सम्वेदना के स्वर

यह ब्लॉग उस सनातन उत्सवधर्मिता को जीवित रखने का प्रयास है,

जिसमें भाव रस और ताल का प्रतीक आम आदमी का भा-- बसता है.
सम्वेदनाएँ...जो कला, साहित्य, दर्शन, विज्ञान, राजनीति आदि के माध्यम से अभिव्यक्त होती हैं, आम आदमी के मन, जीवन और सरोकार से होकर गुज़रती हैं तथा तलाशती हैं उस भारत को, जो निरंतर लड़ रहा है अपने अस्तित्व की लड़ाई.....

Tuesday, June 29, 2010

अल्पसंख्यक बनाम बहुसंख्यक – सस्ती कार बनाम महंगी दाल

15 अगस्त 1947 को मिली स्वतंत्रता, अपने साथ धार्मिक आधार पर हुए विभाजन की त्रासदी भी लेकर आयी थी. एक तरफ इस्लामी पाकिस्तान बना और दूसरी ओर धर्म-निरपेक्ष भारत.
इतिहास गवाह है कि इस धर्म-निरपेक्ष भारत में कथित आज़ादी के बाद से ही धार्मिक अल्प-संख्यक और बहु-संख्यक का एक छद्म युध्द जारी है. छद्म इसलिये कि इसकी आड़ में देश के असली अल्प-संख्यक और बहु-संख्यक पार्श्व में चले जाते हैं और मंच पर धर्मान्धता का राजनैतिक खेल चलता रहता है.



खेल, कभी सम्प्रदाय के नाम पर, कभी जाति के नाम पर, कभी बोली के नाम पर. लेकिन क्या किसी ने सोचा भी है कि इस देश की असली विभाजन रेखा कौन सी है, जो पूरे समाज को दो हिस्सों में बाँटती है. और दो हिस्सों के अंदर कोई हिस्सा नहीं होता. सिर्फ दो, अल्प संख्यक और बहु संख्यक. इनके दर्मियान कोई सम्प्रदाय नहीं, कोई जाति नहीं और कोई भेद भाव नहीं.

गुलज़ार साहब कहते हैं  “हिंदुस्तान में दो दो हिंदुस्तान दिखाई देते हैं” हम भी यही कहते हैं. लेकिन हमने जिन दो हिंदुस्तानों को देखा है वो भारत और इण्डिया है. अल्पसंख्यक इण्डिया और बहुसंख्यक भारत, शासन करता हुआ प्रिटोरिआ सरकार की तरह या फिर ईस्ट इण्डिया कम्पनी की तरह.
ये विभाजन अमीर से और अमीर तथा गरीब से और ग़रीब होने वाले समाज का विभाजन है. ये कोई राजनैतिक विभाजन नहीं है, समाज में नंगी आँखों से दिखाई देने वाला सच है. वह समाज जहाँ एक ओर राष्ट्रमण्डल खेलों में करोड़ों के खर्च से बड़े बड़े मकान बनाए जा रहे हैं, वहीं यमुना की छाती पर सीमेंट का क़फ़न ओढाया जा रहा है. जहाँ खेलों के बाद ये मकान करोड़ों में बिकेंगे,वहीं खेलों के दौरान कितने बेघर होंगे.
“सम्वेदना के स्वर” में हमने समय-समय पर, हमारे स्वतंत्र राष्ट्र के अंदर बसने वाले अल्पसंख्यक अमीरों के इंडिया और बहुसंख्यक ग़रीबों के भारत के बीच की इस विभाजन रेखा को विभिन्न दृष्टिकोणों से जाँच कर देखा है:      
इसे एक महान राष्ट्र की महानतम् विडम्बना ही कहा जायेगा कि जिस आर्थिक सुधार के रथ पर हम विकास की सवारी कर रहे हैं, वह हमें एक ऐसे गंतव्य तक ले आया है, जहाँ इंडिया के लिए बनी कार सस्ती होकर लखटकिया भर रह गई है, वहीं दाल रु.100 प्रति किलो होकर भारत के मुँह से निवाला छीन रही है.
हाल ही में पैट्रोल-डीजल की कीमत को ‘बाज़ारू’ शक्तियों के हवाले कर, भारत पर महंगाई की मार और बढ़ा दी है. इंडिया के अम्बानी बन्धु खुश हैं कि पैट्रोल-डीजल की कीमत अब बाज़ार निर्धारित करेगा और उनके बन्द पड़े पैट्रोल पम्प फिर चल पडेंगे. उधर भारत की “कलावती” (वही, जिसका नाम लेकर देश के नेतृत्व की भावी पीढ़ी ने इंडिया को बहुत प्रभावित भी किया था, पर अपना काम हो जाने पर बेचारी कलावती को भूल गये) कैरोसिन की कीमत में तीन रुपए प्रति लीटर की बढ़ोत्तरी से परेशान है.
विकास और महंगाई की इस दौड़ में, विकास का मजा अल्पसंख्यक इंडिया ले रहा है और महंगाई की मार बेचारा बहुसंख्यक भारत झेल रहा है. प्रधानमंत्री जी ने शायद इसीलिये एक बार कहा था कि इस देश के संसाधनों पर पहला हक अल्पसंख्यको का है.
(चित्र साभार: गूगल खोज)

Saturday, June 26, 2010

यार जुलाहे!!

(चित्र साभार: http://www.cs.colostate.edu/)

एक जुलाहा, सूत के पतले धागों से एक चादर बिनता. टुकड़े टुकड़े धागों को ऐसी गाँठ लगाता कि पूरी चादर में गाँठ ढूँढे से भी न मिले. ज़िंदगी का ताना बाना बुनते बुनते कितनी गाँठें लग जाती हैं, जो दिखती भी हैं और खोले से खुलती भी नहीं. ऐसा ही एक जुलाहा तकरीबन सात सौ साल पहले हमारे बीच आया, एक तरकीब बताने, जिससे ज़िंदगी की चादर बिनते हुए कोई गाँठ दिखाई न दे और ये चादर जब उतरे तो मैली न हो, उसपर कोई दाग़ न रहे.
एक अनपढ़ इंसान जिसे वेद, क़ुरान का कोई ज्ञान नहीं था, लेकिन उसकी तकरीबन पाँच सौ वाणियाँ गुरु ग्रंथ साहिब में मौजूद हैं. नमन करते हैं हम कबीर को… आज जेठ माह की पूर्णिमा के दिन, उनकी जयंती पर.
दोहे, साखियाँ और निरगुण गाने वाले कबीर ने एक ग़ज़ल भी कही है. हमारी तरफ से एक श्रद्धांजलि उस महान संत कोः

हमन हैं इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या ?
रहें आजाद, या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या ?
जो बिछुड़े हैं पियारे से, भटकते दर-ब-दर फिरते,
हमारा यार है हम में, हमन को इंतजारी क्या ?
खलक सब नाम अपने को, बहुत कर सिर पटकता है,
हमन गुरनाम साँचा है, हमन दुनिया से यारी क्या ?
न पल बिछुड़े पिया हमसे, न हम बिछड़े पियारे से,
उन्हीं से नेह लागी है, हमन को बेकरारी क्या ?
कबीरा इश्क का माता, दुई को दूर कर दिल से,
जो चलना राह नाज़ुक है, हमन सिर बोझ भारी क्या ?

(शीर्षक साभार: गुलज़ार)

Tuesday, June 22, 2010

राजस्व की लालची सरकार

मेरा एक मित्र सचिवालय में नौकरी करता है, मैं चाहता तो सचिवालय में काम करता है, भी लिख सकता थ. लेकिन मुझे पता नहीं वो काम करता भी है या नहीं, इसलिए नहीं लिखा. हाँ, नौकरी करता है ये बात पक्की है. ख़ैर, एक दिन मुझे सचिवालय में कोई काम था. सोचा दोस्त है तो मिल लूँ, अगर आवश्यकता हो तो उसकी मदद भी ली जा सकती है. किंतु इतने बड़े सरकारी महाजाल में मैं अपने मित्र को कहाँ खोज पाउँगा, इसलिए उससे मैं ने पूछ लिया, “यार, तेरा डिपार्टमेंट है कहाँ पर, कैसे मिलूँगा तुझसे?”
मेरे मित्र ने पूरा नक्शा मेरे सामने रख दिया. ज़रा आप भी ध्यान दें. मेरे मित्र ने कहा, “बहुत आसान है. तुम गाड़ी लेकर सामने वाले गेट से मत आना. बगल वाला गेट, जिसपर लिखा होगा ‘प्रवेश निषेध’ उधर से अंदर चले आना. एकदम नाक की सीध में, एक दीवार दिखेगी जिसपर लिखा होगा ‘यहाँ गाड़ी खड़ी न करें’, वहाँ गाड़ी पार्क कर देना. बिल्कुल पास में ऊपर जाती सीढियाँ दिखाई देंगी, साथ में एक बोर्ड लगा होगा, जिसपर लिखा होगा ‘अनाधिकार प्रवेश वर्जित’, वहाँ से ऊपर चले आना. सामने कई कमरे होंगे, एक के सामने लिखा होगा ‘गोपनीय कक्ष’, उसके अंदर चले आना. सीधे हाथ पर एक गलियारा दिखेगा. वहाँ दो कदम चलते ही एक हॉल मिलेगा, जहाँ लिखा होगा ‘कृपया शांति बनाए रखें’, वहाँ ज़ोर से मेरा नाम लेकर पुकारना. मैं आकर ले जाऊँगा तुझे अपने कमरे में.
लब्बोलुआब ये कि इस तरह की हिदायतें सिर्फ लिख दी जाती हैं, ताकि सनद रहे और ज़िम्मेदारियों से छुटकारा मिले. स्व. शरद जोशी के शब्दों में हमारे देश सब कुछ है, मगर वो नहीं है,जिसके लिए वो हैं. आखिर जनता का राज है, और जनता समझदार है, पढी लिखी है. सच तो यह है कि ऐसी चेतावनी लिखने/लिखवाने वाले चाहते ही नहीं कि इन चेतावनी पर कोई अमल करे, क्योंकि लिखना सिर्फ रस्म अदाई है.

(चित्र साभार: कालीकट नेट.कॉम)
अब सिगरेट और शराब को ही ले लें. सिगरेट की डिब्बी पर लिखवा दिया “सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है” और काम खतम. अगर ये इतनी ही हानिकारक है तो रोक लगा दें इनपर. लेकिन राजस्व के लालच में शराब और तंबाखू के सेवन पर सरकारें रोक लगाने से हमेशा बचती रही हैं और इसके विकल्प में महज वैधानिक चेतावनी लिख कर अपने कर्तव्यों की इति श्री कर लेती हैं. सवाल ये उठता है कि क्यों ऐसे उत्पाद बाज़ार मे रहें, जो नागरिकों के स्वास्थ्य के लिये हानिकारक हैं?
लेकिन ऐसा नहीं कि उन्हें आपकी फ़िक्र नहीं है. दुपहिया वाहन चालकों से हेल्मेट न पहनने और कार चालकों की सीट बेल्ट न बँधी होने पर वहीं का वहीं जुर्माना कर दिया जाता है? आख़िर क्यों?? क्यों नहीं इन वाहनों पर भी धूम्रपान और मद्यपान करने वालों की तरह, वैधानिक चेतावनी लिखकर, वाहन चालक के विवेक पर बात छोड़ दी जाती है? वाहन चालक चाहें तो हेल्मेट न पहनकर या सीट बेल्ट न बाधंकर, अपनी जान जोखिम में डालें, सरकार को क्या? सरकार ने तो वैधानिक चेतावनी (जैसे “बिना हेल्मेट दुपहिया वाहन चलाना या बिना सीट बेल्ट बांधे गाड़ी चलाना, जान जोखिम में डालना है”) प्रत्येक दुपहिया वाहन और कार पर लिखवाना अनिवार्य करके, आपको पहले ही सचेत कर दिया है. और अगर आप ऐसा नहीं लिखवाते हैं अपने वाहन पर, तब आपको जुर्माना हो सकता है. वैधानिक चेतावनी लिखवाईए और काम पे चलिए!
इन दोनों परिस्थितियों में जनसाधारण के जीवन का प्रश्न जुड़ा है, किंतु उससे भी बड़ा प्रश्न यह है कि क्या व्यवस्था को सचमुच नागरिकों के प्राणों की चिंता है? उत्तर स्पष्ट है कि सर्वोच्च प्राथमिकता सिर्फ अपने राजस्व की है?
पहले उदाहरण में राजस्व के लोभ में शराब और तंबाखू का उत्पादन जारी रखा जाता है, नागरिकों की जान से बेपरवाह होकर. वह राजस्व जिसका एक हिस्सा नागरिकों को दी जाने वाली स्वास्थ्य सेवाओं पर ख़र्च होता है, जो इन पदार्थों के सेवन से उत्पन्न होती हैं.
दूसरे उदाहरण में हेल्मेट उद्योग से मिलने वाले राजस्व के लोभ में व्यवस्था, नागरिकों के जान की परवाह करती हुई दिखाई देती है. वही सरकार, वही नागरिक, वही देश… लेकिन यहां आम आदमी के जीवन की किसे चिंता है
                  ज़िंदगी सिगरेट की है मानिंद
                  देती है धुँआ तब तक
                  कि जबतक खत्म हो जाती नहीं!!

Saturday, June 19, 2010

भूली बिसरी ग़ज़ल

कुछ साल पहले, जनाब तुफ़ैल चतुर्वेदी ने उनकी त्रैमासिक पत्रिका ‘लफ्ज़’ में दो लाईनें दीं और उन्हें 'ऊला' या 'सानी' की तरह इस्तेमाल करते हुए, दो अलग-अलग ग़ज़ल लिखने का एक मुक़ाबला रखा. मैंने भी लिखी थी दो गज़लें और आदतन भेजी नहीं. भूल भी गया लिखकर. आज आप लोगों के सामने रख रहा हूँ. ग़ज़ल का मक़्ता नया लिखा है, जो ‘मेरी’ ग़ज़ल का ‘हमारा’ एडिशन है:

नज़रे-आतिश  मेरा  मकान भी  था,
तब लगा सर पे आसमान भी था.
सारी दुनिया ने ज़ख्म मुझको दिए,
इनमें शामिल तुम्हारा नाम भी था.
मुफलिसी    में    जो    बेच    डाले   थे,
उनमें यादों का कुछ सामान भी था.
हमने   जिसको   बिठाया   संसद  में,
वो तो  बहरा  था, बेजुबान  भी  था.
अपनी   खादी     की    सफेदी   देखो,
ख़ून का इसपे इक निशान भी था.
जिन   गवाहों  ने  दिलाई  है  सज़ा,
दोस्त!   उनमें   तेरा  बयान भी था.
होंगे   'संवेदना  के  स्वर'   तेज़ाब,
क्या तुझे ये कभी  गुमान भी  था?

Tuesday, June 15, 2010

नरेंद्र मोदी - हीरो या ज़ीरो ???

दो तीन दिन पहले मुझे अचानक पटना जाना पड़ा. वहाँ भारतीय जनता पार्टी की विशाल रैली थी. राज्य के मुख्य मंत्री (बीजेपी के सहायक दल से) इस बात पर बिदक गए कि उनकी तस्वीर श्री नरेंद्र मोदी से हाथ मिलाते हुए दिखाई गई थी. और मीडिया ने इस बात का बतंगड़ भी बनाया. मैं किसी भी राजनैतिक पार्टी का समर्थक या विरोधी नहीं, अच्छी बुरी बातोंको लेकर हर पार्टी के विषय में मेरी अपनी राय है. नरेंद्र मोदी को लेकर जो रुख़ सारी तथाकथित धर्म निरपेक्ष पार्टियों ने अपनाया हुआ है, और उन्हें अछूत घोषित किया है, इस सारे प्रकरण ने मुझे उनको पसंद करने पर मजबूर कर दिया. एक अकेले इंसान के पीछे जब नहा धोकर सारे चोटी के दल पड़ जाएं, तो उसमें दम है. इसको लेकर मेरी चैतन्य भाई से फोन पर लम्बी चर्चा होती रही. क्योंकि उनके राजनीति को लेकर बड़े स्पष्ट विचार और धारणाएं हैं, जो मुझमें बिल्कुल नहीं.


मैंने जिज्ञासावश अपने मन की बातें उनके सामने रखीं और उनसे जानना चाहा कि क्यों गुजरात की समृद्धि और विकास के बावजूद भी नरेंद्र मोदी, एक अछूत नाम बना है देश की राजनीति में.

गुजरात में गोधरा के बाद जो दंगे हुए, उनमें नरेंद्र मोदी का प्रत्यक्ष रूप से हाथ बताया जाता है…
चैतन्य जी ने मेरी बात काटते हुए कहा, “क्या देश में इससे पहले दंगें नहीं हुये ? मै उत्तर प्रदेश के एक छोटे से शहर मुरादाबाद से आता हूं और छोटी उम्र में दंगों की त्रासदी देखी है मैंने. नाना-नानी के पास रहता था और वहाँ नियमित रूप से बी. बी. सी. हिंदी समाचार सुने जाते थे. गुजरात के अहमदाबाद शहर के कालूपुर और दरियापुर मुहल्ले मुझे वहां आए दिन होने वाले दंगों के समाचारों के कारण आज भी याद हैं. साम्प्रदायिक दंगों का एक पूरा इतिहास रहा है गुजरात का, इस बात को पृष्ठभूमि में क्यों नहीं रखा जाता ?

नरेन्द्र मोदी के साथ गुजरात दंगों को एक गहरी राजनैतिक साजिश के तहत चस्पां कर दिया गया है! वरना क्या कारण है कि मध्यप्रदेश, बिहार, उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र आदि राज्यों के दंगों को भुला दिया जाता है और गोधरा बाद के दंगे इतिहास में दर्ज़ हो जाते हैं? 1984 के सिक्खों के नरसंहार के अपराधियों का क्या हाल हुआ, आपसे छिपा नहीं! राजीव गाँधी की प्रतिक्रिया थी कि “जब एक बड़ा पेड़ गिरता है, तो आस-पास की ज़मीन थोड़ी हिलती ही है” इस देश का विभाजन धर्म के आधार पर हुआ है, जिसमें तकरीबन दस लाख लोगों का कत्ले-आम हुआ बताया जाता है! कौन था उसका दोषी ? नरेन्द्र मोदी??

आप उत्तेजित हो गए! तो क्या मीडिया की रिपोर्ताज़, और टीवीपर दिखाई जाने वाली ख़बरें सच्चाई से परे हैं?
मुझे याद है 90 के दशक में टेलिविज़न समाचार चैनलों की शुरुआत हुइ थी और टेलीविज़न एंकर प्रनॉय राय, एस पी सिहं, बरखा दत्त, राजदीप सरदेसाई, विनोद दुआ आदि घर घर में पहचानें जाने लगे. बॉलीवुड स्टार और क़िकेट स्टार से इतर एक नया “बुद्धिजीवी सा दिखने वाला वर्ग ” पैदा हुआ, टेलीविज़न पत्रकारों का ! मै यह पृष्ठभूमि इसलिए दे रहा हूं कि मेरी दृष्टि से इन मीडिया पर्सनैल्टीज़ ने लालू यादव और नरेन्द्र मोदी का इस्तेमाल किया है, ख़ुद को मीडिया मुग़ल बनाने में. सलिल भाई! आप जानते हैं मेरा इशारा किस तरफ है. इन फैक्ट सब जानते हैं!!
साउथ दिल्ली और नोएडा सेक्टर 16 के टेलीविज़न चैनलों की हक़ीक़त हम दोनों ने ही करीब से देखी है. राजनीति के चौसर पर सबसे ख़तरनाक घोड़े की ढा‌ई घर वाली चाल इन चैनलों के ज़रिये ही चाली जाती है.
टेलीवीज़न नाम के इस बुद्धू बक्से से सिर्फ रूप और सौंदर्य निखारने के लिए साबुन तैल और शैम्पू ही नहीं बेचे जाते वरन् राजनैतिक छवियाँ भी बनाई और बिगाड़ी जाती हैं.

मोदी जी के गुजरात में विकास तो दिखाई देता है. यहाँ तक कि अमित जी भी वहाँ के ब्रैंड एम्बैसेडर बने बैठे हैं..
देखिए! अपने काम के सिलसिले में मुझे जब भी गुजरात से सम्बन्धित कोई व्यव्सायी या व्यक्ति मिलता है तो अनायास ही गुजरात के विकास से सत्य को पड़तालने की मेरी चेष्टा रहती है. इस फीड बैक से मुझे तो यही पता चलता है कि मोदी ने ब्युरोक्रैसी को जबाबदेह बनाया है, विकास की नर्मदा बहायी है और सरकारी भ्रष्टाचार को कम किया है. रतन टाटा सिंगूर में नैनो का कारखाना लगाने के लिये वर्षों पापड़ बेलते रहे परंतु गुजरात में तुरंत-फुरंत सबकुछ सही हो गया. कुछ तथ्य तो है, गुजरात के विकास के इस सत्य में!

एक व्यक्तिगत प्रश्न. क्या लगता है आपको कि कपड़ों से लेकर चप्पलें तक श्वेत रंगी पहनने वाला व्यक्ति, व्यक्तिगत शुचिता का प्रतिनिधित्व करता है ?
आज जब सभी संस्थाएँ धराशायी हो रही हैं, अविवाहित रह्कर, देश सेवा का विचार अपने आप में एक श्रेष्ठ साधना है. अपने निजी जीवन में जिस सादगी और शुचिता से नरेन्द्र मोदी रहते हैं, उस पक्ष को आम जनता की जानकारी में कभी लाया नहीं जाता. शायद! मुर्गा और शराबखोर मीडिया के एक बड़े वर्ग के लिये यह भी संकीर्ण और पुरातन मानसिकता है.

लेकिन उनके सफेद कपड़ों पर अल्पसंख्यक विरोधी होने का जो दाग़ लगा है, उसका क्या?
दरअसल ये जो हम अल्पसंख्यक शब्द का प्रयोग मुसलिम समुदाय के पर्याय के रूप में करते हैं, वह अपने आप में एक घोर साम्प्रदायिक विचार है. इस तथ्य का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करें तो हम पायेंगे कि कहने वाले व्यक्ति ने पहले ही धर्म के चश्मे चढा रखें हैं वरना सही शब्द होता धार्मिक अल्पसंख्यक. फिर अल्पसंख्यक एक सापेक्षिक बात है कश्मीर में हिंदु अल्पसंख्यक है, मुस्लिम बहुसंख्यक, उत्तर पूर्व में ईसाई बहुसंख्यक हैं. सौ बात की एक बात कहें तो वास्तव में इस देश में समझदार लोग अल्पसंख्यक हैं.
.......
पटना की रैली से शुरू हुआ यह प्रश्नकाल चलता ही रहता, यदि बी.एस.एन.एल. की कृपा से मोबाईल नेट्वर्क ऐसा बाधित न हुआ होता. पता नहीं चैतन्य जी के विचारों से मैं कितना सहमत हो पाया, क्योंकि राजनीति की समझ मुझमें चाणक्य भूमि से जुड़े होने के बाद भी नहीं आई.

Saturday, June 12, 2010

चाँद हुआ गुलज़ार !

चार महीने, इकतालीस फॉलोअर, पैंतालीस पोस्ट, 430 टिप्पणियाँ और इससे भी कहीं ज़्यादा लोगों से बने रिश्ते... ये आँकड़े नहीं हैं, यह एक टीस है, जो जितना चुभती है, उतना ही हमारी सम्वेदना के स्वर मुखर होते हैं. यह एक बड़ा ही नाज़ुक एहसास है, जब भी गुज़रता है हमारे दिल के आसमान से, सराबोर कर जाता है कविता, ग़ज़ल या नज़्म की बारिश में. कितनों को पढ़ा और उनके जज़्बात के हमसफर बने, कितनी टिप्पणियाँ लिखीं. लेकिन जो लिखा बेबाक, जैसा महसूस किया! कई बड़ों के आशीर्वाद लिए, छोटों को सलाहियत दी... गोया एक पूरा ख़ानदान गढ़ लिया हमने, ब्लोग की इस अनजान सी क़ायनात में....

आज की पोस्ट डेडिकेटेड है उस शख्स को जिसने चाँद को सिर्फ घटती बढती कलाओं में ही नहीं, बल्कि उससे भी आगे जाकर देखा है. जिसे चाँद कभी महबूबा की जगह रोटी नज़र आता है, कभी भिखारन के हाथ का कटोरा और कभी चमकीली अठन्नी… चाँद का शायद ही कोई ऐसा रूप होगा, जो इनसे छिपा हो. और इंतिहाँ ये कि इन्होंने एलानिया तौर पर कह दिया है कि "चाँद चुरा के लाया हूँ". लिहाज़ा किसी दूसरे के लिए कोई सूरत नज़र नहीं छोड़ी. साईंसदान चाँद पर ज़िंदगी तलाश करने में मसरूफ़ हैं और आज हमने अपनी इन छोटी नज़्मों के मार्फत ये एलान कर दिया है कि चाँद हुआ गुलज़ार.

 RUMOUR

कब सोचा था दादी नानी के सारे अफसाने बिल्कुल झूटे होंगे,
चाँद पे कोई बुढिया रहती है, ये सब बस कोरी गप्प थी.
आज ही मैं ने जाना है ये
चाँद पे रहता है एक शख्स सफेद पजामे कुर्ते
और तिल्लेवाली एक जूती पहने
बुढिया की अफवाह उसी ने फैलाई थी सदियों पहले.
आज ही मैंने जाना है
इक नाम भला सा है उसका
और भरी हुई है सिर से लेकर पाँव तलक
भरपूर मोहब्बत, गहरा प्यार
ज़ुबाँ पे क्यों आता ही नहीं... सम्पूरन सिंह गुलज़ार.

WATER LOGGING

कल की रात हुई थी बारिश
आसमान में चारों ओर थी वाटर लॉगिंग
एक तारे ने दूसरे तारे की उँगली को थाम रखा था
दूसरे तारे ने धीरे से पैर जमाकर चाँद के ऊपर
पानी का गड्ढा हौले से फाँद लिया था.

CRIME RATE

सचमुच क्राईम रेट आज आकाश की हद तक पहुँच गया है
कुछ दिन पहले तक तो पूरा चाँद
टँगा था आसमान में.
आज की रात जो देखा मैंने
कोई आधा काट के अपने साथ ले गया.


Tuesday, June 8, 2010

लघु ब्लॉगर्स मीट और राजनीति !!

सलिल वर्मा जी के ब्लॉग, चला बिहारी ब्लॉगर बनने, पर सुश्री सोनी गर्ग का कमेंट आया जिसमें उन्होंने नई फिल्म राजनीति का एक सम्वाद उद्धृत किया था, जिसे नसीर साब ने फिल्म में कहा है. यह सम्वाद बहुत प्रभावशाली था और कहीं न कहीं हमारी भावनाओं को अभिव्यक्ति प्रदान करता दिखाई दिया. इस कारण हमने सोचा कि इस फिल्म को देखा जाये, हमारी इस योजना में “गूंज-अनूगुंज” ब्लॉग के मनोज भारती भी जुड़ गये.

फ़िर क्या था हम तीनों (सलिल, चैतन्य और मनोज भारती) एक साथ एक ही शो में यह फिल्म देखने गए – मनोज भारती हरियाणा के एक शहर अम्बाला में, चैतन्य चंडीगढ़ में और सलिल ने दिल्ली में यह फिल्म देखी. फिल्म देखने से यह पोस्ट लिखे जाने तक हमने इस विषय पर एक लम्बी परिचर्चा की, और इसे ही रूप दिया एक ‘लघु ब्लॉगर्स मीट’ का. इसे हमारी समीक्षा कह लें, परिचर्चा कहें या बातचीत. बिना किसी के विचारों से प्रभावित हुए, एक बेबाक बातचीत फिल्म “राजनीति” पर.


कथा का आधारः

मनोज भारती: प्रकाश झा ने इसे भारतीय राजनीति के परिप्रेक्ष्य में बनाया है और इसके कुछ पात्र महाभारत से प्रेरित हैं।
चैतन्यः फिल्म के मुख्य पात्र पृथ्वी, समर और वीरेंद्र, साथ में सूरज महाभारत के पात्रों की तरह ही थे, परंतु घालमेल इतना था कि कौन कौरव है और कौन पाण्डव, इसका पता अंत तक नहीं चला. दरअसल बिना कृष्ण की इस महाभारत से किसी भी तरह की सम्वेदनशीलता स्थापित नहीं हो पाई, फिर बिना कृष्ण के महाभारत हो भी कैसे सकती है ?
सलिल वर्मा : कथानक का आधार महाभारत से प्रेरित दिखाया गया है, किंतु फिल्म के मध्य में सिर्फ गॉड फादर है. अतः कहानी एक राजनैतिक प्रकरण न होकर एक गैंग वार होकर रह गई है.

राजनीतिः

मनोज भारती: यद्यपि फिल्म को भारतीय राजनीति के वर्तमान दौर का दर्पण कहा जा रहा है, लेकिन फिल्म में बहुत कुछ ऐसा है, जो यथार्थ से परे लगता है ।
चैतन्यः मुझे लगता है प्रकाश झा की समस्या यह रही होगी कि सैंसर बोर्ड की कैंची के चलते वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य पर सीधा-सीधा वो दिखा नहीं सकते थे, इसी कारण उन्होनें महाभारत का माध्यम चुना.
सलिल वर्मा : यह फिल्म न तो राजनीति पर प्रकाश झा की कमेंटरी है, न किसी राजनैतिक समस्या की ओर इंगित करती है, न कोई समाधान बताती है, न किसी व्यवस्था का चित्रण करती है.

महिला चरित्रः

मनोज भारती: नारी का राजनीति के लिए इस्तेमाल किया गया है। उसकी पुरूष प्रधान समाज में आज भी कोई व्यक्तिगत सोच नहीं है और वह पुरुष के हाथों की कठपुतली है। बल्कि नारी भी महत्वाकांक्षा को पूर्ण करने के लिए कुछ भी करने को तैयार दिखाई पड़ती है।
सलिल वर्मा: अभिजात्य वर्ग की महिला भी शोषण का शिकार होती दिखाई गई है, एक ओर राजनैतिक सूझबूझ वाली स्त्री, एक घरेलू महिला बनकर रह जाती है, दूसरी ओर एक स्त्री विवाह के व्यापारिक सम्बंधों की बलि चढ़ जाती है. मरी हुई सम्वेदनाओं की लाश दिखती हैं सारी महिलाएँ.
चैतन्यः इसे मैं देश, काल और परिस्थितियों से परे, नारी जीवन की विडम्बना ही कहूँगा कि जब नारी पुरषोचित कार्य करती है, तभी उसका संज्ञान लिया जाता है. यह फिल्म भी उसी दृष्टिकोण को उजागर करती है.

दलित राजनीतिः

सलिल वर्मा: यहाँ फिल्म वास्तविकता दर्शाती है कि दलितों का इस्तेमाल सिर्फ वोट हासिल करने के लिए किया जाता है. कोई राजनेता उनको दुत्कारने के लिए इस्तेमाल करता है, तो कोई सत्ता का लालच या भीख देकर.
मनोज भारती: राजनीति का केंद्र दलित और गरीब जनता है, जिसके वोट हासिल करने के लिए उसे रोटी से लेकर सत्ता में भागीदारी तक के लालच देकर उसे गुलाम बना लिया जाता है । सत्ताधीश और राजनीतिज्ञों द्वारा जनता के वोटों के लिए उसे वास्तविक मुद्दों यथा शिक्षा, स्वास्थ्य आदि से दूर ही रखा गया है ।
चैतन्यः सूरज (अजय देवगन) की दलित परिवार में परवरिश देख कर लगा कि शायद फिल्म का यह पात्र सर्वहारा की आवाज़ बनकर कानु सान्याल और चारु मज़ुमदार की विचारधारा के सामाजिक और राजनैतिक पहलू को टटोलेगा. परंतु सूरज अपने राजनैतिक इस्तेमाल को रोक नहीं पाया और उसका पूरा किरदार पिट गया.

संदेशः

चैतन्यः फिल्म में दिखाया गया निराशावाद न जानें क्यो मुझे वास्तविक लगा. जैसे व्यव्स्था में सहज हो चली अराजकता, सिर्फ विदेशी महिला को झकझोरती है. बाकी सब उसे कब से स्वीकारे हुए लगे. फिल्म में इतने खून-खराबे के बाद लगा कि न्याय व्यवस्था, विधायिका के सामने आत्म-समर्पण कर चुकी है.
मनोज भारती: इस फिल्म को देखने के बाद कोई संदेश नहीं मिलता। क्योंकि फिल्म में शुरु से लेकर अंत तक सत्ता को पाने के लिए हिंसक झगड़े दिखाए गए हैं और दोनों ही पक्षों में कोई पक्ष आदर्श दिखाई नहीं पड़ता । दोनों एक ही स्तर पर खड़ें है और सत्ता-लोलुप है । उद्देश्य मात्र स्वयं को ताकतवर बना लेना है । यह फिल्म समाज में संवेदनाओं को निरस्त करती है और जीवन में हर प्रकार के धोखे, विश्वासघात और क्रूरता की वकालत करती है ।
सलिल वर्मा: ‘हिप हिप हुर्रे’ जैसी खेल प्रधान फिल्म के बाद, उनकी फिल्मों के केंद्रीय विषय राजनीति, विशेषतः बिहार की राजनीति रहा है. फिल्म ‘दामुल’, ‘मृत्युदण्ड’ और ‘गंगाजल’ के बाद, उनकी नवीनतम फिल्म ‘राजनीति’ से यही अपेक्षा थी कि यह फिल्म राजनीति में व्याप्त अपराध अथवा राजनीति के कई अनछुए पहलू को उजागर करेगी. लेकिन अपेक्षाएँ धराशायी हो गईं. एक व्यावसायिक फिल्म से संदेश की आशा व्यर्थ है.

तकनीकी पहलूः

सलिल वर्मा: प्रकाश झा एक अच्छे निदेशक हैं, जो इस फिल्म में दिखाई देता है. फिल्म के सारे कलाकार मँजे हुए हैं और उनका अभिनय त्रुटिहीन है, फिल्मों में अपनी पहचान बनाते रनबीर कपूर ने अपनी भूमिका के साथ न्याय किया है. लम्बे अन्तराल के बाद मनोज बाजपेयी की वापसी स्वागत योग्य है. महिला चरित्र अपनी अपनी भूमिका सधे ढंग से निभाती दिखाई देती हैं. प्रकाश झा के सम्वाद स्तरीय हैं.
चैतन्यः एकाएक, मल्टीप्लैक्स सिनेमा हाल में दिखायी जाने वाली फिल्मों का तकनीकी पहलू तो बहुत ही प्रभावी हो गया है. डॉल्बी सिस्टम के साथ तो ऐसा लगता है कि हम घटना स्थल पर ही खड़े हैं.
मनोज भारती: फिल्म तकनीकी रूप से सशक्त है । फिल्म में भीड़ के दृश्यों को तकनीक के माध्यम से फिल्माया गया है । फिल्म की गति तेज है । फिल्म के आरंभ में कम्मेंटरी के माध्यम से फिल्म की भूमिका दर्शक को फिल्म को समझने और उसके कलेवर को समझने में मदद नहीं कर पाई । दर्शक कुछ समय तक असमंजस में रहता है । फिल्म में गानों की सिचुएशन नहीं है...एक गाना फिल्म में किसी तरह से डाल दिया गया है ।

अंतिम निर्णयः

चैतन्यः पैसा वसूल तो नही कहूँगा, क्योंकि लगभग दो सौ रुपये खर्च हुए. हां, घर पर बैठकर उन मुए समाचार मनोरंजन चैनल देखने से तो कहीं अच्छा अनुभव था.
मनोज भारती: फिल्म में हिंसा और रक्तरंजित खुलम-खुला राजनीति है, जिसे शायद राजनीति न कहकर गंदी राजनीति ही कहना उचित होगा । प्रकाश झा सरीखे मंझे हुए फिल्मकार ने किस उद्देश्य से बनायी है...यह तो स्पष्ट नहीं, लेकिन इतना जरूर है कि जनता को राजनीति का घिनौना चेहरा जरूर देखने को मिल जाता है ।
सलिल वर्मा: एक छोटी सी प्रतिक्रिया देने को कहा जाए तो यह फिल्म न तो राजनीति पर प्रकाश झा की कमेंटरी है, न किसी राजनैतिक समस्या की ओर इंगित करती है, न कोई समाधान बताती है, न किसी व्यवस्था का चित्रण करती है. इस फिल्म को धर्मात्मा, दयावान, सत्या और सरकार जैसी फिल्मों की श्रेणी में रखा जा सकता है, किंतु आज का एम. एल. ए., आँधी और इंक़लाब जैसी फिल्मों की श्रेणी में नहीं.

Friday, June 4, 2010

वातानुकूलित कक्ष से ग्लोबल वार्मिंग की रपटः विश्व पर्यावरण दिवस 2010

धरती माँ का बढ़ता बुख़ार, और सारे ईलाज बेकार. मर्ज़ लाईलाज तो नहीं, लेकिन पहल कौन करे. समाज में आज भी ऐसे बच्चे कम हैं, जो माँ बाप के हुक़्म पर चौदह साल के लिए बिना कुछ सोचे जंगल चले जाते हैं, या फिर अंधे माँ बाप को कंधे पर लादे सारे तीरथ घुमा लाते हैं. आज धरती माँ बीमार है, बुख़ार है कि कम होने का नाम ही नहीं लेता. और सारे ईलाज बेकार.
ईलाज की एक नई तरकीब निकाली है बच्चों ने. और उसी तरकीब पर सन 1972 से अमल करते जा रहे हैं. बड़ी असान सी तरकीब है, इस तपती हुई धरती के माथे पर गीले कपड़े की पट्टियाँ रखने का. और इस गीली पट्टी का नाम है ‘विश्व पर्यावरण दिवस’. यह ईलाज सुझाया यूनाईटेड नेशंस ने और दुनिया के तकरीबन 100 से ज़्यादा मुल्क़, अपने अपने हिस्से की ख़िदमत का ज़िम्मा लेकर बैठ गए. यह गीली पट्टी हर साल 5 जून के दिन, धरती माँ के तपते जिस्म को ठंडक पहुँचाने के ख़याल से रखी जाती है. आज 38 साल बीत गए हैं, लेकिन बीमारी कम होने का नाम नहीं लेती, बल्कि बढ़ती ही जा रही है.
इस दिन हर मुल्क के लोग बैठ कर प्रोग्राम बनाते हैं कि ग्लोबल वार्मिंग कैसे रोकी जाए, दुनिया को रहने के लायक़ कैसे बनाया जाए, आने वाली नस्ल को एक बेहतर दुनिया सौंपने के बारे में एक नई सोच कैसे पैदा की जाए. हमारे देश में भी पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की ज़िम्मेदारी है कि ये सारे प्रोग्राम सही तरीके से लागू हों. बच्चों के स्कूलों में पेंटिंग और ड्राइंग कम्पीटीशन के ज़रिए उनके दिमाग़ में यह बात बैठाने की कोशिश की जाती है कि वे देश का भविष्य हैं और अगर उन्हें एक बेहतर कल और एक बेहतर धरती चाहिए तो उनको ही कोशिश करनी पड़ेगी.
जो फ़ैसला कर सकते हैं, उन्होंने तो जंगलों को कटवाकर वहाँ फैक्टरियाँ लगवा दी हैं,क्योंकि इनसे वो आँकड़े बढ़ते दिखाई देते हैं जिन्हें जी.डी.पी. कहते हैं और ये आँकड़ा जितना ऊपर जाता है, देश उतना तरक्कीमंद माना जाता है. भले ही इससे प्रदूषण बढता है. क्योंकि इसका भी ईलाज है. ईश्वर है न, हम अपने कितने ही पापों को क़बूल करके मंदिर में प्रसाद चढाते हैं या मज़ार पर चादर. ईश्वर दयालु है माफ कर ही देता है.
ग्लोबल वार्मिंग यानि धरती के बुख़ार को बढाने में जंगलों के कटने को देश की तरक़्क़ी से जोड़कर, विश्व पर्यावरण दिवस पर भाषण होंगे, और हमारा मीडिया बताएगा, तरह तरह के ग्राफ़िक्स के ज़रिए कि ग्लोबल वार्मिंग कितनी बड़ी समस्या है, इसके क्या क्या कारण हैं और इसका हल क्या है. कुछ और बड़े लोग, उनके स्टुडिओ में बैठे बहुत सीरियस सा चेहरा बनाए बहुत बड़ी बड़ी बातें बताएंगे और ऐसा लगेगा कि प्रोग्राम ख़तम होते ही ग्लोबल वार्मिंग भी ख़तम हो जाएगी.
कभी ग़ौर कीजिएगा कि जब ये सारी बहस चल रही होगी तब जून के महीने में भी वे सारे लोग टाई और सूट में होंगे. क्योंकि ग्लोबल वार्मिंग पर ये बहस उस जगह हो रही होगीजहाँ का टेम्परेचर 18 डिग्री पर वातानुकूलित किया गया होगा. मेरा ख़ुद का एक शेर
ठंडे घरों में करता पसीने का वो हिसाब,
तपती सड़क पे लम्हा एक गुज़ार तो आए!

Tuesday, June 1, 2010

झूठा इल्ज़ाम

आज स्वप्निल कुमार आतिश से लम्बी साहित्यिक चर्चा होती रही. एक जैसा सोचने वाले मिल जाएँ तो ये फैसला मुश्किल हो जाता है कि विचार किसके हैं और आए किसके दिमाग़ में हैं. बात मण्टो से शुरू हुई और राही मासूम रज़ा पर खतम हुई. अब खतम हुई कि एक नए सिलसिले की शुरुआत हुई, ये तो वक़्त ही बताएगा, बहरहाल, मैंने ये क़बूल किया कि मैं ख़ुशकिस्मत हूँ कि मुझे मेरे पिताजी ने उस उम्र में मण्टो पढने को दिया जिस उम्र में लोग प्रेमचंद पढते हैं ( वो मैं पढ चुका था). फिर ज़िक्र आया मण्टो के अदालती चक्करों का और उनपर लगने वाले अश्लीलता के इल्ज़ाम का.

अब जब ज़िक्र निकला ही है तो डा. राही मासूम रज़ा की बात न हो, हो ही नहीं सकता. क्योंकि साहित्य में धड़ल्ले से गालियाँ लिखने की रवायत इन्होंने ही शुरू की है. और इस बारे में मैं अभी तक कन्फ्यूज़ हूँ कि मैं क्या कहूं। अपने गुरु डा. राही मासूम रज़ा के उपन्यास " ओस की बूँद" से उनकी भूमिका यहाँ पर कोट करना चाहूँगा। उनकी कलम से निकले शब्द, मेरे शब्दों से ज्यादा वज़नदार साबित होंगे।

"बड़े बूढों ने कई बार कहा कि गालियाँ न लिखो, जो आधा गाँव में इतनी गालियाँ न होतीं तो तुम्हें साहित्य अकादेमी का पुरस्कार अवश्य मिल गया होता. परन्तु मैं यह सोचता हूँ कि क्या मैं उपन्यास इसलिए लिखता हूँ कि मुझे साहित्य अकादेमी का पुरस्कार मिले? पुरस्कार मिलने में कोई नुकसान नहीं, फायदा ही है. परन्तु मैं साहित्यकार हूँ. मेरे पात्र यदि गीता बोलेंगे तो मैं गीता के श्लोक लिखूंगा. मैं कोई नाज़ी साहित्यकार नहीं हूँ कि अपने उपन्यास के शहरों पर अपना हुक्म चलाऊँ और हर पात्र को एक शब्दकोश थमाकर हुक्म दे दूं कि जो एक शब्द भी अपनी तरफ से बोले तो गोली मार दूंगा. कोई बड़ा बूढा यह बताये कि जहाँ मेरे पात्र गाली बकते हैं वहां मैं गालियाँ हटाकर क्या लिखूं? डोट डोट डोट. तब तो लोग अपनी तरफ से गालियाँ गढ़ने लगेंगे और मुझे गालियों के सिलसिले में अपने पात्रों के सिवा किसी पर भरोसा नहीं.

गालियाँ मुझे भी अच्छी नहीं लगती. मेरे घर में गाली की परंपरा नहीं है. परन्तु लोग सडकों पर गालियाँ बकते हैं. पड़ोस से गालियों की आवाज़ आती है. और मैं अपने कान बंद नहीं करता, यही आप भी करते होंगे. यदि मेरे पात्र गालियाँ बकते हैं तो आप मुझे क्यों दौड़ाते हैं.? वे पात्र अपने घरों में गालियाँ बक रहे हैं. वे न मेरे घर में हैं - न आपके घर में. इसीलिए साहब, साहित्य अकादेमी के इनाम के लिए मैं अपने पात्रों की जुबान नहीं काट सकता। "

आखिर में निदा फाजली साब के कलाम के साथ ये स्वीकार करना चाहता हूँ कि

कभी कभी यूं भी हमने अपने जी को बहलाया है,
जिन बातों को खुद नहीं समझे, औरों को समझाया है।

क्यों पुलकित है ज़लज़ला???

पूरे मधुमक्खियों के छत्ते में
एक रानी होती है
लेकिन जब सभी रानी बनकर
टूट पड़ें किसी एक पर तो ज़लज़ला आता है!
कोई शक्ल नहीं होती उसकी
नाम नहीं, जाति नहीं, लिंग भेद नहीं.
रक्तबीज की तरह हर पल एक नया रूप धरकर आता है वो सामने.
जानते हो क्यों...
क्योंकि एक बार अपमानित किया था तुमने
इसलिए अपनी हतक का बदला लेने
तुम्हारे जैसा ही बनकर आया है वो
एक रानी मक्खी जैसा
वादे के मुताबिक़
दिन, तारीख, महीना और समय सब निश्चित
कल तुम्हारे साथ थे जो, आज पाला बदल चुके हैं
ग़ौर से देखो उसका रूप
उसे अब सिर्फ आँखें दिखाई देती हैं
जो कभी तुमने कहा था कि तुम्हें घूरती हैं
अपमान का ज़लज़ला, नया रूप धर कर खड़ा है
तुम्हारे सामने.
पहचान सको तो पहचान लो
तुम्हारी शकल में, तुम्हारे सामने, सारी दुनिया के सामने
खोल रहा है वो अपने वस्त्र
और अपमानित हो रही हो तुम
उसकी पलकों को ग़ौर से देखो एक बार
पलकों पर अश्क़ का क़तरा नहीं
एक सैलाब, एक ज़लज़ला है
क्यों नहीं होगा वो पुलकित
नंगा वो नहीं, तुम्हें नंगा किया है उसने
याद रखना
हतक हमेशा ज़लज़ला ही पैदा करता है!

(हतक: तिरस्कार)
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