जीवन की आपधापी में, यदि ध्यान और उसकी चर्चा छूट गई, तो फिर एक प्रकार से हमारा इस भारत भूमि पर जन्म लेना व्यर्थ हो जायेगा।
ध्यान या मेडिटेशन के बारे में न जाने कितने “स्कूल आफ थॉट” हैं, सबकी अपनी अपनी यात्रा है. किंतु ओशो से जुड़े होने के कारण ध्यान के प्रति ओशो की दृष्टि से सहज आकर्षण है। इसी कारण “सम्वेदना के स्वर” पर अब माह में एक बार ध्यान या ध्यान विधि के बारे में चर्चा करने का मन बनाया है।
ओशो कहते हैं कि ध्यान अभियान है। सबसे बड़ा अभियान! जिस पर मनुष्य का मन निकल सकता है। ध्यान है बस होना - कुछ भी न करते हुये – कोई क्रिया नहीं, कोई विचार नहीं, कोई भाव नहीं। बस तुम हो और एक निर्मल आंनद है। कहाँ से आता है यह आंनद, जब तुम कुछ भी नहीं कर रहे हो। यह आता है, “कहीं नहीं” से या आता है “सब-कहीं” से। यह अकारण है, क्योंकि यह अस्तित्व बना है उस तत्व से जिसे कहते हैं आंनद।
जब तुम कुछ भी नहीं कर रहे हो – न शरीर से, न मन से –किसी भी स्तर पर नहीं- जब समस्त क्रियायें शून्य हैं और तुम बस हो, स्व मात्र – यह ध्यान है। तुम उसे “कर” नहीं सकते, तुम उसे समझ भर सकते हो।
जब कभी तुम्हें मौका मिले, बस होने का, तब सब क्रियाएँ गिरा देना। सोचना भी एक क्रिया है और मनन भी। यदि एक क्षण के लिये भी तुम अक्रिया में हो, बस “स्व” में हो – सम्पूर्ण विश्राम में- यह है ध्यान । और एक बार तुम्हें इसका गुर मिल जाये, फिर रह सकते हो। अंतत: चौबीस घंटे ही इसमें रहा जा सकता है।
एक बार तुम्हें अंतस के अकम्पित रहने का बोध हो जाये फिर तुम धीरे धीरे कर्म करते हुये भी यह होश रख सकते हो कि तुम्हारा अंतस निष्कंप बना रह सकता है। यह ध्यान का दूसरा आयाम है। पहले सीखो कि कैसे बस होना है: फिर छोटे छोटे कार्य करते हुये इसे साधो : फर्श साफ करते हुये, स्नान करते हुये स्व से जुड़े रहो। फिर तुम जटिल कामों के बीच भी इसे साध सकते हो।
एक ध्यान विधि (आकाश को निहारो) :
आकाश की ओर ध्यान लगाओ. जब भी तुम्हें समय मिले ज़मीन पर लेट जाओ; आकाश को निहारो. उसी को अपना ध्यान बना लो. अगर तुम प्रार्थना करना चाहते हो, तो आकाश से प्रार्थना करो. अगर ध्यान लगाना चाहते हो, तो आकाश पर ध्यान लगाओ. कभी खुली आँखों से और कभी आँखें बंद कर. क्योंकि आकाश तुम्हारे अंदर भी है; इतना विशाल है यह कि अंदर और बाहर एक समान है.
हम सिर्फ अंतस और बाह्य आकाश की चौखट पर खड़े हैं और दोनों समानुपाती हैं. जैसा अनंताकाश बाहर है, बिल्कुल वैसा ही अंदर भी है. हम तो बस चौखट पर खड़े हैं और दोनों ओर ही विलीन हो सकते हैं. और यही दो मार्ग है विलीन होने के.
यदि तुम बाह्य आकाश में विलीन हो जाते हो तो यह प्रार्थना है और यदि अंतस के आकाश में विलीन होते हो तो यह ध्यान है. किंतु लक्ष्य दोनों का एक ही है - विलीन हो जाना. और यह दो आकाश भी दो नहीं हैं. ये दो हैं केवल इस कारण कि तुम हो, तुम इनके मध्य की विभाजन रेखा हो. जब तुम समाहित हो जाते हो, तो यह विभाजन भी समाप्त हो जाता है, तब अंतस बाह्य हो जाता है और बाह्य अंतस!
(“द ओरेंज बुक” से एक ओशो ध्यान विधि)
29 comments:
ध्यानस्थ अवस्था का सुगम्य चित्रण। इस तरह आसमान निहारते रहना बहुत सुहाता है।
अच्छी पोस्ट ...ध्यान में हम स्वयं में होते हैं ..
कितने अभागे है है हम ... आसमान हमारे ऊपर है अपर गर्दनें इतनी झुकी हुई है सर उठा कर ऊपर देख नहीं सकते .....
sonal ne sach kaha..........pura din beet jata hai, ham bhul hi jate hain apne upar ke asma ko dekhna tak...niharna to dur ki baat hai..!
ध्यान तो हम भी लगाया करते थे कभी, पर अरसे से छूटा हुआ है. आपने सचेत कर दिया अब फिर शुरू करते हैं.
धन्यवाद.
dhyan ki gahrai
isme sari duniya samai
ध्यान की उतमोत्तम प्रक्रिया का सुन्दर चित्रण किया है…………आभार्।
भारतीय दर्शन में अन्तः आकाश को घटाकाश कहा गया है .........घड़े की दीवारें एक छद्म सीमा बना देती हैं बाहरी और भीतरी आकाश के मध्य .......ओशो का ध्यान इस घड़े को tranparent करने का है. .........एक अच्छी पोस्ट शुरू करने के लिए शिल्पीद्वय को साधुवाद.
ओशो की ये बातें लगता है चिड़ियाँ चहचहा रही हैं -एक प्रशंतिभरा कलरव है -मगर पल्ले कुछ नहीं पड़ता !
बहुत दिनों से ध्यान पर कोई अच्छा आलेख नहीं पढा था। आज यह खोज पूरी हुई। आभार।
" ध्यान है बस होना - कुछ भी न करते हुये – कोई क्रिया नहीं, कोई विचार नहीं, कोई भाव नहीं। बस तुम हो और एक निर्मल आंनद है।"
"और एक बार तुम्हें इसका गुर मिल जाये, फिर रह सकते हो। अंतत: चौबीस घंटे ही इसमें रहा जा सकता है।"
ध्यान गूढ़ भी है,सरल भी है.
मुश्किल भी है,आसान भी है.
ध्यान क्रिया है,पर करना नहीं है.
ध्यान जब होता है तो लगता है कुछ भी तो नहीं करना है.
ध्यानस्थ अवस्था सभी को प्राप्त होती है पर सभी इसे पहचान नहीं पाते.
ओशो के सुन्दर विचार पढवाने के लिए शुक्रिया.
सलाम.
paryas jari hai ek nacek din safalta jaroor mil jayegi
जनाब sage bob बिलकुल सही कहा की ध्यान गूढ़ भी है और सरल भी है. यह मुश्किल भी है और आसन भी. महर्षि पतंजलि द्वारा प्रतिपादित अष्टांग योग रहस्यों में यम, नियम, आसन और प्राणायाम शरीर की शुद्धि करते हैं और फिर प्रत्याहार, धारणा से मन शुद्ध करके साधक ध्यान और समाधी की ओर अग्रसर होता है. अशुद्ध तन और मन के साथ हम सहजता से ध्यान की अवस्था को प्राप्त नहीं कर सकते.
सप्ताह में एक पोस्ट। वाह!स्वागत है।
अत्यंत लाभदायक, दिखने में सरल लेकिन असल में बहुत दुरूह(कम से कम अपने लिये)।
एक बढ़िया संकल्प लिया है आपने चैतन्य ! भले ही लोग कम रूचि लें मगर ऐसे लेख धरोहर माने जायेंगे ! कृपया सामान्य भाषा में ध्यान विधि और फायदें भी बताने की कृपा करें ! शीर्षक से लेख समझ न पाने के कारण काफी देर में आ पाया ! :-(
शुभकामनायें !
आपने सही कहा .....
उम्दा प्रस्तुति
ध्यान की उतम प्रक्रिया का सुन्दर चित्रण किया है
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योगाभायास में शवासन के समय इस ध्यान का अच्छा अभ्यास होता है लेकिन बहुत सीमित के लिये...
इसे सार्थक पहल मान रहा हूं !
is bar ki aapki post kuchh alag hatkar tatha bahut hi achhi lagi.waqai yah ek achhi jaankari hai hame apne aap se jode rakhne ka.
vaise bhi dhyan man ko kendrit karne ka ek sabse achha -v-behatarmarg hai.
ekmarg darshandeti umda post .
bhai ji aapko iske liye bahut bahut badhai v dhanyvaad---
poonam
ओशो की कही कुछ बातें गौरतलब हैं । व्यस्त दिनचर्या में कुछ घड़ियाँ ध्यान कों समर्पित हों तो बेहतर होगा । आपका लेख पढ़कर खिड़की से दिखते एक टुकड़ा आसमान कों दो पल निहारने के बाद ये कमेन्ट लिख रही हूँ । अच्छा लगा ।
ओशो का ध्यानमार्ग बहुत सरल और सुन्दर है। धन्यवाद।
ओशो का ध्यानमार्ग बहुत सरल और सुन्दर है। धन्यवाद।
बहुत सुंदर पहल. अच्छा विषय हम लोगो के लिए.
Kayi dhyan vidhayen seekheen,lekin sab se adhik shastr shuddh mujhe "vipashyana" sadhana lagee.Sab insaan ek barabar...na koyi jap jaap...bas saty ke sahare is dhyan me aage badhana hota hai!
Khair,iska anubhav hee lena chahiye...warnan nahee kiya jaa sakta!
Aapka aalekh prerna de raha hai,ki,mai bhee dhyan vidhike bareme apna anubhav likhun.
3/4 dinose tabiyat kharab thee,isliye comment me der ho gayi...kshama prarthi hun!
दृष्टि से सृष्टि कहा जाता है, जब सृष्टि से दृष्टि बने वह ध्यान ही कहलाएगा.
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