सम्वेदना के स्वर

यह ब्लॉग उस सनातन उत्सवधर्मिता को जीवित रखने का प्रयास है,

जिसमें भाव रस और ताल का प्रतीक आम आदमी का भा-- बसता है.
सम्वेदनाएँ...जो कला, साहित्य, दर्शन, विज्ञान, राजनीति आदि के माध्यम से अभिव्यक्त होती हैं, आम आदमी के मन, जीवन और सरोकार से होकर गुज़रती हैं तथा तलाशती हैं उस भारत को, जो निरंतर लड़ रहा है अपने अस्तित्व की लड़ाई.....

Saturday, May 29, 2010

बुद्धू बक्से का बुद्ध – “लोक-सभा चैनल”

                 
टीवी समाचार चैनलों को हम इस ब्लॉग पर हमेशा समाचार मनोरंजन चैनल नाम से ही सम्बोधित करते रहे हैं. लखनऊ ब्लॉगर्स एसोसिएशन के मित्रों ने तो अपनी एक पोस्ट ही “मीडिया की भड़वागिरी” नाम से छाप डाली.
बहरहाल, आज हमारे देश का टेलिविज़न मीडिया, साबुन-तेल-शैम्पू के विज्ञापनों के बीच, पागलों की तरह चीखता चिल्लाता एक ऐसा मूर्ख बन्दर है, जिसे किसी ने मदिरा पिला दी है और फिर उसे किसी बिच्छू ने काट खाया है. तत्पश्चात उसकी उछल कूद से प्रभावित होकर पीपल के पेड़ से उतर कर एक भूत इसके सर पर चढ़ बैठ गया है.

अपनी इस बात का जब हमने अपने एक संजीदा पत्रकार मित्र से ज़िक्र किया, तो उन्होने तपाक से अपनी टिप्पणी दे डाली, “सच! टेलिविज़न मीडिया एक मूर्ख बन्दर है, जो अपनी विश्वस्नीयता खो चुका है. इस मूर्ख बन्दर ने विज्ञापनों के अंगूरी पैसों से बनी मदिरा पी रखी है, “सर्वशक्तिमान होने के अहंकार” के बिच्छू ने इसे डँस लिया है और अब हालात इतने खतरनाक हो चुके हैं, कि “भ्रष्ट नेताओं तथा उद्योगपतियों” का भूत इसकी सवारी कर रहा है.”
पहले तो हम दोनों ख़ूब हँसे, फिर अपने इस मज़ाक का इतना यथार्तपरक चित्रण सुनकर हम सहम भी गये. पत्रकार मित्र ने हमारी स्थिति भाँपकर आगे कहा, “जानते हो इस बुद्धू बक्से में एक बुद्ध भी है ? कभी लोकसभा चैनल देखा है ? नहीं देखा है तो 1-2 हफ्ते देखो, फिर मेरी बात का मतलब समझ आयेगा.”

इस घटना को तकरीबन तीन माह से ज़्यादा हो चुके हैं और हाल ये है कि हम लोकसभा चैनल के मुरीद हो चुके हैं. लोकसभा चैनल एक ऐसा मंच है जहाँ भारत, इंडिया से बेझिझक होकर सवाल पूंछता है. न विज्ञापनों का झूठा तिलिस्म है, न समाचार से भी बड़े “एंकर जी”, न चीख-चिल्लाहट, न प्रायोजित मुर्गा-लड़ाई, न प्रलय की उद्घघोषणा, न बाबाओं का पर्दाफाश और न भविष्य बांचती कोई जादूगरनी.

लोक सभा चैनल एक आदर्श समाचार चैनल है. इसके कुछ प्रमुख कार्यक्रमों की एक झलक आपके लिएः

1. विचार मंथन: स्वामी अग्निवेश द्वारा प्रस्तुत यह कार्यक्रम, देश और समाज की वास्तविक एवं मूलभूत समस्याओं को संजीदगी से समझता और समझाता है.
2. आप की आवाज़: एक अनूठा कार्यक्रम, जिसमे एंकर दिखता ही नहीं है. माइक्रोफोन और कैमरे का काम आम जनता के बीच घूमते हुए, जनता से जुड़े विषयों पर, जनता की आवाज़ को रिकार्ड भर करना है.
3. बातों बातों में: मृणाल पाण्डे द्वारा प्रस्तुत इस कार्यक्रम में हर हफ्ते एक मशहूर हस्ती से मुलाकात करवायी जाती है. विदुषी मृणाल पाण्डे का शालीन अन्दाज़ आमंत्रित अतिथि को, कब स्टूडियो से आपकी बैठक में ले आता है पता ही नहीं चलता.
4. लोक मंच: सम-सामयिक विषयों के अलावा, संसद मे रखे गये महत्वपूर्ण बिलों पर बिना किसी चीख चिल्लाहट के गहन चर्चा- हिन्दी में और अंग्रेज़ी कार्यक्रम में भी.
5. ए पेज फ्रोम हिस्ट्री: यह एक गम्भीर कार्यक्रम है, जिसमें इतिहास का कोई एक पन्ना खोलकर, उस एतिहासिक घटना का, आमंत्रित बुद्धिजीवियों द्वारा आकलन प्रस्तुत किया जाता है.
6. एकला चलो: उन संसद सदस्यों से बातचीत, जो छोटी पार्टियों से आते हैं. उनकी राजनीति और विकास की अवधारणओं से रुबरु कराता, एक अच्छा कार्यक्रम. जिसका मूलमंत्र है “लोकतन्त्र बहुमत की तानाशाही नही है.”
7. साहित्य संसार: ज्ञानेन्द्र पाण्डे द्वारा साहित्यकारों से साक्षात्कार, पुस्तक मेलों तथा साहित्य-गोष्ठियों की रिपोर्ट, कवि-सम्मेलनों की झलकियाँ आदि. साहित्यिक गतिविधियों का ऐसा नियमित कार्यक्रम किसी चैनल पर देखा नहीं जा सकता.
8. अस्मिता: मूलत: स्त्रीयों के विषय उठाता यह कार्यक्रम इतने सहज फार्मेट में प्रस्तुत किया जाता है जैसे अपनी मित्र मंडली ही मिल बैठ कर बतिया रहें हों.
9. वीकेंड-क्लासिक: मिर्ज़ा ग़ालिब, पोथेर पांचाली, शतरंज के खिलाड़ी जैसी दुर्लभ फिल्में जब भी लोक सभा चैनल के इस कार्यक्रम पर देखने को मिलती हैं, हम अपने प्रियजनों को फोन खटका कर बताते रह्ते हैं.
और अंत में लोक सभा चैनल की The Hindu- Business line समाचार पत्र द्वारा की गई समीक्षाः

Guess which channel is slowly but surely going up the TRP ladder – our very own Lok Sabha TV (LSTV).
In Delhi, LSTV recently equalled the television ratings (TVR) of prominent news channels such as CNBC 18, Headlines Today and CNN-IBN, according to TAM India rating agency.
With a TRP of .01, LSTV's viewership was higher than several international channels such as BBC and CNN. Similar ratings were recorded in Mumbai, where LSTV matched popular news channel NDTV 24X7. Going by the ratings, people are warming up to LSTV, which is said to be the world's only channel to be owned and operated by a House of Parliament.
Publicity campaigns in 2009-10 fetched Rs.4.6 crore, whereas the total capital expenditure for the same period was a meagre Rs. 1.5 crore. It is currently run from the Parliament Library Building and boasts of a modern Production Control room with 10 robotic cameras.
But the channel is not all about the Lok Sabha sessions. It has an array of value-added programmes which are aired after the House sessions and when the Lok Sabha is not meeting. These programmes cover areas relating to democracy, governance, people's issues, gender discourse, constitutional aspects and economy.
Paranjoy Guha Thakurta said: “It is highly unfortunate that it has been without a Head since the past few months and that it could be due to plain bureaucratic lethargy.”
With the recent optimistic TVR levels, industry watchers feel that LSTV must aim to achieve higher figures and resolve the current bureaucratic issues plaguing the channel. While some analysts believe attractive feature stories on entertainment and sports can result in a huge boost in TRPs, others say the channel should continue to build on its USP of a serious news channel.

Thursday, May 27, 2010

बुद्ध पूजने की चीज़ नहीं हैं - बुद्धत्व तक पहुंचना है !!

27 मई 2010
बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर
सभी को बधाई!
बुद्ध के सन्दर्भ में बधाई जैसे शब्द बौने प्रतीत होते हैं!
बुद्ध का इस धरती पर आना, एक अनूठी घटना है!!

बुद्ध हमारी चेतना को झंझोड़ जाते हैं
बुद्ध का कहना कि
“संसार मे दुःख है, दुःख का कारण है और कारण का उपाय है”,
हमारी सोच को आगे ले जाता है.
बुद्ध के बाद, पहली बार यह सोच आयाम लेती है कि “बुद्धत्व तक पहुंचना”, मनुष्य जीवन की पराकाष्ठा है.
बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर बुद्ध के चरणों मे समर्पित कुछ पंक्तियां
 
तलाश में हैं हम सब.
कुछ न कुछ तलाशते – जीवन भर.

कोई धन- कोई मन
कोई पद- कोई शक्ति का मद
कोई घर- कोई वर
कोई सौन्दर्य- कोई शांति.
जितने लोग, उतनी भ्रांति

कितना अजीब है!! तलाशते तलाशते हम सब
अपनी अपनी इच्छाओं के कुँए में गिरते अंतत:
और इसी तरह अंत होता,
हम सभी का...

सोचा नहीं हमने कभी कि तलाशें
इस “तलाश” को भी 
हमें लील जाने वाली
इस “तलाश” के इतिहास को भी.

कहीं ऐसा तो नहीं
हमारी तलाश झूठी हो ?
हर चीज़ को मचलने वाले
“बचपन के मन” की छाप
दिल से अभी तक मिटी न हो?

तलाश की तलाश बहुत जरुरी है
क्यों छीन ले झूठ
उस “जीवन-सत्य” को,
उस “बुद्धत्व” को...
जिसकी अनुभूति ही
हम सब की परिणति है.

Tuesday, May 25, 2010

कुछ विज्ञान कवितायें

जैसे मोहब्बत कब, किसे , कहाँ और किससे हो जाए कोई नहीं जानता, वैसे ही साहित्य का कीड़ा कब किसके दिमाग़ में घुस जाए, बड़ा मुश्किल है पता लगाना. मनोहर श्याम जोशी हों, या श्रीलाल शुक्ल… कहाँ विज्ञान के डिग्री धारक और कहाँ साहित्य. अब अपने ब्लॉग जगत पर ही देखें, तो कितने ही इंजीनियर, चार्टर्ड एकाउन्टैंट, डॉक्टर मिलेंगे, जो न सिर्फ लिख रहे हैं, बल्कि धाँसू लिख रहे हैं.


हम दोनों भी उसी परम्परा की एक छोटी सी कड़ी हैं. एक इंजीनियर, दूसरा केमिस्ट्री का स्नातकोत्तर…उस पर तुर्रा ये कि हमारी कर्मस्थली है: एक वित्तीय-संस्थान....

इन विरोधाभासों के बीच जन्मी हैं कुछ कविताएँ, जो सम्वेदनाओं के विज्ञान को स्वर देती सी लगती हैं:

पोल ऑपोज़िट

हमारे ख़यालात मिलते नहीं थे
मिले फिर भी हम
पोल ऑपोज़िट थे शायद
गए खिंचते एक दूसरे की तरफ हम
ये सोचा था मिल जाएंगे, और मिले भी
ख़यालात एक दूसरे से हमारे
मुझे उससे नफरत, उसे मुझसे नफरत.

ग्रैविटी का नियम

लगा देखते ही यूँ एक दूसरे को
कि जैसे बने एक दूजे की ख़ातिर
करीं पार सारी हदें आशिक़ी की
मोहब्बत की छू ली थी सारी ऊँचाई.
सही था वो न्यूटन का ग्रैविटी का नियम
जो जाता है ऊपर वो आता है नीचे
पड़ा हूँ मैं नफरत की गहराइयों में.

आर्किमीदिस का प्यार

प्यार के सागर में मैं गोते लगाता
खोजता था प्यार के मोती, मोहब्बत के ख़ज़ाने.
दिल का सारा बोझ हल्का हो गया मालूम होता,
था मोहब्बत के समंदर में उतरकर
और दिल ये चाहता था
गलियों में जाकर मैं चिल्लाऊँ युरेका !!
आर्किमीदिस प्यार में बन जाऊँ तेरे.

 पानी की चाल

मोहब्बत क्या है ये जाना नहीं था
हो ही जाती है, सुना था सबको कहते.
एक रवाँ पानी के जैसा घूमता आवारा.
ना कोई मिला मुझको, न हो पाई मोहब्बत.
फिर अचानक, अपने ख़ालीपन के संग
तुम मिल गए मुझको, मुकम्मल हो गया मैं.
पानी आखिर खोज ही लेता है अपनी सतह ख़ुद ही!

टोटल इन्टर्नल रेफ्लेक्शन

दिल मेरा है काँच का
मुझको कहाँ मालूम था
मुझको पता ये तब चला
जब प्यार की रोशन किरन
दिल पर मेरे ऐसे पड़ी
बस दिल की होकर ही वो मेरे रह गई.
टोटल इन्टर्नल रेफ्लेक्शन का नमूना थी
किरन ये प्यार की
जो रूह तक मुझको थी रोशन कर गई.


Saturday, May 22, 2010

चौथे खंभे के ढपोरशंखी !!

आज की दुनिया में हर रोज, हम एक नई सुबह की कामना के साथ बिस्तर से उठते हैं और ऐसे में यदि कोई कह दे कि आज का दिन बड़ा अच्छा गुज़रेगा तो बस उसके मुंह में घी शक्कर डालकर जीवन के अग्निपथ पर चल देते हैं.

हमारे इस दिवास्वप्न की पूर्ति के लिए, हमारे देश का टेलीविज़न मीडिया सुबह होते ही अपने अपने ज्योतिषियों के साथ आ धमकता है, और फिर लगभग घण्टे भर विरोधाभासी भविष्यवाणियों का प्रदूषण फैलता रहता है.

यूँ तो विरोधाभासी भविष्यवाणियों के इस मायाजाल में कोई भी चैनल किसी से कम नहीं, परंतु न्यूज-24 चैनल की एक ढपोरशंखी महिला से मुझे सख्त चिढ हो चली है. कई बार सलिल भाई साहब को गुस्से में फोन कर के इनकी शिकायत भी की है. परंतु जैसे मैं इस दुनिया से अकेला निबटता हूँ, वैसे ही असहाय सलिल भाई भी हैं. उन्होने मुझे यह ताकीद कर, कि “इस टेलीविज़न मीडिया का कोई कुछ नही बिगाड़ सकता है! ” कई बार आगाह भी किया. पर मुझे तो बार-बार यही लगता है कि चौथे खंभे के आगे बाकी तीनो खम्भे भी दंडवत हो चले हैं.

ये मैडम जी! ठेठ जादूगरनी स्टाइल में सुबह नौ बजे एक क्रिस्टल-बाल लेकर बैठती हैं तथा फोन पर पूछी गयी समस्या का समाधान अपनी क्रिस्टल-बाल के भीतर झांक कर दे देतीं हैं. कोई घातक बीमारी से परेशान हो...., नौकरी न लग रही हो....., व्यापार न चल रहा हो.....हर समस्या को यह अपनी क्रिस्टल-बाल मे देखने का दावा करतीं है और फिर अजीबो-गरीब समाधान भी सुझाती हैं जैसे...पीले लिफाफे में पांच हरे पत्ते रखकर पानी मे बहा दें....अपनी जेब मे तीन रंग के कंचे रखें.....नीले कपड़े न पहनें....आदि.

अगर यह महिला जानबूझकर बकवास नहीं कर रहीं हैं, तो मेरा मानना है कि इनका इलाज़ किसी अच्छे मनोचिकित्सक से, चैनल के खर्चे पर कराना चाहिये. वह इसलिये, कि इस चैनल के मालिक श्री राजीव शुक्ला जी सम्मानित संसद सदस्य तथा स्वयम पत्रकार हैं और प्रगतिवादी विचारों के मानें जाते हैं. इस चैनल की मैनेजिंग डायरेक्टर अनुराधा प्रसाद जी, जो राजीव शुक्ला जी की पत्नी तथा बीजेपी के रविशंकर प्रसाद जी की बहन हैं, उनसे भी हमारी प्रार्थना है, प्लीज़! आप स्वयम आकर हमारा कुछ भी भविष्य बता दीजिये, पर इन मोहतरमा के अत्त्याचार से हमें बचाइये.

अभी-अभी इनटरनैट पर जब इन मोहतरमा के बारे में गूगल किया तो पता चला कि ये “मुम्बई फिल्म अकादमी” से वोइसिंग एवं एन्करिंग का कोर्स करने के पश्चात ही इस "धन्धे" में आयीं हैं. इस कारण, वो मनोचिकित्सक वाली बात मै वापस लेता हूं. फिलहाल सलिल भाई की बात मानते हुए एक और चैनल को अपनी लिस्ट से डिलीट कर रहा हूं.

पुनश्च : हम आप सबका ध्यान “समाचार प्रसारण मानक प्राधिकरण” की “समाचार प्रसारण मानक नियमावली” के सिद्धांत आठ कि और आकर्षित करना चाहते हैं जिसके अनुसार प्रसारण के अंतर्गत “अधंविश्वास एवं जादू टोने को बढावा देने अथवा उनकी वकालत करने से परहेज़ हो”.

न्यूज़ ब्राडकास्टर्स एसोसिएशन (एन. बी. ए.) द्वारा गठित “समाचार प्रसारण मानक प्राधिकरण” एक स्वतंत्र निकाय है. इसका कार्य प्रसारण के मानदंडो का अनुपालन कराना है. (इसके बारे में हम अपने ब्लोग मे आगे विस्तार से बात करेंगे. शायद कोई रास्ता निकले)

हां! इस सन्दर्भ में न्यूज़ ब्राडकास्टर्स एसोसिएशन (एन. बी. ए) की वेब साइट से आप और अधिक जानकारी ले सकते हैं, पता है : http://www.nbanewdelhi.com/
 

Monday, May 17, 2010

अब तो अपनी लेखनी से, नाड़ा ही तू डाल रे!

पिछले दिनों पुण्य प्रसून जी के ब्लोग में, मीडिया के गिरते स्तर पर पाकिस्तानी कवि “हबीब जालिब” की कविता पढी, “अब क़लम से इज़ारबंद ही डाल”...मूल कविता उर्दू में थी और उसका हिन्दी अनुवाद शायद! प्रसून जी ने किया था.मुझें कविता जितनी जानदार और बेबाक लगी उसका हिन्दी अनुवाद उतना वज़नदार नहीं लगा. इस कारण सलिल भाई से फरमाइश कर दी उसका हिन्दी अनुवाद करने की! सलिल जी ने हबीब जालिब की कविता को जो हिदुस्तानी कपड़े पहनाये हैं, मुलाहिज़ा फरमायें!!

अब तो अपनी लेखनी से नाड़ा ही तू डाल रे!

देश की भलाई का विचार आज टाल दो
राष्ट्र के निर्माण को दिमाग़ से निकाल दो
ध्वज नहीं, सवाल है, जवाब तो उछाल दो.

गर्त्त में है आत्मा, ये क्या हुआ है हाल रे
अब तो अपनी लेखनी से नाड़ा ही तू डाल रे!

भूमि निर्धनों की सारी छीन लो, समेट लो
कोई पैसे वाला हो तो चरणों में ही लेट लो
गुण को छोड़ कर, ज़रा सा ऐब की भी भेंट लो

सीरतों को छोड़, सूरतों से बनता माल रे
अब तो अपनी लेखनी से नाड़ा ही तू डाल रे!

इक नई सुबह की बात, व्यर्थ एक बात है
वेदना की रात के परे भी काली रात है.
सब समान हैं यहाँ, ये कैसा इक मज़ाक है

झूठे स्वप्न तू दिखा, सच्चाई आज टाल रे
अब तो अपनी लेखनी से नाड़ा ही तू डाल रे!

बाद नाम के तू अपने साब भी लगाए जा
लूट की कमाई खा, भिखारी तू बनाए जा
ज़िंदा लाश से गुज़र के कुर्सियाँ कमाए जा

भाषणों में बस प्रभु की देता जा मिसाल रे
अब तो अपनी लेखनी से नाड़ा ही तू डाल रे!

राष्ट्रवाद के मुखौटों के तले तू सुबहो शाम
ईश्वर के नाम पर करता ही रह तू राम राम
भ्रष्ट शासकों की फूटनीति का तू लेके नाम

साम्प्रदायिक, धार्मिक जुलूस ही निकाल रे!
अब तो अपनी लेखनी से नाड़ा ही तू डाल रे!

है निकलने को हमारे देश की प्रजा का दम
बुझ गई है आशा आज भोर का सितारा बन
मृत्यु का प्रकाश सामने है, छँट गया है तम

तू लिखे जा, देश का बड़ा भला है हाल रे
अब तो अपनी लेखनी से नाड़ा ही तू डाल रे!

मूल कविता : सहाफ़ी से

क़ौम की बेहतरी का छोड़ ख़याल,
फिक्र-ए-तामीर-ए-मुल्क दिल से निकाल,
तेरा परचम है तेरा दस्त-ए-सवाल,
बेज़मीरी का और क्या हो मआल
अब क़लम से इज़ारबंद ही डाल

तंग कर दे ग़रीब पे ये ज़मीन,
ख़म ही रख आस्तान-ए-ज़र पे जबीं,
ऐब का दौर है हुनर का नहीं,
आज हुस्न-ए-कमाल को है जवाल
अब क़लम से इज़ारबंद ही डाल

क्यों यहाँ सुब्ह-ए-नौ की बात चले,
क्यों सितम की सियाह रात ढले,
सब बराबर हैं आसमान के तले,
सबको रज़ाअत पसंद कह के टाल
अब क़लम से इज़ारबंद ही डाल

नाम से पेशतर लगाके अमीर,
हर मुसलमान को बना के फ़क़ीर,
क़स्र-ओ-दीवान हो क़याम पज़ीर,
और ख़ुत्बों में दे उमर की मिसाल
अब क़लम से इज़ारबंद ही डाल

आदमीयत की हमनवाई में,
तेरा हमसर नहीं ख़ुदाई में,
बादशाहों की रहनुमाई में,
रोज़ इस्लाम का जुलूस निकाल
अब कलम से इज़ारबंद ही डाल

लाख होंठों पे दम हमारा हो,
और दिल सुबह का सितारा हो,
सामने मौत का नज़ारा हो,
लिख यही ठीक है मरीज़ का हाल
अब कलम से इज़ारबंद ही डाल

- हबीब जालिब, पाकिस्तान




Saturday, May 15, 2010

आरुषी हेमराज हत्याकाण्ड - जाँच एजेंसियों को मुँह चिढाता

कुछ नवजात शिशुओं के शरीर पर, ध्यान से देखें तो नीले निशान पाए जाते हैं. मेरी माँ कहा करती थीं कि जब भी कोई बच्चा इस दुनिया में आने से मना करता है, भगवान उसे पीटकर दुनिया में भेजते हैं. और ये निशान दरसल उसी पिटाई के होते हैं. कितना सच, कितना झूठ..जाने दीजिए. लेकिन इस बात में तनिक भी सच्चाई है तो आजकल पैदा होने वाले हर बच्चे के शरीर पर यह निशान पाया जाता होगा. क्योंकि इस दुनिया का हाल देखकर, अपनी मर्ज़ी से कोई भी पैदा नहीं होना चाहेगा. बढते अपराधों ने इंसान को इस हद तक सम्वेदन शून्य बना दिया है कि आज संगीन से संगीन अपराध भी सामान्य लगने लगे हैं और क़त्ल की कोई भी घटना उद्वेलित नहीं करती.
ऐसी ही एक घटना 16 मई 2008 को अख़बार की सुर्ख़ियों और टीवी की ब्रेकिंग़ न्यूज़ में आई. ख़बर थी, 14 वर्षीय आरुषी के क़त्ल की. घर का नौकर लापता बताया गया और शक़ के घेरे में सबसे पहले वही आया. शाम तक पुलिस ने रू.20000 का ईनाम घोषित कर दिया, उस नौकर को पकड़वाने वाले को. घटना नोएडा के सेक्टर 25 की थी, यानि हमारा पड़ोस.

हम दोनों तब इकट्ठे नोएडा में ही थे. दोनों ने एक दूसरे की आँखों मे देखा और मुड़ गए सेक्टर 25 की ओर. पुलिस की बदइंतज़ामी, मीडिया का जमघट, लोगों का हुजूम... हम बिना किसी रोक टोक के घटना स्थल पर पहुँच गए. हमारे ऑफिस के बैग वगैरह हमारे कंधे से झूल रहे थे, लिहाजा लोगों ने हमें भी पत्रकार समझा और हम लग गए अपने काम में. हमारी नज़रों ने सारी जगह और महौल का अच्छी तरह मुआयना किया. साथ ही हमने मीडिया की बनावटी जाँच भी देखी. अपनी लाईनें काग़ज़ पर लिखकर रट्टा लगाते, कैमेरे के सामने ज़बर्दस्ती बाल बिखेरकर रिपोर्टिंग करते… कुछ चैनेल वालों ने तो प्राइवेट जासूस भी बुला रखे थे, जिनका ज़ोर जाँच की दिशा और उनके अनुमान से अधिक इस बात पर था कि उनके सिर पर जमी हैट हरक्युल पॉएरो सी लगती है या शर्लॉक होम्स सी. एक बार तो हमने उनकी थ्योरी पर सवाल उठा दिया तो वे कहने लगे, “आपकी बात सच है, पर हम ऐसा नहीं कह सकते.”
आधी रात बाद तक अपनी बिल्डिंग के लॉन और टेरेस पर बैठे हम दोनों सारे तथ्यों को कागज़ पर लिखकर बहस करते रहे. कोई बड़बोला न समझे… पहली बार हमने महसूस किया कि शर्लॉक होम्स और डॉ. वाटसन की आत्मा हमारे अन्दर प्रवेश कर चुकी थी. हर पहलू पर हमने ग़ौर किया, एक दूसरे की दलीलों को सुना, वाद प्रतिवाद किया. गुम हुए मोबाईल फोन, ग़ायब नौकर, काम वाली का बयान, पोस्टमॉर्टेम की रिपोर्ट, मीडिया की खबरें. गोया हमने उस समय तक दिखे अनदिखे, प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष सभी पहलुओं को खंगाला और कोई भी पत्थर पलटे बिना नहीं छोड़ा...नतीजा फिर भी शून्य. हमारी सारी पड़ताल एक प्रश्न चिह्न पर आकर सिमट गई. वो नौकर कहाँ भाग गया? घरेलू, नेपाली मूल का नौकर हेमराज.
सुबह आँख देर से खुली, जल्दी में हम ऑफिस रवाना हो गये. रास्ते भर दुबारा सारी कहानी फिर से हमने दोहराई. नतीजा यह निकला कि पुलिस को पहले नौकर का पता लगाने दो, फिर आगे की थ्योरी पर बहस करेंगे.
ऑफिस में अचानक चैतन्य जी की इण्टरकॉम पर कॉल आई,” कुछ सुना! हेमराज की बॉडी छत पर मिली है!!” बॉडी मिली है!! मतलब हेमराज का भी क़त्ल... शाम को हम दोनों उसी छत पर थे. उस दिन भी हमें किसी ने नहीं रोका…खून के जमाव और लाश घसीटने के निशान. हम दोनों विशुद्ध शाकाहारी हैं और शायद जीवन में इतना ख़ून हमने कभी नहीं देखा था... ख़ास कर इंसानी ख़ून.
हमने इतना क़रीब से शायद पहली बार ही कोई हत्याकण्ड देखा था. लेकिन इसके बाद जो हत्याओं का सिलसिला चला, वो आज तक जारी है. हमारे देश की लगभग सारी विश्वस्नीय संस्थाओं के मानदण्डों की हत्या हुई.
पुलिस जाँच दल की कार्रवाई में कोताही ने मौक़ा-ए-वारदात पर छूटे हुए सबूतों का ख़ून किया. अगर ऐसा न होता तो वो लाश जो छत पर पड़ी थी पहले दिन ही बरामद हो जाती. इस बुरी तरह लोगों का आना जाना चलता रहा वहाँ पर कि कोई भी सबूत आसानीसे ख़तम किया जा सकता था. इसके बाद हुई डॉक्टरी के पेशे की मौत. पोस्ट मॉर्टेम की रिपोर्ट पूरे केस की बुनियाद होती है, लेकिन इस रिपोर्ट का ख़ून इस बेदर्दी से किया गया कि क्या कहा जाए. और फिर हाल ही में पता चला कि बहुत से रिकॉर्ड ग़ायब हैं, सैंपल बदल गए, जिसने परीक्षण किया वो डॉक्टर छुट्टी पर थी वग़ैरह. यानि किसी हत्या के केस की छानबीन की बुनियाद की ही हत्या कर दी गई.
फिर इस रंगमंच पर आई सी.बी.आई., देश की सर्वोच्च जाँच संस्था. एक लम्बा खेल चला हत्या के हथियार को खोजने का, कुछ अफसरों के तबादले का, कुछ घरेलू नौकरों को पकड़ने का, कहानी में नित नए पेंच डालने और पुराने को ढीला छोड़ देने का, नार्को टेस्ट का, और इस टेस्ट के दौरान जुर्म क़बूल कर लेने का, कुछ गिरफ्तारियों का, कुछ रिहाइयों का, कुछ प्रेस कॉन्फ्रेंस का और इनमें किए गए दावों का.
नतीजा फिर भी एक बड़ा सा सिफर. अभी 20 मार्च 2010 को न्यूज़ 24 नामक चैनेल ने एक सीडी दिखाई जो सीबीआई द्वारा नामजद मुख्य आरोपी कृष्णा के नार्को टेस्ट की थी. इसमें पूरे टीवी पर्दे को दो हिस्से में बाँटकर नारको की सीडी में कृष्णा के बयान और सीबीआई के उच्चाधिकारी का उसपर पब्लिक बयान दिखाया गया, जो एक दूसरे के बिल्कुल उलट था. दूसरे दिन भी यही सीडी चैनेल पर चलाई गई. लेकिन परिणाम शून्य.
आज दो साल बाद भी उन दोहरी हत्याओं का भेद नहीं सुलझ पाया है और अपराधी कहीं पास खड़ा सारी दुनिया और जाँच एजेंसियों को मुँह चिढा रहा है. सच पूछा जाए तो यह केस हत्याकाण्ड की एक ऋंखला है – पुलिस, डॉक्टर, जाँच एजेंसियाँ, अमीर ग़रीब के रिश्तों, और सामाजिक संस्थाओं की सामुहिक हत्या की.

आइए मिलकर मृतात्माओं की शांति के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करें, इस विनती के साथ कि ईश्वर उन तमाम लोगों को कभी माफ मत करना जो इस हत्याकांड में शामिल रहे हैं, क्योंकि वे जानते थे/ हैं कि वे क्या कर रहे थे/ हैं.
आमीन!!!

Sunday, May 9, 2010

माँ तुझे सलाम!!!

वैसे तो हम दोनों का यही मानना है कि जिन मौक़ों के लिए दिन मुकर्रर कर दिए जाते हैं उनकी अहमियत, बस उस दिन या तारीख तक मह्दूद होकर रह जाती है, एक फॉर्मेलिटी की तरह. और दुनिया का सबसे मीठा लफ्ज़ और सबसे पाकीज़ा रिश्ता, सिर्फ एक दिन का मोह्ताज नहीं. हमारे लिए तो हर दिन मदर्स डे है. हम तो उस देस के वासी हैं, जहाँ देश, धरती, नदियाँ और देवी को भी माँ कहते हैं. लेकिन सबसे ऊपर जन्म देने वाली माँ और जन्मभूमि है.
सोचा आज की पोस्ट पर क्या लिखें. और अचानक दोनों की ज़ुबान पर एक ही नाम आया, जनाब मुनव्वर राना का. हमने एक साथ उनका मुशायरा सुना था और उनके हर शेर पर हमारी आँखें गीली होती रहीं. कुछ चुनिंदा शेर जनाब मुनव्वर राना के दीवान से उस औरत के नाम जिसे दुनिया तमाम मुख्तलिफ ज़ुबानों में भी माँ के नाम से पुकारती हैः
(चित्र साभार: ट्रेक अर्थ)

मैंने रोते हुए पोंछे थे किसी दिन आँसू
मुद्दतों माँ ने नहीं धोया दुपट्टा अपना.

लबों पे उसके कभी बद्दुआ नहीं होती
बस एक माँ है जो मुझसे ख़फ़ा नहीं होती.

जब तक रहा हूँ धूप में चादर बना रहा
मैं अपनी माँ का आखिरी ज़ेवर बना रहा.

किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकाँ आई
मैं घर में सब से छोटा था मेरे हिस्से में माँ आई.

ऐ अँधेरे! देख ले मुँह तेरा काला हो गया
माँ ने आँखें खोल दीं घर में उजाला हो गया.

इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है
माँ बहुत ग़ुस्से में होती है तो रो देती है.

मेरी ख़्वाहिश है कि मैं फिर से फ़रिश्ता हो जाऊँ
माँ से इस तरह लिपट जाऊँ कि बच्चा हो जाऊँ.

अभी ज़िन्दा है माँ मेरी मुझे कु्छ भी नहीं होगा
मैं जब घर से निकलता हूँ दुआ भी साथ चलती है.

कुछ नहीं होगा तो आँचल में छुपा लेगी मुझे
माँ कभी सर पे खुली छत नहीं रहने देगी.

दिन भर की मशक़्क़त से बदन चूर है लेकिन
माँ ने मुझे देखा तो थकन भूल गई है.

दुआएँ माँ की पहुँचाने को मीलों मील जाती हैं
कि जब परदेस जाने के लिए बेटा निकलता है.

बरबाद कर दिया हमें परदेस ने मगर
माँ सबसे कह रही है कि बेटा मज़े में है.

खाने की चीज़ें माँ ने जो भेजी हैं गाँव से
बासी भी हो गई हैं तो लज़्ज़त वही रही.

जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है
माँ दुआ करती हुई ख्वाब में आ जाती है.
 
सर फिरे लोग हमें दुश्मन-ए-जाँ कहते हैं,
हम जो इस मुल्क की मिट्टी को भी माँ कहते हैं.

पुनश्च: गुरुदेव रबिन्द्र नाथ ठाकुर की १५० वीं जयंती पर  हमारी श्रद्धांजलि

Friday, May 7, 2010

गोवा मेरे कैमरे की नज़र से

पिछले हफ्ते आप लोगों से छुट्टी लेकर गोवा चला गया था. चैतन्य जी का आग्रह था कि मैं गोवा का यात्रा वृतांत लिखूँ. उन्होंने तो कहा था कि GO और ‘आ’. यानि जाकर आ, और शर्त ये थी कि आते ही एक ताज़ी पोस्ट गोवा के अनुभव पर. कुछ और मित्र भी ज़ोर दे रहे थे. सोचा, बड़ा कठिन काम दे दिया मुझे. लिखूँ क्या !!! इतिहास सब को पता है, भूगोल सब जानते हैं, और सुंदरता फिल्मों से लेकर इंटरनेट पर तथा तस्वीरों से लेकर प्रत्यक्ष भी सब ने देखी है. फिर इसमें नया क्या हो सकता है. और गोवा है ही इतनी सुंदर जगह कि अगर मैं सुंदरता बखानूँ तो बात वैसी ही हो जायेगी जैसे लता मंगेशकर की आवाज़, अमिताभ की अदाकारी या सचिन की बल्लेबाज़ी की तारीफ कर रहा हूँ.

अब तक की पोस्ट पर मैंने कई बातें कीं… आज इन तस्वीरों को बोलने देता हूँ:

संत फ्रांसिस जेविअर का पार्थिव शारीर:
ये रातें, ये क्रूज़ और मांडवी नदी का किनारा:
कोंकणी किसान नृत्य:
पुर्तगाली नृत्य:
पणजी शहर:
प्राचीनतम प्रकाश स्तम्भ:
बोम जीसस गिरजाघर:
पुर्तगाली शैली में बने मंदिर:
बिग फुट:
एक शिला से बनी ३० दिनों में निर्मित मीरा बाई की आकृति:
दोना पोला - प्रेम कहानी या किम्वदंती: 

गोवा चिड़िया की नज़र से:

सिर्फ एक झलक है यह एक खुबसूरत जगह की...

Tuesday, May 4, 2010

भला यूँ ही कर लेता है कोई आत्महत्या?

सबसे पहले तो सीमा गर्ग जी का धन्यवाद, जो उन्होंने हमारी पिछली रिपोर्ट को न सिर्फ पढ़ा, बल्कि तथ्यों की स्वयम् जाँच भी की. अतः यह हमारा उत्तर्दायित्व बनता है कि हम उनके द्वारा उठाये गये प्रश्नों के उत्तर ही नहीं, वरन आँकड़ों की सत्यता भी प्रमाणित करें.

1. आप अपने कृषक मित्र से पूछें कि वो कितने बड़े खेत के मालिक हैं और इस “बिना टैक्स की आय” के अलावा क्या उनकी आय के और साधन भी हैं? अर्थशास्त्र में “Economies of Scales” का बहुत मह्त्व होता है. जैसे हमारे घर के बाहर, ठेले पर सब्ज़ी बेचने वाले तथा “रिलायंस रिटेल” दोनों के Business Model एक ही हैं. फर्क सिर्फ “Economies of Scales” का है. एक व्यापारी रू.500 प्रतिदिन का व्यापार करके रू.50 कमाता है. दूसरी ओर, रू.50 लाख का व्यापार करके दूसरा व्यापारी रू.5 लाख का मुनाफा कमाता है. यही कारण है कि पहला अपनी बेटी को शादी में तोले भर सोने के ज़ेवर दे सकने में खुद को असमर्थ पाता है और दूसरा अपनी पत्नी को जन्म दिन पर रू.400 करोड़ का हवाई जहाज़ उपहार में दे देता है.

2. हमारे आँकड़े दो बीघा ज़मीन के बारे में हैं जो 1 एकड़ के आधे से भी कम का हिस्सा होती है. (1 एकड़ = 4.8 बीघा). कोई भी कृषक इस बात को confirm करेगा कि एक एकड़ ज़मीन का टुकड़ा लगभग 16 से 18 कुंतल गेहूँ पैदा करता है. इस प्रकार दो बीघा खेत से 8 कुंतल गेहूँ का उत्पादन ज़्यादा ही है, कम नहीं!


3. फिर गेहूं का न्यूनतम् समर्थन मूल्य (MSP). यह एक ऐसी चीज़ है जिसका ढिंढोरा सभी सरकारें दिन रात पीटती हैं. वर्त्तमान में यह रू.1100 प्रति कुंतल है. इस प्रकार इस बात में कोई शक नहीं कि दो बीघा ज़मीन से रू.8800 से अधिक की आमदनी हो ही नहीं सकती, यदि लागत मूल्य शून्य भी मान लिया जाये.


4. रही बात खर्च के आँकड़ों की, तो इसमें मज़दूरी के वे रुपये भी हैं जो किसान या उसका परिवार खेत में लगाता है. ये बात दीगर है कि इस मज़दूरी का मूल्य भी कोई रू.1000-1500 से अधिक नहीं होता.


5. दरअसल कृषि का अ-लाभकारी होना, छोटे किसानों को इतने सीधे सपाट तरीके से समझ नहीं आता, जिस तरह हम शहरी लोग अपने मुनाफे का गणित कर लेते हैं. वो आमतौर पर बैंक या महाजन से लिये गए कर्ज़ो से ही अपनी मूलभूत ज़रुरतें भी पूरी करता है और अपने बच्चों की तरह खड़ी फसल को भी पालता है. उत्पादित अनाज़ का कुछ हिस्सा वो घर के लिये बचा कर रखता है. यह हिस्सा उसको बस तब तक ज़िन्दा रखने को काफ़ी है, जब तक हालात आत्महत्या के लिये विवश ना कर दें.


6. छोटे किसानों के परिवार के सदस्य भी मज़दूरी करके, अपने परिवार की अन्य ज़रुरतें पूरी करते हैं. अपनी maid या उस रिक्शावाले भाई से पूछें तो उनमें से कोई न कोई तो कह ही देगा कि गाँव में उसका एक छोटा खेत भी है, जो फ़िलहाल बिल्डरों और उद्योगपतियों की मह्त्वाकांक्षी योजनाओं से अभी तक बचा हुआ है.

7. और अब अंतिम किंतु महत्वपूर्ण बात. श्री पी. साईनाथ, इस देश के गिने चुने ईमानदार पत्रकारों में से एक हैं. “दि हिन्दू” के 25 जनवरी, 2010 के अंक में छपे अपने लेख में उन्होंने “नेशनल क्राइम रेकार्ड ब्यूरो” के सरकारी आँकडों का उल्लेख करते हुए बताया है कि सिर्फ सन 2008 में कुल 16,196 किसानों ने हमारे देश में आत्महत्या की और सन 1997 के बाद किसान आत्महत्या का ये आँकड़ा 1,99,132 हो चुका है.


स्वतंत्र भारत में बसने वाला ये किसान नाम का प्राणी, प्रगति के हाशिये पर डाल दिये जाने के कारण मजबूर और अपमानित है.
नहीं तो क्या, यूं ही कर लेता है कोई आत्महत्या?




पुनश्चः हम आभार व्यक्त करते हैं उन सभी का जिनको इस लेख ने एक विचारमंथन की ओर मोड़ा है.

Saturday, May 1, 2010

दो बीघा ज़मीन – एक वायबिलिटी रिपोर्ट

पिछ्ले दिनों जब पंजाब के फरीदकोट ज़िले में जाना हुआ, तो ज़हन में बस एक ही बात कौंध रही थी “पंजाब में  किसान की आत्महत्या”. कोई और वक्त होता तो शायद मैं अख़बार मे पढी इस खबर को राजनैतिक प्रपंच या मीडिया की प्लांटेड ख़बर मान कर, अख़बार का पन्ना पलट लेता, या फिर इस ख़बर मे पंजाब की जगह, विदर्भ का यवतमाल ज़िला होता तो भी, मेरी बुद्धिजीविता व्यवस्था को एक भद्दी गाली देकर, अपनी तरह का पश्चाताप कर लेती. पर न जाने क्यों इस खबर में ऐसा कुछ था, जो मेरे हलक़ मे अटक सी गयी, ये खबर!
बीते वक्त से अलग, अब, बात कुछ और है. अपना मूल पेशा, अर्थ-व्यवस्था के एक तंत्र से जुडा होने के कारण “इंडिया की समृद्धि” और “भारत की विपन्नता” के नित नये रहस्योदघाटन हमारे बीच होते रह्ते हैं.
कैसे कोई मामूली दलाल “दोगली-सरकारी-नीतियों ” की सीढी चढ़कर, कुछ ही बरसों में एक “प्रतिष्ठित उद्योगपति” हो जाता है...यह तमाशा रोज़ अपनी आंखों के सामने हम देखते हैं और मन मसोस कर रह जाते हैं. हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में विकास के नाम पर दी गयी टैक्स माफ़ी की सरकारी योजनाओं ने, जिस तरह काले धन को सफेद करने का एक पूरा तंत्र विकसित किया है, वो किसी भी मायने में मॉरीशस या साइप्रस जैसे देशों से आने वाले काले धन के सफेदीकरण से कम नहीं है. देश भर मे 1000 से अधिक विशेष सुविधाप्राप्त “सेज़” (SEZ) हों या हाल ही में सम्पन्न हुआ IPL का हो-हल्ला: सब काले को सफेद करने के इस दलाल तंत्र का हिस्सा भर नज़र आता है.
ख़ैर ! “इंडिया” की दलाल-स्ट्रीट से फलते-फूलते इस दलाल-तंत्र से इतर, भीतर का “भारत” सरीखा कोई हिस्सा ही था जो “पंजाब मे किसान की आत्महत्या” की खबर की तह मे जाना चाहता था. हमने निश्चय कर लिया था खेती-बाड़ी के उस अर्थतंत्र को समझने का जिस पर हमारे भारत की 65% आबादी निर्भर है, जिसका देश के सकल घरेलु उत्पाद मे योगदान मात्र 18% है, जिसकी विकास दर -0.25% है.
फ़रीदकोट के कोटकपुरा क़स्बे में, इत्तेफ़ाक़न वहाँ के किसान बछत्तर सिंह से मुलाकात हुई, तो देर तक खेती-बाड़ी की बात होती रही. और फिर उसके बाद, जो बैलेंस शीट बनकर सामने आयी, वो इन ग्रामीणों की उलझी हुई जिन्दगियों से एकदम उलट, सीधी सपाट थी.



दो बीघा ज़मीन – एक वायबिलिटी रिपोर्ट

मूल आँकड़े
ज़मीन का क्षेत्रफल = दो बीघा
फसल = गेहूँ
फसल का समय-काल = लगभग 6 माह (नवम्बर से अप्रैल माह)

आय सम्बन्धी तथ्य :
1. औसत उत्पादन = 8 कुंतल
2. गेहूँ का सरकारी खरीद मूल्य = रू0 1100 प्रति कुंतल
                                                                                                        कुल आय = रू.1100 x 8 = रू. 8,800

व्यय-सम्बन्धी तथ्य :
बीजखरीद                                                                              = रू0 700
(40 किलोग्राम के बीज की कीमत लगभग
रू. 1400 प्रति कि.ग्रा. के हिसाब से)
खरपतवार नाशक                                                                     = रू0 500
कीटनाशक दवाई                                                                       = रू0 250
खाद
1 बोरी यूरिया (प्रारम्भ में)                                                       = रू0 300
1 बोरी यूरिया (मध्यकालमें)                                                     = रू0 300
½ बोरी डीएपी खाद                                                                    = रू0 250
जुताई
खेत की औसतन 4 बार जुताई (ट्रैक्टर का
किराया तैल-पानी-मज़दूरी सहित)                                             = रू0 750
मज़दूरी खर्च विवरणः
खरपतवार नाशक दवा के छिड़काव का खर्च                             = रू0 100
कीटनाशक दवा के छिड़काव का खर्च                                        = रू0 100
बुआई का खर्च                                                                           = रू0 300
कटाई का खर्च                                                                         = रू0 1200
बिजली तथा पानी का खर्च
पूरे खेत को फसल के दरम्यान 6 बार
लगाये गये पानी का खर्च                                                        = रू0 1500
(बिजली और पानी का सम्मिलित खर्च
रू0 250 की दर से)
थ्रेशर का खर्च                                                                         = रू0 450
मंडी तक ले जाने का खर्च                                                        = रू0 500
                                                                              कुल खर्च = रू0 7200
कुल आमदनी (रू0 8,800 - रू0 7200)                                   = रू0 1500

यानी 6 महीने हाड़-माँस गलाने के बाद दो बीघा खेत के मालिक किसान को कुल आमदनी होती है रू0 1500 मात्र.

  • यह नरेगा स्कीम में मिलने वाली 100 रुपये प्रति दिन की आय के हिसाब से 15 दिन की मज़दूरी के बराबर है.

  • इसमे यदि खाद और बीज के लिये गये कर्ज़ के ब्याज को जोड लिया जाये तो किसान का सब कुछ स्वाह हो जायेगा.

  • इन्द्र देव की कृपा भी इस फसल को चाहिये होगी वरना फिर और कर्ज़ का बोझ होगा.

  • हाँ, यही ज़मीन अगर शहर में होती या किसी बिल्डर के पास, तो कम से कम रू0 10,000 का प्रतिमाह का किराया ही दिला रही होती.
“किसान की आत्महत्या” के इस रह्स्य का पर्दाफाश हो चुका था.
फिर ख्याल आया कि जब यह सब इतना सब कुछ स्पष्ट है तो देश का अर्थशास्त्री नेतृत्व क्यों अनभिज्ञ बना बैठा है ? पिछले उन्नीस वर्षों में, आर्थिक सुधार हुआ तो किसका? क्या सारा भारत धीरे- धीरे आत्महत्या कर लेगा? जीत जायेगा इंडिया और हार जायेगा भारत? और सबसे बड़ा सवाल क्या बचेगा भी भारत?
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