ऑफिस के काम के सिलसिले में इस मंगलवार को मुझे नाभा जाना था.नाभा जाने का रास्ता, चंडीगढ़ से ज़िरकपुर के रास्ते पटियाला होकर जाता है. सलिल भाई को चैट करते हुए, कल जब इस बाबत बताया, तो उन्होंने तपाक से कहा, “यार! पी. सी. बाबू यानि डॉ. पायाति चरक जी से जरूर मिलना.एक तो मुझे उनका नाम ही विस्मित किये जाता है,उसपर उनकी तुमसे हुई बातचीत (भांडिया के भांड) भी इतनी मज़ेदार थी कि लगा डॉक्टर साब कोई पहुँची हुई चीज़ हैं.”
उस दिन सुबह जल्दी ही घर से निकल गया मैं,यह सोचकर कि वापसी में करीव तीन बजे फिर ज़िरकपुर से गुजरना होगा, तो मिलेंगे पी सी बाबू से. शाम को ठीक चार बजे मैं मकान नम्बर 151 ए. का दरवाजा खटखटा रहा था. एक म्रध्यम वर्गीय मकान, जिसके आगे एक पुराना स्कूटर बजाज स्कूटर खड़ा था और पास ही एक नई पल्सर बाईक भी. दरवाजा पी. सी बाबू ने ही खोला. मेरे प्रणाम करने पर उन्होंने भी अभिवादन किया. परन्तु ऐसा लगा कि उन्होंने मुझे पहचाना नहीं या फिर अभी भी अपनी स्मृति के घोड़े दौड़ा रहे थे. मैंने उनकी मुश्किल आसान करते हुए आगे कहा, “ मुझे पहचाना सर! हम ज़िरकपुर के मॉल में मिले थे!! मैं वही भांडिया का भांड हूँ!” इतना सुनते ही वो बच्चों की तरह उछल पड़े और मेरा हाथ पकड़ कर,किताबों से घिरी अपनी बैठक में ले आये. मेहमान-मेजबान वाली कुछ औपचारिक बातों के बाद मैंने स्वभावत: उनसे पूछ ही लिया, “और सर! क्या पढ़ रहें है आजकल?”
पी सी बाबू कहने लगे,“अभी,बीस वर्ष पहले हुई “द फ्युचर ऑफ परसुएशन इंडस्ट्री इन अमेरिका” नाम का एक पुराना रिसर्च वर्क देख रहा था. न्यूयार्क के किसी व्यस्त सुपर मार्केट में यह रिसर्च किया गया था. उसमें सुपर मार्केट में आने वाली सभी स्त्रियों पर एक गुप्त प्रयोग किया गया. इसमें छुपे हुए कैमरों से उन स्त्रियों की आँखों के चित्र लिये गए. इस तरह यह रिकॉर्ड किया गया कि जो महिलाएँ सुपर मार्केट में सामान खरीदने के लिये घूम रहीं थीं,उनमें किन चीज़ों को देखकर उनकी आँखों की पुतली फैल जाती है, किसे देखकर उनपर कोई असर नहीं होता आदि. बाद में इन तस्वीरों को देखकर रिसर्च टीम ने अध्ययन किया कि महिलाएँ किन बातों से सामान ख़रीदने को आकर्षित होती हैं. उन्होंने यह पता लगाया कि जो डिब्बे एक विशेष रंग के हैं, वे दस में से सात महिलाओं को आकर्षित करते हैं. तो रिसर्च टीम ने दुकानदारों को सलाह दी कि डिब्बे उस विशेष रंग से रंग दो. कोई भी दूसरा रंग उससे हार जायेगा. कंटेंट यानि अंदर का माल कैसा है,यह सवाल ही नहीं है. लेकिन पहले स्त्री उसी डिब्बे को उठा कर देखती है.
अगले चरण में रिसर्च में यह देखा गया कि न सिर्फ रंग वरन् डिब्बा किस ऊँचाई पर रखा है, यह भी मायने रखता है. डिब्बा आँख से कितनी ऊँचाई पर है,जिससे खरीदने वाली स्त्री उस ओर आकर्षित होती है. उन्होंने देखा कि अगर बहुत ऊँचाई पर है, तो आँख से चूक जाता है और बहुत नीचे है तो भी चूक जाता है. लेकिन एक खास लेवल है, उस क्षेत्र की स्त्री की ऊँचाई का, उसकी आँख के लेवल का.और उसका जो फोकस है, एक फुट का, उसके भीतर जो डिब्बे पड़ते हैं वे उसे आकर्षित करते है. बाज़ार को यह समझ आया कि जो चीज़ सबसे सस्ती है,और सबसे ज़्यादा फायदा देने वाली है उसे इस ऊँचाई पर रखा जाना चाहिये. और, जो चीज़ महँगी है या कम फायदा देने वाली है, उसे इतनी ऊँचाई पर रखा जाना चाहिये. इसी तरह के प्रयोग फिर बच्चों और पुरुषों पर हुए. कमाल यह कि फिर यही परिणाम आये. सिद्द हुआ कि दुकान में रखे डिब्बों के क्रम और रंग विशेष से हम किस तरह से प्रभावित होते हैं,
इस रिसर्च के बारे में सुनकर मैंने इतना ही कहा,“बाज़ार-विद हमारे मनोविज्ञान का इतना गहन अध्यन करके अपना जाल बुनते हैं? यह बात दीगर है कि अकसर हमें खुद इसका पता नहीं होता है कि हम जाल में फँस रहे हैं.”
पी सी बाबू ने आगे कहा, “रिसर्च में वो एक और नतीजे पर पहुँचे कि अगर काउंटर पर एक आदमी है जो पूछता है आपको क्या खरीदना है? तो नुक्सान होता है दुकान का. क्योंकि जब आदमी पूछता है कि आपको क्या खरीदना है, तो खरीदने वाले व्यक्ति को घर से सोच कर आना होता है कि वह क्या खरीदना चाहता है. ऐसे में परसुएड करने की सीमा हो जाती है. उसको तय करके आना पडता है कि पूछने पर यह बताना पड़ेगा कि मुझे एक टेलीविज़न खरीदना है. इस कारण काउंटर से आदमी हटा लिया गया, सिर्फ पैसे लेने वाला ही रहेगा, वो भी बाद में. आपको ट्राली पकड़ा दी जायेगी, आप चले जायें, जो चीज़ आपको पसन्द है वह ले आयें. उस सर्वे का नतीजा तो चौंकाने वाला था. उस सर्वे में यह पता चला कि जो चीज़ें लोगों ने खरीदीं, उसमें दस में से सात वह थीं, जो लोग खरीदने नहीं आये थे, मात्र तीन ही लोग ऐसे थे जिन्होंने वही खरीदा जो वो खरीदने आये थे.”
मैं हतप्रभ था और कहने लगा, “तो यह तो एक हिप्नोसिस की हालत है, वशीकरण की स्थिति. इसका मतलब यह हुआ कि जो खरीदने वाला है, उसे कुछ पता ही नहीं कि उसे परसुएड क़िया जा रहा है और किस चीज़ के लिये परसुएड किया जा रहा है. वह क्या खरीद कर लायेगा, कौन सी किताब पढेगा, कौन सा मंजन करेगा, सब तरह से परसुएड किया जा रहा है”. पी सी बाबू ने मेरी बात में आगे जोड़ा, “किताब, मंजन, फिल्म ही नहीं मित्र! कौन सी नौकरी करनी है, कौन सी नहीं, किस नेता को वोट देना है, किसे नहीं, कौन सी पार्टी अच्छी है, कौन सी बुरी,..हमारे विज्ञापन, फिल्में, टेलीविज़न... सब का इस्तेमाल होता है हमें परसुएड करने में! ऐसे में सवाल यही है कि अपनी बुद्धि, सोच या प्रज्ञा का इस्तेमाल हम निरंतर करें और इस सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक शोषण के प्रति सचेत रहें.”
बातों का सिलसिला ज़रा थमा ही था कि पी सी बाबू की पत्नी चाय लेकर आ गयीं,पी सी बाबू ने उनसे परिचय कराया और फिर कहा आज आप आयुर्वैदिक चाय का मज़ा लीजिये. आयुर्वैदिक चाय की चुस्की का असर था या पी सी बाबू कि बातों का.मैं विचारों के समुन्दर में डूबता जा रहा था, यह सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक शोषण तो हर तरफ है!! तुर्रम खां बने हम, जिस स्वतंत्रता का उत्सव मना रहें हैं उसकी डोर तो किसी और के हाथ में है.
28 comments:
It's complete overpowering of human psyche. This has resulted into overpricing and over-consumption of goods which are in fact not necessary. The corporations of USA have done a much research in these fields and it's part of their globalization programme. Unlike us Asians, they see far ahead and deeper. They are modern evil-lords.
They are so smart that they can modify our economic policies and needs.
Mai swayam to mall culture se bahut dukhi hun...gar samaan ghatiya hota hai to sunwayi nahi...kyonki malik khud hazir nahi...aap apni shikayat darj kar den..bas!
Mujhe jaanke badi khushi hui ki,Ahmadabaad me sab mall band kar dene pade! Kharidaron ko haggling me santosh milta tha aur khud malik se baat kar ke!
Waise gar saath fehrist bani banayi hai to,hypnosis nahi kar sakta koyi.
@ kshama ji
Are you sure ?
हमें तो लगता है कि यह जो घर से लिस्ट बनाने का तरीका है उस पर भी गौर फरमाया जाये?
बुद्दू बक्सा दिन-रात समझाता रहता है क्या खरीदों, क्या पहनों,क्या पढॉं,क़हां इंवेस्ट करो..
अरे बाप रे .....हम तो आज तक यही सोचते रहे कि हम खुद ही तय करते है कि हमे क्या लेना है और क्या नहीं ! आपने तो जैसे सोते से जगा दिया ! आभार !
vakai chokane wale tathy hain...bahut aabhaar naayab jankari dene ka
सार्थक और सच्ची प्रस्तुती ,आजकल हर किसी को फांसने का ही व्यापार चल रहा है ,और हमारे देश के अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री पूरी भारत सरकार को दलाली में लगा चुके हैं ऐसे फांसने वाले व्यापारियों के मदद में ...शर्मनाक है ऐसी तरक्की करती अर्थव्यवस्था ,ऐसे व्यापारी चुल्लू भर पानी में डूब मरें ...
चैतन्य बाबू... बिजली नहीं जानेवाला बात पर त आपसे कोनो जलन नहीं हुआ हमको आपसे, बाकी आज ई पायाति चरक जी से आपका उनके घर पर मुलाक़ात करने का बात से त हम जलकर राख हो गए... मगर का करें हमरा दिल त आप जांबे करते हैं एही से माफ किए आपको..पी.सी. बाबू का फोटो देखाकर आप तनी तसल्ली दे दिए हमको...अभी तुरते हम मॉल से लौटे हैं और पी.सी. जी का बात का सच्चाई देख लिए..
ओहाँ पारले जी बिस्कुट का बहुत बड़ा पोस्टर लगा था, आमीर खान वाला अऊर पोस्टर के नीचे में तरा बनाकर एगो संदेस लिखा हुआ था… देख लीजिएगा आप भी कभी..लिखा था Keep this product below 3 feet.
दोसरा उदाहरन भी ओहीं मिल गया.. एगो ब्रांडेड सरसों तेल हमरी सिरीमती जी खोज रही थीं. देखे त वहाँ खाली कोनो अनजान ब्राण्ड का तेल देखाई दे रहा था. जब गौर से देखे त पता चला कि हमरा ब्राण्ड सेल्फ के कोना में भरा हुआ था, मगर उसके सामने खाली क्रेट सजाया हुआ था, ताकि देखाई नहीं दे.
PERSUATION INDUSTRY का एतना ज्वलंत उदाहरन गौर से हम आजे देखे.. पयाति जी का चरन छूने का मन करता है...अगर अगिला बार मुलाक़ात हो अपना फोन से हमरा बात जरूर करवाइएगा. काहे कि जईसा आप बताए हैं ऊ अपने कोनो मोबाईल नहीं रखते हैं अऊर घर का नम्बर कार्ड पर नहीं लिखते हैं...
सलिल
ekdam sacchi baat salil ji,
बहुत अच्छी रोचक और ज्ञानवर्धक पोस्ट.वैसे मैं तो घर से लिस्ट ले कर ही निकलती हूँ जिस भी सामान की जरुरत होती है लिखती रहती हूँ और जब मार्केट गए तो लेते गए पर एक बात जिससे आप सब सहमत होंगे शायद की अगर बच्चे साथ गए तो लिस्ट एक तरफ और सामान दूसरा उन्हें कण्ट्रोल करना नामुमकिन सा होता जा रहा है
बहुत सही कह रहे हैं आप ??
मॉल संस्कृति के पीछे बहुत सटीक मनोवैज्ञानिक पक्ष है। 100 रु की चीज़ खरीदने आता है, 1000 की खरीद कर जाता है।
अपन तो जी पहले से ही इस कल्चर के विरुद्ध हैं, खाम्क्ब्वाह ही अपनी गरीबी का अहसास करने के लिये क्यूँ जायें? जब जरूरत का सामान घर के पास ही मुहैया है तो फ़िर नयी जगह क्यों तलाशी जाये? डा.चरक वाकई आकर्षित करते हैं अपनी सादगी से, भेंट करवाने के लिये शुक्रिया आपका।
बहुत अच्छी जानकारी देता लेख ...और बिलकुल सटीक ..
माल संस्कृति विलासिता को बढ़ावा देती है -आवश्यकता -आधारित नहीं है -
जबकि भारतीय जीवन पद्धति -त्येन त्यक्तेन भुंजीथा की रही है ....
बिल्कुल.. सारा बाजार ही मनोविजान है.. लेकिन इसका भी मजा है... i enjoy!!
@ बाज़ार-विद हमारे मनोविज्ञान का इतना गहन अध्यन करके अपना जाल बुनते हैं? यह बात दीगर है कि अकसर हमें खुद इसका पता नहीं होता है कि हम जाल में फँस रहे हैं
इसीलिए त हम सारा सामान खिदिर पुर बाज़ार से ले आते हैं। कितना ठगते हैं ई लोग!हम त आज तक ई माल-फाल गये ही नहीं कुच्छो लाने। इस लिए आउर कुछ बिसे्स टीका टिपनी न दे पाएंगे।
@ संवेदना जी
आप बुद्धु बक्सा पर ई सब भी देखते काहे हैं।
हं हमरे चंडीगढ का हाल समाचार देते रहिएगा।
देसिल बयना-खाने को लाई नहीं, मुँह पोछने को मिठाई!, “मनोज” पर, ... रोचक, मज़ेदार,...!
@ मनोज जी!
देखिये! ये जो "कम्प्यूटर जी" हैं न, जिनके कारण हम सब ब्लोगिया और चिटया पाते हैं, उन्हीं के खानदान से हैं "बुद्दू बक्सा जी". हर मध्यमवर्गीय घर के एक कोने में यह बैठे तो बहुत गुमसुम भोले-भाले अन्दाज़ में रहते हैं पर चुपचाप हम सबको नियंत्रित कर लिया है इन्होनें!हम नहीं तो हमारे परिवार और मित्र-सम्बधीं सबके जीने-मरने के ढ़ंग बदल दिये हैं बुद्दू बक्सा जी नें, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता. पायाति चरक जी से हुई पिछली मुलाकतों ने पर्सुएशन इंडस्ट्री के नये मायने बतायें हैं हमें. आस पास के जीवन को अवचेतन में प्रभावित होते देखकर बहुत कुछ चलता है मन में.
@चंड़ीगढ़
"चंड़ीगढ़" आधुनिक भारत में हुयी एक बहुत खूबसूरत दुर्घटना है..पता नहीं कैसे इसका स्वरूप बचा हुआ है..काश! सारे भारत के शहर इसी माडल पर बनायें जायें..अपनी आगामी किसी पोस्ट में इस शहर के बदलते तेवरों से वाकिफ करातें है आपकों.
माल के पीछे अनेक कमाल हैं ।
बहुत ही सार्थक जानकारी। सच है कि आजकल मेनेजमेंट में यही सब पढाया जाता है कि जरूरत पैदा करो। पहले व्यापार आपकी जरूरतों को पूरा करने के लिए होता था लेकिन अब जरूरत पैदा करने के लिए होता है। बहुत बदल गया है संसार। अद्भुत व्यक्ितत्व से मिलकर भी अच्छा लगा। बहुत अच्छी पोस्ट।
खरीदारों का मनोविज्ञान .... वैसे हमारे धंधे में भी इसका प्रयोग करते हैं हम .... अपने आक्श्न के धंधे में ....
ये कहानी फिर कभी .... आपकी पोस्ट बहुत ही दिलचस्प है ...
वैसे एश्वर्या और दूसरी भारतीय विश्व सुंदरियों को चुन कर विदेशी कॉसमेटिक कंपनियों ने भी मनोवेगयानिक खेल खेला था १०-१२ वर्ष पहले और वो सफल भी रहीं भारत के बाज़ार पर कब्जा करने में ...
बिलकुल सटीक बात है.......
पुराने लाला कि दूकान पहले भी सही थी और आज भी सही है........ पर हम लोगों ने वहाँ जाना छोड़ दिया है.
bahut samayik aur sarthak post---in muddon par hamen vichar karana hoga.
आम तौर पर सत्संग का क्या अर्थ लिया जाता है सब जानते और समझते हैं. मैं ऐसे विद्वान् लोगो के सामीप्य को ही सत्संग मानता हूँ. बहुत कुछ सिखाता एक दिलचस्प लेख.
ये भी एक किस्म का नियोजित यत्न है ...ट्रेप है !
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Yesterday I went to mall and got bankrupt there. Need was of two liter milk can but I ended up purchasing, unnecessary cosmetics, grocery and gifts as well.
Brilliant post !
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Lagta hai abke meri dono posts "Bikhare Sitare" aur "Simte lamhen'pe ekdam gayi guzari hain....aapne nazarandaaz jo kar diya!
Tyoharon ka parv mubarak ho!
पायाति चरक जी का पर्सुएशन इंडस्ट्री विश्लेषण बहुत ही जबरदस्त है...हमारा आधुनिक समाज किस तरह से पर्सुएड किया जा रहा है...इसकी शायद किसी को कोई खबर ही नहीं है ।
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