सन् 1984… स्थान कलकत्ता.
मैं अपने कुछ मित्रों के साथ ट्रेनिंग पर गया था. रविवार के दिन, बस ऐसे ही भटक रहे थे सड़क पर, दुकानों और मकानों को देखते हुए. मेरे एक दोस्त को लघुशंका महसूस हुई. कुछ देर उसने सहा और फिर हॉस्टेल लौट चलने को कहा. हमने आस पास नज़र दौड़ाई, मगर कहीं कोई सार्वजनिक शौचालय नहीं दिखाई दिया. दुकान में पूछा तो मना कर दिया. इधर मेरे मित्र की हालत ख़राब हो रही थी. तभी मुझे एक घर दिखाई दिया, जिसमें बाहर एक शौचालय था. लेकिन यह बाहर भी घर के अहाते के अंदर था और घर के अंदर जाते गलियारे के अंत में था. मैंने फाटक खोलकर उसको कहा कि तुम जाओ,मैं बाहर खड़ा होकर निगरानी करता हूँ. कोई आएगा तो देखा जाएगा कैसे निपटना है, पहले इस समस्या से तो निपटें. जब वो बाहर आया तो बादशाह अकबर के समान सबसे सुखद अनुभूति को प्राप्त कर लौटा था.
सन् 2000… स्थान कोलकाता.
मेरा ऑफिस रसेल स्ट्रीट पर था, जो बस कुछ फर्लॉन्ग पर कोलकाता की मशहूर पार्क स्ट्रीट से मिलती है. मैं सड़क के किनारे खड़ा सामने क्वींस मैंशन की तरफ देख रहा था और शायद अपने किसी दोस्त का इंतज़ार कर रहा था. तभी एक टैक्सी आई और सड़क के किनारे पर मुझसे कुछ दूरी पर खड़ी हो गई. टैक्सी का ड्राइवर वाला दरवाज़ा फुटपाथ पर खुला और ड्राइवर को निकलते मैंने देखा, पर वो दरवाज़े के नीचे छिप गया. थोड़ी देर में जब वो खड़ा हुआ तो मुझे फिर दिखा. वो ड्राइविंग सीट पर बैठा और टैक्सी भगाता हुआ चला गया. तब मुझे पता चला कि दरवाज़े की आड़ में उस बिचारे ने प्रकृति की पुकार का जवाब दिया और चला गया.
सन् 2010… स्थान सम्पूर्ण राष्ट्र (कोई भी टीवी चैनेल).
एक अभिजात्य वर्ग की महिला, अपनी महंगी गाड़ी से उतर कर, अपने छोटे बच्चे को एक पुल के साइड में पेशाब करवाते हुई दिखाई देती हैं. यह दृश्य एक विदेशी बड़े आश्चर्य से देख रहा होता है। इसके बाद आमिर खान अपना संदेश देश वासियों को देते है और कहते हैं कि हमारी इन हरकतों पर विदेशी हमें क्या समझेंगे? देश की यह कैसी तस्वीर हम पेश कर रहे हैं, सारी दुनिया के सामने. जैसा कि स्पष्ट है, “अतिथि देवो भव:” विज्ञापन श्रृंखला पर्यटन विभाग के द्वारा प्रसारित की जा रही है, जिनकी पृष्ठभूमि कॉमनवेल्थ खेलों के दौरान आने वाले लोगों के बीच देश की छवि पेश करने को लेकर है.
छब्बीस सालों में कुछ नहीं बदला. यहाँ तक कि परिस्थितियाँ भी वही हैं. कोई अपनी प्रकृति को यह नहीं कह सकता कि अभी मैं बाहर जा रहा हूँ, मुझे मत पुकारना, क्योंकि तुम्हारी पुकार को अनसुना भी नहीं कर सकता और जवाब तो अनसुना करने से भी मुश्किल काम है. रावण तक से बर्दाश्त नहीं हो पाया था और वह शिव को कंधे से उतार कर बैठ गया, हम तो अति साधारण, तुच्छ मनुष्य हैं.
आमिर खान को तो मिस्टर पर्फेक्शनिस्ट के नाम से जाना जाता है और “अतिथि देवो भवः” के ब्राण्ड एम्बेसेडर हैं वो. पर याद आती है उनकी हाल की ही फिल्म पीपली लाइव जिसमें भारत का एक कटु सत्य एक पात्र के मुँह से कहलवाया गया है कि भारत की 70% जनता खुले मैदान में शौच करती है.
आश्चर्य तो इस बात का है कि भारत का यह सच सुनकर हम ज़रा भी विचलित नहीं होते, मगर इंडिया में सड़क किनारे मात्र लघु शंका के ऐसे दृश्य विचलित करने लगते हैं? दरअसल भारत में अभी भी अधिकांश जगह पर शौच की व्यवस्था नहीं है और खुले में शौच पर जाना मजबूरी है. इण्डिया ने इसे सहज और स्वाभाविक मान लिया है, जबकि इण्डिया में ऐसा होना व्यवस्था की “शौच-नीय” स्थिति को दर्शाता है। दिल्ली का दिल कहे जाने वाले कनॉट सर्कस के चेहरे को ऊँचा (फेस लिफ्टिंग) कर दिया गया लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त यही है कि कहीं भी इस शंका का समाधान गृह नहीं है.
ज़रा सोचिए!! हमारे शहरों में बाजारों में लघुशंका के लिये उचित स्थान कितनी जगहों पर हैं? और बिना समाधान के इस नेचर्स कॉल के लिये मना करना किस हद तक उचित है?
29 comments:
आज एक ऐसी समस्या पर ध्यान दिलाया है जिस पर सोचना निहायत ज़रूरी है ... सरकार को ऐसे शौचालय सुलभ कराने चाहिए ...और जनता को भी आवाज़ उठानी चाहिए ...ज़रा सोचिये ऐसी स्थिति में स्त्रियों की क्या दशा होती होगी ?
मैं जानना चाहता हूँ कि दुसरे सफाई पसंद विकसित देशों में इस समस्या का कैसे सामना किया जाता है. चलो आपने यहाँ तो लघुशंकालय विरले ही मिलते हैं और अगर मिलते भी हैं तो ऐसे होते हैं कि उन्हें देख विश्वास हो जाता है कि स्वर्ग और नरक कहीं और नहीं इस धरती पर ही होते हैं. इसलिए अक्सर मेरे मन में प्रश्न उठता है कि विकसित देशों में इसकी क्या व्यवस्था है.
वाकई चिंतनीय विषय है ..विकसित देशों में सभी सार्वजानिक स्थानों में शौचालय बने होते हैं.यहाँ तक की दुकानों में भी. और जहाँ नहीं होते वहां टेम्परेरी बनाये जाते हैं.
आज एक ऐसी समस्या पर ध्यान दिलाया
विचारणीय लेख के लिए बधाई
बढिया लिखा आपने. एक बात मैं और गौर करने के लिए कहूँगा.
जो भी रेल गाडी सुबह दिल्ली में प्रवेश करती है - तो दिल्ली के बाहरी इलाकों में रेल पटरियों के आस पास कितने लोग बैठे होते हैं - लाइन में.
कई बार तो गुस्सा, कई बार शोभ, कई बार दुःख ....... और पता नहीं क्या क्या होता है.
आदिकालीन समस्या का आज तक समाधान नही ।
प्रशंसनीय ।
चंड़ीगढ़ में हालात काफी बेहतर हैं, पूरा शहर सेक्टरों में बटां है और हर सेक्टर में एक शपिंग सेंटर है तथा कमोबेश हर शापिंग सेंटर में एक स्वच्छ शौचलय की व्यव्स्था है (महिला और पुरुष प्रसाधान दोनों)।
-चैतन्य
टाईटिल देखकर तो लगा था कि आज मि. परफ़ेक्शनिस्ट की थ्री इडियट्स के ’मूत्र विसर्जन’ प्रसंग की समीक्षा होगी। लेकिन पोस्ट ने हमारे साथ बेइंसाफ़ी नहीं की।
ये ऐसे विषय हैं, जो बेहद जरूरी हैं लेकिन इन पर चर्चा नहीं होती। विचारशून्य बन्धु ने जायज प्रश्न उठाया है। जैसे पिछले दिनों दिल्ली नगर निगम से या दिल्ली सरकार से एक प्रतिनिधिमंडल विदेश यात्रा पर गया था, उस देश की सीवेज व्यवस्था का अध्ययन करने, हमें आशा है कि लघुशंका विषय पर भी एक डेपूटेशन शीघ्र ही किसी विकसित देश में भेजा जायेगा।
p.s. - यह समस्या ई.एम.यू. गाड़ियों में भी देखने को आती है, कुछ गाड़ियां अलीगढ़ से दिल्ली, मथुरा से दिल्ली और एक ई.एम.यू. गाड़ी तो अंबाला से कानपुर तक(बेशक टाईम टेबल में वो गाड़ी अलग अलग सैक्शन पर अलग अलग नंबर से दर्शाई गई है) चलती है। बच्चे और आदमी लोग तो फ़िर भी किसी न किसी तरीके से मैनेज कर लेते हैं, महिलाओं के साथ कैसी दिक्कत आती है, सोच सकते हैं।
ऐसे विषय पर इतनी परफ़ेक्ट पोस्ट निकालने पर आप धन्यवाद के पात्र हैं।
Sir!! bahut gahan adhyayan kiya aapne..........:)
achchha laga!!
शंका का समाधान ग्रह :-)
शौचनीय लक्ष प्रश्न
बहुत सही विषय उठाया है ,
सन 1984 - आपके मित्र जैसी सुखानुभूति कमोबेश सभी को हो चुकी होगी :)
सन 2000 - टैक्सी ड्राईवर एक सभ्य इंसान था उसने संकट से निपटने के समय भी मैनर्स का ख्याल रखा :)
सन 2010 - आमिर खान भले ही बतौर ब्रांड अम्बेसडर इस समस्या पर ध्यान आकर्षित करा रहे हों पर भारत अभी भी गाँवों का देश है जहां इस तरह की समस्या ज्यादातर लोगों को महसूस ही नहीं होती अलबत्ता शहरों में यह समस्या भयावह की श्रेणी में गिनी जा सकती है ! मेरा ख्याल है कि अगर सुलभ मूत्रालय/ शौंचालय बनवा भी दिये जायें तो एक नई समस्या खडी हो जायेगी,मेंटीनेंस की,क्योंकि हम लोगों में सुविधाओं के सम्यक उपयोग की आदत ही नही है :)
बहरहाल आपनें एक ज्वलंत सवाल ला खडा किया है ऎक शानदार पोस्ट के लिये साधुवाद !
स्थिति बेहद चिंतनीय है मगर हल आज भी नही है फिर अगर स्त्री हो तो ????????
दिल्ली मेट्रो के कुछ इस्टेसन पर ब्यबस्था किया गया है, जहाँ दू रुपया देकर सुलभ सौचालय का उपयोग किया जा सकता है. लेकिन इसमें भी सिकायत आया कि वहाँ पर बईठा हुआ आदमी दू के जगह पाँच रुपया ले रहा है. जाँच करने पर पता चला कि पुरुस सौचालय में गंदगी के नाम पर वह पाँच रुपये लेकर पुरुसों को महिला सौचालय का उपयोग करने का सुबिधा प्रदान करता था.
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@ दीपक बाबाः
रेल के किनारे दिखाई देने वाले प्रातःकालीन दृस्य के बारे में सायद राही मासूम रजा ने लिखा था कि जब आपको यह दृस्य देखाई दे तो समझिए कि कोई बड़ा सहर आने वाला है.
क्या कहने साहब आज तो एकदम ही अलग टोपिक लिए है ! बढ़िया लेख !
@विचार शुन्य
विदेशो मे लोग कम और सुविधाए ज्यादा हैं यहाँ जनता बहुत हैं । वहाँ लोग सार्वजनिक सुविधाओ के लिये पैसा देने को तत्पर होते हैं यहाँ नहीं । दूसरी बात वहाँ पढे लिखे लोग पढे लिखो की तरह ही व्यवहार करते हैं और क्या कह सकती हूँ
भारत मे सब सुविधा मिल भी जाए तो भी आदत से सब मजबूर होते हैं
सार्वजनिक शौचालय / सुविधाए बहुत जगह उपलब्ध हैं शायद २ रूपए देने होते हैं कौन दे ??
हां सड़क को जो लोग सार्वजनिक शौचालय बनाते हैं वो प्रमुखता से नगरो मे पुरुष ही होते हैं स्त्रियों को "सहने "की आदत होती हैं और शील का टोकरा वो हमेशा सर पर ले कर ही चलती हैं
सुबह सुबह देश की दुर्दशा होती है पटरी किनारे।
एक शौचनीय समस्या ।
भारत की बहुत सी समस्याओं का कारण है भारत की जनसंख्या । भारत में जनसंख्या नियंत्रण बहुत जरूरी है ।
एक विचारणीय मुद्दा उठाने के लिए आप की जितनी प्रशंसा की जाए, वह कम है ।
आज का विषय अलग व अच्छा लगा मेरे घर में सब ही मुझ पर हँसते है कहीं भी जाना हो सबसे आखिर में घर से बाहर मैं ही आती हूँ. घर से निकलने से पहले टोइलेट जो जाना होता है. मैं आपको सिंगापूर का हाल बताऊँ वहां न तो पब्लिक टायलेट हैं न ही सड़क पर नल पर न जाने वो लोग कैसे मेनेज करते हैं. वहां मॉल में भी अगर आप जाना चाहें तो दो एक हाई फाई मॉल को छोड़ कर बाकी जगह पैसे देने पड़ रहे थे बाकी आपने अपनी पोस्ट में जो भी अनुभव बताये हैं हम भी कभी न कभी उन से हो कर गुजरे जरुर हैं
बढिया लिखा आपने. .....
बिल्कुल सही कहा आपने....... कई बार यह बात महसूस की। बहुतों को तो आदत कहें या मजबूरी उन्हें तो जैसे ही ऐसा लगता है वे तो कोई कोना देख कर शुरू हो जाते हैं। बेचारे और करें भी तो क्या। हमारे शहर व्यवस्थित बसे भी तो नहीं।
देरी से पहुंचने के लिए क्षमा प्रार्थी हूं।
ये एक ऐसी समस्या है जो सर्वव्यापी है!
फिर भी, हमारी बिहारी भाई सहमत होंगे कि इस दिशा में एक सज्जन, उनके ही शहर और प्रांत से, अंतरराष्ट्रीय परियोजना चलाकर इससे निजात पाने का तरीका सामने लाए।
आमिर खान के कहने से क्या होगा.. जब मूत्रालय नहीं होगा तो मूत्र विसर्जन कहाँ करेगें.. मजबूरी है..
और अगर है भी तो इतने गंदे.. की उसमें जाने से अच्छा है खुले में मूत्र विसर्जन करें...
सही तरह से उठाया है आपने इस समस्या को ... ऐसे विगयापनों पर खर्च करने से अच्छा है सरकार शौचालय बनवा दे ....
पहले एक बात (दिल्ली का मामला से, ऐस करके)
1-कनॉट प्लेस में जो उंचे-उंचे सड़क किनारे साइन बोर्ड देखते हैं न आप लोग चमचमाते हुए....भाईजी वो शौचालय ही है। जरा उन बोर्डों के जो खासकर वो जिन ईंटो की दीवार पर लाल रंग पुता हो और उपर चमचमाता बोर्ड हो,,,, वो फ्रंट होता है और बैक में दु रुपया लैने वाला बैठा होता है। डबल हल्के होने के लिए दु रुपया....धार के लिए एक रुपया (दाम की गारंटी नहीं, CWG के कारण क्या पता टैक्स लग गया हो..हीहीहीहीही)
2-आमीर खान का क्या है पैसा लेने वाले कलाकार हैं।
खैर समस्या तो है
हाँ .... ये बात सोचने वाली तो है
अब "ब्लोगिंग का धर्म" (अभी अभी बनाया है) कहता है ""जैसी पोस्ट पढो वैसी पोस्ट बताओ भी""
तो फिर हम इस धर्म का उल्लंघन कैसे करते ??
यहाँ पर
http://my2010ideas.blogspot.com/2010/09/blog-post_19.html
पढ़ ली हो पहले ही.... तो कोई बात नहीं जी
yeh kya hai. . . . . ...... ...... ................................. ...
guys wake up and make our country a heaven for visitors
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