सम्वेदना के स्वर

यह ब्लॉग उस सनातन उत्सवधर्मिता को जीवित रखने का प्रयास है,

जिसमें भाव रस और ताल का प्रतीक आम आदमी का भा-- बसता है.
सम्वेदनाएँ...जो कला, साहित्य, दर्शन, विज्ञान, राजनीति आदि के माध्यम से अभिव्यक्त होती हैं, आम आदमी के मन, जीवन और सरोकार से होकर गुज़रती हैं तथा तलाशती हैं उस भारत को, जो निरंतर लड़ रहा है अपने अस्तित्व की लड़ाई.....

Saturday, October 9, 2010

पी सी बाबू का गणितीय सूत्र यानि अर्थशास्त्र का समाजशास्त्र”

(गतांक से आगे)  
“अरे भाई ! ये क्या इंवेस्टिगेशन शुरु कर दिया तुम दोनों ने?”
“इंवेस्टिगेशन नहीं सर! जिज्ञासा!”
“जिज्ञासा! मेरे प्रति क्या जिज्ञासा है, तुम दोनों की?” सहज भाव से पी सी बाबू ने पूछा और हमारे पास ही बैठ गये।
“कुछ नहीं सर! मैम से आपकी चर्चा चल रही थी, तो जिज्ञासाएँ कम होने के बजाये बढती ही जाने लगीं.” मैंने अपनी बात अभी खत्म ही की थी कि चैतन्य जी शुरु हो गये और कहने लगे, “सर आप को नहीं लगता कि प्रशासनिक सेवा में रह कर आप जैसा व्यक्ति वयवस्था को अधिक प्रभावित कर सकता है, बजाए व्यवस्था से बाहर हो जाने के.”

मुस्कुराते हुए पी सी बाबू ने अपनी पत्नी को देखा और बोले, अच्छा ये बात है! फिर लगभग हंसते हुये बोले, “मुझे लोग तब भी पागल ही समझते थे, जब मैंने नौकरी छोड़ी. कहते थे तुम इस दुनिया के इंसान नहीं. व्यवस्था को बदलने चले हो. व्यवस्था एक अकेले आदमी से अधिक शक्तिशाली होती है.मुझे भी लगने लगा था कि व्यवस्था अपने आप में सबसे बड़ी अव्यवस्था बनती जा रही है, ऐसे में यह सम्भव नहीं कि व्यवस्था में रहकर व्यवस्था का मुक़ाबला किया जा सके। इसलिये व्यवस्था को मेरी छोडना मजबूरी हो गई. वैसे अफसोस भी नहीं उस बीती बात का। That’s a history now.”

मेरे मुहँ से बेसाख्ता निकला, “सर! यही बात तो आपको औरों से अलग करती है! आप जैसे विरले ही हैं सर इस देश में। काश! सारा देश आप ही तरह सोच सकता! ”

चैतन्य ने भी अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा, “कितने ही प्रतिभावान लोगों के पैरों में व्यवस्था की बेड़ियाँ हैं और सबने इसे ही आभूषण मान लिया है। कोई व्यवस्था के गुणगान में लगा है तो कोई कला और साहित्य की रुई अपने कानों में डाल कर इस अव्यवस्था के शोर को न सुनने का ढोंग कर रहा है.”

अचानक भाव शून्य हो गये पी सी बाबू के चेहरे को देखकर, चैतन्य ने कहा “सॉरी सर, कहीं कुछ ग़लत तो नहीं कह दिया हमनें!” यह कहा तो चैतन्य ने ही पर इसमें भाव मेरे भी ऐसे ही थे।

लेकिन जैसे कोई विशाल बरगद का पेड़, सैकड़ों सालों के अपने अनुभवों की गम्भीरता लिये, किसी नवजात कोंपल के फूटने की अकुलाहट महसूस कर रहा हो, पी सी बाबू ने तुरंत ही हमारी बात को आगे बढाते हुए कहा, “व्यवस्था के नकारात्मक पक्ष को देखते हुये, हमें यह भी समझना होगा यह सिर्फ समस्या का पता लगना भर है, समाधान के लिये फिर वैकल्पिक चिंतन और व्यवस्थाओं पर काम करना होगा.”

वो चैतन्य की ओर मुख़ातिब होकर बोले, “चलो तुम लोगों से गणित का मजेदार खेल खेला जाये. चैतन्य! तुम तो इंजीनियर हो. एक बात बताओ. भारत के किसी देहात में अगर एक माध्यमिक स्तर का स्कूल खोला जाये या बुनियादी सुविधा वाला एक अस्पताल, तो लगभग कितना कंस्ट्रक्शन करना होगा? और कितनी लागत आएगी?”

“सर! मेरे हिसाब से लगभग 20,000 वर्ग फीट में एक बढिया बिल्डिंग बन सकती है और ग्रामीण क्षेत्र के हिसाब से 400 रुपये प्रति वर्गफीट की लागत ली जा सकती है।

पी सी बाबू बोले “तो कितनी हो गई कुल लागत, 80 लाख रुपये. और अब इसपर बाकी के ज़रूरी खर्चे भी जोड़ो , मान लो 20 लाख रुपये. तो कुल ख़र्च, आया एक करोड़ रुपये. अब ध्यान से सुनो. इस गणित को ध्यान में रखकर, अब आगे से जब भी मैं एक करोड़ रुपये कहूँ तो इसका मतलब समझो एक माध्यमिक स्तर का स्कूल या बुनियादी सुविधा वाला एक अस्पताल. ठीक है, न!” उन्होने हमारी सहमति लेने के अन्दाज से पूछा, तो हम दोनों ने एक स्वर में कहा “बिल्कुल सर!”

पी सी बाबू ने आगे कहा, “वैसे भी आज का व्यापार जगत इस एक करोड़ की रकम को इकाई के तौर पर ही इस्तेमाल करता है. आये दिन खबरें आती हैं कि फलानी योजना के लिये इतने करोड़ रुपये दिये जा रहें और फलाने टैक़्स से इतने करोड़ रुपये सरकारी खजाने को मिलेंगें। जब अर्थशास्त्र के एक करोड़ रुपये को मेरे बताये समाज शास्त्र की नज़र से देखोगे यानि एक करोड़ रुपये मतलब “एक माध्यमिक स्तर का स्कूल या बुनियादी सुविधा वाला एक अस्पताल!” तो तुम लोगों को एक सुंदर सपना दिखाई देगा. हर गाँव को एक करोड़ रुपये, जिससे मिलेगा उसे एक स्कूल या एक स्वास्थ्य केंद्र. एक स्कूल या स्वास्थ्य केंद्र, गाँव के कम से कम दस लोगों को रोज़गार और 100 लोगों की प्राथमिक शिक्षा या स्वास्थ्य की गारण्टी दे सकेगा.”

हम दोनों के मुँह से एक साथ ही निकला, “सचमुच यह तो एक सुंदर सपना है! सिर्फ एक करोड़ रुपये में, एक स्कूल या स्वास्थ्य केंद्र और दस लोगों को रोज़गार तथा 100 लोगों की प्राथमिक शिक्षा या स्वास्थ्य की गारण्टी! पर क्या इतना आसान है यह सब?”

पी सी बाबू गम्भीर होकर कहने लगे, “नहीं! इतना आसान भी नहीं। एक और सवाल का जवाब दो. एक बाप के दो बेटे हैं और उसका सपना है कि दोनों बच्चों का जीवन सुधर जाए. बड़ा बेटा उच्च शिक्षा जारी रखना चाहता है और छोटे बेटे को प्राथमिक शिक्षा मिलनी है. साधन सीमित हैं बाप के पास कि वह सिर्फ एक ही सपना पूरा कर सकता है. अब आप बताइए कि वो कौन सा सपना पूरा करेगा... घबराओ नहीं. मैं यह नहीं कहूँगा कि इसका जवाब जानते हुए भी नहीं दिया तो आपका सिर टुकड़े टुकड़े हो जाएगा, यह कहकर विक्रम-बेताल के बेताल की तरह पी सी बाबू ने ठहाका लगाया और सवाल हमारी ओर उछाल दिया.

“मेरे विचार से छोटे बेटे को पढाना चाहिए ताकि घर में दोनों बच्चे पढ़े लिखे कहलाएँ.” चैतन्य ने कहा!

“अच्छा होता कि बड़े को उच्च शिक्षा मिले ताकि वो कमाने लगे और बाप का हाथ बँटा सके, उसकी ज़िम्मेदारियाँ उठा सके.” मै बोला.

पी सी बाबू कहने लगे “दरअसल भारत की पहली संसद में प्राथमिक और उच्च शिक्षा पर किये जाने वाले खर्च को लेकर, संसाधनों की कमी का ऐसा ही रोना रोया गया था। और कुछ इसी तरह के उदाहरण के साथ चर्चा की जा रही थी। तब कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी जी ने अपने एक भाषण में इस सवाल का जवाब दिया था कि ये दोनों बातें हो सकती है, यानि दोनों बेटों को उचित शिक्षा मिल सकती है, बशर्ते कि बाप अपनी अय्याशी छोड़ दे और शराबखोरी बन्द कर दे.

हम दोनों चुप थे.

वो बोलते रहे, “आप अगर सरकार को बाप मानें तो देखिएगा कि भारत की ग़्रामीण अर्थ-व्यवस्था बुरी तरह से चरमरा गयी है, छोटे किसान खेती छोड़कर शहरी मज़दूर बनने को अभिशप्त हैं. शहरी इंडिया को इससे एक फायदा भी है कि इससे उसके उद्योगों को सस्ते मज़दूर आसानी से मिल रहे हैं. आग मे घी का काम, व्यवस्था ने संगठित क्षेत्र के मध्यम वर्ग की तनख्वाह बढाकर बाजार में और पैसा डालने से कर दिया है और विकास की रफ्तार हो ह्ल्ला मचा दिया है। आंकड़ो की इस बाजीगरी से भारत में सभी हतप्रभ हैं।

मै कहे बिना नहीं रह सका “मतलब ये कि छोटे बेटे को अनपढ़ रखकर उसके हिस्से की पढाई बड़े भाई को दी जा रही है.”

जिस वैकल्पिक चिंतन और व्यवस्था की बात पी सी बाबू ने शुरु में की थी, उसका आशय अब स्पष्ट हो चला था. अपनी आगे की बातचीत में पी सी बाबू से मिले एक करोड़ के गणितीय सूत्र से देश के अर्थशास्त्र का जो समाजशास्त्रीय आकलन हमने मिल बैठ के किया वह कुछ इस तरह था :

1. कामनवैल्थ खेलों में खर्च 70,000 करोड़ : 70,000 स्कूल या अस्पताल और 7 लाख रोज़गार, और 70 लाख लोगों को शिक्षा या स्वास्थ्य!

2. 3जी स्पेक्ट्रम से कमाये 1,07,000 करोड़ रुपये : यानि 1,07,000 स्कूल या अस्पताल और 10 लाख रोज़गार, और 1 करोड़ लोगों को शिक्षा या स्वास्थ्य!

3. 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में गवायें 70,000 करोड़ रुपये : यानि 70,000 स्कूल या अस्पताल और 7 लाख रोज़गार, और 70 लाख लोगों को शिक्षा या स्वास्थ्य!

4. लुटियन की दिल्ली में खड़ा एक सरकारी बंगला 300 करोड़ : यानि 300 स्कूल या अस्पताल और 3 हज़ार रोज़गार, और 30 हजार लोगों को शिक्षा या स्वास्थ्य ! 
क्या अगली बार कामनवेल्थ समापन समारोह में 40 करोड़ रुपये के गुब्बारे से लटकी कठपुतलियों को देखकर हमें याद आएगा कि ये मात्र कठपुतलियाँ नहीं, अधर में लटके हुए 40 स्कूल या अस्पताल, 400 लोगों के जीवन भर का रोज़गार और 4000 लोगों को मिलने वाली शिक्षा या स्वास्थ्य है!
पी सी बाबू पर कुछ पिछली पोस्ट :

1. राहुल गांधी की दाढ़ी और पा(पायाति) प(पर्सुएशन इंडस्ट्री)
2. मॉल कल्चर का छलावा और पर्सुएशन इंडस्ट्री!!
3. भांडिया के भांड

27 comments:

ZEAL said...

बहुत सुन्दर आंकलन, काश सरकार भी ये समझती।

दीपक बाबा said...

वाह साहेब...... बहुत सटीक आंकलन प्रस्तुत किया..... साधुवाद.

सुज्ञ said...

चेतन्य जी,

हमेशा की तरह गहन चिंतन भरा आलेख।

संजय @ मो सम कौन... said...

कुछ दिन पहले एक जगह पर ’आई.पी.एल. की नीलामी राशि और भारत के चन्द्र यान मिशन का खर्च’ - इन दोनों के तुलनात्मक आँकड़े देखे थे।
बहुत शर्म आई थी।
ये एक करोड़ रुपया = एक स्कूल, ये तो आज देखा, लेकिन बहुत सटीक आकलन है।
वैसे पायाति साहब व्यवस्था का हिस्सा बने रहते, तो क्या होता? व्यवस्था पर और खुद उन पर, कभी इस डृष्टिकोण से भी अवगत करवाईये।

Apanatva said...

kaash.............
kaash.............
kaash.............

मनोज भारती said...

सुलझा हुआ स्पष्ट चिंतन ...अर्थतंत्र को बदले बिना समाज तंत्र नहीं बदला जा सकता । भव्यता की सार्थकता गरीबों के उत्थान से ही संभव हो सकती है । राष्ट्र सही अर्थों में सम्पन्न तभी होगा जब देश के किसी नागरिक को भीख माँग कर पेट भरने की जरूरत न होगी ।

दिगम्बर नासवा said...

ये सरकार की समझ नही आएगा क्योंकि ये इतना आसानी से जो समझने वाला अर्थशास्त्र है .... हावर्ड से पड़े लोगों के लिए क्या सीधांत हो .... इसकी खोज ज़रूरी है उनको समझाने के लिए ...

दिगम्बर नासवा said...

ये सरकार की समझ नही आएगा क्योंकि ये इतना आसानी से जो समझने वाला अर्थशास्त्र है .... हावर्ड से पड़े लोगों के लिए क्या सीधांत हो .... इसकी खोज ज़रूरी है उनको समझाने के लिए ...

स्वप्निल तिवारी said...

Hatprabh kar dene wala sach samne aaya hai..maine kabhi bhi itna nahi socha...science shayri aur cinema ke alawah aur kaheen nazar jati hi nahi hai...aap logon kee wajah se main bhi vyavstha ke chkravyuh ko samajh raha hun..main bhi unhi logon me hun jo kala sahitya kee rui kaan me thuse rahte hain... :-(

प्रवीण पाण्डेय said...

कोई सुन पा रहा है ये तथ्य, भाई।

सम्वेदना के स्वर said...

@मो सम कौन जी
आपके प्रश्न पायाति जी से पूछेंगे जरूर! हाँ इसी वार्तालाप में कुछ दृष्टिकोण तो मिलता ही है, जैसे
" मुझे भी लगने लगा था कि व्यवस्था अपने आप में सबसे बड़ी अव्यवस्था बनती जा रही है, ऐसे में यह सम्भव नहीं कि व्यवस्था में रहकर व्यवस्था का मुक़ाबला किया जा सके। इसलिये व्यवस्था को मेरी छोडना मजबूरी हो गई"
और
“व्यवस्था के नकारात्मक पक्ष को देखते हुये, हमें यह भी समझना होगा यह सिर्फ समस्या का पता लगना भर है, समाधान के लिये फिर वैकल्पिक चिंतन और व्यवस्थाओं पर काम करना होगा.”

प्रतुल वशिष्ठ said...
This comment has been removed by the author.
प्रतुल वशिष्ठ said...

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क्या ऐसा दृष्टिकोण नोबेल पुरस्कार विजेता डॉ. अमर्त्य सेन के दिमाग के किसी कोने में दुबका होगा?
क्या ऐसे नज़रिए से हमारे परमप्रिय निर्विवाद मनोनीत प्रधानमंत्री सरदार मनमोहन सिंह, जो एक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री भी रहे, ने सोचा होगा?
............... शुरू से आखिर तक मैं अपनी रुचि को घटने की प्रतीक्षा करता रहा लेख को पढ़ते समय कि लंबा लेख है, रुच घटेगी और मैं पलायन करूँगा. लेकिन इतना रोचक गद्य में व्यंग्य लेखन और वह भी पूरी संवेदना के साथ.

पढ़ कर लगा...... हाँ अवश्य अपने देश में जो अशिक्षा और बेरोजगारी की मूलभूत समस्याएँ हैं, समाप्त की जा सकती हैं. लेकिन क्यों नहीं होतीं.....वे सभी कारण समझ में आ गये.

मैं चैतन्य आलोक और सलिल जी के चरणों में नमन करता हूँ. वे इसी तरह जागृति लाते रहें. अब पिछले लेख भी समय मिलते पढूँगा. मैं कुटिल खल कामी संजय जी के माध्यम से आपसे परिचित होकर गौरवान्वित महसूस करता हूँ.
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देवेन्द्र पाण्डेय said...

पी सी बाबू के माध्यम से आपने सरकारी फिजूलखर्ची को बढ़िया रेखांकित किया है। यह तो वही बात हुई कि घर में खाने को ना हो और बाबू जी बच्चों को मॉल में पिक्चर दिखाने ले जांय और पड़ोसी से कहें कि देखो हम अमीर हो गए, तुम क्या हो !

..क्या अगली बार कामनवेल्थ समापन समारोह में 40 करोड़ रुपये के गुब्बारे से लटकी कठपुतलियों को देखकर हमें याद आएगा कि ये मात्र कठपुतलियाँ नहीं, अधर में लटके हुए 40 स्कूल या अस्पताल, 400 लोगों के जीवन भर का रोज़गार और 4000 लोगों को मिलने वाली शिक्षा या स्वास्थ्य है!
..कॉमनवेल्थ गेम्स या ओलंपिक के आयोजन का दावा करने से पहले सरकार को चाहिए कि वह कमसे कम इतनी व्यवस्था तो करे कि पूरे देश की जनता उसे अपने घर टी0वी0 में बैठकर देखने लायक हो जाय। रोटी और बिजली तो दो भाई..

देवेन्द्र पाण्डेय said...

पी सी बाबू के माध्यम से आपने सरकारी फिजूलखर्ची को बढ़िया रेखांकित किया है। यह तो वही बात हुई कि घर में खाने को ना हो और बाबू जी बच्चों को मॉल में पिक्चर दिखाने ले जांय और पड़ोसी से कहें कि देखो हम अमीर हो गए, तुम क्या हो !

..क्या अगली बार कामनवेल्थ समापन समारोह में 40 करोड़ रुपये के गुब्बारे से लटकी कठपुतलियों को देखकर हमें याद आएगा कि ये मात्र कठपुतलियाँ नहीं, अधर में लटके हुए 40 स्कूल या अस्पताल, 400 लोगों के जीवन भर का रोज़गार और 4000 लोगों को मिलने वाली शिक्षा या स्वास्थ्य है!
..कॉमनवेल्थ गेम्स या ओलंपिक के आयोजन का दावा करने से पहले सरकार को चाहिए कि वह कमसे कम इतनी व्यवस्था तो करे कि पूरे देश की जनता उसे अपने घर टी0वी0 में बैठकर देखने लायक हो जाय। रोटी और बिजली तो दो भाई..

रचना दीक्षित said...

अच्छा खाका खींचा है. बहुत सटीक

Urmi said...

बिल्कुल सही बात का ज़िक्र किया है आपने ! उम्दा प्रस्तुती! बधाई!

Rohit Singh said...

मैं हमेशा विकल्पों की बात करता हूं। किसी काम के तरीके पर विचार की बात करता हूं। मुझे हमेशा लगता रहा कि हम सोचें कि इसको बदलने के बाद कौन सा विकल्प या व्यव्स्था लाएंगे हम। हमारे नेता और समाज हमेशा यहीं पर गलती कर जाते हैं। समाज एक हजार साल तक गुलाम रहा सो वो तो जड़ हो गया था, जिसमें चेतना आ रही है, पर अभी एकरुपता नहीं है। हालांकि सभी एक ही बात कह रहे हैं बस अंदाज अलग-अलग है। मुश्किल ये है कि हम मतभेद को मनभेद का कारण बना लेते हैं और फिर अच्छे काम को भी छोड़ देते हैं। पीसी बाबू को सादर प्रणाम हमारी तरफ से भी कह दीजिएगा।

राजभाषा हिंदी said...

बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
या देवी सर्वभूतेषु बुद्धिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
नवरात्र के पावन अवसर पर आपको और आपके परिवार के सभी सदस्यों को हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई!

Akshitaa (Pakhi) said...

इत्ता सारा आकलन आप ने कर डाला...

____________________
'पाखी की दुनिया' के 100 पोस्ट पूरे ..ये मारा शतक !!

ZEAL said...

फिर क्या सोचा चैतन्य जी ?

उम्मतें said...

पारिवारिक कारणों से प्रवास पर था समय पर यहाँ पहुंच नहीं पाया ! पी सी बाबू का गणित सही है पर...इसे जानने वालों नें इसे पाठ्यक्रम से बाहर कर दिया है ताकि आगे कोई लफडा ना हो !

सम्वेदना के स्वर said...

@ ZEAL
दिव्या जी! आगे यही सोचा कि पायाति जी से मिलते रहेंगें और व्यव्स्था की अव्यवय्था को भी अपनी तरह से कोचते रहेंगें! इस उम्मीद पर कि
"बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जायेगी!!"

पूनम श्रीवास्तव said...

bahut hi yatharthpark prastuti.bahut hi vicharniy.
dhanyvaad--------------
poonam

ZEAL said...

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आपने बिलकुल ठीक सोचा है चैतन्य जी, दें न कीजिये....शुभकामनायें !

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ZEAL said...

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देर न कीजिये *

[correction]

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चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

पीसी बाबू से मिलने के बाद दुनिया देखने का नजरिया एकदम बदल गया है... हम त सोचकर भी कमेंट नहीं लिख पा रहे थे कि तनी देख लें कल वाला समापन समारोह... सच पूछिये त जब प्रोग्राम का रंगीनी आँख के सामने से गुजरा अऊर ऊ बड़ा वाला बैलून त मन कचोट कर रह गय... बस पीसी बाबू का गनित याद आ गया. अब त उनसे फिर मिलने का मन करता है.. ऐसे महापुरुष का चरण वंदना करते हैं!

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