सम्वेदना के स्वर

यह ब्लॉग उस सनातन उत्सवधर्मिता को जीवित रखने का प्रयास है,

जिसमें भाव रस और ताल का प्रतीक आम आदमी का भा-- बसता है.
सम्वेदनाएँ...जो कला, साहित्य, दर्शन, विज्ञान, राजनीति आदि के माध्यम से अभिव्यक्त होती हैं, आम आदमी के मन, जीवन और सरोकार से होकर गुज़रती हैं तथा तलाशती हैं उस भारत को, जो निरंतर लड़ रहा है अपने अस्तित्व की लड़ाई.....

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Tuesday, August 17, 2010

कुछ और चाँद!!

आज 18 अगस्त को, गुलज़ार साहब का जन्मदिन हैं,  हैप्पी बर्थ-डे सर!
MATCH
जाने कब हैं मैच की सब तारीख़ें पक्की
जाने किसके बीच मैच खेला जाएगा
टॉस किया है किसने ये आकाश की जानिब चाँद का सिक्का
गिरे ज़मीं पर तभी तो कुछ मालूम पड़ेगा!

KEY- HOLE
रात के स्याह अंधेरों के पीछे क्या है
इक दूर तलक ख़ामोश ख़लाओं के उस पार कहीं
दरवाज़ा है अंधियारे का, चट्ख़नी लगाकर बंद किया.
की होल पे आज इस चाँद के आँख जमाकर देखो
हमसा कोई दिखता है उस पार कहीं?

DOWRY
ब्याह बेटी का रचाने,
या अदा करने को कर्जा कोई
रात इस आसमाँ के गुल्लक में
चाँद के सिक्के जमा करती है
और फिर दिन के निकलते ही वो
भाग जाती है परबतों के परे.
कितना ग़ुस्सैल है सूरज
वो छीन लेगा सब.




OPENER
बीच समंदर प्यासा कोई
ऐसे ही मैं
हाथ में लेकर कोक की बोतल
ढूंड रहा था
कोई ओपनर मिल जाये तो बोतल खोलूं
कोक हलक में डाल के अपनी प्यास बुझाऊँ.
टेढा चाँद जो देखा मैंने दूर फ़लक पर
उससे ही फिर कोक की बोतल खोल के मैंने
तपती गर्मी से कल रात थी प्यास बुझाई.

BRIDE
रात की दुल्हन,
रोटी बेलने बैठी जब ससुराल में तब तो
आड़ी तिरछी, आधी चौथाई सी
और टेढ़ी मेढी सी
जितनी रोटियाँ बेलीं उसने, सब बेकार.
पंदरह दिन की एक मुसलसल प्रैक्टिस के फिर बाद ही जाकर
चाँद की पूरी गोल सी रोटी बेल सकी वो.

(विडियो साभारः कोकाकोला विज्ञापन, नेट पर प्राप्त)

Monday, July 5, 2010

चाँद और भारत बंद


कल जब आधी रात को नींद से जाग के देखा
चाँद बेचारा
मेरे सिरहाने बैठा था आँख सुजाए
रोता, मलता अपनी आँखों को, आँसू वो पोंछ रहा था.

मैंने हाल जो पूछा उसका,
गुस्से से बोला वो मुझसे
मेरे घर आया था कोई,
अमरीकी था, या रशियन था
आया था, या देख दाख के बाहर से ही भाग गया था
तुमको क्या! तुम अपनी सोचो!!

तुम तो मान के बैठे ही थे
मेरे चेहरे पर ना जाने दाग़ हैं कितने!
बदसूरत ही मैं अच्छा हूँ
अपने चेहरे के भी दाग कभी देखे हैं
मेरे घर पर बाद में आना
पहले अपने घर की सोचो.
और चेहरे के दाग़ को देखो.

पानी लाओगे तुम कैसे, तेल तुम्हारा नहीं बचेगा
है अनाज जब पहुँच से बाहर
सोचो आखिर कब सोचोगे!
भारत बंद का नारा भले बुलंद करो तुम
क्या पाओगे!

नदियाँ अपने घर की नहीं सम्भलती तुमसे
अपनी दुनिया में फिरते हो तुम सब ख़ून ख़राबा करते
अपने अपने इल्म का झूठा रौब जमाते
इक दूजे पर,
पागल हो तुम!

साईंस तुम्हारा जितना सच्चा है, उतना ही झूठा भी है.
दाग़ मेरे जितने दिखते हैं तुम लोगो को
बस सच्चे हैं,

टीवी देखके इतना समझ नहीं पाए तुम
चाँद के दाग़ में महबूबा जो दिख जाए तो
और रोटी दिख जाए दो दिन के भूखे को
समझा देना ख़ुद को कि
ये दाग़ अच्छे हैं!

(चित्र साभार: फ्रीकिंग न्यूज़)

Sunday, July 4, 2010

पंडित अरविंद मिश्र से चाँद पर एक रार

हमारी पिछली पोस्ट सच्चा चाँद - झूठा अमेरिका पर हमारे आमंत्रण पर पंडित अरविंद मिश्र ने निम्नलिखित टिप्पणी दी थी.

यह एक क्रेजी अमेरिकी द्वारा फैलाई सनसनी मात्र है ...संशयात्मकता विज्ञान की आत्मा है मगर मूर्खता उसका कफ़न... आज अगर कोई इस बात को कहता है की चन्द्रमा पर मनुष्य का अवतरण धोखा धड़ी मात्र था और उसके पक्ष में रोचक उदाहरण और लच्छेदार शब्दों में तर्कों का पहाड़ तैयार करे तो मेरी निगाह में वह एक बड़ा अहमक ही है -मुझे क्षोभ और अफ़सोस है ऐसे लोगों पर ..अब आप रिएक्ट करें तो मेरी बला से ... यद्यपि मैं इन कड़े शब्दों के लिए आपसे क्षमा माँगता हूँ .मगर विज्ञान आप सरीखे लोगों से ही धक्के खा रहा है ..मैं छठवीं में था शायद जब यह युगांतरकारी घटना घटी थी और मेरे बाल मन ने सहज ही इसे सच मान लिया था ..मैंने इस पर एक कोलाज किया था
अगर ऐसे दावे को स्वीकार नहीं करते तो इसका मतलब आप मनुष्य की असीम शक्तियों और संभावनाओं पर भी विश्वास नही करते आप परले दर्जे के दकियानूसी चेतना के आदमी हैं ..बदलिए अपने को ...
चन्द्रमा पर मनुष्य का दूसरा अभियान जल्द ही शुरू होने पर आपको अपने जीवन काल में ही सच से सामना हो जाएगा...बाकी साईंस ब्लागर्स और साईब्लाग भी देखते रहा करिए -खुद अपनी अच्छाई के लिए .....

इस टिप्पणी के जवाब में पहली बार हम दोनों अलग अलग अपने वक्तव्य प्रस्तुत कर रहे हैं. यह पोस्ट न तो उनकी बात का खण्डन है, न हमारी बात मनवाने का पूर्वाग्रह. यह सिर्फ उनके जजमेंटल कमेंट का प्रत्युत्तर है. हमारा सवाल आज भी वहीं खड़ा है, क्योंकि यह एक राजनैतिक सवाल है, जिसका जवाब विज्ञान के ब्लॉग्स में सम्भव नहीं.


चैतन्य आलोकः
आपका गुस्सा सर माथे. परंतु एक शिकायत है आपसे, हम अहमकों को. आपने हमारे मूल प्रश्न का कोई जबाब न देकर अवैज्ञानिक भूल कर दी है, सर जी! मूल प्रश्न यही है कि अगर 1969 से 1972 के बीच दे दना दन अमरिकी अंतरिक्ष यात्री चाँद पर उतर रहे थे तो फिर तकनीकी क्रांति के युग में यह घटना पिछले चार दशकों में क्यों न दोहराई जा सकी. क्या इसीलिये नहीं कि इस दकियानूसी दुनिया को अब उस तरह बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता?
उस समय का सोवियत संघ (अब का रूस) अमरिका से अंतरिक्ष विज्ञान में आगे ही था परंतु 1969 से 1989 तक (1989 में सोवियत संघ के विघटन के शुरु होने तक) के दो दशक में वो इस अमरिकी बढत का सामना नहीं कर सका, जबकि कहा जा रहा है इस काम मे प्रयोग होने वाली तकनीक सैलफोन से भी कमतर थी. कोरिया, चीन, जापान, जर्मनी, फ्रांस, इंगलैंड कोई तुर्रम खाँ देश भी इस काम को अंजाम नहीं दे सका?
आपने हमें अवैज्ञानिक किन्हीं डिग्रियों के कारण कहा है तो सनद रहे कि मैं एनर्जी सिस्टम्स में इंजीनियरिंग का स्नातकोत्तर हूं और सलिल भाई केमिस्ट्री के स्नातकोत्तर हैं. डिग्रियों से परे विज्ञान और वैज्ञानिक सोच हमारे जीवन की परिपाटी है. हम सत्य के खोजी हैं! हमारे पूर्वाग्रहों को खंडित करने वाले सत्य भी हमें सहज स्वीकार्य हैं. मनोविज्ञान में भी हमारी रुचि है क्योंकि यह विज्ञान हमारी सोच के सन्दर्भ में है. इसी आधार पर लगता है कि आपके बाल मन की कल्पनाओं को खंडित करनें का दुस्साहस किया है, हमारी इस पोस्ट नें!
विज्ञान की श्रेष्ठता में हमारा अटूट विश्वास है. इसी विश्वास के आधार पर हम मानते हैं कि आज नहीं तो कल चाँद पर मनुष्य भी पहुचेगा और मानव बस्तियाँ भी बसेंगी.
कल रात लोक सभा चैनल पर एक चर्चा के दौरान कोई वेदांती स्वामी जी “नाभिकीय ऊर्जा” के सन्दर्भ में कह रहे थे कि वेदों में इसका स्प्ष्ट उल्लेख है, इसमें नया क्या है?. क्योंकि आज नाभिकीय रिएक्टर एक प्रामाणिक सत्य है, इस कारण क्या यह भी मानेगें आप कि “वैदिक सभ्यता की ऊर्जा आपूर्ति नाभिकीय रिएक्टर करते थें”?
वैज्ञानिक प्रयोगधर्मिता हमेशा एक परिकल्पना पर आधारित होती है. यूरी गगारिन से लेकर आज तक सम्पन्न स्पेस मिशन चाँद को छूने की मानवीय कल्पनाओं के परिणाम ही हैं. परंतु यहां बात उस अमरिकी दावे की सत्यता की है जो तब किसी और उद्देश्य की पूर्ति करता स्पष्ट दिखता है. उस दावे की हर दृष्टिकोण से पड़ताल करना एक नितांत वैज्ञानिक कृत्य है.
अरविन्द मिश्र जी, आप तो एक साईंस ब्लोग भी लिखते हैं, इस कारण आप को जानकारी होगी ही कि हर साल न जाने कितनी ही वैज्ञानिक शोधों की घोषणा होती है, जिन्हें बाद में वैज्ञानिक कम्यूनिटी ही जाली करार दे देती है!!
आइये खोजें ? प्रश्न पूछें, जबाब तलाशें और वैज्ञानिक उत्तर दें!!

सलिल वर्माः
बरसों पहले बिमल मित्र का एक उपन्यास पढा था, नाम अब याद नहीं. उसमें एक व्यक्ति का इकलौता जवान बेटा एक हादसे में मारा गया. इस घटना के बाद वह सज्जन एक अजीब सी मानसिक स्थिति में चले जाते हैं. और जब वे उबरते हैं तो उनके पास एक सिद्धांत होता है, जिसके अंतर्गत वो अपने मृत पुत्र से ऐसे बात चीत करते हैं, जैसे वो उनके पास बैठा हो, सशरीर. उनका यह सिद्धांत विश्वप्रसिद्ध होताहै और वो इस विषय पर अपना व्याख्यान देने सारी दुनिया में जाते हैं. उन्हें कई पुरस्कार भी मिलते हैं और इस विषय पर कई शोध भी होते हैं. अचानक एक दिन उनके दरवाज़े पर दस्तक होती है और उनका पुत्र जीवित उनके सामने खड़ा होता है, उनके सारे ज्ञान को नकारता हुआ. जीवित प्रमाण उनके मिथ्या ज्ञान का. उन्होंने अपने पुत्र को पहचानने से इंकार कर दिया.
पंडित अरविंद मिश्र ने भी इसी तरह छठवीं क्लास में जो कोलॉज बना रखा था, चंद्रविजय अभियान का वह आज भी अंकित है उनके मस्तिष्क में. अब उसको नकारने का दुःसाहस करना उनके बस की बात नहीं. लेकिन जो कुछ भी उन्होने कहा उसके बाद भी हमारा प्रश्न तो वहीं का वहीं है,फिर जवाब क्या दिया उन्होंने, या सवाल क्या उठाया!!
एक बच्चे ने एक सवाल किया मास्टर से, जिज्ञासा थी उसके मन में और उत्तर पर अधिकार था उसका. मास्टर ने दो जवाब दिए, “बेवक़ूफ़! इतना भी नहीं मालूम!” और दूसरा जवाब, “अहमक़! फ़ालतू के सवाल करके दूसरों का समय बरबाद करता है.” दोनों में से कौन सा जवाब सही है, यह तो पता नहीं, लेकिन आए दिन ये दोनों जवाब हर सवाल के लिए दिए जाते रहे हैं. और पंडित जी ने वही जवाब हमारे सवाल का भी दिया,बच्चा समझकर. ज्ञात हो मैं भी छठवीं में पढता था जब यह घटना घटी थी. और पंडित जी के अनुसार दुबारा यह घटना घटी तो मेरे जीवन काल में (यदि जीवित रहा) वह दूसरी घटना होगी.
विज्ञान के छात्र हम भी हैं, ये बात और है कि विज्ञान के ब्लॉग नहीं लिखते. पढ़ाया भी है कई साल तक मैंने , और जिन्हें हमने फ़ारसी पढ़ाई वो तेल भी नहीं बेच रहे हैं. लिहाजा, इतना तो सच है कि डाल्टन से लेकर नील्स बोर तक हर वैज्ञानिक ने पिछले की खाट खड़ी की है, लेकिन न बर्जीलियस ने डाल्टन को अहमक़ कहा, न अवोगैड्रो ने बर्जीलियस को बेवक़ूफ बताया और न ही नील्स बोर ने ऐवोगैड्रो को दकियानूसी.
किसी भी पूछे गए सवाल के जवाब देने से पहले की प्रक्रिया दो तरह की होती है. या तो आपको उसका जवाब पता है तथ्य सहित, या नहीं पता. पता है तो तथ्य से मेल खाने वाले प्रमाण सही उत्तर होंगे और न मेल खाने वाले प्रमाण ग़लत. लेकिन जवाब न मालूम हो तो सवाल ग़लत हो जाए ऐसा तो क़तई नहीं होता देखा. और कम से कम सवाल पूछने वाले को बेवक़ूफ़ बताकर तो बिल्कुल नहीं हो सकता.
हम तो बचपन से चाँद को मामू देखकर ही खुश होते आए हैं और चचा सैम के इस नाटक या सच्चाई पर भी ख़ुश थे. पंडित जी तब हम भी कक्षा छः में पढते थे. जब बड़े हुए और नेट से जुड़े तो लगा कि जितनी बातें चंद्र अभियान के नाटक होने पर लोगों ने लिखी हैं, वो भी तो कंविंसिंग हैं, तब तक जब तक उनका कोई काट नहीं. और इसका काट ये नहीं हो सकता कि सब बेवक़ूफ हैं, अहमक़ हैं और दकियानूसी हैं.
फ़िल्म ‘एक रुका हुआ फ़ैसला’ ऐसी ही मानसिकता को बयान करती फिल्म है, जिसमें पंकज कपूर सरीखे लोग अंत तक मानने को तैयार ही नहीं होते सच को, क्योंकि उन्हें छ्ठी क्लास में एक सच बताया गया था और वो उसके झूठ होने की कल्पना भी नहीं कर सकता है.
 
पुनश्च: आज अमेरिका का बर्थ डे है... हैप्पी बर्थ डे अमेरिका!! 

Friday, July 2, 2010

सच्चा चाँद - झूठा अमरीका !

अपनी बेटी को स्कूल का होमवर्क करवाने बैठा. विषय था, चाँद पर उतरने वाले पहले अंतरिक्ष यात्रियों का वृत्तांत. नील आर्मस्ट्रांग और बज़ एल्ड्रिन के नाम यूँ तो बचपन से ही हमें रटाये गये थे, परंतु इस बार उनका नाम बोलने में ज़ुबान लड़खड़ा रही थी. मैं अपने आप में उलझा था कि यह सही है या ग़लत, सच है या झूठ? तब लगा कि जब मैं खुद ही इस बात पर विश्वास नहीं करता, तो अपनी बच्ची से क्या कहूं? अगली पीढ़ी तक यह “मिथ्या ज्ञान” पहुचाने में सहभागी बनूँ या इसका दूसरा पक्ष भी उससे कहूँ?
कॉलेज के दिनों में इस बात को लेकर दोस्तों के बीच अक्सर यह विवाद होता था कि दरअसल “चाँद पर कोई अभी तक गया ही नहीं है” और चाँद पर उतरने की ख़बर तब के सोवियत संघ को पछाड़ देने की एक और अमेरिकी चाल भर है. पक्ष और विपक्ष में दिये गये तर्कों और सारी बहस के बाद सुई इस सवाल पर अटक जाती कि मान भी लें कि अमरीका के पास 1969 में इतनी अच्छी टेक्नोलॉजी थी, तो उसके बाद के सारे अपोलो अभियान 1969 से 1972 के बीच होकर क्यों समाप्त हो गए? उसके बाद कोई बड़ा अभियान क्यों नहीं हुआ, आदमी को चाँद पर भेजने का? और अगर हुआ भी तो सुनने में क्यों नहीं आया. एवरेस्ट विजय की कहानियाँ तो अखबारों में आती रहती है, फिर चाँद तो एवरेस्ट से भी ऊँचा है! बस, इस सवाल पर आकर सारी बहस समाप्त हो जाती थी.

आज उस तथाकथित घटना को लगभग चार दशक बीत चुके हैं, अमरीका ने शटल बनाए हैं जो अंतरिक्ष में बार बार आ-जा सकते हैं, लेकिन चाँद पर इस बीच आदमी भेजने का कोई दूसरा (और ऐसे में पहला भी) अभियान आज तक नहीं हुआ और न कोई निकट भविष्य में बताया जाता है. अमरिका के अलावा किसी और देश ने भी हिम्मत नहीं की है. भला क्यों ?

चन्द्र विजय के अमेरिकी प्रोपेगंडा के कुछ कथित कारण यह कहे जातें हैं :

1. वियतनाम युद्द से अमेरिकी जनता का ध्यान हटानाः बताने की ज़रूरत नहीं कि ठीक इसी समय, अमेरिका ने वियतनाम से अपनी सेना हटाने का निर्णय लिया था, जो अमेरिकी पराजय का ज़बर्दस्त प्रतीक था. अप्रैल 1969 में इस युद्ध में मरने वाले अमरीकी सैनिकों की संख्या कोरिया युद्ध में मरने वालों की संख्या (33629) से कहीं ज़्यादा थी. 8 जून 1969 को अमेरीकी झंडा उतार कर वियतनाम से सेना वापस बुलाने का फ़ैसला और 21 जुलाई को 1969 को चाँद पर झंडा फहराने का अमेरिकी प्रोपेगंडा, दरसल उस पराजय को पार्श्व में रखकर अमेरिकन सर्वोपरि की अवधारणा को जीवित रखने का काम किया.

2. शीत युद्द : तब के कम्युनिस्ट देशों के नेता सोवियत संघ और पूंजीवादी देशों के नेता अमेरिका के बीच हर क्षेत्र में प्रतिद्वन्दिता का माहौल था. चाँद पर अपने देश का झंडा फहरानें का ख्याल रूमानी है और जो यह काम कर लेता वो निश्चय ही जनकल्पनाओं में हीरो हो ही जाने वाला था. गलत या सही, ऐसा हुआ भी! उस समय के लोगों से जब इस विषय पर मैंने उनके अनुभव पूछे तब यही अहसास हुआ कि दुनिया के कोने कोने में चाँद की मिट्टी आदि का भरपूर प्रदर्शन हुआ था. एक अमेरिकी जूनून पैदा हो गया था, पूरी दुनिया में.

3. राजनैतिक अर्थशास्त्र : एक आकलन के अनुसार नासा ने उस समय करीब 40 बिलियन डालर की धनराशि इस अभियान पर खर्च की थी. इस का एक छोटा सा हिस्सा इस छद्म खेल को हकीकत बताने में खर्च हुआ. छ्द्म खेल मतलब इस पूरी फिल्म की शूटिंग में, जो बताया जाता है कि नासा के एक गुप्त फिल्म स्टुडिओ में हुई,जो नेवादा के रेगिस्तान में स्थित है. बाकी के डॉलर कहाँ गए..बस गप.. गपा.. गप!!!

4. जोखिम: चार दशक पहले के कम्प्यूटर क्या थे जरा स्मरण कीजिये? क्या टेक्नोलॉजी थी, ज़रा कल्पना कीजिये. उस समय आदमी को चाँद पर भेजने में आज से भी अधिक जोखिम था. मेरा इंजीनियर मन यह सोच कर ही हैरत में पड़ जाता है कि 41 साल पहले कैसे सम्भव होगा कि पहले कोई यान पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण को भेदे, फिर अंतरिक्ष में चाँद की कक्षा में प्रवेश करे, फिर चाँद के चक्कर लगता हुआ वह यान वहीं रहे और एक छोटा यान चन्द्र्मा पर दो यात्रियों के साथ उतार दे. और थोड़ी तफरीह आदि करके वह यात्री पुन; चाँद के गुरुत्वाकर्षण को भेद कर मुख्य यान में आ जायें. वह मुख्य यान अंतरिक्ष में विचरण कर पृथ्वी की कक्षा में प्रवेश करे और वापस अमेरिकी धरती पर लौट आये. मुझे याद आयी कल्पना चावला जो बस कुछ बरस पहले अमेरिकी शटल के पृथ्वी की कक्षा में प्रवेश करते ही भस्म हो जाने के कारण मारी गयीं थीं. वो तो बस अंतरिक्ष में विचरण करने ही गयीं थीं चाँद जैसी दुर्गम जगह पर नहीं.

चन्द्र यात्री की इस तस्वीर में एक यात्री तो हैल्मैट के शीशे पर है दूसरा वह है जो यह हैल्मैट पहनें है, फिर वो तीसरा कौन है जिसने यह तस्वीर उतारी है? (उनका कहना है कि चाँद पर दो लोग ही उतरे थे) एक बार गूगल पर सर्च कीजिये आपको इस विषय पर और भी रोचक जानकारियाँ मिल जाएंगी.

मैं कम्यूनिस्ट नहीं हूं परन्तु राजनीति को जानने समझने के चक्कर में, दुनिया भर में चल रही अमेरिकी चालबाज़ियाँ देख रहा हूं. आजकल हमारे देश ने जो अमेरिका होने की धुन पकड़ रखी है, वह देखकर एक भय सा लगता है.

क्या कहते हैं आप? चंदा मामा की इस झूठी कहानी के बाद, अंकल सैम की उंगली पकड़कर कितनी दूर चल सकेंगे हम? और हाँ चले भी तो कहां जायेंगे? कहाँ पहुँचेंगे?

 

Saturday, June 12, 2010

चाँद हुआ गुलज़ार !

चार महीने, इकतालीस फॉलोअर, पैंतालीस पोस्ट, 430 टिप्पणियाँ और इससे भी कहीं ज़्यादा लोगों से बने रिश्ते... ये आँकड़े नहीं हैं, यह एक टीस है, जो जितना चुभती है, उतना ही हमारी सम्वेदना के स्वर मुखर होते हैं. यह एक बड़ा ही नाज़ुक एहसास है, जब भी गुज़रता है हमारे दिल के आसमान से, सराबोर कर जाता है कविता, ग़ज़ल या नज़्म की बारिश में. कितनों को पढ़ा और उनके जज़्बात के हमसफर बने, कितनी टिप्पणियाँ लिखीं. लेकिन जो लिखा बेबाक, जैसा महसूस किया! कई बड़ों के आशीर्वाद लिए, छोटों को सलाहियत दी... गोया एक पूरा ख़ानदान गढ़ लिया हमने, ब्लोग की इस अनजान सी क़ायनात में....

आज की पोस्ट डेडिकेटेड है उस शख्स को जिसने चाँद को सिर्फ घटती बढती कलाओं में ही नहीं, बल्कि उससे भी आगे जाकर देखा है. जिसे चाँद कभी महबूबा की जगह रोटी नज़र आता है, कभी भिखारन के हाथ का कटोरा और कभी चमकीली अठन्नी… चाँद का शायद ही कोई ऐसा रूप होगा, जो इनसे छिपा हो. और इंतिहाँ ये कि इन्होंने एलानिया तौर पर कह दिया है कि "चाँद चुरा के लाया हूँ". लिहाज़ा किसी दूसरे के लिए कोई सूरत नज़र नहीं छोड़ी. साईंसदान चाँद पर ज़िंदगी तलाश करने में मसरूफ़ हैं और आज हमने अपनी इन छोटी नज़्मों के मार्फत ये एलान कर दिया है कि चाँद हुआ गुलज़ार.

 RUMOUR

कब सोचा था दादी नानी के सारे अफसाने बिल्कुल झूटे होंगे,
चाँद पे कोई बुढिया रहती है, ये सब बस कोरी गप्प थी.
आज ही मैं ने जाना है ये
चाँद पे रहता है एक शख्स सफेद पजामे कुर्ते
और तिल्लेवाली एक जूती पहने
बुढिया की अफवाह उसी ने फैलाई थी सदियों पहले.
आज ही मैंने जाना है
इक नाम भला सा है उसका
और भरी हुई है सिर से लेकर पाँव तलक
भरपूर मोहब्बत, गहरा प्यार
ज़ुबाँ पे क्यों आता ही नहीं... सम्पूरन सिंह गुलज़ार.

WATER LOGGING

कल की रात हुई थी बारिश
आसमान में चारों ओर थी वाटर लॉगिंग
एक तारे ने दूसरे तारे की उँगली को थाम रखा था
दूसरे तारे ने धीरे से पैर जमाकर चाँद के ऊपर
पानी का गड्ढा हौले से फाँद लिया था.

CRIME RATE

सचमुच क्राईम रेट आज आकाश की हद तक पहुँच गया है
कुछ दिन पहले तक तो पूरा चाँद
टँगा था आसमान में.
आज की रात जो देखा मैंने
कोई आधा काट के अपने साथ ले गया.


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