सम्वेदना के स्वर

यह ब्लॉग उस सनातन उत्सवधर्मिता को जीवित रखने का प्रयास है,

जिसमें भाव रस और ताल का प्रतीक आम आदमी का भा-- बसता है.
सम्वेदनाएँ...जो कला, साहित्य, दर्शन, विज्ञान, राजनीति आदि के माध्यम से अभिव्यक्त होती हैं, आम आदमी के मन, जीवन और सरोकार से होकर गुज़रती हैं तथा तलाशती हैं उस भारत को, जो निरंतर लड़ रहा है अपने अस्तित्व की लड़ाई.....

Friday, January 28, 2011

मेकाइवली - शैतान का वकील

मेकाइवली (1469-1527) ने वर्ष 1498 में एक सक्रिय राजनीतिज्ञ के तौर पर अपने करियर की शुरुआत की. वे फ्रांस, जर्मनी और इटली के कई राजनयिक मिशन का हिस्सा भी रहे. जनसेवा के लगभग एक दशक से भी अधिक कार्यकाल के बाद, उन्हें राष्ट्र के पतन के साथ पद से हटना पड़ा. नए शासन का विश्वास जीतने और अनुमोदन प्राप्त करने के उनके समस्त प्रयास विफल रहे और उन्हें रिटायरमेण्ट ले लेना पड़ा. ऐसी स्थिति में उन्होंने राजनीति से अलग रहकर बिना प्रत्यक्ष योगदान के राजनीति पर अध्ययन प्रारम्भ कर दिया. वे पुस्तकें, जिनके लिये उनका उल्लेख किया जाता रहा है, उनके मरणोपरांत प्रकाशित हुईं.

उनकी मूल पुस्तक Principe (द प्रिंस) 1513 में प्रकाशित हुई. यह पुस्तक एक सनसनीख़ेज मार्गदर्शिका है, जिसमें कुंद राजनीति पर नव शासक की नीतियों की विजय दर्शाई गई है. इसमें पुरातन नैतिक मूल्यों को किनारे रख व्यावहारिकता के सिद्धांतों पर बल दिया गया है. इस कारण से मेकाइवली के सिद्धांतों को कई लोग निर्मम, चालबाज़ और क्रूर मानते हैं.

इनकी अन्य पुस्तकों में Dell'arte della guerra (द आर्ट ऑफ वार 1520) सैन्य बल के प्रयोग पर प्रकाश डालती है तथा Discorsi sopra la prima Deca di Tito Livio (डिस्कोर्स ऑन लिवी 1531) में रोमन साम्राज्य का पुनरावलोकन तथा गणतांत्रिक व्यवस्था की प्रशन्सा की गई है. इन सभी पुस्तकों में भी व्यावहारिक सिद्दांतों को पुरातन नैतिक मतों के ऊपर बताया गया है.

मेकाइवली के अनुसार सामंती व्यव्स्था में रियासतों के राजा जब मरते हैं तब बिना किसी रोक के राजसिंहासन का उत्तराधिकारी राजा के ज्येष्ठ पुत्र या बन्धु-बांधव को मिल जाता है। यह परम्परा त्रासद है. उत्तराधिकारी के मूर्ख अथवा अयोग्य होने के बाबजूद भी जनता कोई विरोध नहीं करती। किंतु यदि नये युवराज कमजोर कामी या निकम्मे व्यक्ति हैं तो पड़ोस का शासक आक्रमण कर उस रियासत विशेष का कुछ भाग युद्द में जीतकर हड़प लेता है।

मेकाइवली कहते हैं कि राजा को पूरी तरह निरंकुश होना चाहिये। यही नहीं मेकाइवली का मानना था कि छोटे छोटे रजवाड़ों मे विभक्त इटली को दमन की नीति अपना कर सुदृढ़ सत्ता के रूप में परिवर्तित कर देना चाहिये। उनके अनुसार अपने राज्य की सीमा बढ़ाकर विजेता राजा को तीन युक्तियां अपनाना जरूरी है, वह हैं :

1. हारे हुयी शासक की जनता को पूरी तरह बर्बाद करके, उन्ही की जमीन पर जाकर वहीं रहकर नये नये फरमान जारी करके

2. उनकी सभ्यता उनके रीति रिवाजों और भाषा को हेय ठहराकर नये नियन विनिमय लादते हुये अपनी भाषा थोपकर

3. हारी हुयी कौम के कुछ चुनिन्दा लोगों को अपना सलाहकार बनाकर उनके माध्यम से शासन चलाना अधिक समझदारी का काम है।

वह कहते हैं कि कालांतर में हमारा यह लाभ होता है कि हारी हुई कौम विस्मरण का शिकार बन अपनी अस्मिता पर या तो शंका करना शुरु कर देती है या फिर अपने जातीय गौरव को तुच्छ और हेय मानने लगती है। नियमों की कठोरता के कारण हारे हुये लोग धीरे धीरे वह सब मानने लगते हैं जिन्हे उनके सत्ताधीश चाहता है।

मेकाईवली ने यह भी सिद्ध किया है कि जनता को स्वतंत्रता के वातावरण में रहने देना सबसे निकृष्ट विकल्प है, क्योंकि यह उनको शासक के विरुद्ध विद्रोह करने को प्रोत्साहित करता है. वे व्याख्या करते हुए कहते हैं, “वो, जिसे स्वतंत्रता की अभ्यस्त प्रजा का शासक बना दिया जाता है और वह उनका हनन नहीं करता है, उसे अपने विनाश के लिए तैयार रहना चाहिए.”

भारत के सन्दर्भ में जब हम विदेशी शासन और अपनी गुलामी के इतिहास को आंकते हैं तो मैकयावली की कुटिल राजनीति स्पष्ट नज़र आती है। ऐसे में लार्ड मैकॉले का एक भाषण हमेशा से चर्चा में रहा है जो अंग्रेजों की भारत में शासन की कुनीति के इस पक्ष को दर्शाता है। यह भाषण मैकाले ने 22 फरवरी 1835 की दोपहर में दिया । यह भाषण ब्रिटिश संसद की फाइलों में मिनिट्स नाम से आज भी दर्ज है। मैकाले के भाषण का सार इस प्रकार है :

मैने भारत का भ्रमण उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक पूरी तरह सचेत रहकर किया है। इस दौरान न मुझे कहीं कोई भिखारी मिला, न चोर। वहां के लोग प्रसन्नचित ही दिखे। वे अपनी अस्मिता, अपनी परम्परा पर खूब गर्व करते हैं । वे इतने प्रतिभा सम्पन्न हैं और अपने देश के अतीत पर इतना गर्व करने वाले हैं कि हम उन पर कभी शासन नहीं कर पायेंगे, जब तक हम उनकी सांस्कृतिक रीढ़ न तोड़ दें और इस रीढ़ को तोड़ने का एक ही तरीका है कि हम उनसे उनकी भाषा छीन लें तब वे मानसिक रूप से पंगु हो जायेंगे और आयातित भाषा व विचारों को सहज स्वीकार करते हुये अपनी जातीय स्मृति, अपनी संस्कृति, यहां तक की अपनी सनातन दृष्टि से भी नफरत करने लग जायेंगें।
और अंत में मेकाइवली का एक कथन जो आज के प्रत्येक राजनेता का मूलमंत्र होना चाहिये. उन्होंने अपने लेखों में सामान्य सत्ताधारीयों को सलाह दी है कि अपनी अत्यंत निजी जिन्दगी में वे कुछ भी करें, सार्वजनिक जीवन में ऐसा कुछ भी न करें जिनके कारण प्रजा उनसे नफरत करने लगे। शासक को कुख्याति से कुछ इस तरह बचना चाहिये जैसे आदमी महामारी से बचता है.

Tuesday, January 25, 2011

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

सदियों की ठंढी, बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

जनता? हां,मिट्टी की अबोध मूरतें वही,
जाडे-पाले की कसक सदा सहनेवाली,
जब अंग-अंग में लगे सांप हो चूस रहे
तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली।

जनता? हां, लंबी-बडी जीभ की वही कसम,
"जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।"
"सो ठीक, मगर, आखिर इस पर जनमत क्या है?"
'है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है?"

मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं,
जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में;
अथवा कोई दुधमुंही जिसे बहलाने के
जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में।

लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं,
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,
सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है,
जनता की रोके राह,समय में ताव कहां?
वह जिधर चाहती,काल उधर ही मुड़ता है।

अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अंधकार
बीता;गवाक्ष अंबर के दहके जाते हैं;
यह और नहीं कोई,जनता के स्वप्न अजय
चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं।

सब से विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा,
तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो
अभिषेक आज राजा का नहीं,प्रजा का है,
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो।

आरती लिये तू किसे ढूंढता है मूरख,
मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में?
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे,
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में।

फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,
धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है;
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

-- रामधारी सिह दिनकर (26जनवरी,1950ई.)

Tuesday, January 18, 2011

वक्री शनि का मनमोहन सिंह और जूलियन असांजे पर प्रभाव ?

पिछले कुछ महीनों से भारतीय अर्थव्यवस्था को घोटालों का ऐसा ग्रहण लगा है कि हटने का नाम ही नहीं ले रहा। इसी श्रृंखला में पिछले शुक्रवार को माननीय सर्वोच्च न्यायालय में सरकार की मंशा पर सवाल उठाते हुये न्यायमूर्ति श्री बी. सुदर्शन रेड्डी और न्यायमूर्ति श्री एस.एस. निज्जर की पीठ ने मनमोहन सिंह की सरकार से एक सवाल पूछा.
विदेशी बैंको में जिन भारतीयों का काला धन जमा है, उनके नाम उजागर करने में सरकार को क्या समस्या है?
यह सवाल बड़ा स्वाभाविक है. अगर सरकार के पास, काला धन जमा करने वालों के नाम नहीं हैं, तो अलग बात है, लेकिन अगर सरकार के पास नाम हैं, तो वह किस आधार पर या किसी सुविधा का लाभ उठाते हुए नामों को गुप्त रखना चाहती है?

यह बात और भी हताशा पैदा करती है कि भारत के महाधिवक्ता ने सर्वोच्च न्यायालय के इस सीधे से सवाल का सीधा जवाब देने की बजाय, कार्यवाही को स्थगित करने की पेशकश कर दी और कहा कि उन्हें सरकार से निर्देश प्राप्त करना होगा।

क्या आपको याद है कि 2009 के आम चुनावों में विपक्षी दलों द्वारा इस मुद्दे को उठाये जाने पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने देश से वादा किया था कि विदेश में जमा काले धन को वापस लाने के लिए सरकार पूरी सक्रियता से कार्य करेगी।

महंगाई से त्राहिमाम करती जनता पर पेट्रोल छिड़कने वाली सरकार के सबसे ईमानदार कहे जाने वाले प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह क्या अब हरकत में आयेंगे? क्या वे विदेशी बैंकों में छिपा भारत का पैसा वापस ला पायेंगे जिस राशि के बारे में कहा जाता है कि वह हमारे जीडीपी का छः गुना है. और इतना ही नहीं, यदि वह पूरा पैसा देश में वापस आ गया तो :

1. हमें कर्ज के लिए आई.एम.एफ. या विश्व बैंक के सामने कभी हाथ नहीं फैलाने पड़ेंगे
2. 30 साल का बजट बिना टैक्स के बन सकेगा।
3. देश के सभी गांव सड़कों से जुड़ सकेंगे।
4. देश में कोई भी बेरोजगार नहीं रहेगा।

अब एक नज़र कल लन्दन में हुई एक प्रेस कॉन्फ्रेन्स की, जहाँ यह बात सामने आयी कि स्विस बैंकों में काम कर चुके तथा गोपनीय खातों के रहस्यों से वाकिफ एक अधिकारी रूडोल्फ एल्मर ने हजारों बैंक खातों के ब्योरे वाली दो सीडी विकीलीक्स के संस्थापक जुलियस असांजे को सौंपी है! श्री एल्मर का दावा है कि इन दो सीडी में अनेकों भारतीय सहित लगभग दो हजार लोगों के नाम हैं, जिन्होंने अपने देशों के कानून का उल्लंघन करते हुए स्विट्ज़रलैंड के बैंकों के गोपनीय खातों में अवैध धन छिपा कर रखा है! यह पहला अवसर है जब दुनिया के नामी गिरामी और अमीर लोगों के गोपनीय खातों की जानकारी किसी को हासिल हुई है। इस जानकारी के सार्वजनिक होने पर स्विस बैंकिग प्रणाली की दशकों से कायम गोपनीयता ध्वस्त हो जायेगी तथा अवैध रूप से अकूत धन जमा करने वालों पर गाज गिरेगी!

2006 में जूलियन असांजे नामक इस शख्सग ने विकीलीक्स वेबसाइट की स्थापना की थी और तब से जूलियन असांजे विकीलीक्स डॉट कॉम के एडिटर इन चीफ और प्रवक्ता हैं। असांजे के बारे में कहा जाता है कि उन पर किसी का जोर नहीं है, उनकी पांच लोगों की टीम ने इतने अहम और गुप्त दस्तावेज उपलब्ध कराए हैं, जितनी पूरी दुनिया की मीडिया ने भी कभी नहीं किए।

अब भारतीय सन्दर्भ में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और अंतर्राष्ट्रीय सन्दर्भ में विकीलीक्स के जूलियन आसंजे ऐसे दो नाम हैं जिनकी तरफ हम सबकी आंखे लगी हैं। देखें इनमें से कौन घपलों और घोटालों के इस ग्रहण के सूतक के समाप्त होने की घोषणा करता है। ज्योतिष के जानकार कहते हैं कि 25 जनवरी से शुरु होने वाली शनि की वक्री दृष्टि, इस गणत्रंत की गन्दगी बाहर लेकर आयेगी। जब बड़े-बड़े अर्थशास्त्री फेल हो रहे हों तब ज्योतिष शास्त्र पर विश्वास करने को जी चाहता है, फिर भले ही क्यों न सर्वश्री अरविन्द मिश्र, प्रवीण शाह और निशांत मिश्र जैसे वैज्ञानिक विचार के प्रचारकों की आलोचना ही क्यों न सहनी पड़े।



कार्टून साभारः टूनपूल.कॉम एवम् टाइम्सकंटेंट.कॉम)

Wednesday, January 12, 2011

क्या रोम जलता रहेगा और नीरो बांसुरी बजाता रहेगा ?

कई सरकारी दफ्तरों में महात्मा गाँधी का यह अनमोल वचन, एक ख़ूबसूरत फ्रेम में जड़ा दीवार से लटकता नज़र आता हैं कि “जब भी तुम कोई योजना या कार्य का शुभारम्भ करते हो तो सबसे पहले देश के सबसे निर्धन नागरिक का चेहरा याद करो और चिंतन करो कि इस योजना या कार्य से उसका क्या भला हो सकता है”.

गाँधी जी की तस्वीर की तरह यह वचन भी अब शायद फ्रेम में फ्रीज़ होकर रह गया है यही कारण है कि आजादी के पिछले साठ सालों में एक ऐसा सुविधाभोगी समाज प्रबल हो कर उभरा है जिसे गरीबी, भूख और भ्रष्टाचार की बातें नकारात्मक या व्यव्स्था विरोधी लगती हैं। सरकारी आकड़ों की घुट्टी उसे अब इतनी सुहाती है कि उन सरकारी आंकड़ों की पोल खोलता कोई भी आंकड़ा उसे या तो आँकड़ों की बाजीगरी लगता है या फिर “ऐसा करके क्या हासिल हो जायेगा” यह कहकर वह भ्रष्टतंत्र के पक्ष में खड़ा होने से भी नहीं कतराता।

इस भ्रष्टतंत्र की रोज़गार योजनाओं के प्रति अपने इसी संतोषी नज़रिये के कारण जब वह वर्ग यह कहता है कि “चलो भाई कुछ लोगों को तो सुविधा और रोज़गार मिल ही रहा है ना” तब यह सोचने पर विवश होना पड़ता है कि यह भ्रष्टाकचार का सरलीकरण नहीं तो और क्या है? याद करें श्रीमान राजीव गाँधी का यह कथन कि सरकार से चला 1 रुपया जनता तक जब पहुचता है तो 15 पैसे हो जाता है या फिर श्रीमती इन्दिरा गाँधी का वह ऐतिहासिक कथन कि “भ्रष्टाचार एक ग्लोबल समस्या है!”

क्या यह इसी मानसिकता का परिणाम नहीं है कि आज भ्रष्टाचार व्यवस्था का हिस्सा भर ही नहीं है, बल्कि भ्रष्टाचार ही व्यवस्था बन गया है।

एक ओर तो देश की व्यवस्था जब प्रतिशत में यह बताती है कि विकास दर, मुद्रास्फ़ीति, जीडीपी, प्रति व्यक्ति आय वगैरह क्या है और दूसरी ओर गरीबी, भूख और भ्रष्टाचार जस के तस बने रहते हैं. तब तो कोई इन्हें आँकड़ों की बाजीगरी नहीं कहता? “सम्वेदना के स्वर” पर हम अक्सर आँकड़ों की पृष्ठभूमि का सच टटोलने की कोशिश करते हैं। ऐसे में जो आँकड़े और विश्लेषण हमने प्रस्तुत किए हैं, भले ही किसी को आँकड़ों की बाजीगरी लगे, लेकिन हम तो आम आदमी की तरह कुछ तथ्यों के साथ बस चौथी पाँचवीं कक्षा का गणित ही उसमें लगाते हैं. जैसे पिछली पोस्ट में।

इस बार सिर्फ प्रस्तुत हैं मात्र तथ्य :

• देश की बीमारी का इलाज़ करने वाले “डॉक्टरों” में अभी इस बात पर ही सहमति नहीं है कि वास्तव में 80 करोड़ लोग गरीबी की रेखा के नीचे हैं या 42 करोड़?

• उपरोक्त आंकड़े क्रमश: अर्जुनसेन गुप्ता कमेटी और सुरेश तेन्दुलकर कमेटी ने दिये हैं, दोनों ही आंकड़ों से व्यवस्था की विसंगतियाँ ही उजागर होती हैं।

• ओबामा के यह कहने से की भारत एक विकसित देश है, हम बहुत खुश होते हैं। परंतु जब विक्कीलीक्स में वही अमेरिका भारत द्वारा संयुक्त राष्ट्र के स्थायी सदस्य होने की बात पर भारत की हसीं उड़ाता है तो हम उस बात की उपेक्षा कर देते हैं।

• सरकारी आँकडों के अनुसार पिछले 10 वर्षॉं में 2 लाख किसानों ने इस देश में आत्महत्या की है! एनडीटीवी जैसा सरकारी टेलीविज़न चैनल तक यह आंकड़ा देता है कि 2009 में सिर्फ महाराष्ट्र में 19,000 से अधिक किसानों ने आत्म हत्या कर ली है।

• मुम्बई के धारावी इलाके में मात्र 175 हेक्टेयर जमीन के टुकड़े पर 6 लाख लोग ठूसें हुये हैं।

• एक रिपोर्ट के अनुसार तो जिन जिन गाँवों में नरेगा स्कीम सफल हुई है, उन उन गाँवों के सरपंच के घर के आगे एक-एक सियासी झंड़ा लगी एसयूवी गाड़ी खड़ी पायी गयी है।

दुष्यंत कुमार के शेर सुनकर तालियाँ बजाते, वाह वाह करते लोग बड़े जोश में एलान कर देते हैं अपने सीने में जलती आग का या हाथ में लिये उस पत्थर का जिससे आकाश में सुराख़ करने का जोश लिये फिरते हैं वो. मगर जब कोई इबारत उनको ऐसा करने को उकसाती है तो दुबक जाते हैं कोड ऑफ कंडक्ट की दीवार के पीछे. प्यार, भाईचारा, समानता, मित्रता, सहृदयता, सहिष्णुता की बातें क्या सिर्फ हिंदू मुस्लिम पर लागू होती हैं, सामाजिक अस्पृश्यता पर नहीं!

रेशमी ज़ुल्फें, नशीली आँखें, प्रेम की पराकाष्ठा, विरह की वेदना, चाँद की सुंदरता पर सब मुग्ध हो जाते हैं, मगर मजलूम के आँसुओं से साफ बचकर निकल जाते हैं तटस्थता का रोना रोकर.

समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध,
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध!

Friday, January 7, 2011

नरेगा की भीख बनाम विकसित राष्ट्र “इन्डिया”

आजकल प्रचार तंत्रों में सरकार द्वारा इस बात को जोर शोर से प्रचारित किया जा रहा है कि नरेगा योजना के द्वारा आम आदमी के जीवन में भी खास आदमियों जैसी समृद्दि लायी जा रही है!! अगर वास्तव में यह ऐसी चमत्कारी योजना है तो यह जानना जरूरी हो जाता है कि आखिर यह “नरेगा” है क्या? राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (National Rural Employment Guarantee Act) अर्थात् नरेगा. मनमोहन सरकार का एक मनमोहनी कार्यक्रम, जिसका मकसद है, ग्रामीण क्षेत्रों के परिवारों की आजीविका सुरक्षा को बढाना. इसके तहत हर घर के एक वयस्क सदस्य को, सरकार द्वारा, कम से कम 100 दिनों का निश्चित रोजगार दिए जाने की गारंटी दावा है। यह रोजगार शारीरिक श्रम के संदर्भ में है और उस वयस्क व्यक्ति को प्रदान किया जाना है जो इसके लिए राज़ी हो। नरेगा का दूसरा लक्ष्य टिकाऊ परिसम्पत्तियों का सृजन कर ग्रामीण निर्धनों की आजीविका के आधार को सुदृढ़ बनाना भी बताया जाता है। योजना को एक अप्रैल 2008 से देश के सभी ग्रामीण क्षेत्रों तक विस्तार दे दिया गया है।


उपरोक्त परिपेक्ष्य में जब हमने कुछ सरकारी आँकड़ों को खंगाला, तो जो तस्वीर उभर कर आई, वो कुछ इस तरह है:


आइए अब बच्चों वाले गणित के ऐकिक नियम (युनिटरी मेथड) के अनुसार प्रति निर्धन व्यक्ति को मिलने वाली आय का आकलन करें:


एक बार फिर उपरोक्त तालिका के आकड़े पर नज़र डालें तो विश्वास नहीं होता कि कुल 29694.00 करोड़ रुपए, 42 करोड़ जनता की मज़दूरी पर ख़र्च करने हों, तो प्रत्येक मज़दूर को जो राशि प्राप्त होगी वह है
` 29694 करोड़ / 42 करोड़ = `  707.00

अब बताइये जरा कि नंगा नहाएगा क्या और निचोड़ेगा क्या? 707 रुपये प्रति वर्ष यानि 1 रुपये 93 पैसे प्रति दिन. दिल्ली के किसी भी सिगनल पर भीख माँगने वाला भिखारी इससे अधिक की कमाई कर लेता है और किसी मंदिर या मस्जिद के बाहर बैठने वाला भिखारी इससे कहीं अधिक कमाता है. शायद आप अंदाज़ा नहीं लगा सकते कि मुम्बई की लोकल ट्रेनों में भीख माँगने वालों की कमाई कितनी है.

लेकिन इज़्ज़त से मज़दूरी करने वाले को मिलने वाले `1.93 क्या भीख नहीं है?

Tuesday, January 4, 2011

आवाज़ की दुनिया - एक पॉडकास्ट

आज पहली बार पॉडकास्ट करने की सोची. बहुत से लोगों की देखा देखी, सोचा अपना गला भी आजमा कर देखते हैं, तो इस बार कलम और की पैड को आराम देते हुये, पेश है हमारी पहली पॉडकास्ट!!



Saturday, January 1, 2011

आईये स्वागत करें नववर्ष का!!


नव दशाब्दि के
प्रथम वर्ष के
प्रथम दिवस पर
धरती की रोटी पर यह सूरज का टुकड़ा
शहद बिखेरे प्रथम रश्मि का.
हम करते हैं विनती
उस परमेश्वर से कि
यह मिठास फैले हर दिन पर
आने वाले नये साल के!

सभी  सुधिपाठकगण को
संवेदना के स्वरका
मंगल संदेश!!
नव वर्ष  मंगलमय  हो!!

सलिल वर्मा
चैतन्य  आलोक
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