सम्वेदना के स्वर

यह ब्लॉग उस सनातन उत्सवधर्मिता को जीवित रखने का प्रयास है,

जिसमें भाव रस और ताल का प्रतीक आम आदमी का भा-- बसता है.
सम्वेदनाएँ...जो कला, साहित्य, दर्शन, विज्ञान, राजनीति आदि के माध्यम से अभिव्यक्त होती हैं, आम आदमी के मन, जीवन और सरोकार से होकर गुज़रती हैं तथा तलाशती हैं उस भारत को, जो निरंतर लड़ रहा है अपने अस्तित्व की लड़ाई.....

Friday, July 2, 2010

सच्चा चाँद - झूठा अमरीका !

अपनी बेटी को स्कूल का होमवर्क करवाने बैठा. विषय था, चाँद पर उतरने वाले पहले अंतरिक्ष यात्रियों का वृत्तांत. नील आर्मस्ट्रांग और बज़ एल्ड्रिन के नाम यूँ तो बचपन से ही हमें रटाये गये थे, परंतु इस बार उनका नाम बोलने में ज़ुबान लड़खड़ा रही थी. मैं अपने आप में उलझा था कि यह सही है या ग़लत, सच है या झूठ? तब लगा कि जब मैं खुद ही इस बात पर विश्वास नहीं करता, तो अपनी बच्ची से क्या कहूं? अगली पीढ़ी तक यह “मिथ्या ज्ञान” पहुचाने में सहभागी बनूँ या इसका दूसरा पक्ष भी उससे कहूँ?
कॉलेज के दिनों में इस बात को लेकर दोस्तों के बीच अक्सर यह विवाद होता था कि दरअसल “चाँद पर कोई अभी तक गया ही नहीं है” और चाँद पर उतरने की ख़बर तब के सोवियत संघ को पछाड़ देने की एक और अमेरिकी चाल भर है. पक्ष और विपक्ष में दिये गये तर्कों और सारी बहस के बाद सुई इस सवाल पर अटक जाती कि मान भी लें कि अमरीका के पास 1969 में इतनी अच्छी टेक्नोलॉजी थी, तो उसके बाद के सारे अपोलो अभियान 1969 से 1972 के बीच होकर क्यों समाप्त हो गए? उसके बाद कोई बड़ा अभियान क्यों नहीं हुआ, आदमी को चाँद पर भेजने का? और अगर हुआ भी तो सुनने में क्यों नहीं आया. एवरेस्ट विजय की कहानियाँ तो अखबारों में आती रहती है, फिर चाँद तो एवरेस्ट से भी ऊँचा है! बस, इस सवाल पर आकर सारी बहस समाप्त हो जाती थी.

आज उस तथाकथित घटना को लगभग चार दशक बीत चुके हैं, अमरीका ने शटल बनाए हैं जो अंतरिक्ष में बार बार आ-जा सकते हैं, लेकिन चाँद पर इस बीच आदमी भेजने का कोई दूसरा (और ऐसे में पहला भी) अभियान आज तक नहीं हुआ और न कोई निकट भविष्य में बताया जाता है. अमरिका के अलावा किसी और देश ने भी हिम्मत नहीं की है. भला क्यों ?

चन्द्र विजय के अमेरिकी प्रोपेगंडा के कुछ कथित कारण यह कहे जातें हैं :

1. वियतनाम युद्द से अमेरिकी जनता का ध्यान हटानाः बताने की ज़रूरत नहीं कि ठीक इसी समय, अमेरिका ने वियतनाम से अपनी सेना हटाने का निर्णय लिया था, जो अमेरिकी पराजय का ज़बर्दस्त प्रतीक था. अप्रैल 1969 में इस युद्ध में मरने वाले अमरीकी सैनिकों की संख्या कोरिया युद्ध में मरने वालों की संख्या (33629) से कहीं ज़्यादा थी. 8 जून 1969 को अमेरीकी झंडा उतार कर वियतनाम से सेना वापस बुलाने का फ़ैसला और 21 जुलाई को 1969 को चाँद पर झंडा फहराने का अमेरिकी प्रोपेगंडा, दरसल उस पराजय को पार्श्व में रखकर अमेरिकन सर्वोपरि की अवधारणा को जीवित रखने का काम किया.

2. शीत युद्द : तब के कम्युनिस्ट देशों के नेता सोवियत संघ और पूंजीवादी देशों के नेता अमेरिका के बीच हर क्षेत्र में प्रतिद्वन्दिता का माहौल था. चाँद पर अपने देश का झंडा फहरानें का ख्याल रूमानी है और जो यह काम कर लेता वो निश्चय ही जनकल्पनाओं में हीरो हो ही जाने वाला था. गलत या सही, ऐसा हुआ भी! उस समय के लोगों से जब इस विषय पर मैंने उनके अनुभव पूछे तब यही अहसास हुआ कि दुनिया के कोने कोने में चाँद की मिट्टी आदि का भरपूर प्रदर्शन हुआ था. एक अमेरिकी जूनून पैदा हो गया था, पूरी दुनिया में.

3. राजनैतिक अर्थशास्त्र : एक आकलन के अनुसार नासा ने उस समय करीब 40 बिलियन डालर की धनराशि इस अभियान पर खर्च की थी. इस का एक छोटा सा हिस्सा इस छद्म खेल को हकीकत बताने में खर्च हुआ. छ्द्म खेल मतलब इस पूरी फिल्म की शूटिंग में, जो बताया जाता है कि नासा के एक गुप्त फिल्म स्टुडिओ में हुई,जो नेवादा के रेगिस्तान में स्थित है. बाकी के डॉलर कहाँ गए..बस गप.. गपा.. गप!!!

4. जोखिम: चार दशक पहले के कम्प्यूटर क्या थे जरा स्मरण कीजिये? क्या टेक्नोलॉजी थी, ज़रा कल्पना कीजिये. उस समय आदमी को चाँद पर भेजने में आज से भी अधिक जोखिम था. मेरा इंजीनियर मन यह सोच कर ही हैरत में पड़ जाता है कि 41 साल पहले कैसे सम्भव होगा कि पहले कोई यान पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण को भेदे, फिर अंतरिक्ष में चाँद की कक्षा में प्रवेश करे, फिर चाँद के चक्कर लगता हुआ वह यान वहीं रहे और एक छोटा यान चन्द्र्मा पर दो यात्रियों के साथ उतार दे. और थोड़ी तफरीह आदि करके वह यात्री पुन; चाँद के गुरुत्वाकर्षण को भेद कर मुख्य यान में आ जायें. वह मुख्य यान अंतरिक्ष में विचरण कर पृथ्वी की कक्षा में प्रवेश करे और वापस अमेरिकी धरती पर लौट आये. मुझे याद आयी कल्पना चावला जो बस कुछ बरस पहले अमेरिकी शटल के पृथ्वी की कक्षा में प्रवेश करते ही भस्म हो जाने के कारण मारी गयीं थीं. वो तो बस अंतरिक्ष में विचरण करने ही गयीं थीं चाँद जैसी दुर्गम जगह पर नहीं.

चन्द्र यात्री की इस तस्वीर में एक यात्री तो हैल्मैट के शीशे पर है दूसरा वह है जो यह हैल्मैट पहनें है, फिर वो तीसरा कौन है जिसने यह तस्वीर उतारी है? (उनका कहना है कि चाँद पर दो लोग ही उतरे थे) एक बार गूगल पर सर्च कीजिये आपको इस विषय पर और भी रोचक जानकारियाँ मिल जाएंगी.

मैं कम्यूनिस्ट नहीं हूं परन्तु राजनीति को जानने समझने के चक्कर में, दुनिया भर में चल रही अमेरिकी चालबाज़ियाँ देख रहा हूं. आजकल हमारे देश ने जो अमेरिका होने की धुन पकड़ रखी है, वह देखकर एक भय सा लगता है.

क्या कहते हैं आप? चंदा मामा की इस झूठी कहानी के बाद, अंकल सैम की उंगली पकड़कर कितनी दूर चल सकेंगे हम? और हाँ चले भी तो कहां जायेंगे? कहाँ पहुँचेंगे?

 

28 comments:

kunwarji's said...

aapke lekh se mujhe dainik bhaskar ka ek ravivaariya visheshank smran ho aa raha hai...

usme bhi isi vishya par bahut saare takniki kaaran bhi bataaye gaye the is ghatna ko kaalpnik siddh karne ke liye....or un tarko ki koi kaat shaayad nahi thi,,,

ab kya keh sakte hai....itihaas wahi jo jo bataaya ja raha hai....

yadi mujhe net par us lekh ka link mila to jarur saanjha karunga aap sab se.....

kunwar ji,

kshama said...

Oh ! Yah baat to kabhi sochihi nahi! Ke chaand pe pahunchne kaa Amrici dawa jhoota bhi ho sakta hai...!Khair,ab to America par se wishwaas to uth hee gaya hai..unki neeti,apne liye ek,anya ke liye doosari!

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

आपकी बातें आँखें खोलने वाली हैं।
………….
दिव्य शक्ति द्वारा उड़ने की कला।
किसने कहा पढ़े-लिखे ज़्यादा समझदार होते हैं?

सम्वेदना के स्वर said...

@kunwarji's
इंटरनैट पर ढेर सारी सूचनायें इस बारे में उप्लब्ध हैं, इसी कारण हमने सिर्फ मुद्दे की बात रखी है कि क्यों पिछले चार दशक में अब तक अमरिका या कोई और देश यह कार्य फिर नहीं कर सका है ?
इस यात्रा को झूठी कहानी सिद्द करने वाले कुछ तकनीकी तथ्य यह भी हैं :
1.स्पेस सूट के अन्दर फुटबाल के मैदान जितना प्रेशर होता है ऐसे मे अंतरिक्ष यात्री उस स्वतंत्र्ता से हिलडुल नहीं सकते थे जितना वो चाँद पर सक्रियता दिखा रहे थे.

2.साउंड रिकार्डिंग के सम्पैल के अनुसार, कंट्रोल रूम से पूछे गये सवालो के अंतरिक्ष यात्री द्वारा दिये गये जबाब तुरंत ही आना अस्वभाविक था क्योकिं 1990 में उप्लब्ध टैक्नोलोजी के अनुसार भी लन्दन और कैलिफोर्निया के बीच ध्वनि सिंग्नल में 0.7 सेकंड का फर्क था. फिर जानकारों के अनुसार अंतरिक्ष यात्रीयों की आवाज़ में कोई भी तनाव नहीं था जो आमतौर होना चाहिये. 10 में से 7 लोगों का मानना है कि अंतरिक्ष यात्रीयों के सम्वाद से लगता है कि वो लिखी हुई स्क्रिप्ट पड़ रहे थे.
3.अपोलो -17 के अंतरिक्ष यात्री एलेन शेपर्ड ने चाँद पर गोल्फ खेली थी, मिशन कंट्रोल ने उसे चिड़ाते हुए बाल को स्लाइस करने को कहा और उसने बाल के उपर की असमान वायु के उपर गोल्फ स्टिक चला कर दिखा भी दिया. (इस बात को सब भूल गये कि चाँद पर कोई वायु मंडल ही नहीं है)
4.अपोलो -16 से चन्द्र मोड्यूल के उठते समय का फोटो नीचे से खीचां हुआ है, वो कौन चाँद पर छूट गया था, जिसने इस काम को अंज़ाम दिया ?

5.नासा कि एक फिल्म में अपोलो -11 से उतरते हुए नील आर्मस्ट्रांग का फोटो नीचे से खीचां हुआ है. यानि फोटो खीचनेंवाला पहले ही चाँद पर मौज़ूद था. यानि चाँद पर नील आर्मस्ट्रांग से पहले ही कोई जनाब मौज़ूद थे.

सम्वेदना के स्वर said...

कुछ और तकनीकी तथ्य :
1.शीत युद्द के समय हुई इस घटना के समय अमरिका के पास एक अच्छा विकल्प यह था कि वो चाँद से ऐसा द्रश्य सिग्नल दे सकते थे जिसे पूरी पृथ्वी से देखा जा सकता था.

2.चन्द्र मोड्यूल का वज़न करीब 17 टन था लेकिन उसके पदचिन्ह के मुकाबले कम हल्के अंतरिक्ष यात्री के पद चिन्ह अधिक गहरे हैं, भला क्यों? चन्द्र मोड्यूल ने अपने नीचे कोई क्रेटर क्यों नहीं बनाया.
3.जानकरों के अनुसार अपोलो-12 के यान की परछाई उतनी नहीं थी जितनी उस समय के सूर्य की स्थिति के कारण होनी चाहिये थी. कुछ तस्वीरों मे दिखाई गयी परछाई अलग अलग दिशा मे हैं, ऐसा सिर्फ बहुत सारी लाईट अलग अलग दिशा में होने के कारण ही होता है. (निवेदा के रेगिस्थान के स्टूडियो की ओर इशारा है.)

Apanatva said...

:)
meree ek hee salaah hai ki bitiya homework mummy ke sath baith kar hee kare............
shayad vo abhee bahut chotee hai use vivadaspad muddo se thoor hee rakha jae...........Apanee text book ke against ya teacher ke against bacche kuch sunna nahee chahte .......
Ye mera anubhav bol raha hai.......
teen betiyo ko IV V th tuk sath baith kar home work jo karvaya hai.....
Badee hokar kya mithya hai aur kya such use pata lag hee jaegaa........

Apanatva said...

lagata hai ye post Chaitany jee kee hai........?

सम्वेदना के स्वर said...

@ Apanatva:
आपके सुझाव हमारे लिए आदेश से कम नहीं. ये तो मेरे मन का संशय था जो बिटिया के प्रश्न के साथ उभर आया. दोष तो सारा टेक्स्ट बुक का ही है, लेकिन क्या करें, हम भी शिक्षा पद्धति नामक मशीन के पुर्ज़े भर बनकर रह गए हैं. आपकी बात सही है, मेरे घर पर भी ऐसा ही होता है. और किताबों के बाहर का ज्ञान तो बच्चों के लिए ज्ञान है ही नहीं, मैंने भी उसे वही बताया जो किताबों में लिखा है या फिर पश्चिम का इतिहासकार जो कहता है.

Satish Saxena said...

भरोसा नहीं होता ....चलो अपने दोस्त बिहारी बाबू से पूछते हैं :-))

sonal said...

हम कभी चाँद और कभी ताज की सच्चाई में उलझ जाते है ..क्या करे

निशांत मिश्र - Nishant Mishra said...

यह फोटो दुसरे यात्री ने ही खींची है. सर के आवरण का कांच उत्तल होने के कारण उसकी दूरी ज्यादा प्रतीत हो रही है.
ऐसी कहानियां लोग सालों से बना रहे हैं. यह सच है की चन्द्र यानों में आज के सैलफोन से भी कम तकनीक थी पर दसियों चाद्र्यत्राओं के सत्य को इस तरह झुठलाना सही नहीं है. याद करें अपोलो १३ के साथ क्या हुआ था. चन्द्रमा पर छोड़े गए उपकरणों ने उठते हुए यानों के चित्र खींचकर भेजे थे. अपोलो यान से उतारते हुए आर्मस्ट्रोंग का चित्र यान के किनारे पर लगे कैमरे ने खींचा था जिन्हें यंत्रों ने पृथ्वी पर भेज दिया. चाँद के विरल वातावरण में उनके सूट भरपूर हिलने की आजादी दे सकते थे क्योंकि इन्हीं सूट को पहनकर यात्री स्पेस वाक् करते हुए शटल के बाहर मरम्मत का काम करते हैं.

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

इस लेख से नयी जानकारी हासिल हुई...विचारणीय बात कही है...पर बस हम लोग ऐसी बातों में उलझ ही सकते हैं...
अपनत्व जी की बातों पर अमल कीजियेगा..

अरुणेश मिश्र said...

अच्छा लिखा । बिटिया आगे चलकर आपके विवेक से आगे निकलेगी ।

सम्वेदना के स्वर said...

@ निशांत मिश्र जी

हमने इसी कारण इस यात्रा की कथित तकनीकी खामियों के बारे में कोई बात मूल पोस्ट मे नहीं की. प्रबन्धन की शिक्षा लेते वक्त ही मैने यह जाना कि “डैमेज कंट्रोल” भी एक सम्पूर्ण विज्ञान है. “तर्क वितर्क का अंत नहीं है” इसी सिद्धांत पर स्पिन डाक्टरों की एक पूरी जमात काम करती है.

परन्तु मूल सवाल फिर भी यही है कि यदि सैल फोन से भी कम तकनीक से इस काम को चार दशक पहले अंजाम दिया जा सकता था तो ब्लैक-बैरी के ज़माने में हमारे लिये “अमरिकन एयरवेज़” की फ्लाइट से चाँद पर पहुचनें में, कम से कम आज तो कोई समस्या नहीं होनी चाहिये थी?

सम्वेदना के स्वर said...

@संगीता स्वरूप जी
@सोनल रस्तोगी जी

आपके विचारों का बहुत आदर है हमारे दिल में !. परंतु सवाल विवाद में उलझने का बिलकुल नहीं है. विचार करने का है. “कई बार विवाद में न उलझने के आग्रह का कारण, विचार करनें की पीड़ा से बचना भी होता है!”

सवाल चाँद और ताज का भी नहीं है शायद! सवाल सच की पड़ताल का भी है, जिसके अभाव में इस देश की गुलाम मानसिकता अब स्वयमसिद्ध है.

खैर! एक बात जो कटोचती है वह यह है कि “ जो चार दशक पहले की सच्चाई बताई जा रही है वह आज सम्भव क्यों नहीं है ?” 2008 में (चुनाव से पहले) हमारे देश ने भी 200 करोड की महंगी आतिशबाज़ी की थी, जब चाँद की तस्वीरे खींचने चन्द्रयान भेजा गया था..ज्ञात हो के कुछ माह बाद ही (चुनाव के बाद) उसने काम करना बन्द कर दिया.

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

बाप रे! एतना बिबाद त सम्बेदना के स्वर पर कभियो नहीं देखे थे... चलिये अच्छा बात है. ढेर मीठा खाना भी ठीक नहीं होता है. ई पूरा बिबाद सही है कि गलत ई बात को अगर दू मिनट के लिए किनारे भी कर दिया जाए, त ई बात से कोई मना नहीं करेगा कि हर बड़ा से लेकर छोटा देस का सरकार भी देस में आपात् स्थिति के समय इस तरह का सगूफा छोड़ती है, जनता का ध्यान मुख्य समस्या से हटाने के लिए. राष्ट्रीय स्तर पर घटने वाला कोई भी घटना नॉर्मल ढ़ंग से नहीं देखा जाना चाहिए. पूरे नेपाल नरेस के खानदान का सफाया एक ही रात में कोनू सिरफिरा राजकुमार का नसे में किया हुआ करतूत नहीं हो सकता है. जरूरत उसका तह में जाने का है काहे कि जेतना सरकार जनता के प्रति उत्तरदायी है, ओतना जनता का भी जवाब्देही बनता है.

केतना दिन से हंगामा सुन रहे हैं कि चाँदपर खेती होगा, लोग हनीमून मना सकता है, एक बार समाचार में त खर्चा तक लिख कर आ गया था. लेकिन कभी सोचा है कोई कि आज बिज्ञान उस समय से चार दसक आगे है (अऊर बिज्ञानका बिद्यार्थी होने से हम जानते है कि अनुसंधान के क्षेत्र में ई तरक्की 400 साल के बराबर होता है, गणितीय अऊर ज्यामितीय अनुपात) कोई घूमने भी काहे नहीं गया, जमीन खरीदने का त बाते छोड़ दीजिए.

बस अंत में एक्के अनुरोध है कि अमेरिका में बड़ा खबर कईसे बनता है ई जानने के लिए जॉन ग्राइशम का उपन्यास द ब्रिदरेन पढ़िए, अऊर जो पढ़े हैं ऊ त जानबे करते होंगे!! बस इतने बात है हमरा.

निर्मला कपिला said...

बिलकुल नई जानकारी है। झूठ सच का प्ता कैसे चलेगा--केवल अनुमान से या कभी कोई सबूत भी मिलेंगे? धन्यवाद।

Rohit Singh said...

इस विवाद से जरा किनारा करुंगा....और अपनत्व जी की बात को मानते हुए बिटिया को भाभीजी के साथ होमवर्क करने दें। नहीं तो होमवर्क भी पूरा नहीं होगा। कहीं बिटिया रानी होमवर्क के औचित्य पर सवाल न उठाने लगे हमारी तरह और फिर मुश्किल हो जाए।

Rohit Singh said...

बेशर्मी वाली बात पर आपके एतराज पर मैने उसी मच यानि अपनी पोस्ट पर दे दिया है ठंडा ठंडा कूल कूल.....

स्वप्निल तिवारी said...

ek ek comment padhi ..ek ek post ....ye to pata tha ki chanad pe jaane wali baat me locha hai koi ..par iske takneeki sakkshyon ki jaankari nahi thi ..ab ho gayi ... america walon ne mere chaand ki aisi taisi kkar di ..:( ....han the bridren padhunga... is sujhaav par zaroor amal karrunga ...

Arvind Mishra said...

यह एक क्रेजी अमेरिकी द्वारा फैलाई सनसनी मात्र है ...संशयात्मकता विज्ञान की आत्मा है मगर मूर्खता उसका कफ़न... आज अगर कोई इस बात को कहता है की चन्द्रमा पर मनुष्य का अवतरण धोखा धड़ी मात्र था और उसके पक्ष में रोचक उदाहरण और लच्छेदार शब्दों में तर्कों का पहाड़ तैयार करे तो मेरी निगाह में वह एक बड़ा अहमक ही है -मुझे क्षोभ और अफ़सोस है ऐसे लोगों पर ..अब आप रिएक्ट करें तो मेरी बला से ... यद्यपि मैं इन कड़े शब्दों के लिए आपसे क्षमा माँगता हूँ .मगर विज्ञान आप सरीखे लोगों से ही धक्के खा रहा है ..मैं छठवीं में था शायद जब यह युगांतरकारी घटना घटी थी और मेरे बाल मन ने सहज ही इसे सच मान लिया था ..मैंने इस पर एक कोलाज किया था
....अगर ऐसे दावे को स्वीकार नहीं करते तो इसका मतलब आप मनुष्य की असीम शक्तियों और संभावनाओं पर भी विश्वास नही करते आप परले दर्जे के दकियानूसी चेतना के आदमी हैं ..बदलिए अपने को ...
चन्द्रमा पर मनुष्य का दूसरा अभियान जल्द ही शुरू होने पर आपको अपने जीवन काल में ही सच से सामना हो जाएगा...बाकी साईंस ब्लागर्स और साईब्लाग भी देखते रहा करिए -खुद अपनी अच्छाई के लिए .....

ZEAL said...

a mind blowing post and very logical discussion.

Thanks for this informative post .

राजेश उत्‍साही said...

खडगसिंह जी आभारी हूं कि आप मेरे ब्लाग पर आए। यह देखकर सुखद अनुभूति हुई कि खडगसिंह का जो हृदय परिवर्तन हुआ था वह अभी तक विद्यमान है। मुझे बाबा भारती कहकर आपने जो सम्मान दिया उसके बदले में मैं आपको क्या। दूं। आपके पास तो पहले से ही बहुत तेज दौड़ने वाले दिमाग के घोड़े हैं।
बहरहाल मैं भी विज्ञान का विद्यार्थी रहा हूं। हां यह अलग बात है कि पांच साल लगाने के बाद भी बीएससी की डिग्री हासिल नहीं कर पाया। कारण शायद कुछ ऐसे ही थे जैसे आप बिटिया के होमवर्क के समय महसूस करते हैं। किताबों में जो लिखा होता था अपन उससे बाहर जाकर जवाब लिखते थे और नतीजा यह कि हम ही बाहर कर दिए गए।

खैर। 26 साल जानी मानी शैक्षणिक संस्था एकलव्य में काम किया। बच्चों के लिए निकलने वाली बालविज्ञान पत्रिका चकमक का 17 साल संपादन किया। पर सचमुच आश्चर्य कि आपने जो सवाल यहां उठाए हैं उनसे रूबरू होने का पहली बार मौका मिला। विज्ञान में अंतिम सत्य कुछ नहीं होता,यह आप भी जानते हैं। बहुत बारीकी से अगर विश्ले्षण होगा तो ये सवाल भी दरकिनार हो जाएंगे। चांद की यह घटना तो चालीस साल पुरानी हो गई है। लेकिन कुछ साल पहले अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर जो आतंकवादी हमला हुआ उसके बारे में ऐसा कहा जाता है कि वह भी अमेरिकी फौज का ही एक अभियान था। और उसकी फिल्में मौजूद हैं जिनमें उनकी फौज के लड़ाकू विमान दिखाई देते हैं। मेरे पास इससे ज्यादा जानकारी नहीं है। लेकिन यह बात मैंने भोपाल में एक ऐसे व्यक्ति के मुंह से सुनी जो बौद्धिक जगत में खासा नाम रखता है। निश्चिनत तौर पर वह दुनिया भर की और चीजों से सरोकार रखता है।
मेरे एक मित्र हैं T.Vejayendra उनकी किताब है Reganing Paradise(towards a fossil fuel free society) यह हाल ही में ही प्रकाशित हुई है। कुछ समय पहले उनसे मिलना हुआ। वे कहते हैं हम सब तकनीक की बात कर रहे हैं। दुनिया का सारा अर्थशास्त्र पेट्रोलियम पदार्थों पर टिका है। लेकिन उनका भंडार समाप्त हो रहा है। नए भंडार मिल नहीं रहे हैं। ऊर्जा के नए स्रोत खोजे नहीं जा रहे हैं। सूर्य की ऊर्जा को इस्तेमाल करने के बहुत उत्साहवर्धक नतीजे सामने आ नहीं रहे हैं। ऐसे में इस ग्लोबल होती दुनिया को जो पहला झटका लगेगा वह हवाई जहाजों के बंद होने से। फिर बड़ी मोटर गाडि़या ठप्प होंगी। यानी आपका यातायात तंत्र चरमरा जाएगा। उसके बाद हम कहां होंगे,खुद अंदाजा लगाइए। अनाज पैदा करने के लिए हम जंगल काट रहे हैं। लेकिन जंगल नहीं तो पानी नहीं। अनाज पैदा कैसे होगा। वे क्यूबा की क्रांति की बात करते हैं। कहते हैं कि कयूबा ने इस सबको ध्यान में रखकर अपने यहां एक व्यवस्था विकसित की है। पर उससे सबक कौन ले रहा है। शायद दुनिया में कोई नहीं।
और अंत में यह कहना चाहता हूं कि चांद पुराना लगता है हमारे आगे। यानी अमेरिका ने अगर सचमुच में यह कहानी गढ़ी थी तो हम तो उनसे कई गुना आगे हैं। ऐसी कितनी कहानियां हमारे यहां की फाइलों में दर्ज हैं। बात को समझने के लिए हाल ही में आई फिल्म वेल डन अब्बा को याद कर लीजिए।

प्रिया said...

very logical

soni garg goyal said...

It's really very shocking and the post like a Rabit punch .........
समय के आभाव में मेरी सक्रियता थोड़ी कम हुई है ! लेकिन आज जब आपका ये लेख पढ़ा तो थोड़ी कन्फ्यूज़ हो गई की अब बच्चो को क्या बताउंगी की चाँद पर कोई पहुंचा था भी या नहीं जैसा की अपनत्व जी ने कहा है सही कहा है बच्चे अपनी टेक्स्ट बुक और अपने टीचर के अगेंस्ट कुछ नहीं सुनना चाहते ! लेकिन सच में आज से पहले ऐसा तर्कपूर्ण सच नहीं सुना ! और अब में इसके बारे में और भी ज्यादा जानना चाहूंगी !
thanx for this informative post ............

Anonymous said...

sir padh kar achha laga, satya samne aayee, par ek bat kahana chahunga ki kitab me sach likha hota hai aur hum logon ko kitab se sachh padhkar batate hain, main issse sahmat nahi hun, ye padhane ka itna hi matlab hai ki bad me jab isi jhuth ko usse pucha jaye to wo bata pati hai ki nahi, yh sirf memory test karne ka tarika hai, sir main ek example rakhna chahunga, bank clerk interview me mujhse ye pucha gaya tha ki "aapka physic hons. ka bank me kya kam hai" maine bola tha ki physics hons. karne me mujhe mehnat karni pti thi, kitab se padhna aur yad karna pada tha, iska matlab main mehnat padhne ke liye kar sakta hun, aur bank me to mehnat hi karna hai, mai prabhat


Anonymous said...

There are some inaccuracies in this article. It states that America withdrew from Vietnam in 1969.It is not correct. Vietnam War continued upto 1975 and America withdrew it's troops from Vietnam in 1975. Of course, the article creates some confusion and claims that it is true. Suppression of truth in a democratic country where opposition party is there, free press is there, critics of the President or ruling party within the country are there, does not seem realistic. If men's landing on moon is propaganda, then this is also part of hate America propaganda. So far, space research centres of the world like ISRO in India and it's counterparts in other countries have not disputed men's landing on moon.

Anonymous said...

We have come across propaganda of different types from all sides. During my childhood and adolescence, I was studying magazines like Soviet Land, Sputnic etc. which were full of propaganda. It was full of contents like the food of Soviet Union is the best food in the world, it's water is the best water, it's air is the best air. Whatever people of America are consuming, they are all rotten, America's air is the most polluted air in the world etc. On the contrary, they were claiming the ultimate victory of communism etc. Then, why communism failed? So, let us not like or dislike some country or it's people based on half naked truth, because half truth is more dangerous than lies.

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...