बाल भी शायद उन्हीं कुत्तों के हों. क्योंकि बालों का रंग भूरा है और अभी यहाँ कोई विदेशी नहीं आया है रहने.
 प्रद्युम्नः बालों को फॉरेंसिक लैब भिजवा दो, इसका डीएनए टेस्ट करवा के देखते हैं.
दयाः (दूसरे कमरे से) अभिजीत! इधर आओ. ये देखो क्या हो रहा है यहाँ.

(सब दूसरे कमरे जाते हैं, जहाँ खुली खिड़की से बाहर का दृश्य दिखाई देता है)

दयाः वो देखो, चार पाँच लोग मकान की दीवार पर पेशाब कर रहे हैं.
फ्रेडरिक्सः सर, वो जो आदमी मुड़ा है अभी, उसके गले में आई कार्ड झूल रहा है. (पढने की कोशिश करते हुए) अरे! ये तो कालमेडिल एण्ड कं. के ऑफिसर्स हैं.
प्रद्युम्नः बुलाओ इन सभी को ब्यूरो में. ज़रा इनसे पूछ्ते हैं कि मामला क्या है.

(कालमेडिल कं. के सारे ऑफिसर्स एक गोल मेज के चारों ओर बैठे हैं और उनसे पूछताछ चल रही है)

अभिजीतः ये क्या चल रहा है आपके बनाए नए क्वार्टर्स में. विदेशियों के लिए जो बेड हैं, उनपर कुत्ते सो रहे हैं, और हमने अपनी आँखों से देखा है, आप सब को उन क्वार्टर की दीवारों पर पेशाब करते हुए.
1 अधिकारीः देखिए आपको पता है कि हमारे देश कि 70% जनता खुले में यह सब काम करती है. फिर हम भी तो उसी देश के नागरिक हैं, इसमें बुराई क्या है.
दयाः अभी ये हाथ पड़ेगा तो सब बुराई समझ में आ जाएगी. वो जगह तेरे लिए नहीं, विदेशियों के लिए है. इस अनहाइजीनिक माहौल में रखेगा उनको.
1 अधिकारीः उनके और हमारे हाइजीन के स्टैंडर्ड में बहुत फ़र्क है. हमें तो अपने हिसाब से सब देखना पड़ता है. हम कहाँ बीमार होते हैं, इन सब से.
2 अधिकारीः और आप हाथा पाई मत कीजिए, हम इज़्ज़तदार लोग हैं. आप जिनसे बात कर रहे हैं वो देश के अंदर की सारी धोखाधड़ी की जाँच करते हैं. और आप की जाँच भी यही करेंगे.
प्रद्युम्नः हमें धमकी देता है. सी आई डी को धमकी देता है. ये वही है न जिसके ऊपर ख़ुद भ्रष्टाचार के मुक़दमे चल रहे हैं.
2 अधिकारीः सब बकवास है, उन सब मामलों से यह बरी हो गए हैं.
विवेकः (अपने कम्प्यूटर पर खटखटाते हुए) सर! इनके ऊपर अठारह साल से एक मुकदमा अभी भी चल रहा है, उसमें इसको अभी तक बरी नहीं किया गया है.
प्रद्युम्नः (उँगली घुमाते हुए) देखा, सारी जनमपत्री है तेरी हमारे पास.
ताशाः सर! अभी अभी ख़बर मिली है कि इस कम्पनी ने टाउनशिप के लिए जो छोटा पुल बनाया था, वो टूट कर गिर पड़ा और कई लोग घायाल भी हो गए.
3 अधिकारीः ऐसी घटनाएँ होती रहती है, और हमने उन मज़दूरों को भर्ती भी करवाया है हस्पताल में. हम मज़दूरों का पूरा ख़याल रखते हैं.
फ्रेडरिक्सः (हाथ में काग़ज़ लेकर पढते हुए) अभिजीत! अभी अभी फैक्स आया है, हमारे ख़बरी ने भेजा है. इसके मुताबिक़ जहाँ मज़दूरों को रु.203 हर रोज़ के मिलने चाहिए, वहाँ ये कालमेडिल कम्पनी के लोग सिर्फ 103 रुपये रोज़ की पेमेंट कर रहे हैं.
विवेकः ये देखिए सर! ये मेल अभी तुरत आई है. टाउनशिप के कम्युनिटि हॉल की छ्त का एक हिस्सा अंदर से गिर पड़ा.
प्रद्युम्नः अब क्या कहना है तुम्हारा! ये सब रोज़ होने वाली छोटी छोटी घटनाएँ हैं.
3 अधिकारीः (सिर झुकाकर) सर! अब हम क्या कहें,हमारे बस में जो था वो हमने किया है. यह सब कालमेडिल साहब के हुक़्म से हुआ है.
फ्रेड्रिक्सः (धीरे से एसीपी के कान में कहता है) सर! अभी अभी मैडम डी का फोन आया है. उन्होंने कहा है कि ये सब कालमेडिल का किया है और हम जब यह पूरा प्रोजेक्ट सी डब्ल्यू जी को सौंप देंगे तब इस बकरे को हलाल कर दिया जाएगा.
प्रद्युम्नः हम किसी को कानून हाथ में नहीं लेने देंगे. और यह प्रोजेक्ट सी डब्ल्यू जी के हवाले होगा कैसे, उसके पहले तो तुमने उसे ब्लैकमेल करने और क़त्ल करने की कोशिश की… अभी तक वो बेचारा कोमा में है.
अभिजीतः वो भी बेचारा नहीं है सर. अभी ग्रीस में पिछले दिनों इसके बड़े भाई ओलिम्पिक ने ठीक ऐसी ही टाउनशिप बनवाने का खेल खेला था और वहाँ की इकोनॉमी पूरी तरह डूब गई.
दयाः अमिताभ बच्चन ने भी इसका साथ दिया था एक छोटी सी कॉलोनी बनाने में,और यह उनको ऐसा लूट ले गया कि बरसों लग गए उनको सम्भलने में.
प्रद्युम्नः (सोचते हुए, छत की तरफ देखकर) माई गॉड!! इतनी बड़ी साज़िश!!

(तभी फोन बजता है, और उधर से फोन पर आवाज़ सुनाई देती है)

आवाज़ः क्या आप ए सी पी प्रद्युम्न बोल रहे हैं?
प्रद्युम्नः यस प्लीज़! आप कौन?
आवाज़ः देखिए मैं सिटी हॉस्पिटल से बोल रही हूँ. आपके पेशेंट को होश आ गया है. आप फौरन यहाँ चले आइए.

(फोन रखने की आवाज़, और सारे ऑफिसर्स भागते हुए बाहर निकल जाते हैं. अगले सीन में हॉस्पिटल की लॉबी और डॉक्टर के लिबास में एक आदमी प्रद्युम्न से मुख़ातिब)

डॉक्टरः (दूसरे की डब की हुई आवाज़ में) देखिए सर, इसकी हालत में बहुत तेज़ी से सुधार हो रहा है. इसे आप चमत्कार ही कहिए, या लोगों की प्रार्थना.
अभिजीतः क्या हम लोग उससे मिल सकते हैं?
डॉक्टरः जी नहीं! अभी वो होश में नहीं है. लेकिन दवाएँ अपना काम कर रही हैं. जितने ज़ख़्म हैं उनपर किसी तरह पट्टियाँ लगाकर उनको बंद कर दिया गया है. अंदरूनी चोटों को भी किसी तरह हमने दबा दिया है. अब अगर यह तीन अक्तूबर तक होश में आ गया, तो समझिए कि पंदरह दिन तक इसके ठीक हो जाने की पूरी गारण्टी है.
प्रद्युम्नः थैंक्स डॉक्टर! वैसे भी इसका वीसा 18 तारीख़ के बाद समाप्त होने वाला है.
दयाः लेकिन सर! हम इस केस में किसी को पकड़ नहीं पाए.

प्रद्युम्नः जब मौत हुई ही नहीं तो क़त्ल कैसा..और जब क़त्ल नहीं तो ख़ूनी कहाँ से लाओगे. अफसोस तो इस बात का है यह 18 तारीख के बाद फिर से फ़रार हो जाएगा और फिर से यही खेल पता नहीं कहाँ और किस नाम से खेलेगा. किस मुल्क को तबाह करेगा और कोई इसका कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा. कभी सोचा है इंसान जब अपने कमाए पैसे अपने लिए ख़र्च करता है, तो उसकी वैल्यू देखता है, दूसरे के लिए करता है तो कीमत देखता है. लेकिन जब दूसरे के पैसे, किसी और पे ख़र्च करना हो तो कुछ नहीं देखता.
(समाप्त)

पुनश्चः इस नाटक के सारे पात्र, स्थान तथा घटनाएँ काल्पनिक हैं. किसी भी व्यक्ति, जीवित अथवा मृत, स्थान या घटना से अगर कोई भी मेल पाया जाता है तो वह मात्र सन्योग होगा!

Saturday, September 25, 2010

डॉ. कन्हैया लाल नंदन – एक श्रद्धांजलि

(जन्मः 01 जुलाई 1933 निधनः 25.09.2010)


ज़िंदगी चाहिए मुझको मानी भरी
चाहे कितनी भी हो मुख़्तसर चाहिए.

और अगर सतहत्तर साल की ज़िंदगी को मुख़्तसर कहें तो, यह कहना पड़ता है कि इस मुख़्तसर सी ज़िंदगी के सफ़र का वह मुसाफिर, चल पड़ा है एक अनजान से सफ़र पर. शायद दुआ क़बूल हो गई उस परमपिता के दरबार में. एक मुख़तसर सी ज़िंदगी और सचमुच मानी भरी ज़िंदगी. आज 25 सितम्बर 2010 को सुबह 03:10 बजे डॉ.कन्हैया लाल नंदन की आत्मा ने शरीर त्याग दिया, चोला माटी का.

डॉ. नंदन का जुड़ाव हम अपने बचपन और बड़े होने के उन दिनों में पाते हैं जब हम धीरे धीरे बुद्धिजीवि होने लग पड़े थे. बचपन में टाइम्स ऑफ इण्डिया की पत्रिका पराग, शायद आज भी रची बसी है, हमसे और हमारे बचपन से. फिर आया धर्मयुग का युग. एक मुकम्मल पत्रिका, जिसमें कहानी, कविता, लेख, उपन्यास का ऐसा ख़ूबसूरत ब्लेंड देखने को मिलता था कि आज भी उस पत्रिका के ख़ालीपन को कोई नहीं भर पाया. दिनमान हिंदी में समाचार की सम्पूर्ण पत्रिका. याद है जब ख़बरों और ख़ास तौर पर हिंदी ख़बरों के लिए बीबीसी पर भरोसा था, ऐसे में प्रिंट मीडिया में हिंदी ख़बरों के लिए बस दिनमान.

हिंदी पत्रकारिता और साहित्य यह दिनमान, कन्हैया लाल नंदन आज प्रातः काल ही अस्त हो गया. यह वास्तव में साहित्य जगत की अपूरणीय क्षति है. ख़ास कर तब, जब हम इस माह को हिंदी माह के तौर पर मना रहे हैं.

पहली जुलाई 1933 को उत्तर प्रदेश के फतेहपुर ज़िले में जन्मे कन्हैया लाल जी, श्री यदुनंदन तिवारीजी के कुलदीपक थे. बीए,एम ए और फिर पीएच डी करके डॉक्टर कन्हैया लाल नंदन हुए. पत्रकारिता की, उपन्यास, लेख और कविताएँ लिखीं. कितने पुरस्कार और सम्मान हासिल किए. बचपन से रामलीला में अभिनय करना और गीत संगीत की मंडली में शामिल होना. गाते भी बहुत अच्छा थे और जैसा कि हर कलाकार के साथ होता है, राम लीला में अभिनय भी करते थे.

लक्षमण का रोल मिला तो ख़ुश हुए कि चलो सीता के रोल से छुटकारा मिला. मगर जब इनके तिवारी जी की साइकिल ठगों ने चोरी कर ली और तमाम कोशिशों के बाद भी जब ये बचा नहीं पाए, तो इन्होंने रामलीला छोड़ दी. कहने लगे जब तिवारीजी की साइकिल नहीं बचा सका तो लक्षमण बनने का क्या फ़ायदा.

मंच पर कविता पाठ का इनका अंदाज़ बहुत ही शांत था. गम्भीर कविताएँ पढते हुए भी इनके मुख पर एक शालीन मुस्कुराहट हमेशा दिखाई देती थी.चश्मे के अंदर से झाँकती इनकी आँखों में एक अजीब सी शोखी थी, जो इनके ज़िंदादिल होने का ज्वलंत प्रमाण थी.

वे आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन जो रिश्ता उन्होंने हमारे बचपन से जोड़ा था वो शायद एक पत्थर पर बनी लकीर है, जिसे हमारे दिल से मिटाना सम्भव नहीं.

ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे!!

एक कविताः

ज़िन्दगी की ये ज़िद है
ख़्वाब बन के
उतरेगी।
नींद अपनी ज़िद पर है
- इस जनम में न आएगी
दो ज़िदों के साहिल पर
मेरा आशियाना है
वो भी ज़िद पे आमादा
-ज़िन्दगी को
कैसे भी
अपने घर
बुलाना है।

-कन्हैया लाल नंदन

Thursday, September 23, 2010

सी डब्ल्यू जी की सी.आई.डी. जाँच – एक्सक्लूसिव इसी ब्लॉग पर!

(बारिश का अंधेरा, हल्की बूँदा बाँदी, सड़क पर जमा हुआ पानी, कीचड़ और टूटी हुई सड़कों पर तेज़ी से दौड़ती हुई एक बड़ी जीप सड़क ख़ाली होने के बावजूद भी ज़ोर से ब्रेक लगाकर चींईईईईईईईई की आवाज़ के साथ रुकती है और उससे बाहर निकलते हैं अभिजीत, दया, प्रद्युम्न और पूरी टीम.)

दयाः किसने फोन किया था सी आई डी को!
एक पहरेदारः (किसी दूसरे की डब की हुई आवाज़ में)सलाम साब! मैंने ही आपको फोन किया था. इधर आइए लाश यहीं पड़ी है.
(सभी पहरेदार के साथ आगे बढते हैं)
अभिजीतः (डाँटते हुए) तुम यहाँ सो रहे थे! तुम्हारे होते यह लाश यहाँ कैसे आई. किसकी है यह लाश!
पहरेदारः सर मैं तो कहीं नहीं गया ड्यूटी छोड़कर. बस दो मिनट के लिए पेशाब करने गया था.
दयाः साले ड्यूटी पर ही पेशाब लगती है तुझे और इधर तेरे पीछे किसी का ख़ून हो गया.
(तब तक ज़मीन पर पड़ी हुई लाश, दिखाई दे जाती है. लाश देखते ही सारे ऑफिसर अपने अपने जेब से सफ़ेद दस्ताने निकालकर पहनने लगते हैं)
अभिजीतः (पहरेदार से) तेरी ड्यूटी कितने बजे शुरू होती है? और तूने लाश कब देखी?
पहरेदारः (डरता हुआ) सर! मैं रात दस बजे ड्यूटी पर आया और आते ही पूरे एरिए का मुआयना किया. फिर जाकर अपने ड्यूटी रूम में बैठ गया. रात बारह बजे तक मैं हर घंटे घूमकर देखता रहा. बारह बजे, जब मैं इधर आया तो मुझे कुछ दिखाई दिया यहाँ पर जो पहले नहीं था. पास आकर देखा तो यह लाश पड़ी थी.
(अचानक उधर से विवेक के चीखने की आवाज़ आती है)
विवेकः सर! यह देखिए! लाश की जेब से यह आई कार्ड मिला है. इसपर नाम की जगह लिखा है सी.डब्ल्यू.जी 2010.
अभिजीतः देखना विवेक, कोई फोटो लगी हऐ क्या?
विवेकः सर! फोटो की जगह एक शेर की तस्वीर लगा रखी है इसने. ये कैसा आई डी कार्ड है?
प्रद्युम्नः (अपनी उँगली नचाकर गोल गोल दायरा बनाते हुए) यह नाम कुछ सुना सुना लगता है. कहाँ सुना है...कहाँ सुना है... याद करने दो. ह्ह्ह्ह्हहाँ ! अब याद आया. यह लाश कॉमनवेल्थ गेम्स 2010 की है. वही कहूँ कि यह नाम सुना सुना लगता है. फ्रेडरिक्स लाश की तस्वीरें खींच लो हर तरफ से!
फ्रेडरिक्सः (डरकर मुँह बनाता हुआ) सर जब पहरेदार ने कुछ नहीं देखा, तो मुझे ये भूत का या आत्मा का काम लगता है. और आत्मा की फोटो नहीं आती.
प्रद्युम्नः फ्रेडरिक्स! तुम अपना काम करो वर्ना तुम्हारी बीवी को बताना पड़ेगा कि तुमने चॉकलेट खानी फिर से शुरू कर दी है.
फ्रेडरिक्सः सर प्लीज़! मेरी बीवी को मत बताइएगा, वर्ना रात को सारे बरतन मुझे ही साफ करने पड़ेंगे.
अभिजीतः कुछ और मिला लाश की जेब से!
ताशाः सर लाश की पूरी जेब ख़ाली है. पर्स में भी सिर्फ आई कार्ड ही मिला है. हाथ में घड़ी छोड़ दी है ख़ूनी ने.
प्रद्युम्नः घड़ी को ग़ौर से देखो ताशा. अगर घड़ी रुकी हो तो हमें क़त्ल के समय का पता चल सकता है.
ताशाः सर! ये घड़ी भी अजीब है. इसमें सिर्फ काउण्ट डाउन चल रहा है और वो भी दिनों में. डायल पर लिखा है डे’ज़ लेफ्ट और नीचे घड़ी बता रही है 15.
दयाः शायद इसीलिए क़ातिल ने यह घड़ी लाश के हाथ में छोड़ दी है. यह उल्टी घड़ी क़ातिल के किस काम की.
प्रद्युम्नः लगता है किसी ने पैसे के लालच में ख़ून किया है. इसे लूटकर, इसकी लाश यहाँ सुनसान में डाल गया.
अभिजीतः ए सी पी साहब! लाश के बदन पर किसी मार पीट या चोट के निशान नहीं हैं. ज़मीन पर भी ख़ून के या हाथापाई के निशान नहीं दिखते हैं.
प्रद्युम्नः (शून्य में सोचते हुए अपनी उँगलियाँ नचाते हुए) नहीं अभिजीत, यह कोई गहरी साज़िश है. क़त्ल कहीं और हुआ और लाश यहाँ डाल दी गई. और क़ातिल ने लाश को डालने के लिए बहुत कम समय लिया है. जबतक पहरेदार पेशाब करके वापस आया, क़ातिल अपना काम कर चुका था.
अभिजीतः फ्रेडरिक्स तुम लाश को डॉ. साळुंके के पास भिजवाओ और लाश की तस्वीरें लेकर आस पास की लोकैलिटी में पूछ्ताछ करो,किसी ने इस लाश को यहाँ लाते हुए देखा है किसी को.
प्रद्युम्नः यह भी पता लगाओ कि किसी थाने में इसके लापता होने की खबर लिखवाई गई है क्या!
++

(फॉरेंसिक लैब का दृश्य, जिसमें डॉ. साळुंके और उनकी सहयोगी डॉ. तारिका लाश पर झुके हैं, आस पास कुछ रंगीन लिक्विड्स काँच के बीकर में उबल रहे हैं और उनसे धुँआ निकल रहा है, अचानक तेज़ चाल से एसीपी का प्रवेश और उसके साथ पूरी टीम, अभिजीत तिरछी नज़रों से तारिका को घूर रहा होता है.)

प्रद्युम्नः साळुंके! कुछ बात हुई इस लाश के साथ तुम्हारी. कुछ कहा इस लाश ने.
साळुंकेः बॉस! इसे लाश कहकर तुम इसकी तौहीन कर रहे हो. यह एक ज़िंदा जिस्म है, बस कोमा में है और इसकी धड़कनें इतनी धीमी हैं कि तुम महसूस भी नहीं कर सकते.
प्रद्युम्नः क्या बकते हो!
साळुंकेः बकता नहीं बॉस, अपनी आँखों से देख लो.

(साळुंके लाश के ऊपर एक भारी भरकम कैमेरे के जैसा कोई यंत्र लगाता है, और कुछ प्लग कम्प्यूटर से जोड़कर सिर्फ एक बार एण्टर की दबाता है. यंत्र से एक चमकीली हरी लाल सी रोशनी निकलती है और धीमी गति से लाश तक जाती है. मॉनिटर पर एक ग्राफ बनने लगता है)

तारिकाः यह जो ग्राफ में रह रहकर जो पीक बन रही है ना, नॉर्मल ग्राफ से ऊपर, यह इस आदमी के दिल की धड़कन है. बस यही सोच लीजिए कि यह दिल नॉर्मल दिल की धड़कन से दस हज़ारवें हिस्से के बराबर धड़क रहा है.
अभिजीतः (तारिका को अजीब सी नज़रों से घूरता हुआ) तारिका जी आपको देखकर तो मुर्दों के दिल भी धड़कने लगते हैं.
साळुंकेः अभिजीत, यह मामला बहुत सीरियस है. इसके जिस्म पर अंदरूनी चोट के निशान मिले हैं. ख़ास कर दिल पर. और एक काग़ज़ का टुकड़ा भी मिला है, पर्स के अंदरूने हिस्से से चिपका हुआ, पर लिखावट नहीं पढी जा रही.
प्रद्युम्नः कैसे डॉक्टर हो तुम जब वो लिखाई नहीं पढ सकते. कोशिश करो.
(साळुंके उस कागज़ को एक वाच ग्लास पर रखता है और उसपर कुछ रंगीन पानी डालता है जेट से. फिर उस कागज़ को आँच पर सुखाता है और कैमेरे के क्लोज़ अप में कुछ अक्षर दिखने लगते हैं)

दयाः (पढने की कोशिश करते हुए) कुछ नम्बर हैं 114 ; 70000 और कुछ नाम हैं काल... आगे पता नहीं चल रहा.
अभिजीतः काल भैरव तो नहीं!
दयाः फटा हुआ है कागज़, नीचे लिखा है यमुना, कमिटी और इसी तरह के टूटे फूटेशब्द.
प्रद्युम्नः (उँगली गोल घुमाते हुए) कुछ तो गड़बड़ है... काल, कमिटी और यमुना... यह यमुना के ईलाके के पास का केस हो सकता है. बॉडी भी तो हमें वहीं से मिली थी.
अभिजीतः सर! यमुना के किनारे जो कॉलोनी बन रही है, वो इसी आदमी की है, कॉमन वेल्थ गेम्स 2010. आपको याद होगा कि मौक़ा ए वारदात पर पर इसी नाम के पोस्टर लगे हुए थे.
प्रद्युम्नः चलो ब्यूरो चल कर रेकॉर्ड चेक करते हैं.

(पूरी टीम फॉरेंसिक लैब से बाहर निकल जाती है.)

क्रमश:..........

Monday, September 20, 2010

अतिथि देवो भवः, आमिर खान और एक लघुशंका

सन् 1984… स्थान कलकत्ता.

मैं अपने कुछ मित्रों के साथ ट्रेनिंग पर गया था. रविवार के दिन, बस ऐसे ही भटक रहे थे सड़क पर, दुकानों और मकानों को देखते हुए. मेरे एक दोस्त को लघुशंका महसूस हुई. कुछ देर उसने सहा और फिर हॉस्टेल लौट चलने को कहा. हमने आस पास नज़र दौड़ाई, मगर कहीं कोई सार्वजनिक शौचालय नहीं दिखाई दिया. दुकान में पूछा तो मना कर दिया. इधर मेरे मित्र की हालत ख़राब हो रही थी. तभी मुझे एक घर दिखाई दिया, जिसमें बाहर एक शौचालय था. लेकिन यह बाहर भी घर के अहाते के अंदर था और घर के अंदर जाते गलियारे के अंत में था. मैंने फाटक खोलकर उसको कहा कि तुम जाओ,मैं बाहर खड़ा होकर निगरानी करता हूँ. कोई आएगा तो देखा जाएगा कैसे निपटना है, पहले इस समस्या से तो निपटें. जब वो बाहर आया तो बादशाह अकबर के समान सबसे सुखद अनुभूति को प्राप्त कर लौटा था.

सन् 2000… स्थान कोलकाता.

मेरा ऑफिस रसेल स्ट्रीट पर था, जो बस कुछ फर्लॉन्ग पर कोलकाता की मशहूर पार्क स्ट्रीट से मिलती है. मैं सड़क के किनारे खड़ा सामने क्वींस मैंशन की तरफ देख रहा था और शायद अपने किसी दोस्त का इंतज़ार कर रहा था. तभी एक टैक्सी आई और सड़क के किनारे पर मुझसे कुछ दूरी पर खड़ी हो गई. टैक्सी का ड्राइवर वाला दरवाज़ा फुटपाथ पर खुला और ड्राइवर को निकलते मैंने देखा, पर वो दरवाज़े के नीचे छिप गया. थोड़ी देर में जब वो खड़ा हुआ तो मुझे फिर दिखा. वो ड्राइविंग सीट पर बैठा और टैक्सी भगाता हुआ चला गया. तब मुझे पता चला कि दरवाज़े की आड़ में उस बिचारे ने प्रकृति की पुकार का जवाब दिया और चला गया.

सन् 2010… स्थान सम्पूर्ण राष्ट्र (कोई भी टीवी चैनेल).

एक अभिजात्य वर्ग की महिला, अपनी महंगी गाड़ी से उतर कर, अपने छोटे बच्चे को एक पुल के साइड में पेशाब करवाते हुई दिखाई देती हैं. यह दृश्य एक विदेशी बड़े आश्चर्य से देख रहा होता है। इसके बाद आमिर खान अपना संदेश देश वासियों को देते है और कहते हैं कि हमारी इन हरकतों पर विदेशी हमें क्या समझेंगे? देश की यह कैसी तस्वीर हम पेश कर रहे हैं, सारी दुनिया के सामने. जैसा कि स्पष्ट है, “अतिथि देवो भव:” विज्ञापन श्रृंखला पर्यटन विभाग के द्वारा प्रसारित की जा रही है, जिनकी पृष्ठभूमि कॉमनवेल्थ खेलों के दौरान आने वाले लोगों के बीच देश की छवि पेश करने को लेकर है.
छब्बीस सालों में कुछ नहीं बदला. यहाँ तक कि परिस्थितियाँ भी वही हैं. कोई अपनी प्रकृति को यह नहीं कह सकता कि अभी मैं बाहर जा रहा हूँ, मुझे मत पुकारना, क्योंकि तुम्हारी पुकार को अनसुना भी नहीं कर सकता और जवाब तो अनसुना करने से भी मुश्किल काम है. रावण तक से बर्दाश्त नहीं हो पाया था और वह शिव को कंधे से उतार कर बैठ गया, हम तो अति साधारण, तुच्छ मनुष्य हैं.

आमिर खान को तो मिस्टर पर्फेक्शनिस्ट के नाम से जाना जाता है और “अतिथि देवो भवः” के ब्राण्ड एम्बेसेडर हैं वो. पर याद आती है उनकी हाल की ही फिल्म पीपली लाइव जिसमें भारत का एक कटु सत्य एक पात्र के मुँह से कहलवाया गया है कि भारत की 70% जनता खुले मैदान में शौच करती है.

आश्चर्य तो इस बात का है कि भारत का यह सच सुनकर हम ज़रा भी विचलित नहीं होते, मगर इंडिया में सड़क किनारे मात्र लघु शंका के ऐसे दृश्य विचलित करने लगते हैं? दरअसल भारत में अभी भी अधिकांश जगह पर शौच की व्यवस्था नहीं है और खुले में शौच पर जाना मजबूरी है. इण्डिया ने इसे सहज और स्वाभाविक मान लिया है, जबकि इण्डिया में ऐसा होना व्यवस्था की “शौच-नीय” स्थिति को दर्शाता है। दिल्ली का दिल कहे जाने वाले कनॉट सर्कस के चेहरे को ऊँचा (फेस लिफ्टिंग) कर दिया गया लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त यही है कि कहीं भी इस शंका का समाधान गृह नहीं है.

ज़रा सोचिए!! हमारे शहरों में बाजारों में लघुशंका के लिये उचित स्थान कितनी जगहों पर हैं? और बिना समाधान के इस नेचर्स कॉल के लिये मना करना किस हद तक उचित है?

Thursday, September 16, 2010

बच्चों से बातें करना


बच्चों से बातें करना
वेद पुराण उपनिषद का पढ़ना.
दिल की कहना दिल की सुनना
उन्मुक्त निडर नदिया सा बहना.
दुनिया को पैरों में रखना
पैरों को सर पर रख लेना,
सर को फिर ज़मीन पर रख कर
एक कलाबाज़ी खा जाना.
गोल गोल दुनिया के चक्कर

उनसे सदा सहज ही बचकर
अपनी दुनिया अलग बसाना
बच्चों ने बचपन से जाना.
ज़रा ग़ौर से देखें हम जो
बच्चों की नन्हीं दुनिया को
सहज भाव से भरी हुई है.
प्रेम सहज है, क्रोध सहज है
जीवन का हर छन्द सहज है
प्रीत का एक धागा ऐसा है
रोते रोते वो हँस पड़ता.

बच्चों के भावों में खोजें
एक अलौकिक ज्ञान मिलेगा
कर्ता-कर्म का द्वंद्व न होगा
पल पल का विस्तार मिलेगा.
हम सब भी तो बच्चे ही थे
इसी भाव में रचे बसे थे
फिर हमको क्या हो जाता है
वो बच्चा क्यों खो जाता है.
तत्व प्रश्न जीवन का यह है
इसका उत्तर कठिन है मिलना

बच्चों से बातें करना
वेद पुराण उपनिषद का पढ़ना.

Tuesday, September 14, 2010

नाम अमर करने की चाह

कभी सोचा न था कि रोशनी और आवाज़ का जादू ऐसा भी होता है.एकबारगी सैकड़ों साल पीछे चली गई ज़िंदगी और टाइम मशीन पर सवार हम भी साथ साथ.हम यानि मेरा और चैतन्य जी का परिवार. जगह, दिल्ली का लाल किला और जिस बारे में मैं बात कर रहा हूँ, वो है लाइट एण्ड साउण्ड का प्रोग्राम. रोशनी और आवाज़ का ऐसा संगम कि मानो मुग़ल सल्तनत का हिस्सा हों हम सब. घंटे भर का प्रोग्राम बाँध लेता है सारे दर्शकों को.

अब चाहे कितनी भी कंट्रोवर्सी हो मुझे ये इतिहास (हालाँकि पढा कभी नहीं) की गवाह ईमारतें, क़िले, मक़बरे, मंदिर वगैरह हमेशा से अपनी तरफ खींचते हैं. पूरा अल्बम भरा पड़ा है ऐसी तस्वीरों से, उसपर श्रीमती जी के ताने कि इनको तो बस खंडहरों की तस्वीरें खींचनी हैं, हमारी तस्वीर एक भी नहीं होगी. और बात सच भी है बहुत हद तक.

मैं अपने मन की बात बताऊँ. मैं यह नहीं कहता कि मैं सही हूँ या ग़लत, बस ये मेरे मन की बात है. मुझे लगता है कि चित्तौड़ के क़िले के सामने मेरी पत्नी की तस्वीर रानी पद्मिनी की आत्मा का अपमान है, जैसे ताजमहल के सामने खड़ा मैं, शाह्जहाँ की बेइज़्ज़ती करता दिखता हूँ. लेकिन अगर ये बात मैंने कहीं और कही होती, बग़ैर ऊपर वाले डिस्क्लेमर के, तो लोग हँसते मुझपर. पर मुझे इसकी परवाह नहीं. वैसे भी बहुत से बेवक़ूफ़ी भरे उसूल पाल रखे हैं मैंने, एक और सही.

एक रोज़ ऐसे ही एक पुराने क़िले में घूमते हुए, मुझे एक कराह सुनाई दी. मैं घबरा गया. बग़ैर लाइट के साउण्ड सुनकर और वो भी बिना टिकट, कोई भी डर जाएगा. देखा वास्तव में उस कराह की आवाज़ उस क़िले की दीवारों से आ रही थी. अब घबराहट कम और उत्सुकता बढ गई थी. मैंने हिम्मत करके पूछा, “कौन है?”

“मैं इस क़िले का मालिक हूँ. दरवाज़े पर तुम्हें कोई नाम की तख़्ती दिखाई दी?”

“नहीं तो. क़िले के दरवाज़े पर नाम की तख़्ती… मैं कुछ समझा नहीं!”

“अरे भाई! जब इस क़िले का मालिक होकर मैंने अपने नाम की तख़्ती नहीं लगाई, तो तुम लोग क्यों अपने नाम की तख़्ती मेरी दीवारों पर लगा जाते हो. मरे लोगों की आत्माओं को तो बख़्श दो, जब हम तुम्हें परेशान नहीं करते, तो तुम क्यों हमें परेशान करते हो!”

बात चुभ गई दिल में. रात सोने गया तो नींद नहीं आई. करवटें बदलते हुए उठ बैठा और घर की बालकनी में चला आया. उस सन्नाटे में भी वो आवाज़ मेरे कान के पर्दे चीर रही थी. और तब शुरू हुआ मेरे मन के अंदर लाइट और साउण्ड का प्रोग्राम. जहाँ एक ओर सिर्फ कराह थी और दूसरी ओर न जाने कितने क़िले, स्मारक, मक़बरे और मंदिर मेरे अल्बम से बाहर निकल कर मेरे सामने खड़े थे. उनकी दीवारें, राष्ट्रीय एकता का साइन बोर्ड बनी थीं. दीवारों पर चाकू से किसी ने गोद रखा था शंकर और उसके पास ही रुख़साना,एक तरफ फिरोज़ के साथ थी जूली और जोजेफ के साथ मालती.

कितने मोहब्बत के अफसाने लिखे थे उन दीवारों पर पापू लव्स रेनू, जसबीर के दिल की तस्वीर में पैबस्त पम्मी का तीर, प्यार भरी शायरी और न जाने क्या क्या. कोयले और ईंट के टुकड़े से क़िले की दीवारों पर लिखे हुए अनगिनत अधूरे अफ़साने. लिखने वालों को कितना मज़ा आया होगा, यह सब लिखने में. हर शख्स फिल्म कुदरत का पारो माधो समझता होगा ख़ुद को, लेकिन यह नहीं सोचा कि इतिहास की धरोहर, इन ईमारतों के सीने में भी दिल धड़कता है और उन्हें भी तक़लीफ होती है, जब उनके सीने पर चाकू, कोयले या ईंटों से गोदकर कुछ भी लिखा जाता है. मोहब्बत तो एक बहुत ही ख़ूबसूरत जज़्बा है, लेकिन इसके इज़हार का इतना गंदा और बदसूरत तरीक़ा...!

मेरी नींद उस कराह ने छीन ली थी. सोच रहा था कि अपना नाम अमर करने का, अपनी मोहब्बत अमर करने का यह तरीक़ा कितना बदसूरत है और इतिहास के साथ किया गया बलात्कार भी. कौन समझाए उन्हें कि इतिहास की बुलंदियाँ इन खंडहरों की बैसाखियों के सहारे नहीं तय की जा सकतीं.

Friday, September 10, 2010

राहुल गांधी की दाढ़ी और पा(पायाति) प(पर्सुएशन इंडस्ट्री)

उम्र, शरीर और ख़ास तौर पर चेहरे से पुराने हो चुके, ए. के हंगल और ओम प्रकाश जैसे अपने देश के राजनेताओं के बीच,बॉलीवुड के आमिर खान या शाहिद कपूर जैसा कोई चाकलेटी चेहरा यदि दिख जाये, तो उम्मीद के झरने फिर फूटने लगते हैं। ऐसे में राहुल गांधी को टेलीविज़न स्क्रीन पर देखना अपने आप में एक अनूठा अनुभव ही तो है।

पिछले दिनों, जब महंगाई और कामनवैल्थ घोटालों का शोर ज़रा थमा, तो राहुल गांधी फिर अवतरित हुये। एंट्री बहुत ही धमाकेदार थी, बढ़ी हुई काली दाढी में, सफेद किंतु कुचले हुए कुर्ते पायजामे में, गौरवर्णी, यह चालीस वर्षीय युवा, जब लाल रंग के हैलीकाप्टर से नियमागिरी, उड़ीसा की पहाडियों में उतरा तो वहां के आदिवासी समूह ने खूब उत्साह से उनका स्वागत किया। राहुल गांधी ने भी अपनी पोटली से निकालकर एक तोहफा उन्हें दिया,मानो इस बार कृष्ण सुदामा के लिए कुछ लाए हों. उपहार था यह बताना कि “वेदांत समूह”का छः मिलियन टन का अल्यूमिनियम संयंत्र अब इस इलाके में नहीं लगेगा। राहुल गांधी ने इसी सभा में स्वयं को आदिवासियों का दिल्ली में नियुक्त सिपाही भी बता दिया।

इस पूरे वाकये के राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक पहलू तो बहुमुखीं है तथा उन पर देश भर में चर्चाएँ भी चल ही रहीं हैं, लेकिन Headlines Today नाम के अंग्रेजी खबरिया चैनल में एक बेहद मज़ेदार चर्चा देखने के बाद हमारा ध्यान भी राहुल गांधी की “बढ़ी हुई दाढी” पर गया.
(26 अगस्त को उड़ीसा में)
टेलीविज़न चैनलों की समाचार मनोरंजन प्रवृत्ति से तो हम सब वाक़िफ़ हैं ही. देर तक इस बात पर चर्चा होती रही कि राहुल गांधी की “बढ़ी हुई दाढी” दरअसल उनकी “जुझारु राजनेता” कि छवि को “एन्हैंस” करती है। यह भी समझ आया कि उनके गुलाबी गालों वाले चाकलेटी व्यक्तित्व को अगर उनकी पूर्णता में देखा जाये तो काली चमड़ी वाले आदिवासी उनसे ख़ुद को “को रिलेट” नहीं कर सकेंगें, इस कारण बढ़ी हुई दाढी अपरिहार्य्य हो जाती है। झक्क सफेद कुर्ता जहाँ उन्हें राजनेता की छवि प्रदान करता है, वहीं जींस की पैंट उन्हे दिल्ली का सिपाही बताती सी लगती है।

इस कार्यक्रम के बाद हमारी नज़रों ने भी “पर्सुएशन इंडस्ट्री थ्यौरी”के छात्र की तरह उनका पीछा करना शुरु कर दिया और हमने बारीकी से उनके गेट अप पर नज़र रखनी शुरु कर दी। कुछ दिनों बाद ही राहुल हमें फिर टेलीविज़न पर नज़र आये. इस बार वह बिहार में एक सभा को सम्बोधित कर रहे थे, उनकी बढ़ी हुई दाढी इस बार बहुत कुछ कट-छँट चुकी थी. हमने टेलीविज़न चैनल से मिले ज्ञान का फायदा उठाते हुए अनुमान लगाया कि दाढी का यह प्रकार शहरी और ग्रामीण दोनों तरह की जनता में छवि बनाता है।
(4 सितम्बर को बिहार में)
अभी हम राजनीति की हाइब्रिड नीतियों की तरह, युवराज की बढ़ती घटती हाइब्रिड दाढी का संतुलन कुछ कुछ समझने की कोशिश कर ही रहे थे कि तीसरी बार वो दिखायी दिये कोलकाता में, वो भी एकदम सफाचट, क्लीन शेव में. कम्यूनिस्टों को उन्हीं की माँद में ललकारते हुऐ, भद्रलोक के गेट अप में!
 
(6 सितम्बर को कोलकाता में)
इस सारे घटनाक्रम ने हमें पायाति चरक जी यानि अपने पी.सी. बाबू से पिछली मुलाकात की शिद्दत से याद दिला दी जिसमे उन्होंने किसी रिसर्च का हवाला देकर “पर्सुएशन इंड़्स्ट्री” के बारे में बताया था.. “किताब, मंजन, फिल्म ही नहीं.. कौन सी नौकरी करनी है कौन सी नहीं, किस नेता को वोट देना है, किसे नहीं...कौन सी पार्टी अच्छी है, कौन सी बुरी,..हमारे विज्ञापन, फिल्में, टेलीविज़न ...सब का इस्तेमाल होता है हमें परसुएड करने में!"

इन सबके बीच, एक सवाल उठ खड़ा हुआ है कि “राजनेताओं की छवियों को भी क्या जनमानस में इसी तरह बैठाया जा सकता है?”

हाँ, एक बात तो रह ही गयी, राहुल गांधी ने इन तीनों जगह पर जो भाषण दिये उनमें एक बात सभी भाषणों में कही कि देश में दो देश हैं, एक “अमीरों का हिन्दुस्तान” है और दूसरा “गरीबों का हिदुस्तान” तथा राहुल गांधी गरीबों के हिदुस्तान के स्वयम्भू प्रतिनिधि हैं. राहुल की इस बात से फिर याद आये, पी.सी.बाबू जिन्होंने हमें “भांडिया का भांड़” कहकर अन्दर तक झंझोड़ दिया था. पी.सी.बाबू के वह शब्द कानों मे गूंज रहे थे “ऐसे लोगो को जो एक तरफ तो इंडिया का सुविधाभोगी जीवन भोग रहे हैं और दूसरी ओर भारत की भी बात कर रहें हैं उन्हें मै “भांडिया” कहता हूं...हम और आप जैसे “भांडिया के भांड”, अपनी सुविधाभोगी वैचारिक जुगाली से इतर कुछ ठोस करें तो कुछ उम्मीद जगेगी...”

राहुल गांधी देर सवेर देश की कमान हाथ में लेने ही वाले हैं….क्या उनसे यह उम्मीद लगाना गलत होगा???

Tuesday, September 7, 2010

मॉल कल्चर का छलावा और पर्सुएशन इंडस्ट्री!!

ऑफिस के काम के सिलसिले में इस मंगलवार को मुझे नाभा जाना था.नाभा जाने का रास्ता, चंडीगढ़ से ज़िरकपुर के रास्ते पटियाला होकर जाता है. सलिल भाई को चैट करते हुए, कल जब इस बाबत बताया, तो उन्होंने तपाक से कहा, “यार! पी. सी. बाबू यानि डॉ. पायाति चरक जी से जरूर मिलना.एक तो मुझे उनका नाम ही विस्मित किये जाता है,उसपर उनकी तुमसे हुई बातचीत (भांडिया के भांड) भी इतनी मज़ेदार थी कि लगा डॉक्टर साब कोई पहुँची हुई चीज़ हैं.”

उस दिन सुबह जल्दी ही घर से निकल गया मैं,यह सोचकर कि वापसी में करीव तीन बजे फिर ज़िरकपुर से गुजरना होगा, तो मिलेंगे पी सी बाबू से. शाम को ठीक चार बजे मैं मकान नम्बर 151 ए. का दरवाजा खटखटा रहा था. एक म्रध्यम वर्गीय मकान, जिसके आगे एक पुराना स्कूटर बजाज स्कूटर खड़ा था और पास ही एक नई पल्सर बाईक भी. दरवाजा पी. सी बाबू ने ही खोला. मेरे प्रणाम करने पर उन्होंने भी अभिवादन किया. परन्तु ऐसा लगा कि उन्होंने मुझे पहचाना नहीं या फिर अभी भी अपनी स्मृति के घोड़े दौड़ा रहे थे. मैंने उनकी मुश्किल आसान करते हुए आगे कहा, “ मुझे पहचाना सर! हम ज़िरकपुर के मॉल में मिले थे!! मैं वही भांडिया का भांड हूँ!” इतना सुनते ही वो   बच्चों की तरह उछल पड़े और मेरा हाथ पकड़ कर,किताबों से घिरी अपनी बैठक में ले आये. मेहमान-मेजबान वाली कुछ औपचारिक बातों के बाद मैंने स्वभावत: उनसे पूछ ही लिया, “और सर! क्या पढ़ रहें है आजकल?”
पी सी बाबू कहने लगे,“अभी,बीस वर्ष पहले हुई “द फ्युचर ऑफ परसुएशन इंडस्ट्री इन अमेरिका” नाम का एक पुराना रिसर्च वर्क देख रहा था. न्यूयार्क के किसी व्यस्त सुपर मार्केट में यह रिसर्च किया गया था. उसमें सुपर मार्केट में आने वाली सभी स्त्रियों पर एक गुप्त प्रयोग किया गया. इसमें छुपे हुए कैमरों से उन स्त्रियों की आँखों के चित्र लिये गए. इस तरह यह रिकॉर्ड किया गया कि जो महिलाएँ सुपर मार्केट में सामान खरीदने के लिये घूम रहीं थीं,उनमें किन चीज़ों को देखकर उनकी आँखों की पुतली फैल जाती है, किसे देखकर उनपर कोई असर नहीं होता आदि. बाद में इन तस्वीरों को देखकर रिसर्च टीम ने अध्ययन किया कि महिलाएँ किन बातों से सामान ख़रीदने को आकर्षित होती हैं. उन्होंने यह पता लगाया कि जो डिब्बे एक विशेष रंग के हैं, वे दस में से सात महिलाओं को आकर्षित करते हैं. तो रिसर्च टीम ने दुकानदारों को सलाह दी कि डिब्बे उस विशेष रंग से रंग दो. कोई भी दूसरा रंग उससे हार जायेगा. कंटेंट यानि अंदर का माल कैसा है,यह सवाल ही नहीं है. लेकिन पहले स्त्री उसी डिब्बे को उठा कर देखती है.

अगले चरण में रिसर्च में यह देखा गया कि न सिर्फ रंग वरन् डिब्बा किस ऊँचाई पर रखा है, यह भी मायने रखता है. डिब्बा आँख से कितनी ऊँचाई पर है,जिससे खरीदने वाली स्त्री उस ओर आकर्षित होती है. उन्होंने देखा कि अगर बहुत ऊँचाई पर है, तो आँख से चूक जाता है और बहुत नीचे है तो भी चूक जाता है. लेकिन एक खास लेवल है, उस क्षेत्र की स्त्री की ऊँचाई का, उसकी आँख के लेवल का.और उसका जो फोकस है, एक फुट का, उसके भीतर जो डिब्बे पड़ते हैं वे उसे आकर्षित करते है. बाज़ार को यह समझ आया कि जो चीज़ सबसे सस्ती है,और सबसे ज़्यादा फायदा देने वाली है उसे इस ऊँचाई पर रखा जाना चाहिये. और, जो चीज़ महँगी है या कम फायदा देने वाली है, उसे इतनी ऊँचाई पर रखा जाना चाहिये. इसी तरह के प्रयोग फिर बच्चों और पुरुषों पर हुए. कमाल यह कि फिर यही परिणाम आये. सिद्द हुआ कि दुकान में रखे डिब्बों के क्रम और रंग विशेष से हम किस तरह से प्रभावित होते हैं,

इस रिसर्च के बारे में सुनकर मैंने इतना ही कहा,“बाज़ार-विद हमारे मनोविज्ञान का इतना गहन अध्यन करके अपना जाल बुनते हैं? यह बात दीगर है कि अकसर हमें खुद इसका पता नहीं होता है कि हम जाल में फँस रहे हैं.”

पी सी बाबू ने आगे कहा, “रिसर्च में वो एक और नतीजे पर पहुँचे कि अगर काउंटर पर एक आदमी है जो पूछता है आपको क्या खरीदना है? तो नुक्सान होता है दुकान का. क्योंकि जब आदमी पूछता है कि आपको क्या खरीदना है, तो खरीदने वाले व्यक्ति को घर से सोच कर आना होता है कि वह क्या खरीदना चाहता है. ऐसे में परसुएड करने की सीमा हो जाती है. उसको तय करके आना पडता है कि पूछने पर यह बताना पड़ेगा कि मुझे एक टेलीविज़न खरीदना है. इस कारण काउंटर से आदमी हटा लिया गया, सिर्फ पैसे लेने वाला ही रहेगा, वो भी बाद में. आपको ट्राली पकड़ा दी जायेगी, आप चले जायें, जो चीज़ आपको पसन्द है वह ले आयें. उस सर्वे का नतीजा तो चौंकाने वाला था. उस सर्वे में यह पता चला कि जो चीज़ें लोगों ने खरीदीं, उसमें दस में से सात वह थीं, जो लोग खरीदने नहीं आये थे, मात्र तीन ही लोग ऐसे थे जिन्होंने वही खरीदा जो वो खरीदने आये थे.”

मैं हतप्रभ था और कहने लगा, “तो यह तो एक हिप्नोसिस की हालत है, वशीकरण की स्थिति. इसका मतलब यह हुआ कि जो खरीदने वाला है, उसे कुछ पता ही नहीं कि उसे परसुएड क़िया जा रहा है और किस चीज़ के लिये परसुएड किया जा रहा है. वह क्या खरीद कर लायेगा, कौन सी किताब पढेगा, कौन सा मंजन करेगा, सब तरह से परसुएड किया जा रहा है”. पी सी बाबू ने मेरी बात में आगे जोड़ा, “किताब, मंजन, फिल्म ही नहीं मित्र! कौन सी नौकरी करनी है, कौन सी नहीं, किस नेता को वोट देना है, किसे नहीं, कौन सी पार्टी अच्छी है, कौन सी बुरी,..हमारे विज्ञापन, फिल्में, टेलीविज़न... सब का इस्तेमाल होता है हमें परसुएड करने में! ऐसे में सवाल यही है कि अपनी बुद्धि, सोच या प्रज्ञा का इस्तेमाल हम निरंतर करें और इस सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक शोषण के प्रति सचेत रहें.”

बातों का सिलसिला ज़रा थमा ही था कि पी सी बाबू की पत्नी चाय लेकर आ गयीं,पी सी बाबू ने उनसे परिचय कराया और फिर कहा आज आप आयुर्वैदिक चाय का मज़ा लीजिये. आयुर्वैदिक चाय की चुस्की का असर था या पी सी बाबू कि बातों का.मैं विचारों के समुन्दर में डूबता जा रहा था, यह सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक शोषण तो हर तरफ है!! तुर्रम खां बने हम, जिस स्वतंत्रता का उत्सव मना रहें हैं उसकी डोर तो किसी और के हाथ में है.

Sunday, September 5, 2010

“शिक्षक-दिवस” - शिक्षक का सम्मान या अपमान?

राधाकृष्णन एक शिक्षक थे, फिर वो राष्ट्रपति हो गये, तो सारे हिदुस्तान में शिक्षकों ने समारोह मनाना शुरु कर दिया “शिक्षक दिवस”.भूल से मैं भी दिल्ली में था और मुझे भी कुछ शिक्षकों ने बुला लिया. मै उनके बीच गया और मैने उनसे कहा कि मै हैरान हूं, एक शिक्षक राजनीतिज्ञ हो जाये तो इसमें “ शिक्षक दिवस” मनाने की कौन सी बात है? इसमे शिक्षक का कौन सा सम्मान है? यह शिक्षक का अपमान है कि एक शिक्षक ने शिक्षक होने में आनन्द नही समझा और राजनीतिज्ञ होने की तरफ गया.जिस दिन कोई राष्ट्रपति शिक्षक हो जाये किसी स्कूल मे आकर, और कहे कि मुझे राष्ट्रपति नहीं होना, मै शिक्षक होना चाहता हूं! उस दिन “शिक्षक दिवस” मनाना. अभी “शिक्षक दिवस” मनाने की जरुरत नहीं है...

स्कूल का शिक्षक कहे कि हमें राष्ट्रपति होना है? मिनिस्टर होना है? तो इसमे शिक्षक का कौन सा सम्मान है ? यह तो राष्ट्रपति का सम्मान है! ..

(ओशो की पुस्तक “नये समाज की खोज” के “विश्व शांति के तीन उपाय” प्रवचन से उद्धृत)

एक बात और... देश में अब तक कई शिक्षक राष्ट्रपति हो चुके हैं.उसके बावजूद साक्षरता की दर का सच इस रिपोर्ट में हैः

दिल्ली 25 अगस्त 2010 (वार्ता के सौजन्य से)
साक्षरता दर के मामले में पड़ोसी देश श्रीलंका भारत से आगे है।
मानव संसाधन विकास राज्य मंत्री डी पुरनदेश्वरी ने आज लोकसभा में एक लिखित सवाल के जवाब में बताया कि 2000 से 2007 के बीच 15 साल से अधिक के उम्र के लोगों में भारत में साक्षरता दर 66 प्रतिशत थी जबकि श्रीलंका में यह 91 प्रतिशत थी।
उन्होंने बताया कि 1991की जनगणना के समय अखिल भारतीय स्तर पर साक्षरता 52.21 प्रतिशत थी जो 2001 में बढ़कर 64.84 हो गयी। इस प्रकार दस वर्षों में साक्षरता दर में 12.63 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है।
और जो इन सरकारी आँकड़ों में साक्षर हैं उनके हाल तो सबको पता है, नाम लिख लेना, नरेगा के रजिस्टर पर हस्ताक्षर कर लेना, इतना काफी है सरकारी आँकड़ों के बाज़ीगरों के लिये.

सकल घरेलू उत्पाद (जिसको लेकर खूब हल्ला मचा रहता है बड़े बड़े ज्ञानी लोगों में) उसका 2% से भी कम शिक्षा और स्वास्थ दोनों को मिलाकर खर्च किया जाता है.
(यह जानकारी स्वयम् योजना आयोग के सदस्य लोकसभा चैनल पर कुछ दिन पहले दे रहे थे).

नेशनल ज्यौग्राफ़िक की इस तस्वीर को ग़ौर से देखिए... यह हमारी शिक्षा का भविष्य है, हमारा आने वाला कल!!

“शिक्षक दिवस” की बधाइयाँ!!

Friday, September 3, 2010

भांडिया के भांड

इस साल गर्मी ने तो रिकार्ड ही तोड़ दिया था! बीच बीच में बदरा बरसे भी तो उमस ने जीना मुहाल कर दिया. ऐसे में चंडीगढ़ जैसी जगह के बहुत फायदे हैं. 111 वर्ग किलोमीटर में फैला यह केन्द्रशासित प्रदेश, पंजाब तथा हरियाणा कि राजधानी भी है, शायद इसी कारण यहाँ बिजली का ऐसा टोटा नहीं है. महीनों बिजली नहीं जाती और जाती भी है तो बस ये गई वो आई (देखिये, जलभुन कर बद्दुआ मत दीजिये!).

तभी दो साल पहले जब नोएडा से यहाँ स्थानांतरित होकर आया, तो इनवर्टर पहली ही फुर्सत में निकाल दिया. खैर! पीछे एक रविवार को किसी ख़ैरख्वाह की बद्दुआ असर कर गयी और खबर आयी कि सब-स्टेशन की मैंटीनैंस के चलते, आज हमारे सेक्टर में 10 घंटे बिजली नदारद रहेगी. पहले तो इस खबर को एक समझदार नागरिक की तरह महँगाई, आतंकवाद, नक्सलवाद और देश विदेश की अन्य खबरों की तरह हमने हल्के में ही लिया, परंतु जब ठीक 11 बजे बिजली चली गयी, तो आधे घंटे में ही हम बेहाल हो गये.

सलिल भाई को नोएडा फोन लगाया, तो पता चला भाई साहब पहले से ही शीतताप नियंत्रित “द ग्रेट इंडिया प्लेस” में घुसे, किताबों की दुकान में मंटो, राही मासूम रज़ा और गुलज़ार साहिब के बचे-खुचे लेखन को समेटने में लगे हैं और इसके बाद उनका लगे हाथ फिल्म देखने का भी विचार है.

मैंने बिजली के जुल्म की कहानी बताई तो छूटते ही बोले “दो साल में ही भूल गये सब? हम तो आज भी अपनी उसी पुरानी ट्रिक पर कायम हैं. जब हमारे “भारत” में बिजली नहीं आती, तो हम मॉल में घुस कर “इंडिया” के मज़े लेते हैं.” और तब उन्होंने याद दिलाया कि कैसे एक बार हमने अपने सेक्टर के सामने स्थित निठारी गाँव के लोगों को मुफ्त में एक आइडिया दिया था कि जब बिजली न आये, तो इन मॉल की ओर कूच करो. इसी कारण एक बार “सेंटर-स्टेज़ मॉल” वालों ने तो देहाती और ग़रीब दिखने वालों को गेट पर ही रोकने का इंतज़ाम कर दिया था, यह कहकर कि क्या काम है? अन्दर बहुत भीड़ है.

सलिल भाई का आइडिया ऑल टाईम हिट था. पत्नी और बेटी ने तुरत उसका अनुमोदन किया और कहा कि खाना भी मॉल में ही जा कर खायेंगे. तय हुआ कि चंडीगढ़ से लगे ज़ीरकपुर के “पारस डाउन-टाउन मॉल” चला जाये. बस, आधे घंटे से भी कम समय में हम डाउन टाउन मॉल के अन्दर थे. आदतन पत्नी और बेटी को दुकानों की सैर करने और कोई बात हो तो मोबाईल पर सम्पर्क करने को कहकर, मैं एक बेंच पर जम गया, इन महलनुमा गलियारों के वातानुकूलित माहौल का लुत्फ उठाने.
 (पारस डाउन-टाउन मॉल)
उसी बेंच के दूसरे कोने पर एक देहाती टाईप व्यक्ति भी बैठा था. मैं सोचने लगा कि यह महाशय भी बिजली की कटौती से हलकान आसपास के किसी गाँव से मेरे जैसे ही यहाँ आये होंगे. नज़र दूसरी ओर गयी तो चकमक दुकानों में अन्दर बाहर होते सुन्दर और सजे हुए लोगों को देखकर प्रधान मंत्री के आर्थिक सुधारों की, अपने भारत और इंडिया के कैनवास पर समीक्षा करने का बार-बार मन हुआ. फिर अपने दिमाग की खुजली पर यह कह्कर ‘रिंग कटर’ लगा दिया कि सलिल भाई से चर्चा करते वक्त इस मॉल कल्चर पर भी चर्चा होगी और हुआ तो कोई पोस्ट भी ठेल दी जायेगी (कई ब्लॉग महापुरुषों से सीखा मुहावरा पहली बार प्रयोग किया है).

विचार-श्रंखला टूटी, तो नज़र फिर लौटकर अपनी बेंच पर बैठे महाशय पर पड़ी. इस बार मैं चौंक गया, जनाब के हाथ में मेरी पसंदीदा किताब “द मोंक हू सोल्ड हिज़ फरारी” थी. अचानक हुए इस घटनाक्रम से, मुझे इन महाशय के प्रति, अपनी पहले वाली सोच, निहायत ही घटिया लगी. मात्र बाहरी वस्त्रों से किसी के पूरे व्यक्तित्व का आकलन क्या ठीक है? और तुरत मेरे मन ने पुनः मुझे दुत्कारा कि यह भी ग़लत है कि वस्त्रों से नहीं, तो उनके हाथ में जो किताब है, अब उससे मैं उनके पूरे व्यक्तित्व को आँकने की कोशिश कर रहा हूं. फ़र्क क्या हुआ?

अंतर्द्वद जब झेलना मुश्किल होने लगा, तो मैंने उन महाशय से बातचीत का सिलसिला शुरु करने के अन्दाज़ में कहा, रोबिन शर्मा की यह किताब बहुत अच्छी है! जनाब भी शायद बातचीत के मूड में थे. किताब लगभग बन्द करके मेरी ओर देखते हुए बोले, “हां! पश्चिमी संस्कारों को पूरब का ध्यान सिखाना है, तो इसी तरह उसके लाभ बताये जा सकते हैं, जैसा इस पुस्तक में हैं.” दो लाईनों में किताब की इतनी सटीक समीक्षा सुन कर, मैं गदगद हो गया. फिर तो जनाब के साथ जैसे जैसे बातें होती रही, मैं उनका मुरीद होता गया.

बातों बातों में हमने मह्सूस किया कि सेंट्रल एअर-कंडीशंड होने के कारण मॉल के अंदर ठंड बहुत ज़्यदा हो गई थी और हमें भी कुछ सर्दी सी लगने लगी थी. उन्होंने कहा, “बाहर जितनी गर्मी है, अन्दर उतनी ही सर्दी, कितनी बिजली पीते होंगे ये मॉल?” मेरी तो दुखती रग पर उन्होंने हाथ रख दिया था अनजाने में, बस मैं शुरु हो गया अपना भारत और इंडिया का ज्ञान बाँचने. बिजली पैदा होती है, भारत के गाँवों में; नदियों पर बाँध बनाकर या कोयले की खानें खोदकर. लोग विस्थापित होते हैं और ज़िन्दगी भर संघर्ष करते हैं, उचित मुआवजे के लिये. बदले में मिलता क्या है इनको, न यहाँ पैदा होने वाली बिजली का लाभ, न खोई ज़मीन का उचित मुआवजा. शिक्षा आदि तो इन क्षेत्रों से हमेशा दूर रही है. बहुत हुआ तो चौकीदार, रसोईया या माली आदि की नौकरी मिल जाती है इन्हें वहाँ स्थापित होने वाले बिजलीघरों के दफ्तरों या अधिकारियों के घरों में. विकास के नाम पर यही बिजली इंडिया के बड़े शहरों की इन आलीशान दुकानों में खर्च होती हैं जहाँ पड़ते चरण (फुट फाल्स) गिनती के हैं सारे दिन में, या आईपीएल जैसे दूधिया रोशनी में होने वाले क़िकेट के आयोजनों में. देखा जाये तो भारत के संसाधनों का अनुचित शोषण कर रहा है इंडिया.

मुझे लगा मेरे भाषण पर वो बड़े इम्प्रेस्ड हुए होंगे. लेकिन मेरी बात पर अर्ध-सहमति सी देते हुए उन्होंने कहा, “यह विभाजन तो स्पष्ट है और आज से नहीं सदियों से. हां, उपभोक्तावाद की इस आँधी को अब सरकारी प्रश्रय भी मिलने लगा है, जिससे हालात मुश्किल होते जा रहे हैं! भारत जीवन की मूलभूत ज़रुरतों के लिये भी तरस रहा है और टकटकी लगाये देख रहा है इंडिया को? उसकी बुनियादी ज़रुरतें, शिक्षा और स्वास्थ सब इंडिया के हाथ में है! उधर इंडिया अपने ही लालच में फंसा है. “दो और दो पाँच” का नया गणित जो सीखा है उसने. उसे अब फुर्सत कहाँ भारत के बारे में सोचने की. और फिर गाहे बगाहे वो भारत को नरेगा-मरेगा जैसे डोनेशन देता ही रहता है. इससे अधिक ख़ैरात, भारत को निकम्मा बना देगी, ऐसा इंडिया के मैनेजमेंट की किताबों मे लिखा है.

इतना कहते हुए, वे अपना सामान समेटने लगे, तो मैंने उनकी ओर अपना प्रश्न दाग ही दिया, “अब आगे क्या होगा?” उन्होंने अपना सामान समेटा और कन्धे उचका कर कहा, “आगे क्या होगा पता नहीं! वैसे इंडिया में रहने वाले भी ऐसे बहुत से लोग हैं, जो भारत की सोच रहे हैं. कई बार बाज़ार की ज़रुरतें भी कुछ भारतीय को इंडियन बना देती हैं. ऐसे लोगों को मै “भांडिया” कहता हूँ.” हंसते हुए उन्होंने आगे कहा, “हम और आप भी “भांडिया के भांड” हैं. अपनी सुविधाभोगी वैचारिक जुगाली से इतर, कुछ ठोस करें तभी तो कुछ उम्मीद जगेगी!”

एक ओर तो मैं भांडिया के भांड वाले जुमले के हमले से सम्भलने की कोशिश में था और दूसरी ओर यह आकर्षक व्यक्तित्व, मॉल से बाहर जाने की मुद्रा में आ चुका था. कुछ न सूझा तो मैंने अपना विज़िटिंग कार्ड उन्हें देते हुए, उनसे उनका परिचय मांग लिया. उन्होंने भी अपना कार्ड मुझे देते हुए फिर मिलने को कहा और चले गये.

मैं विस्मित सा उनका कार्ड पढ़ रहा था जिस पर लिखा थाः

डॉ. पायाति चरक, मकान नम्बर 151 ए, पटियाला रोड, ज़ीरकपुर, पंजाब

(इसके बाद पी. सी. बाबू यानि डॉ. पायाति चरक जी से कुछ दिलचस्प मुलाकातें हुई हैं, जिनका ज़िक्र हम अपनी अगली पोस्ट में करेंगे)

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