यह एक क्रेजी अमेरिकी द्वारा फैलाई सनसनी मात्र है ...संशयात्मकता विज्ञान की आत्मा है मगर मूर्खता उसका कफ़न... आज अगर कोई इस बात को कहता है की चन्द्रमा पर मनुष्य का अवतरण धोखा धड़ी मात्र था और उसके पक्ष में रोचक उदाहरण और लच्छेदार शब्दों में तर्कों का पहाड़ तैयार करे तो मेरी निगाह में वह एक बड़ा अहमक ही है -मुझे क्षोभ और अफ़सोस है ऐसे लोगों पर ..अब आप रिएक्ट करें तो मेरी बला से ... यद्यपि मैं इन कड़े शब्दों के लिए आपसे क्षमा माँगता हूँ .मगर विज्ञान आप सरीखे लोगों से ही धक्के खा रहा है ..मैं छठवीं में था शायद जब यह युगांतरकारी घटना घटी थी और मेरे बाल मन ने सहज ही इसे सच मान लिया था ..मैंने इस पर एक कोलाज किया था
अगर ऐसे दावे को स्वीकार नहीं करते तो इसका मतलब आप मनुष्य की असीम शक्तियों और संभावनाओं पर भी विश्वास नही करते आप परले दर्जे के दकियानूसी चेतना के आदमी हैं ..बदलिए अपने को ...
चन्द्रमा पर मनुष्य का दूसरा अभियान जल्द ही शुरू होने पर आपको अपने जीवन काल में ही सच से सामना हो जाएगा...बाकी साईंस ब्लागर्स और साईब्लाग भी देखते रहा करिए -खुद अपनी अच्छाई के लिए .....
इस टिप्पणी के जवाब में पहली बार हम दोनों अलग अलग अपने वक्तव्य प्रस्तुत कर रहे हैं. यह पोस्ट न तो उनकी बात का खण्डन है, न हमारी बात मनवाने का पूर्वाग्रह. यह सिर्फ उनके जजमेंटल कमेंट का प्रत्युत्तर है. हमारा सवाल आज भी वहीं खड़ा है, क्योंकि यह एक राजनैतिक सवाल है, जिसका जवाब विज्ञान के ब्लॉग्स में सम्भव नहीं.
चैतन्य आलोकः
आपका गुस्सा सर माथे. परंतु एक शिकायत है आपसे, हम अहमकों को. आपने हमारे मूल प्रश्न का कोई जबाब न देकर अवैज्ञानिक भूल कर दी है, सर जी! मूल प्रश्न यही है कि अगर 1969 से 1972 के बीच दे दना दन अमरिकी अंतरिक्ष यात्री चाँद पर उतर रहे थे तो फिर तकनीकी क्रांति के युग में यह घटना पिछले चार दशकों में क्यों न दोहराई जा सकी. क्या इसीलिये नहीं कि इस दकियानूसी दुनिया को अब उस तरह बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता?
उस समय का सोवियत संघ (अब का रूस) अमरिका से अंतरिक्ष विज्ञान में आगे ही था परंतु 1969 से 1989 तक (1989 में सोवियत संघ के विघटन के शुरु होने तक) के दो दशक में वो इस अमरिकी बढत का सामना नहीं कर सका, जबकि कहा जा रहा है इस काम मे प्रयोग होने वाली तकनीक सैलफोन से भी कमतर थी. कोरिया, चीन, जापान, जर्मनी, फ्रांस, इंगलैंड कोई तुर्रम खाँ देश भी इस काम को अंजाम नहीं दे सका?
आपने हमें अवैज्ञानिक किन्हीं डिग्रियों के कारण कहा है तो सनद रहे कि मैं एनर्जी सिस्टम्स में इंजीनियरिंग का स्नातकोत्तर हूं और सलिल भाई केमिस्ट्री के स्नातकोत्तर हैं. डिग्रियों से परे विज्ञान और वैज्ञानिक सोच हमारे जीवन की परिपाटी है. हम सत्य के खोजी हैं! हमारे पूर्वाग्रहों को खंडित करने वाले सत्य भी हमें सहज स्वीकार्य हैं. मनोविज्ञान में भी हमारी रुचि है क्योंकि यह विज्ञान हमारी सोच के सन्दर्भ में है. इसी आधार पर लगता है कि आपके बाल मन की कल्पनाओं को खंडित करनें का दुस्साहस किया है, हमारी इस पोस्ट नें!
विज्ञान की श्रेष्ठता में हमारा अटूट विश्वास है. इसी विश्वास के आधार पर हम मानते हैं कि आज नहीं तो कल चाँद पर मनुष्य भी पहुचेगा और मानव बस्तियाँ भी बसेंगी.
कल रात लोक सभा चैनल पर एक चर्चा के दौरान कोई वेदांती स्वामी जी “नाभिकीय ऊर्जा” के सन्दर्भ में कह रहे थे कि वेदों में इसका स्प्ष्ट उल्लेख है, इसमें नया क्या है?. क्योंकि आज नाभिकीय रिएक्टर एक प्रामाणिक सत्य है, इस कारण क्या यह भी मानेगें आप कि “वैदिक सभ्यता की ऊर्जा आपूर्ति नाभिकीय रिएक्टर करते थें”?
वैज्ञानिक प्रयोगधर्मिता हमेशा एक परिकल्पना पर आधारित होती है. यूरी गगारिन से लेकर आज तक सम्पन्न स्पेस मिशन चाँद को छूने की मानवीय कल्पनाओं के परिणाम ही हैं. परंतु यहां बात उस अमरिकी दावे की सत्यता की है जो तब किसी और उद्देश्य की पूर्ति करता स्पष्ट दिखता है. उस दावे की हर दृष्टिकोण से पड़ताल करना एक नितांत वैज्ञानिक कृत्य है.
अरविन्द मिश्र जी, आप तो एक साईंस ब्लोग भी लिखते हैं, इस कारण आप को जानकारी होगी ही कि हर साल न जाने कितनी ही वैज्ञानिक शोधों की घोषणा होती है, जिन्हें बाद में वैज्ञानिक कम्यूनिटी ही जाली करार दे देती है!!
आइये खोजें ? प्रश्न पूछें, जबाब तलाशें और वैज्ञानिक उत्तर दें!!
सलिल वर्माः
बरसों पहले बिमल मित्र का एक उपन्यास पढा था, नाम अब याद नहीं. उसमें एक व्यक्ति का इकलौता जवान बेटा एक हादसे में मारा गया. इस घटना के बाद वह सज्जन एक अजीब सी मानसिक स्थिति में चले जाते हैं. और जब वे उबरते हैं तो उनके पास एक सिद्धांत होता है, जिसके अंतर्गत वो अपने मृत पुत्र से ऐसे बात चीत करते हैं, जैसे वो उनके पास बैठा हो, सशरीर. उनका यह सिद्धांत विश्वप्रसिद्ध होताहै और वो इस विषय पर अपना व्याख्यान देने सारी दुनिया में जाते हैं. उन्हें कई पुरस्कार भी मिलते हैं और इस विषय पर कई शोध भी होते हैं. अचानक एक दिन उनके दरवाज़े पर दस्तक होती है और उनका पुत्र जीवित उनके सामने खड़ा होता है, उनके सारे ज्ञान को नकारता हुआ. जीवित प्रमाण उनके मिथ्या ज्ञान का. उन्होंने अपने पुत्र को पहचानने से इंकार कर दिया.
पंडित अरविंद मिश्र ने भी इसी तरह छठवीं क्लास में जो कोलॉज बना रखा था, चंद्रविजय अभियान का वह आज भी अंकित है उनके मस्तिष्क में. अब उसको नकारने का दुःसाहस करना उनके बस की बात नहीं. लेकिन जो कुछ भी उन्होने कहा उसके बाद भी हमारा प्रश्न तो वहीं का वहीं है,फिर जवाब क्या दिया उन्होंने, या सवाल क्या उठाया!!
एक बच्चे ने एक सवाल किया मास्टर से, जिज्ञासा थी उसके मन में और उत्तर पर अधिकार था उसका. मास्टर ने दो जवाब दिए, “बेवक़ूफ़! इतना भी नहीं मालूम!” और दूसरा जवाब, “अहमक़! फ़ालतू के सवाल करके दूसरों का समय बरबाद करता है.” दोनों में से कौन सा जवाब सही है, यह तो पता नहीं, लेकिन आए दिन ये दोनों जवाब हर सवाल के लिए दिए जाते रहे हैं. और पंडित जी ने वही जवाब हमारे सवाल का भी दिया,बच्चा समझकर. ज्ञात हो मैं भी छठवीं में पढता था जब यह घटना घटी थी. और पंडित जी के अनुसार दुबारा यह घटना घटी तो मेरे जीवन काल में (यदि जीवित रहा) वह दूसरी घटना होगी.
विज्ञान के छात्र हम भी हैं, ये बात और है कि विज्ञान के ब्लॉग नहीं लिखते. पढ़ाया भी है कई साल तक मैंने , और जिन्हें हमने फ़ारसी पढ़ाई वो तेल भी नहीं बेच रहे हैं. लिहाजा, इतना तो सच है कि डाल्टन से लेकर नील्स बोर तक हर वैज्ञानिक ने पिछले की खाट खड़ी की है, लेकिन न बर्जीलियस ने डाल्टन को अहमक़ कहा, न अवोगैड्रो ने बर्जीलियस को बेवक़ूफ बताया और न ही नील्स बोर ने ऐवोगैड्रो को दकियानूसी.
किसी भी पूछे गए सवाल के जवाब देने से पहले की प्रक्रिया दो तरह की होती है. या तो आपको उसका जवाब पता है तथ्य सहित, या नहीं पता. पता है तो तथ्य से मेल खाने वाले प्रमाण सही उत्तर होंगे और न मेल खाने वाले प्रमाण ग़लत. लेकिन जवाब न मालूम हो तो सवाल ग़लत हो जाए ऐसा तो क़तई नहीं होता देखा. और कम से कम सवाल पूछने वाले को बेवक़ूफ़ बताकर तो बिल्कुल नहीं हो सकता.
हम तो बचपन से चाँद को मामू देखकर ही खुश होते आए हैं और चचा सैम के इस नाटक या सच्चाई पर भी ख़ुश थे. पंडित जी तब हम भी कक्षा छः में पढते थे. जब बड़े हुए और नेट से जुड़े तो लगा कि जितनी बातें चंद्र अभियान के नाटक होने पर लोगों ने लिखी हैं, वो भी तो कंविंसिंग हैं, तब तक जब तक उनका कोई काट नहीं. और इसका काट ये नहीं हो सकता कि सब बेवक़ूफ हैं, अहमक़ हैं और दकियानूसी हैं.
फ़िल्म ‘एक रुका हुआ फ़ैसला’ ऐसी ही मानसिकता को बयान करती फिल्म है, जिसमें पंकज कपूर सरीखे लोग अंत तक मानने को तैयार ही नहीं होते सच को, क्योंकि उन्हें छ्ठी क्लास में एक सच बताया गया था और वो उसके झूठ होने की कल्पना भी नहीं कर सकता है.
पुनश्च: आज अमेरिका का बर्थ डे है... हैप्पी बर्थ डे अमेरिका!!