सम्वेदना के स्वर

यह ब्लॉग उस सनातन उत्सवधर्मिता को जीवित रखने का प्रयास है,

जिसमें भाव रस और ताल का प्रतीक आम आदमी का भा-- बसता है.
सम्वेदनाएँ...जो कला, साहित्य, दर्शन, विज्ञान, राजनीति आदि के माध्यम से अभिव्यक्त होती हैं, आम आदमी के मन, जीवन और सरोकार से होकर गुज़रती हैं तथा तलाशती हैं उस भारत को, जो निरंतर लड़ रहा है अपने अस्तित्व की लड़ाई.....

Saturday, May 28, 2011

बेकसूर प्रिंसिपल, नकारात्मक मीडिया - फालोअप पोस्ट

आए दिन खबरों को पहले पन्ने से पिछले पन्नों तक और प्राइम टाइम से लेकर स्क्रोल पट्टियों तक सरकते हुए हम सब देखते हैं. कारण यह भी होता है कि जितनी तेजी से वो मुद्दा उठता है, उतनी ही ऊर्जा के साथ ज़िंदा नहीं रह पाता. खासकर तब जब उसका कोइ सटीक परिणाम सामने न आ जाए तो. क्योंकि सिर्फ ज़िंदा रखने के लिए तो कोइ खबर ढोई नहीं जा सकती.

हमने भी कई मुद्दे इस ब्लॉग पर उठाये. और उनके लिए एक फॉलो-अप पोस्ट की ज़रूरत महसूस की हमने. पहले भी कई बार लोगों के सवालों ने फॉलो-अप पोस्ट लिखने को मजबूर किया, कई बार हमें खुद ही लगा कि इस मुद्दे पर और भी कुछ कहा जाना चाहिए. हम आभारी हैं उनके जिन्होंने सवाल उठाये और उन मुद्दों को याद रखा ताकि एक नया दृष्टिकोण, नए तथ्य रखने का मौक़ा हमें मिला. एक संतोष मिलता है कि बात लोगों तक पहुँची.

पिछले दिनों हमने चंडीगढ के एक स्कूल में हुई दुर्घटना की चर्चा की थी. इस घटना ने इसलिए भी छुआ कि अपनी बच्ची वहाँ पढ़ती थी और उस प्रिंसिपल से व्यक्तिगत तौर पर मिल चुका था मैं. जो हुआ वो अफसोसजनक था, जो हो रहा था मीडिया के माध्यम से वो और भी अफसोसनाक था. लेकिन दो चार दिन पहले जो खबर अखबार में आई वो वास्तव में वैसी ही थी जैसे सूरज की गर्मी से तपते हुए तन को मिल जाए तरुवर की छाया. इस घटना का एक सकारात्मक परिणाम उस पूरी संस्था के लिए सुखद है जिसे हम विद्या का मंदिर कहते हैं. कौन हारा, कौन जीता, यह कोइ मुद्दा नहीं. मानवता जीती, अनेक बच्चों का विश्वास जीता और एक पावन संस्था के मूल्यों ने विजय पाई.

उस अखबार की खबर आपके लिए, जिसे आप हमारी फॉलो-अप पोस्ट कह सकते हैं! आभार उन सभी का जिन्होंने हमारे ब्लॉग के माध्यम से अपने सार्थक विचार रखे और सच्चाई के प्रति अपना समर्थन दर्ज किया!!

स्कूल प्रिंसिपल के खिलाफ आपराधिक शिकायत वापस

चंड़ीगढ़, जागरण सम्वाददाता : सेंट ज़ेवियर स्कूल सेक्टर -44 की दसवीं कक्षा की छात्रा जाह्ंवी के तीसरी मंज़िल से गिरने या गिराये जाने के मामले में समझौता हो गया है।

शनिवार को जान्ह्वी के पिता तिलकराज सतीजा ने स्कूल प्रिंसिपल के खिलाफ जिला अदालत में दायर आपराधिक शिकायत वापस ले ली। हादसे में घायल छात्रा के पिता तिलराज सतीजा ने पिछले महीने उनकी बेटी को तीसरी मंज़िल से गिराये जाने के आरोप लगाते हुये स्कूल प्रिंसिपल मर्विन वेस्ट के खिलाफ जिला अदालत में आपराधिक शिकायत दायर की थी। जिसके तहत अदालत ने गवाही के लिये तिथि निर्धारित कर दी थी।

शिकायतकर्ता के वकील द्वारा अदालत को सूचित किया गया कि उनके और अन्य पक्ष के बीच गलतफहमी दूर हो गयी है, जिससे मामला सुलझा लिया गया है, इसलिये वह आपराधिक शिकायत वापस ले रहे हैं।

मामले में छात्रा के पिता ने अपने वकील के जरिये स्कूल प्रिंसिपल के खिलाफ हथियार से गम्भीर रूप से घायल करने और मानहानि की धाराओं के तहत आपराधिक शिकायत दायर की थी। शिकायत में अदालत से उचित मुआवज़े की भी मांग की गई थी।

घटना के नकारात्मक पहलू पर शोर-मचाते मीडिया को भी हमने देखा और अब घटना के सकारात्मक पहलू पर इत्ती छोटी सी रिपोर्ट भी, जिसे छापा एक समाचार पत्र ने अपने स्थानीय पन्नों में । उधर एक महीने पहले इस खबर को राष्ट्रीय सुर्खिया बना देने वाले इलेक्ट्रानिक मीडिया ने तो आज तक सुध भी नहीं ली। ले भी क्यों? इस बीच और सनीखेज खबरे जो आ चुकी हैं। सकारात्मक खबरों को टीआरपी और विज्ञापन नहीं मिलते, ऐसा इन ज्ञानीयों का मानना है।     

Monday, May 16, 2011

सिसक-सिसक गेहूं कहे, फफक-फफक कर धान

एक फ़िल्मी कहानी की तरह लगता है जब हम कहें कि एक आदमी दुसरे को उसकी ज़मीन बेच देने को कहता है और उस ज़मीन की कीमत भी देता है. दूसरा हाथ जोड़ता है, पैर पड़ता है कि उसे नहीं बेचनी ज़मीन, लेकिन पहला उसे ज़बरदस्ती कीमत देकर वो ज़मीन खरीद लेता है. जान देने से कीमत ले लेना उसे उचित लगता है. हज़ारों में उसे दाम मिलता है और कुछ ही समय में पहला उस ज़मीन को करोड़ों में बेच रहा होता है.

आप कहेंगे कि इस कहानी में नया कुछ नहीं है. दरसल इसी चरित्र को तो भू माफिया कहते हैं और लगभग हर बड़े छोटे शहर में यह किरदार पाया जाता है. मगर इस कहानी में यह पहला आदमी है सरकार. और उसके हाथ में १८९४ मॉडल का एक हथियार है जिसका नाम है भू अधिग्रहण क़ानून. इसी हथियार के जोर पर वो किसी किसान की ज़मीन औने पौने भाव में हथिया सकती है और बदले में उसकी झोली में कुछ सौ रुपये देकर (न देकर) उस ज़मीन को सोने के भाव बेच सकती है.
इस पूरे गोरखधंधे में बताया ये जाता है कि ज़मीन उनके लिए सड़क, हस्पताल, स्कूल बनाने के लिए ली जा रही है, लेकिन उन सडकों के आस पास एक पूरा सीमेंट का साम्राज्य बन जाता है, और उस हुकूमत के मालिक होते हैं राजा मिडास जिनके हाथ लगते ही वो सीमेंट सोना बन जाता है.
फिर शुरू होता है किसान आंदोलन, पुलिस की लाठियां, धारा १४४, नेताओं के स्वार्थ की रोटियां, उनकी नकली गिरफ्तारियां, मीडिया में खबरों की दुकान और बेचारे शायर की सोच:

सिसक-सिसक गेहूं कहे, फफक-फफक कर धान
खेतों में फसलें नहीं, उगने लगे मकान!/ (डा. कुंवर बेचैन)

Friday, May 6, 2011

देश का अगला राष्ट्रपति- अन्ना हज़ारे ?

एक संसदीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि यहाँ हर कोई एक लिखित संविधान से बंधा है और उसके पालन को बाध्य है. इसके अंतर्गत उनके ऊपर सबसे बड़ा दायित्व है देश का जिनपर देश की नीतियां और आचरण निर्भर है. लेकिन जैसा कि एक प्रचलित मुहावरा है कि सता व्यक्ति को भ्रष्ट कर देती है और अपरिमित सत्ता सम्पूर्णता से भ्रष्ट कर देती है. ऐसे में आवश्यकता है अपनी शक्ति को पहचानने की ताकि सत्ता में बैठे व्यक्ति को भटकने से रोका जाए.

देश का प्रथम नागरिक राष्ट्रपति होता है. वैसे तो अपने देश में संसदीय प्रजातंत्र है और राष्टपति की भूमिका बहुत सीमित है. यह भी कहा जाता रहा है यह पद मात्र एक रबर की मुहर है और इसका काम सिर्फ विन्दुओं की रेखा पर हस्ताक्षर करना ही है. किन्तु देश का सर्वोच्च पदाधिकारी मात्र एक कठपुतली हो, ऐसा नहीं हो सकता. हनुमान भी मात्र एक वानर ही थे जब तक उन्हें उनकी शक्ति का भान नहीं कराया गया.

पूर्व राष्ट्रपति श्री ऐ पी जे अबुल कलाम ने इस पद को जो गरिमा और सम्मान दिलाया वो आसानी से नहीं भुलाया जा सकता. हमारे जैसे कई लोगों का तो यह भी मानना है कि स्कूलों और कालिज में जाकर राष्ट्रपति अबुल कलाम ने जो माहौल बनाया, यह उसी का परिणाम है कि वो किशोर, अब युवा होकर प्रजातंत्र पर “जंतर-मंतर” करने की स्थिति में आ गये हैं।

आइये अब आगे की चर्चा से पहले, वर्तमान राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल की गोवा यात्रा का समाचार पत्र में छपा यह विवरण देखिये :

अगर उनकी बात सही मान लें कि यह एक सरकारी यात्रा थी, तो क्या यात्रा का खर्च चौंकाने वाला नहीं है? इतनी कीमती रबर की मुहर देखकर आँखें नहीं चुंधिया जाती है आपकी!! ऐसे में एक बारगी ख्याल आता है उस व्यक्ति का जिसने अपनी भविष्य निधि और पेंशन का सारा पैसा, घर बार सब त्याग दिया और बना लिया मंदिर के अहाते को अपना घर, जो सही अर्थों में भारत के अधिकांश नागरिक का स्थायी आवास है. अगर वह आदमी देश का राष्ट्रपति होता तो क्या जनता पर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष टैक्स के पैसे पर इस तरह के आनन्द करने की स्थिति में होता??

बापू के सादा जीवन और उच्च विचार के आचरण को जीवन में उतार कर जीने वाले अन्ना हजारे का नाम इस पद के लिये सोचकर ही हमें बहुत अच्छा लगा। जरा सोचिये अन्ना हज़ारे जैसी सादगी वाला व्यक्ति यदि इस देश के राष्ट्रपति भवन में रहने चला जाये तो क्या होगा?

मामूली सी सोच हमारे सामने जो तस्वीर पेश करती है वो यह है:

1. ब्रिटिश कालीन राजसी ठाठबाट से निकल राष्ट्रपति भवन गाँव के सरपंच की चौपाल बन जायेगा जो सच्चे भारत का प्रतिनिधित्त्व करता दिखेगा, न कि इंडिया का.

2. उपभोक्ता संस्कृति में भटक रहे, आधुनिक बंधुआ मजदूर बने इस देश के युवा को सादगी से जीवन जीने की जीवनदायनी प्रेरणा मिलेगी और युवा चेतना असली सृजनशीलता के नये आयाम रचेगी।

3. जब अन्ना एक राष्ट्र्पति के तौर पर बार-बार जिक्र करेंगे तो चुनाव सुधार और सत्ता के विकेन्द्रीकरण जैसे बड़े मुद्दे अपने आप सरकार की प्राथमिकताऑं में आ जायेंगे?

4. हिन्दी और मराठी भाषा में अपनी बात कहने वाले राष्ट्रपति अन्ना हजारे, उस अंग्रेजीयत के आवरण में भी छेद करने की स्थिति होंगे जिसके पीछे अब तक इस देश के हर पाप छिपा लिये जाते रहे हैं।

5. राष्ट्रपति अन्ना हजारे, रबर की मुहर न होकर, देश के प्रधानमंत्री और सरकार के सर पर उस खौफ की तरह सवार होंगे जिसके डर से ही सरकार सीधा रास्ता चलने को हमेशा बाध्य होगी।

आज देश में सरकार और विपक्ष दोनों ही विफल साबित हो चुके हैं. इन्हें यदि अगले चुनाव में एक अवसर दे भी दिया जाये तो इसकी प्रारंभिक शर्त यह होनी चाहिए कि “जुलाई 2012” में होने वाले राष्ट्रपति के चुनाव के लिए यह सुनिश्चित करें कि देश को अगले राष्ट्रपति के रूप में अन्ना हजारे चाहिये ही चाहिये, किसी भी कीमत पर!

हम दोनों तो देश के अगले राष्ट्रपति के रूप में अन्ना हज़ारे का नाम प्रस्तावित करते हैं। आप क्या कहते हैं?  
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