सम्वेदना के स्वर

यह ब्लॉग उस सनातन उत्सवधर्मिता को जीवित रखने का प्रयास है,

जिसमें भाव रस और ताल का प्रतीक आम आदमी का भा-- बसता है.
सम्वेदनाएँ...जो कला, साहित्य, दर्शन, विज्ञान, राजनीति आदि के माध्यम से अभिव्यक्त होती हैं, आम आदमी के मन, जीवन और सरोकार से होकर गुज़रती हैं तथा तलाशती हैं उस भारत को, जो निरंतर लड़ रहा है अपने अस्तित्व की लड़ाई.....

Wednesday, March 31, 2010

अमीर खुसरो की रचनाएँ - एक साहित्यिक धरोहर

अगर मैं पूछूँ कि “मेरे अँगने में तुम्हारा क्या काम है” और “रंग बरसे भीजे चुनर वाली”, इन दोनों गानों मे क्या समानता है, तो आपका जवाब एक स्वर में यही होगा कि दोनों गाने अमिताभ बच्चन ने गाए हैं और दोनों अपने समय के बड़े मशहूर गाने थे और आज भी हैं. लेकिन जो बात मेरे आज के विषय की भूमिका है, वो ये है कि ये दोनों गाने लिखे किसने हैं ? इसका जवाब इतना आसान नहीं, क्योंकि इसी बात को लेकर उस समय बड़ा विवाद खड़ा हुआ था और सारे एलबम से डॉ. हरिवंश राय ‘बच्चन’ का नाम हटाकर “पारम्परिक रचना” लिख दिया गया. फिल्म “पूरब और पश्चिम” की आरती “ओम जय जगदीश हरे” भी एक पारम्परिक रचना के रूप में दर्ज़ है. वैसे ये बात सरासर ग़लत है, क्योंकि प्रेम से आरती गाने वाले जानते हैं कि इस आरती की अंतिम पंक्तियों में गाया जाता है “कहत सदानंद स्वामी”, जो शायद इस भजन के मूल रचयिता होंगे. हमने उन्हें भुला दिया या उन्हें हम नहीं जानते, इसलिये पारम्परिक रचना कहकर पिंड छुड़ा लिया.

हमारी लोक परम्परा में ऐसी कई विधाएँ हैं, जिनका मूल ढूँढना अत्यंत कठिन है. वो साझी विरासत के रूप में पीढी दर पीढी आगे बढती जाती हैं. चाहे वो गीत-संगीत हों, कविता-कहानियाँ हों, मुहावरे-कहावतें हों या हों पहेलियाँ… प-हे-लि-याँ ? हिंदवी ज़ुबान में जितनी भी पहेलियाँ हमने अपनी दादी नानी से सुनी हैं, वो सारी की सारी पहेलियाँ दर्ज़ हैं एक फारसी शायर, संगीतकार, इतिहासकार और सूफ़ी शायर के नाम से … जो दिल्ली की सरज़मीन पर सो रहा है, अपने महबूब निज़ामुद्दीन औलिया के क़रीब. उत्तरप्रदेश के बदायुँ शहर में जन्मा, वो शख्स था अबुल हसन यमीनुद्दीन खुसरो उर्फ अमीर खुसरो.

बात पहेलियों से निकली है तो वहीं से आगे बढाते हैं. कभी सोचा है आपने कि पहेलियाँ कितने तरह की होती होंगी? सवाल वाहियात नहीं है. अमीर खुसरो ने पहेलियों को  चार अलग अलग हिस्सों में बाँटा है.
1. बहिर्लापिकाः इस श्रेणी में वो पहेलियाँ आती हैं जिन्हें हम आम तौर पर बूझते बुझाते आये हैं. जिनका अर्थ पहेली में दिए गए संकेतों से लगता है. जैसे-
                   एक गुनी ने यह गुन कीना,
                   हरियल पिंजरे में दे दीना।
                   देखा जादूगर का हाल,
                   डाले हरा निकाले लाल।                        उत्तरः पान
2. अंतर्लापिकाः यहाँ पहेलियाँ बुझाने वाला, पहेली के अंदर ही उसका उत्तर छिपा कर पूछता है. बूझने वाले को संकेतों के माध्यम से अर्थ भी बूझना होता है और उसी के अंदर उत्तर भी खोजना होता है. जैसे-
                   गोल मटोल और छोटा-मोटा,
                   हर दम वह तो जमीं पर लोटा।
                  खुसरो कहे नहीं है झूठा,
                   जो न बूझे अकिल का खोटा।               उत्तरः लोटा (दूसरी पंक्ति में छिपा)
3. दोसुखनेः जैसा कि नाम से स्पष्ट है, इसमें दो अलग अलग पहेलियाँ पूछी जाती हैं, जो वस्तुतः एक वक्तव्य के रूप में होती हैं. लेकिन मज़ेदार बात ये है कि दोनों के उत्तर एक ही होते हैं – अर्थ भिन्न (इन्हें आप श्रुतिसम भिन्नार्थक शब्द कह सकते हैं). जैसे-
                  गोश्त क्यों न खाया?
                  गीत क्यों न गाया?                              उत्तरः गला न था
यहाँ पहला उत्तर यह बताता है कि गोश्त गला न था अर्थात कच्चा था. और दूसरे में गला न था अर्थात गला बेसुरा था.
4. मुकेरियाँ: यह बड़ी ही अद्भुत विधा है, जिसमें दो सखियों की बातचीत पहेली बनकर सामने आती है. पहेली पूछने वाली के सारे वर्णन एवं संकेत यही इंगित करते हैं कि पहेली का उत्तर ‘प्रियतम’ है या यूँ कहें कि यह पहेली कम प्रेमसंदेश अधिक लगता है. लेकिन जब पूछने वाली उत्तर बताती है तो पहेली को एक नया अर्थ मिल जाता है. ज़रा देखिये-
                      ऊंची अटारी पलंग बिछायो
                     मैं सोई मेरे सिर पर आयो
                     खुल गई अंखियां भयी आनंद
                     ऐ सखि साजन? ना सखि चंद.

बरसों से हमारे जनजीवन में ये पहेलियाँ बसी रहीं, अब तो हमारे बच्चे इनको सुनकर पूछ न बैठें कि ये किस भाषा की हैं. अमीर खुसरो को भी हम इन्हीं पहेलियों की तरह भुलाए बैठे हैं.
आज आधुनिक कविता में कितने प्रयोग हो रहे हैं, कविता के फॉर्मेट से लेकर भाषाई प्रयोग तक. लेकिन दो अलग अलग भाषाओं को मिलाकर, एक ही मीटर में रखते हुए, किसी ने कविता लिखने का साहस किया है? मैं साहित्य का विद्यार्थी नहीं, इसलिए मैंने नहीं देखा. अमीर खुसरो ने लिखा – फ़ारसी और हिंदवी को मिलाकर. क़ाफ़िया, रदीफ़ और मीटर की रुकावट कहीं नहीं -

ज़िहाल-ए मिस्कीं मकुन तगाफ़ुल, दुराये नैना बनाये बतियां.
कि ताब-ए-हिजरां नदारम ऎ जाँ, न लेहो काहे लगाये छतियां.

भले ही हम भूल गए हों उन्हें, लेकिन आँखें नम हो जाती हैं जब विदा होती किसी बिटिया की पुकार कानों में पड़ती है – काहे को ब्याही बिदेस या फिर सावन में ये कहती “अम्मा मोरे बाबा को भेजो री, के सावन आया”.

आज भी हज़रत निज़ामुद्दीन की दरगाह पर जब सालाना उर्स का जलसा होता है, तो खुसरो की सदा गाने वाले के गले में उतर कर सुनाई देती है – “छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाय के”, “सब सखियन में चुनर मोरी मैली, देख हँसे नर नारी”, “आज रंग है ए माँ रंग है री” …

और…. बस … अब और नहीं … छोड़े जाता हूँ आप सबको एक रहस्यवाद और सूफ़ीवाद के मिले जुले असर के बीच … ये समाप्ति नहीं है – प्रारम्भ है एक नवीन यात्रा का

गोरी सोई सेज पर, मुख पर डारे केस,
चल खुसरो घर आपने रैन भई चहुँ देस.

Sunday, March 28, 2010

चौथे खम्बे में लगी दीमक – भाग 2.


बड़ी पुरानी बात है कि आप अगर एक उँगली किसी की तरफ उठाते हैं तो चार उँगलियाँ खुद ब खुद आपकी तरफ उठ जाती हैं. ये भी कहा जाता है कि कमरे के अंदर आराम कुर्सी पर बैठकर आप किसी पर दोषारोपण कर सकते हैं, लेकिन जब वास्तविकता से आपका सामना होता है तो सारे आदर्श धरे के धरे रह जाते हैं.

हमने भी ऐसा ही एक दोषारोपण किया था मीडिया पर, एलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर, प्रजातंत्र के चौथे खम्बे पर जिसमें लगी दीमक बुरी तरह फैलती जा रही है. और ये आरोप सिर्फ आराम कुर्सी पर बैठकर उठाई गई उँगलियाँ नहीं. प्रमाण पिछले सप्ताह के विभिन्न समाचार-मनोरंजन पर दिखाई गई रिपोर्ताज हैं. पेश है एक बानगी... चौथे खम्बे में लगी दीमक – भाग2.

26 मार्च 2010, NDTV इंडिया
रवीश की रिपोर्ट, “दिल्ली का लापतागंज – पहाड़गंज”
वाह! क्या रिपोर्ट थी. देखकर लगा कि एक बार फिर किसी पत्रकार ने किसी गरीब का मज़ाक उड़ाकर अपना उल्लू साधा है. ये रिपोर्ट दिल्ली के पहाड़गंज में रहने वाले लोगों की हक़ीक़त कम, मीडिया का दृष्टिकोण अधिक थी. जिस ठसक के साथ रवीश कुमार पहाड़गंज की बदहाली को आश्चर्य मिश्रित काव्यात्मक शैली मे प्रस्तुत कर रहे थे, वो किसी भी तरह राहुल गाँधी की अमेठी के गावों मे घूम घूम कर गरीबी को समझने के शो से कम नहीं थी.

टी.वी. पर लगातार “25 कमरों में 500 लोग” की कैच लाईन स्क्रोल हो रही थी, लेकिन सुखद लगा कि चीखती हुई ग़रीबी की याद दिलाते उस कैच लाइन के बावजूद भी उन लोगों ने अपनी गुरबत का रोना नहीं रोया. उलटे मुस्कुरा कर इनका स्वागत ही नहीं किया वरन कहा कि हमें कोई तकलीफ नही है.

25 मार्च 2010,
NT अवार्ड्स
IBN7 के कार्यक्रम “ज़िन्दगी लाईव” के उस एपीसोड को ईनाम मिला, जिसमें सन 84 के सिक्ख नरसंहार का विद्रूप चित्रण किया गया था. सिक्ख नरसंहार के आरोपी भले ही आज तक खुले घूम रहे हों, दंगो की त्रास्दी झेलते लोगों की आँखों के आँसू समाचार मनोरंजन फिल्मों को पुरुस्कार दिला रहे है. इस पुरस्कार की सार्थकता तब सिद्ध होती जब उस बिलखती औरत के आँसूओं को न्याय दिलाने में इन्होंने कोई योगदान दिया होता.

26 मार्च 2010, रात 11 बजे की स्टार न्यूज़
जया बच्चन की “इन्डियन महिला प्रेस कोर्प्स” मे हुई पत्रकार-वार्त्ता पर दिखाई गयी रिपोर्ट इस कदर घटिया दर्जे की थी कि मैं चैनल इसी कारण देखता रहा कि देखें पत्रकारिता और कितने निचले स्तर तक जा सकती है.

अपने ज़रूरत भर की भरपूर एडिटिंग के बाद जो कुछ भी दिखाया गया उसमें भी जया बच्चन सही लगीं (जबकि उनको बद्तमीज़ नम्बर वन बताया गया) और चैनल बदतमीज़, बेहूदा और वाहियात लगा. “पा” फिल्म के नायक का सम्वाद कि “हाथ में माइक्रोफोन और पीछे कैमरा लगा लेने से तुम सर्वशक्तिशाली नहीं हो जाते हो” दिमाग़ से गुज़र गया.

मेरे दिल ने कहा, “अपने सर्वशक्तिशाली टी.वी. पत्रकार होने के अहंकार के नशे को उतर जाने दो भाई!”
आखिर कब पूछोगे खुद से ये सवाल कि ऐसे बेवकूफी भरे सवाल कब तक पूछता रहूँगा?”

दैनिक जागरण, 27 मार्च 2010
श्री राजीव शुक्ला का लेख “बस नाम के लोहियावादी” पढ़कर लोहिया जी का कहा याद आ गया कि “क्या बात कही जा रही है, इससे ज़्यादा आवश्यक है कि बात कहने वाला कौन है? और उसका पिछला इतिहास क्या है?”

पत्रकारिता से अपना करियर शुरु कर, भारतीय राजनीति के सबसे मजबूत किले के सेवादार के ओहदे पर विराजमान, क़िकेट सरगना और समाचार मनोरंजन चैनल के मालिक द्वारा लोहिया जी को समाजवादी पार्टी ने याद नही किया इस पर विलाप गम्भीर कथ्य था या व्यंग्य? और वो भी लोहिया जी पर या स्वयं पर?

***************************

प्रजातंत्र का ये चौथा खम्बा किसी टरमाइट प्रूफ लकड़ी का नहीं बना. अगर आपको किसी भी मीडिया में कोई भी ऐसी दीमक दिखाई दे, तो अवश्य लोगों को बतायें. आखिर कब तक गंदगी परोसकर वो हमारा स्वाद बिगाड़ते रहेंगे और हम उनको ऐसा करने देंगे.

Thursday, March 25, 2010

चौथे खम्बे में लगी दीमक-भाग 1

एलेक्ट्रोनिक मीडिया का प्रादुर्भाव भारतीय समाज में मात्र दो दशक पुराना है. ऐसे में आज का मीडिया 20-22 वर्ष का वो दिग्भ्रमित शहरी युवा प्रतीत होता है जो मात्र और मात्र उत्तेजना से भरा है. न तो उसे भान है अपनी 5000 वर्षों पुरानी सांस्कृतिक धरोहर का और न ही कर्तव्यबोध है, आने वाली पीढियों के लिये. समय की रेत पर अपने पद चिह्न छोड़ जाने का.

इन वीडियो पत्रकारों के रंग ढंग देखकर बस यही लगता है कि इनके लिये देश का इतिहास तभी से शुरू होता है; जब से इन्होंने टेलिवीज़न की नौकरीशुरू की. इनके लिये संस्कृति गली-मुहल्लों की चाट-पकौड़ों की दुकानों, आदिवासी नृत्यों तक ही सीमित है. बहुत हुआ तो गाहे-बगाहे काव्यात्मक भाषा में ग़रीबी का चित्रण कर कोई डॉक्यूमेंटरी बना डाली और उसे क्रिकेट और बॉलिवुड के प्रायोजित कार्यक्रमों के बीच दिखाकर अपनी सम्वेदनशीलता के दायित्व का निर्वाह करने की ख़ानापूर्ति भर कर ली.

जैसे इस देश के राजनेताओं के लिये राजनीति खालिस व्यवसाय है, उसी तरह देश में पत्रकारिता – विशेषतः टेलीविज़न पत्रकारिता - एक लाभप्रद व्यवसाय बन चुका है. IPL जैसे आयोजन इस धारणा को निर्विवाद रूप से सत्य सिद्ध करते हैं. इस आयोजन में बॉलिवुड और क्रिकेट की खिचड़ी, मीडिया की थाली में सजा कर पूरे देश को परोसी जा रही है. तनिक ध्यान दें, पिछले साल IPL की सारी टीमें रू.2300 करोड़ में नीलाम हुई थीं लेकिन अभी हाल ही में सिर्फ दो टीमें, पुणे और कोच्चि, रू.3200 करोड़ में बिकीं. हज़ारों करोड़ के इस खेल में एलेक्ट्रोनिक मीडिया की चांदी है, क्योंकि IPL की खिचड़ी का स्वाद चखाने और पैसों की चमक से उत्पन्न उत्तेजना जगाने का मुख्य दायित्व इनके ऊपर ही है. देश भले ही महँगाई, बेरोज़गारी, अशिक्षा और गिरती स्वास्थ्य सुविधाओं की समस्या से पीड़ित होकर त्राहिमाम कर रहा हो, तगड़ी व्यावसायिकता की होड़ में “चौथा स्तम्भ” स्वर्ण मंडित हो रहा है.

ऐसे में जनजीवन को प्रभावित करने वाले राजनैतिक मुद्दे हाशिये पर आ गये लगते हैं. सत्तापक्ष खुश है कि क्रिकेट, बालीवुड और मसाला खबरों की अफीम खाकर, जनता पगलाई हुई है और उनकी कुर्सी सुरक्षित है. विपक्ष हैरान-परेशान है, नक्कार खाने मे हर कोई अपनी अपनी तूती बजा रहा है. मुझे याद आता है, एक मशहूर टेलीविज़न पत्रकार (जो अब पद्म पुरस्कार से सम्मानित और मीडिया सम्राट की श्रेणी मे आ चुके हैं) का वो बिखरे बाल और बदहवासी से भरा, जुझारुपन को बयां करता चेहरा, जो उन्होनें गुजरात दंगो की NDTV के लिये की गयी रिपोर्टिगं करते हुए देश के सामने पेश किया था. बाद में NDTV की ही एक मशहूर महिला पत्रकार ने कारगिल युद्द में अपनी वैसी ही छवि पेश की. देखते ही देखते....खबरें पार्श्व में चली गयीं.....और ये व्यक्तित्व फोकस में आ गये.

आज जब एलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बॉलिवुडीकरण को हम देखते हैं तो लगता है वो सारा जुझारुडीपन झूठा था, मात्र एक कुशल अभिनय भर. कहीं कुछ भी तो नहीं बदला, हां! वो समाचार वाचन का अभिनय करनेवाले रातोंरात एलेक्ट्रानिक मीडिया के स्टार बन गये. एक चैनल से दूसरे चैनल के लिये बिकते ये चेहरे, किसी भी चैनल की व्यावसायिक सफलता की गारंटी बन गये. आज आलम ये है कि जुझारु पत्रकारिता मात्र एक कुशल अभिनय बन कर रह गयी है और व्यवसायिक तथा राजनैतिक स्वार्थो को साधने वाली खबरें टेलीविज़न स्टूडियों मे ही special Effects के साथ तैयार की जाने लगीं हैं..

पिछले दिनों अर्थशास्त्र का एक नया नियम पढने को मिला, SAY’S LAW :
जो कहता है कि Supply Creates its own Demand..यानि सप्लाई अपने द्वारा एक तरह की मांग तैयार करती है.
चौथे खम्भे मे भले ही दीमक लगी हो, पर आज इस दीमक के भी ख़ूब दाम मिल रहे हैं......Supply IS creating its own demand.

Saturday, March 20, 2010

ओशो के सम्बोधिं दिवस पर

21 मार्च 2010
ओशो के सम्बोधिं दिवस पर


वो ब्लैक होल सा
बुलाता रहा मुझे दूर से
और जब आकर्षित हुआ मै उसकी ओर
निचोड़ लिया उसने मुझे
या
पी गया था मैं उसे!

गहन अथाह अन्धेरे के दूसरे सिरे पर
उसका दिव्य स्वरूप दिखाई दिया
जिसमें अनंत विस्तार था
मैं था या नहीं ??
कुछ नहीं पता.....
पर वो हर तरफ था!

%%%%%

जीवन के परम एकांत में
अपने ब्रुश की नपुंसकता को चुनौती देते हुए
जब मैंने बन्जर कनवास पर
रंगों का बीज प्रत्यारोपित किया
तो सृजन हुआ एक महापुरुष की आकृति का.

ध्यानमग्न उस महपुरुष के चित्र में
एक स्वर्गिक शांति थी
अधरों पर थी एक अप्रतिम मुस्कान
उन्मीलित चक्षुओं में ज्ञान का आलोक
एक समाधिस्थ सम्पूर्ण महापुरुष
संग्रहालयों में रखी प्रतिमा सा हू ब हू बुद्ध.

सह्सा मेरे कलाकार मन में
तर्क के तड़ित का संचार हुआ
और अंतरमन में एक जिज्ञासा सी जगी
कि सदियों से समधिस्थ हों वे यदि
और परिवर्तित ना हुआ हो उनका मुखमंडल तनिक भी
सम्भव नहीं.

उठाकर ब्रुश को तत्काल
संशोधित किया चित्र को मैंने
चेहरे पर शुभ्र धवल दाढियाँ चित्रित कीं
अनावृत शरीर पर डाला एक चोग़ा
और सिर पर एक ऊनी टोपी.

पूर्णतया चित्रित हो चुके थे वे
दिख रहा था अभी भी मुखमंडल पर तेज
अधरों पर मुस्कान
आनंदातिरेक से मुंदे नेत्रों में वही असीम शांति
अंतर मात्र वस्त्र और दाढियों का था
किंतु इनके पीछे वह पूर्ण सम्बुद्ध बुद्ध ही था.

आज भी वह चित्र
एक नपुंसक ब्रुश द्वारा
एक बांझ कनवास पर बना
मेरी दीवार पर सुशोभित है
घर आने वाला हर अतिथि
चित्र देखकर यही कहता है
कि कलाकार की कला का विस्तार अनंत है
जगद् गुरु ओशो का चित्र सचमुच जीवंत है.

Friday, March 19, 2010

पागलपन

एक बार ऐसा हो गया कि एक गाँव में एक जादूगर आया. उसने आकर गाँव के कुँए में एक मंत्र पढा और कोइ चीज़ उसमें डाल दी और कहा कि इस कुँए का पानी जो भी पियेगा वो पागल हो जायेगा. साँझ होते होते उस गाँव के सभी लोगों ने उस कुँए का पानी पिया. क्योंकि प्यास नहीं सही जा सकती, पागलपन सहा जा सकता है. सारा गाँव सांझ होते होते पागल हो गया. सिर्फ वहाँ के राजा, रानी और वज़ीर बच गये. उनका अपना कुँआ था.
लेकिन सांझ उन्हें पता चला कि भूल हो गई हमारे बचने में. पूरे गाँव के लोग जुलूस बनाकर महल के सामने आ गये और नारा लगाने लगे और उन्होने कह, “ऐसा मालूम होता है कि राजा का दिमाग़ खराब हो गया है. राजा को बदलेंगे हम. पागल राजा नहीं चल सकता.”

राजा बहुत घबराया. उसके सैनिक भी पागल हो गये थे. उसने अपने वज़ीर से पूछा, “क्या करें हम? बात उलटी है. पागल ये लोग हो गये हैं,लेकिन भीड़ जब पागल हो जाये तो बताना बहुत कठिन है कि वो पागल है.” वज़ीर ने कहा, ”एक ही रास्ता है. पीछे के दरवाज़े से हम भागें, जितनी तेज़ भाग सकते हैं.”

राज, रानी और वज़ीर भागे. उन्होंने जाकर उसी कुँए का पानी पी लिया. फिर उस रात उस गाँव में बहुत बड़ा जलसा मनाया गया और गाँव के लोगों ने बड़ी खुशी मनाई और भगवान का धन्यवाद किया कि राजा का दिमाग़ ठीक हो गया.

जब सारा समूह एक ही पागलपन से पीड़ित हो तो पहचानना कठिन हो जाता है कि पागलपन क्या है. और अगर कोई आदमी पहचान ले तो वही आदमी उलटा मालूम होता है. भीड़ पागल नहीं मालूम पड़ती.

जीसस पागल मालूम पड़ते हैं, इसलिए भीड़ ने उन्हें सूली पर लटका दिया. सुकरात पागल मालूम पड़ते हैं, इसलिए भीड़ ने उन्हें ज़हर दिया. मंसूर पागल मालूम पड़ते हैं, इसलिए भीड़ ने उनकी चमड़ी खींच ली. गांधी पागल मालूम पड़ते हैं, इसलिए भीड़ ने उन्हें गोली मार दी.

आज तक ज़मीन पर जितने भी लोगों ने भीड़ के कुँए का पानी नहीं पिया, उनके साथ यही व्यवहार हुआ है और भीड़ निश्चिंत है. भीड़ पर शक पैदा नहीं होता क्योंकि चारों तरफ सभी लोग गवाह होते हैं कि ठीक हैं हम.

(संबुद्ध सद् गुरु ओशो के प्रवचन से उद्धृत)

Sunday, March 14, 2010

अभिमन्यु



“कुपुत्रो जायते क्वचिदपि माता कुमाता न भवति.”

एक आदमी ने शादी के बाद अपनी बीवी के कहने में आकर अपनी माँ का कलेजा निकाल कर बीवी को तोहफे के तौर पर देने चला. रास्ते में उसे ठोकर लगी और उस कटे हुए कलेजे से आवाज़ आई, “बेटा! कहीं चोट तो नहीं लगी.”


एक बच्चा, पैदा होने के कुछ देर बाद ही अपनी माँ का दूध पीना छोड देता है. डॉक्टर समझ नहीं पाते कि वज़ह क्या है.
वो बच्चा माँ के पास सुलाते ही रोने लगता और लगातार रोता रहता. तब तक उसे नींद नहीं आती. जब तक उसे माँ के पास से हटाकर कहीं और नहीं सुला दिया जाता.
वो बाप से चिपट कर ऐसे सोता जैसे कोई उसे सोते में उठाकर कहीं और ले जायेगा. और वो किसी भी कीमत पर अपने पिता से अलग नहीं होना चाहता था.
बच्चा बडा होता गया और उसका अपनी माँ से ये व्यवहार और तेज़ होता चला गया. ये नफरत नहीं थी, एक तरह का डर था. जैसे सोते में कभी उसकी माँ उसके पास आकर लेट जाये तो वो चौंक कर उठ जाता था.
बातें दोनों में बिल्कुल कम से कम तक सीमित थी. जबकि वो अपने बाप के साथ बिलकुल सामान्य व्यवहार करता था, हँसता था, बातें करता था.
परिवार में कोई दूसरा बच्चा पैदा नहीं हो सकता था, मेडिकल करणों से. इस बात से उस औरत की दिमागी हालत बिगडने लगी और वो डिप्रेशन में चली गयी. किसी से बात नहीं करती थी वो, बस अकेले में बडबडाती रहती थी.
“मैंने अपने मॉडलिंग के करियर को दाँव पर लगाया. मैं तो चहती थी अबॉर्शन करवाना, लेकिन सब की ज़िद के आगे मुझे झुकना पडा. और ये बच्चा मुझे माँ तक नहीं मानता. दूसरा होता तो संतोष कर लेती. लेकिन मैं क्या करूँ. क्या दोष है मेरा?

महाभारत में गंगा ने अपने सात बच्चों को पैदा होते ही नदी में बहा दिया. कुंती ने अपने बच्चे को जन्म तो दिया, लेकिन जीवन सौंप दिया नदी के हवाले.

आज कितनी गंगाएँ और कुंतियाँ आए दिन अपने अजन्मे शिशु की हत्या कर डालती हैं. उनकी मजबूरी हो सकती है, लेकिन उस शिशु का क्या दोष? महाभारत में सिर्फ गंगा और कुंती की कहानी ही नहीं, अभिमन्यु की भी कहानी है, जिसने माँ के गर्भ में चक्रव्यूह भेद को समझ लिया था.

Thursday, March 11, 2010

ढोंगी बाबा , लालची मीडिया और लाचार आदमी

पिछले कुछ दिनों से हमारे सारे समाचार चैनेलों, जिन्हें आज के संदर्भ में News Entertainment Channels कहना उचित होगा, ने भारतीय समाज में फैले ढोंगी बाबाओं के स्टिंग ऑपरेशन किये और साबुन तेल के विज्ञापनों का तडका लगाकर इन समाचारों की जम कर बिक्री की. “सी” ग्रेड मुम्बैया फिल्मों की तर्ज़ पर बनी इन खबरों का एकमात्र उद्देश्य सनसनी फैलाना भर है.

ज़रा ग़ौर करें उन खबरों की हेडलाईन पर –
“बाबा की रंगरलियाँ”, “अय्याश बाबा”, “पाखंड का पर्दा फाश”, “लडकियाँ सप्लाई करने वाला बाबा” .

इतना ही नहीं, इसके बाद दिखाई जाती हैं अश्लील तस्वीरें और शानदार background music. पूरा “सी” ग्रेड फिल्मी महौल तैयार. ऐसे में यह निर्णय करना कठिन हो जाता है कि असली पाखंडी कौन है, आस्थाओं के साथ खिलवाड करने वाला वो अय्याश बाबा या सुधारक के वेश में जनता के विश्वास के साथ खिलवाड करने वाला समाचार मनोरंजन चैनेल.

तनिक ध्यान दें इन तथ्यों परः

  •  कृपालु जी महाराज के आश्रम में हुई भगदड में “खबर हर कीमत पर” दिखाने का दावा करने वाले एक चैनेल ने बहुत हाय तोबा, चीख पुकार मचाई. बिखरी चप्पलें, लाशें और खून दिखाया... टी.आर.पी.बढी, विज्ञापन बढे, कमाई बढी... लेकिन मोटी कमाई करने वाले इन चैनेलों ने सौ रुपये के लिये जान देने वाली जनता (जिनका दर्द वो परोस रहे थे) के कफन पर दो रुपये भी डालने का एलान नहीं किया.

  • इच्छाधारी बाबा के पूरे धंधे का पर्दाफाश किया, बताया कि ये 600 कॉल गर्ल्स का रैकेट था. बाबा का असली नाम हमारे खोजी मीडिया ने खूब उछाला, लेकिन उन मजबूर लडकियों के ग्राहकों की तरफ से सबों ने आँखें मूँद लीं जो इस अनाचार में बराबर के भागीदार थे. इसे शर्मनाक ही कहा जाएगा कि दक्षिण दिल्ली और नोएडा में केंद्रित इन मीडिया घरानों की नाक के नीचे ये कारोबार बरसों से चलता रहा और “खबर हर कीमत पर” दिखाने वाले चैनेल को कानोंकान खबर भी ना हुई. पर्दाफाश का जो काम दिल्ली पुलिस का था, चंडूखाने की खबर के मुताबिक वो काम बाबा के किसी विरोधी दलाल ने किया.

  • स्वामी नित्यानंद की कहानी भी अजीब है. इस स्वामी के एक तमिल अभिनेत्री के साथ अवैध सम्बंधों की सी.डी. लगातार दिखायी जाती रही. बिना यह सोचे कि  ना तो पीडिता की कोई शिकायत कहीं दर्ज की गई,  ना तो इन सबूतों का न्यायालय ही कोई संज्ञान लेता है और सबसे महत्वपूर्ण कि समाचार चैनेलों पे लगातार वो दृश्य दिखाना जो लोग परिवार के साथ देखते हैं, बच्चों पर क्या असर डालता है.
बहरहाल इस घटना ने ढोंगी बाबाओं के काले कारनामों में तो मात्र एक और अध्याय ही जोडा है, लेकिन मीडिया के रोल पर एक बडा सवाल खडा किया है, जिस पर एक बार ग़ौर करने की आवश्यकता है. सवाल ये कि

1. समाचार मनोरंजन नहीं, बी.बी.सी. जैसा कोई सम्वेदनशील मीडिया तंत्र है जहाँ खबरें हर कीमत पर नहीं, वरन सामाजिक सम्वेदनशीलता की बुनियाद पर चुनी जाती हैं.

2. ढोंगी बाबाओं की घटना को पार्श्व में रखकर, एक सार्थक बहस की जाती कि आज का आम आदमी जहाँ झूठे विज्ञापन से धोका खा जाता है वहाँ कैसे नहीं वो अकेला, निराशा का सलीब उठाये बाबाओं के चमत्कार पर भरोसा करे.

मीडिया देश की आवाज़ बन सकता था, घर घर प्राथमिक शिक्षा पहुँचाने का माध्यम बन सकता था, उस गूंगी जनता का मसीहा बन सकता था, अंधविश्वास का चक्रवयूह तोडने में सहायक हो सकता था और बन सकता था एक सम्वेदनशील अभिव्यक्ति का माध्यम.

लेकिन मीडिया बाँट रहा है क्रिकेट और बॉलीवुड की मसाला खबरों की अफीम, कर रहा है झूटे विज्ञापनों के नकली उत्पादों द्वारा जेब काटने का कारोबार, हर कीमत पर खबर दिखाने का दावा करके हर खबर की कीमत वसूल कर रहा है.
तभी तो मुकेश अम्बानी का अपनी पत्नी को साल गिरह पर दिया जाने वाला 400 करोड का हवाई जहाज तो खबर बनता है,लेकिन सौ रुपये के थाली, लोटे और आधा पेट भोजन के लिए जान देने वाले आम लोग सिर्फ सुर्खियों तक ही सीमित रह जाते हैं, क्योंकि इन सुर्खियों से ही 400 करोड बटोरे जा सकते हैं.

Monday, March 8, 2010

महिला दिवस

नारी को जयशंकर प्रसाद ने “नारी तुम केवल श्रद्धा हो ” कहा, मैथिली शरण गुप्त ने “अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, आँचल में है दूध और आँखों में पानी ” बताया और महादेवी वर्मा ने “वेदना में जन्म करुणा में मिला आवास; अश्रु चुनता दिवस इसका, अश्रु गिनती रात!” लिखकर चित्रित किया. शास्त्रों में बताया कि “ यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता” – जहाँ नारी की पूजा होती है, वहाँ देवता निवास करते हैं. वही नारी नौ महीने की काल कोठरी में भ्रूण से पूर्ण होने की यात्रा में जीवन की डोर से जीव को जिलाये रखती है, सम्पूर्ण सृष्टि की जननी.

किंतु एक मिनट… ऐसा कुछ क्या सचमुच है हमारे आस पास? हो सकता है आप कहें कि नहीं…बिल्कुल नहीं. आज नारी अबला तो है ही नहीं, और वेदना तथा करुणा जैसी फालतू चीज़ों का तो नारी के साथ दूर दूर का वास्ता नहीं है. नारी घर बार से लेकर करोबार तक चला रही है, इन्नोवा से लेकर बोइंग तक और कलम से लेकर बंदूक तक. नारी गृहिणी भी है और एक बडे औद्योगिक प्रतिष्ठान की सी. ई. ओ. भी है. लब्बो लुआब ये कि कोइ भी ऐसा काम जिसे पुरुषों का काम कहा जाता था आज नारियों से अछूता नहीं है.

अगर ऐसा है तो फिर क्या आवश्यकता है “महिला दिवस” मनाए जाने की. शायद इसलिये कि हम इस दिन उन महिलाओं को याद कर लें जो पहले कहे गए नारी के किसी भी रूप में नहीं समातीं. क्योंकि एक नारी वो भी है जो घर की चारदीवारी को हीअपनी दुनिया मान लेती है, पति को परमेश्वर, और बच्चे पालने को अपने जीवन का लक्ष्य. एक नारी वो भी है जिसकी कसक गुलज़ार ने इन लफ्ज़ों में बयान की है :

आले भरवा दो मेरी आँखों के
बंद करवा के उनपे ताले लगवा दो.
जिस्म की जुम्बिशों पे पहले ही
तुमने अहकाम बाँध रखे हैं
मेरी आवाज़ रेंग कर निकलती है.
ढाँप कर जिस्म भारी पर्दों में
दर दरीचों पे पहरे रखते हो.
फिक्र रहती है रात दिन तुमको
कोई सामान चोरी ना कर ले.
एक छोटा सा काम और करो
अपनी उंगली डबो के रौग़न में
तुम मेरे जिस्म पर लिख दो
इसके जुमला हुकूक अब तुम्हारे हैं.

या फिर वो नारी जो सिर पर नौ नौ ईंटें उठाकर किसी नई बन रही ईमारत की छत तक चढती उतरती है और घर जाकर अपने शराबी पति की मार भी खाती है. उसके बच्चे को अपनी कोख में पालती है और जब पता चलता है कि वो भी नारी है तो उसकी हत्या होते हुए भी देखती है. ये नारी किसी फिल्म की हिरोइन नहीं, लेकिन फटे कपडों में अपना बदन छिपाती, किसी मोनालिसा से कम नहीं. क्या हुआ अगर ये किसी साबुन, तेल या शैम्पू का विज्ञापन करने वाली मॉडल नहीं, किसी भी मेहनतकश इंसान की रोल मॉडल अवश्य है. प्रसाद, गुप्त और महादेवी की नारी को नमन करते हुए सूर्य कांत त्रिपाठी ‘निराला’ की नारी के चरणों में श्रद्धा सुमन अर्पण हैं, जिसके बारे में उन्होंने कहा था “तोडती पत्थर…देखा उसे मैंने इलाहाबादके पथ पर”.

कल ‘लोक सभा टीवी’ पर स्वामी अग्निवेश ऐसी ही कुछ महिलाओं से चर्चा के दौरान उनकी दुर्दशा सुनकर अपने आँसू नहीं रोक पाए और उन्होंने ब्रेक की घोषणा कर दी… ये कॉमर्शियल ब्रेक नहीं था, इमोशनल ब्रेक था. शायद टीवी के इतिहास में अपनी तरह का पहला ब्रेक. और कर्यक्रम के अंत में उन महिलाओं के पैर छुए, ये बताते हुए कि उन्होंने अपनी माता के अतिरिक्त पहली बार किसी के पैर छुए हैं.

आज संसद में महिला आरक्षण विधेयक प्रस्तुत किया जाएगा. कैसी विडम्बना है कि देश की लगभग आधी आबादी वाली महिलाओं को मात्र एक तिहाई प्रतिनिधित्व के लिये भी इतने विरोध झेलने पड रहे हैं. नेपोलियन ने कहा था कि तुम मुझे एक अच्छी माँ दो, मैं तुम्हें एक अच्छा राष्ट्र दूंगा. छः दशकों से पूरा मौका दिये जाने पर तो पुरुषों ने देश का ये हाल किया है, अब बारी है नारी शक्ति को मात्र एक तिहाई मौका देने की, जो होगी महिला दिवस पर एक सच्ची पुष्पांजलि.

Wednesday, March 3, 2010

बजट बनाम आम आदमी

सत्तर के दशक मे “गरीबी हटाओ” के इन्दिरा गाँधी के नारे ने जहाँ एक ओर उस “गूंगी गुडिया” को सत्ता मे स्थापित कर दिया था, वहीं 2004 मे “आम आदमी” के नारे ने इस उपनाम को भारतीय लोकतंत्र का पर्याय बना दिया है.

इस सारे खेल मे किसने किसका उद्वार किया यह तो इतिहास मे दर्ज हो चुका है. बहरहाल, लोकतंत्र नाम के इस चक्रव्यूह से बाहर निकलने को छटपटाते इस आम आदमी को पिछले 19 वर्षो से आर्थिक सुधार नाम का जो टॉनिक पिलाया जा रहा है उसी टॉनिक की बोतल से निकली है वार्षिक बजट 2010-11 की ताजा खुराक. वार्षिक बजट के विश्लेषण से पहले निम्न बातों को संज्ञान में लेना आवश्यक है :

1. सरकारी आंकडों के अनुसार भारत की 65% आबादी कृषि पर निर्भर है. जबकी सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का हिस्सा घटकर मात्र 18% ही रह गया है. सेवा क्षेत्र का हिस्सा बढकर 51% तथा उद्योगों का हिस्सा बढकर 31% हो गया है. स्पष्ट है कि ग्रामीण भारत को इस आर्थिक सुधार के टॉनिक से लाभ नहीं नुक्सान हो रहा है.

2.  आज़ादी के 62 साल बाद भी भारत सरकार गरीबों की संख्या के अपने ही मकड जाल में उलझी है, जिसकी एक बानगी इस तरह है :
 
   क) यू .पी. ए.- 1 सरकार द्वारा गठित अर्जुनसेन गुप्ता कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार 78% भारतीय 20 रुपये रोज़ की दिहाडी पर जीवित हैं.

   ख) य़ोजना आयोग द्वारा गठित सुरेश तेंदुलकर कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार 38% भारतीय गरीबी की रेखा के नीचे हैं जो की 2004 के आंकडों के अनुसार 12% अधिक है. यानि हमारा तथ्य कि आर्थिक सुधार के टॉनिक से फायदा नहीं नुकसान हो रहा है - सत्य है.

  ग) गरीबी रेखा का मुख्य पैमाना है लगभग 2400 कैलोरी प्रति व्यक्ति प्रति दिन का उपभोग. इस महंगाई की मार से बेहाल आम आदमी को, परिवार के प्रत्येक व्यक्ति को 2400 कैलोरी प्रति दिन जुटाने मे कितने रुपयों की दरकार होगी, इसका हिसाब सरकार जान बूझ कर भूल जाना चाह्ती है.

3. 120 करोड की आबादी वाले देश में टैक्स अदा करने वाले कुल जमा साढे तीन करोड लोग ही हैं, एक मोटे अनुमान के अनुसार मध्यम तथा उच्च वर्ग की कुल संख्या 20 करोड है, यानि करीब 100 करोड भारत कीडॆ-मकोडों का जीवन जीने को विवश है.

4. पिछले दिनो एक आंकडा आया कि सबसे अमीर 51 भारतीयों की कुल सम्पत्ति सकल घरेलु उत्पाद की 25% है. एक अनुमान के अनुसार देश की 80% सम्पदा पर 20% कुलीन वर्ग का कब्ज़ा है.

“इंडिया” और “भारत” के इस विभेद को जानने के बाद श्री प्रणव मुखर्जी के वार्षिक बजट 2010-11 के मुख्य आकर्षण इस प्रकार हैं:

1. बजट का 21% हिस्सा भारत सरकार द्वारा लिये गये ऋण के ब्याज कि चुकायेगी में जायेगा, 13% रक्षा खर्चों में, 11% उस सब्सीडी को जिसे उद्योगपातियों तथा अफसरों की पूरी जमात सालभर धीरे धीरे खाती है. लीजिये, 45% बजट तो यूं ही स्वाहा हो गया!

2. शेष 55% बजट का बडा हिस्सा इंफ्रास्ट्रक्चर के नाम पर फिर इंडिया को समर्पित है. बाकी बचे पैसे को महात्मा गाँधी, जवाहर लाल नेहरु, इन्दिरा गाँधी, राजीव गाँधी आदि महापुरुषों की याद में जारी अनेकानेक योजनाओं की मार्फत उस आम आदमी तक पहुचाने की वार्षिक कवायद की गयी है, जिसकी पह्चान सरकार अभी तक नहीं कर सकी है.

3. जहाँ उस आम आदमी की संख्या पर भ्रम हो सकता है, वहीं बजट में 1900 करोड रुपये उसी आम आदमी के हाईटेक पह्चान पत्र बनाने के लिये आबंटित किये गये हैं. फिलहाल इससे भी मध्यम तथा उच्च वर्ग के लिये ही रोजगार का सृजन होगा. तो भाईसाहब! जब तक भारत की पह्चान होती है, इंडिया की प्रगति को तो रोका नहीं जा सकता!

4. मध्यम तथा उच्च वर्गीय इंडियावासी को करों मे राहत का तोह्फा मिला है, तो भारतवासियों को उत्पाद कर में 2% वृद्धि की महंगाई और झेलेने की प्रताडना.

5. बढती महंगाई की आग में पेट्रोल और डीज़ॅल के मूल्यों में लगभग 3 रुपये की वृद्धि सह सके, बस इतना आशावाद ही तो मांगा है हुक्मरानों ने आम आदमी से.

विपक्ष ने इस बजट का वहिष्कार किया है, सत्ता पक्ष के घटक दलों ने धमकी दी है और सरकार... कानों में तेल डाले सो रही है. मीडिया की ख़बर ये कहती है कि निकट भविष्य में चुनाव होने नहीं जा रहे हैं इसलिये धमकी और वहिष्कार ठेंगे से!!


Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...