आज देश में लोकतंत्र का चौथा खम्बा श्वानों के लिए ही खुशी का कारण रह गया है. और उनकी गिरवी रखी कलम की जो धूम इन दिनों मची है, उससे तो यही लगता है कि उन्होंने अब कलम सिर्फ नाड़ा डालने के लिए ही रख छोड़ी है. पिछले दिनों हमें हमारी ही एक कविता की सच्चाई देखने को मिली. यह कविता एक पाकिस्तानी कवि हबीब जालिब की उर्दू कविता का तर्जुमा थी, उसी कविता को आगे बढ़ाते हुए, एक मर्सिया चौथे खम्बे के पहरेदारों की गिरवी रखी कलम के नाम:
देश की भलाई का विचार आज टाल दो
राष्ट्र के निर्माण को दिमाग़ से निकाल दो
ध्वज नहीं, सवाल है, जवाब तो उछाल दो.
गर्त्त में है आत्मा ये क्या हुआ है हाल रे
अब तो अपनी लेखनी से नाड़ा ही तू डाल रे!
अप्रवासी भारतीय प्यार करता देश से
कौन मंत्री बने तो कौन बाहर रेस से
ऐसे काम में मदद करो छिपे ही भेस से
क्या बुरा है इसमें मिलता जेब में जो माल रे
अब तो अपनी लेखनी से नाड़ा ही तू डाल रे!
नीरा की सुरा पिए हैं देश के ये पहरेदार
बरखा नोट की बरस रही है आज बेशुमार
वीर दुम दबाये हुये घूम रहा लगातार
पूरे घटनाक्रम पे क्यों उठा नहीं सवाल रे
अब तो अपनी लेखनी से नाड़ा ही तू डाल रे!
बोलता मुकेश कांगरेस तो दुकान है
दाम दो खरीद लो, ये मंत्री सामान है
बेचकर भी लेखनी बची ये इनकी शान है
दत्त सांघवी पे क्यों मचा नहीं बवाल रे
अब तो अपनी लेखनी से नाड़ा ही तू डाल रे!
अर्थ तो रिलायंस का भरोसा है तू सीख ले
टाटा के नमक से तू नमकहलाली सीख ले
टेलिकॉम के नाम पर करोड़ों की तू भीख ले
पूरे लोकतंत्र पर बिछा है नोटजाल रे
अब तो अपनी लेखनी से नाड़ा ही तू डाल रे!
29 comments:
क्या कहूँ सभी कुछ तो कह डाला
बहुत अच्छा लगा
एकदम सच है!
जबर्दस्त्त...सीधे पॉइंट पे तमाचा मरा है.
विश्वपटल पर विकीलीक्स ने अंतराष्ट्रीय राजनीति के हमाम का लाइव टेलीकस्ट कर दिखा दिया है और इसके विपरीत हमारे यहाँ का मीडिया मौनी बाबा बना हवा का रुख भाप रहा है।
एक सवाल यह भी पूछा जाना चाहिये कि इसी तरह यदि पुलिस वाले भी स्टाफ के खिलाफ केस दर्ज करने से मना कर दें तो मीडिया कि क्या प्रतिक्रिया होगी?
बहुत अच्छा।
सपाट और झन्नाट व्यंग।
ये बेचारे तो एंकर है,रंगमचं की कठ्पुतलिया हैं साहब, इनकी डोर तो कहीं और ही है।
बहुत बढ़िया ...
चौथे खम्ब को शानदार उल्हाना!!
सटिक निशाना।
सत्ता के दलालों का सही चित्रण किया है आपने
.
चैतन्य जी ,
यथार्थ का बेहतरीन चित्रण किया है आपने। इस रचना में व्यंग से ज्यादा व्यथा झलक रही है। चंद मुट्ठी भर लोग , जो समाज में बदलाव लाना चाहते हैं और देश के हित के लिए सतत सोचते हैं , वो खुद को असहाय पा रहे हैं। इक सामूहिक प्रयास की आवश्यकता है आज। इतनी बड़ी-बड़ी घटनाओं पर लोग चुप-चाप बैठे रहते हैं। कोई शोर क्यूँ नहीं होता , कोई बवाल क्यूँ नहीं ?
सच ही कहा आपने- कलम से नाड़ा डाल रे ...
.
शब्दों के इस माया जाल में खो गयी हूँ. सब कुछ तो कह डाला आपने बार बार पढ़ती हूँ हंसती हूँ खिसियाती हूँ, अफ़सोस करती हूँ काश ये सब कुछ न होता. नवीन जी की बात से सहमत हूँ" ये बेचारे तो एंकर है,रंगमचं की कठ्पुतलिया हैं साहब, इनकी डोर तो कहीं और ही है।"
मगर इस व्यंग्य से भी क्या फर्क पड़ेगा चैतन्य भाई ! बहुत मज़बूत खाल है ...
.
.
.
" अब तो अपनी लेखनी से नाड़ा ही तू डाल रे "
नाड़े या इजहारबन्द की जरूरत भी तो उसी को होती है जो कुछ लाज-शर्म रखता हो... सही कह रहे हैं आप 'आज देश में लोकतंत्र का चौथा खम्बा श्वानों के लिए ही खुशी का कारण रह गया है'...
पर यह भी कहूँगा कि हमारे मीडिया का यह चरित्र आज ही नहीं एकाएक बिगड़ा...एकाध अपवाद को छोड़कर आजादी के पहले से ही, ऐसा ही रहा है... कलम कल भी गिरवी थी, कलम आज भी गिरवी है... मीडिया समूहों के मालिक तो वही हैं !
...
...
120 करोड़ मुर्दों का देश, आप बंधु ही तो कहते हैं।
आप व्यथित ज्यादा इसीलिये हैं कि आप आशान्वित भी थे। हमने तो आठ दस साल पहले एक नैशनल डेली में जब फ़्रंट पेज पर एक स्पेस कुछ दिन के लिये बुक देखा था, एक डिलीवरी के डेली अपडेट्स देने के लिये, उसी दिन से इनसे उम्मीद रखनी छोड़ दी थी।
व्यवस्था पर करारा व्यंग्य करती यह रचना सीधे दिल में उतर गई। आज स्वर संवेदना के कम वेदना के ज़्यादा हैं। आपके ही नहीं मेरे भी।
हालात ऐसे हो गए हैं कि सब स्तुतिगान में लगे हैं।
आज शास्त्री जी की कुछ पंक्तियां समर्पित करने का मन बन गया है
कुपथ कुपथ रथ दौड़ाता जो
पथ निर्देशक वह है,
लाज लजाती जिसकी कृति से
धृति उपदेश वह है
जनता धरती पर बैठी है
नभ में मंच खड़ा है,
जो जितना है दूर मही से
उतना वही बड़ा है
.इन बेशर्मों को यूँ ही नँगा करने की ज़रूरत है,
आप नाड़ा डालने के लिये लेखनी का विकल्प सुझा रहे हैं ?
आपके स्वर में धिक्कार कूट कूट कर भरा है, वही हमारे मन में भी है ।
अब इनसे नाड़ा तो छीन ही लो, महाराज.. खींचना हो तो इनके धर्मपिताओं को भी साक्षी बनाओ, प्रभु ।
कुल मिला कर अरसे तक याद रहने वाली और मित्रों को पढ़वाने वाली रचना !
मनोरंजक है। :)
बहुत बढ़िया कविता.
बहुत खूब. अच्छा व्यंग है
मैं कविता तो नहीं कह सकता इसको........
अगर मीडिया के शर्मसार लोग सुने तो अपने मुहं पर स्वत ही हाथ ये जायेंगे...
जब लोकतंत्र से शर्म रूप सलवार गिर रही है तो ....
अपनी लेखनी से नाड़ा ही तू डाल रे!
सलिल जी.. इस पर कमेन्ट करने से पहली कोई बीस बार इस कविता को पढ़ चूका हूँ.. हर बार नए सन्दर्भ में.. नए परिदृश्य में ..
प्रवीण शाह जी से सहमत
दो दिन से बड़ी गहमा गहमी है ,समय पर हाज़िर ना हो सका इधर लोग टिपिया कर चल दिए ! फिलहाल डाक्टर अमर कुमार से सहमत ! विचारोत्तेजक पर एक काउंट हमारा जानियेगा !
bura haal hai.........
गज़ब का व्यंग है ... और चोथा खम्बा ... वो तो कब का गिर चुका है अपने देश में ....
sahi kahaa aapne kutton ke liye hi rah gay hai ab yah chautha khambha... nazm ne kai sare ghatnakron kee padtaal kar daali...wakai ab lekhni usi kaam me aa rahi hai ... :(..aur jo in ghatiya rajnitigyon ki sacchai se parda utha raha hai uspe media kee bhi jaban band hai ...
विडम्बना तो यह है कि ये करारे तमाचे जैसे व्यंग्य उन्हें लज्जित या विचलित करने की बजाय कोरी बकबक लगते हैं । जाने कबके अभ्यस्त हो चुके हैं । टी वी पर समाचार चैनल खोलने का मन ही नही होता । ये चैनल बस तमाशा दिखाने की तिकडमें लगाते रहते हैं । उसे दिखाना चाहिये या नही इससे उन्हें क्या । यह चौथा खम्भा लोकतन्त्र की रही सही इज्जत को तार तार करने पर उतारू है ।
Post a Comment