सम्वेदना के स्वर

यह ब्लॉग उस सनातन उत्सवधर्मिता को जीवित रखने का प्रयास है,

जिसमें भाव रस और ताल का प्रतीक आम आदमी का भा-- बसता है.
सम्वेदनाएँ...जो कला, साहित्य, दर्शन, विज्ञान, राजनीति आदि के माध्यम से अभिव्यक्त होती हैं, आम आदमी के मन, जीवन और सरोकार से होकर गुज़रती हैं तथा तलाशती हैं उस भारत को, जो निरंतर लड़ रहा है अपने अस्तित्व की लड़ाई.....

Friday, March 4, 2011

छूकर मेरे मन को -2

“छूकर मेरे मन को” का प्रवेशांक सबों ने पसंद किया. हम सबका आभार व्यक्त करते हैं.मार्च का प्रथम अंक लेकर हम आपके सामने प्रस्तुत हैं. क्रिकेट का आई सी सी वर्ल्ड कप 2011 शुरू हो चुका है और कई दिग्गज टीमें अपने ख़राब फ़ॉर्म को बेहतर बनाने में जुटी हैं.वैसे फ़ॉर्म सुधारने और आत्ममुग्ध होने के लिये कनाडा, निदरलैंड्स, कीन्या और आयरलैंड जैसी टीम तो हैं ही. 50 ओवर के मैच को आठ दस ओवरों में समेटकर अपनी पीठ ठोंकने का सुनहरा मौक़ा है. “चलो खिलाड़ी वाहे वाहे” के जयकारे के बीच हज़ारों मेगावाट की दूधिया रौशनी में गाँवों की लालटेन को जीभ दिखाता ये टूर्नामेण्ट, अपने साथ एक और काला खेल लेकर आता है, सट्टे का खेल. लेकिन ख़बर इस बार और बुरी है. महानगर में ड्रग्स के बाद, इस रोग से ग्रसित हो रहे हैं, स्कूली और कॉलेज जाने वाले युवा. यह हमारी ख़बर नहीं है, एसोचैम की रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली के छात्र सट्टेबाजी पर सबसे ज्यादा पैसा लगा रहे हैं। वे सट्टेबाजी पर 5000 से 80000 रुपए खर्च कर रहे हैं। मुंबई के छात्र 10000 से 60000 और चंडीगढ़ के छात्र 10000 से 40000 रुपए लगा रहे हैं। इस मामले में चौथे नंबर पर अहमदाबाद, पाँचवें नंबर पर कोलकाता, छठे पर बेंगलुरु और आखिर में हैदराबाद के छात्रों का नंबर आता है। पूरी रिपोर्ट क्रिकेट वर्ल्ड कप का कोना (लेखक सीमांत सुबीर, हिंदी वेबदुनिया पर) पर देख सकते हैं आप. एक चेतावनी है ये, सुरक्षा से सावधानी भली.

क्रिकेट के साथ साथ अपने देश की राजधानी में वार्षिक बजट मैच भी खेला गया संसद के कुँए में.एक समय था जब लोग इस मैच का आँखों देखा हाल सुनने के लिये वैसे ही रेडियो से चिपककर बैठे होते थे जैसे बिनाका गीतमाला का वर्षिक कार्यक्रम सुनने के लिये. लेकिन अब तो इसका हुस्न भी मलिका सहरावत की तरह फिस्स्स्स हो गया है. अब तो ये मीठी गोलियों और रेवड़ी बाँटने का खेल रह गया है. वास्तव में ये मैच चुनाव नामक ग्रैंड फिनाले के सेमी फ़ाईनल जैसा होने लगा है. लिहाजा हमारा ध्यान यूपीए से हटकर टीडीए की तरफ गया, ताऊ रामपुरिया की ताऊ नीत गठबंधन (TDA)सरकार के बजट पर. ख़ास ब्लॉगर्स के, ब्लॉगर्स के लिये, ब्लॉगर्स के द्वारा बने इस बजट में तीखी मिर्ची और मसाले का संगम है, लेकिन इसको ताऊ ने नाम दिया है रेवड़ियाँ बाँटने का. हमारी बातों पर न जाईये और ख़ुद स्वाद चखिये ब्लॉगर्स को बाँटी जाने वाली इन बजट रेवड़ियों का और ख़ुद फ़ैसला कीजिये कि ये मीठी मीठी हैं कि तीखी मिर्ची हैं. और तुलना करके देखिये कि दोनों में से कौन सा खेल मज़ेदार रहा.

पिछले दिनों लंदन स्थित शिखा वार्ष्णेय ने एक परिचर्चा आयोजित की जिसमें हिंदी ब्लॉगिंग के भविष्य पर चर्चा की गई. हमने बचपन से अभियक्ति के जो माध्यम देखे हैं उनमें सिनेमा, समाचार पत्र और साहित्य मुख्य रहे हैं. यहाँ भी अच्छे और बहुत अच्छे के बीच, घटिया और बेहद घटिया एक्सप्रेशन देखने को मिले. ऐसे में एक नया माध्यम उभरा सोशल नेटवर्किंग और ब्लॉगिंग का. न तो यहाँ पर अच्छा और बहुत अच्छा दिखने की होड़ है और न ही बुरा और बहुत बुरा दिखने का डर है. बिना किसी बनावट के मन की बात रखने का माध्यम. युवाओं में बहुत ही लोकप्रिय, वह पीढ़ी जो क्रांति की मशाल जला सकती है और नशे की नींद भी सुला सकती है. फेसबुक पर भाषा कोई बंधन नहीं है, सिर्फ अभिव्यक्ति महत्वपूर्ण है. और अभिव्यक्ति जब भी जन जन की बोली में उभरी है या तो वंदे मातरम् का जयघोष बनकर उभरी है या फिर मिस्र की मौजूदा क्रांति बनकर. इस इंक़लाब में फेसबुक के रोल से एक व्यक्ति इतना प्रभावित हुआ कि उसने अपनी बच्ची का नाम ही फेसबुक रख दिया. बात हँसी की हो सकती है लेकिन उस व्यक्ति के जज़्बे को सलाम. पूरी रिपोर्ट लाईव हिंदुस्तान पर उपलब्ध है. ख़बर तो ये भी है कि जुलियन असांजे (विकिलीक्स) और फेसबुक के निर्माता मार्क जुकरबर्ग का नाम नोबल शांति पुरस्कार के लिये संस्तुत किया गया है.

एक और क्रांति की मशाल देखने को मिली जब “साधो ये मुर्दों का गाँव” दिल्ली में बाबा रामदेव के आह्वान पर कुछ ज़िंदा ज़मीर के लोग जैसे अण्णा हज़ारे, किरण बेदी, सुब्रमनियण स्वामी, देशबंधु गुप्ता आदि ने एक भ्रष्टाचार विरोधी विशाल जनसमूह को सम्बोधित किया. देश में रातों रात उगे भ्रष्टाचार के ज़हरीले कुकुरमुत्तों का सफाया करने का आह्वान. देश की मुख्य धारा के सारे चैनेल उस रविवार को छुट्टी मना रहे थे. बात भी सही है एक किटकैट ब्रेक तो बनता है भाई. बेचारे आर्क लाईट की रौशनी में 24X7 समर्पण भाव से काम करने वालों के हिस्से में भी इतवार होना चाहिये. बीबीसी की एक छोटी सी ख़बर इसपर आपके लिये. बीबीसी रेडियो की हिंदी सेवा बंद हो गयी है, लेकिन विश्वसनीयता अभी भी बनी हुई है.

इन सब के बीच एक ब्लॉग ऐसा भी है, जो चौथे खम्बे की अच्छी खबर लेता रहता है। मीडिया क्रुक्स की एक सनसनीखेज पोस्ट ने ऐसी खबर दी जिसमें टेलीविज़न मीडिया के पितामह कहे जाने वाले डा. प्रणव राय पर चल रही उस सीबीआई जांच का हवाला दिया गया जिसे शायद अब ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है। “बेख़ौफ़” मीडिया के इन मुद्दों पर मौनी बाबा बने रहने पर क्या अब आश्चर्य होता है, आपको? इन हैरतअंगेज खुलासों की कड़ी में बहुत सी विचित्र जानकारीयां मिली, जब विकी-पीडिया में राहुल गाँधी का बायोडाटा पढा।

सूचना क्रांति के युग में ये सभी व्हिसल ब्लोअर हैं. लेकिन बात को यू टर्न देते हुए आपका ध्यान घर के दरवाज़े पर लगी कॉल बेल की ओर दिलाना चाहेंगे। व्हिसल ब्लोअर्स की सीटी का असर आप पर हो न हो, कॉल बेल की आवाज़ पर आपके व्यवहार में जो त्वरित परिवर्तन आते हैं, वो एक मनोवैज्ञानिक विषय है और दरवाज़े पर लगी साँकलों की जगह कॉल बेल के आ जाने से हुआ परिवर्तन एक समाजिक विषय है. इन दोनों जटिल विषयों पर एक सम्वेदनशील कविता प्रस्तुत की है श्री अरुण चंद्र रॉय (ब्लॉग सरोकार) ने. इस एक मामूली से लगने वाले यंत्र ने हमारे यांत्रिक जीवन में कितना बदलाव लाया है, आप भी देखिये.

तो अब समाप्त करते हैं यह अंक छूकर मेरे मन को मार्च –I. बजट, भ्रष्टाचार, क्रिकेट आदि की चर्चा हुई, मगर वो बेख़बर है जिसके बारे में ये सारी चर्चा हुई. हमारी कोशिश उस बेख़बर को बाख़बर करना है. ऐसे में दुष्यंत कुमार का यह शेर बहुत याद आता हैः

न हो कमीज़, तो पैरों से पेट ढ़ँक लेंगे,
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिये!

28 comments:

Satish Saxena said...

कायल हूँ स्वच्छ और धारदार लेखनी का ! शुभकामनायें !

स्वप्निल तिवारी said...

swacchand vicharan kar rahe hain..aisa saaf dikh raha hai.... :)

Rahul Singh said...

बक-अप, जारी रखिए यह सफर.

vandana gupta said...

्चर्चा का ये अन्दाज़ तो काबिल-ए-तारीफ़ है।

vijai Rajbali Mathur said...

विवरण देने का आपका अंदाज पसंद आ रहा है.

Arshad Ali said...

मन को छू लेने वाली लेखनी ...उम्दा.

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति ....

anshumala said...

अच्छे लिंक दिए कुछ हट कर जहा अक्सर नजर नहीं जाती है |

मेरे भाव said...

सूचना क्रांति के युग में ये सभी व्हिसल ब्लोअर हैं. लेकिन बात को यू टर्न देते हुए आपका ध्यान घर के दरवाज़े पर लगी कॉल बेल की ओर दिलाना चाहेंगे। व्हिसल ब्लोअर्स की सीटी का असर आप पर हो न हो, कॉल बेल की आवाज़ पर आपके व्यवहार में जो त्वरित परिवर्तन आते हैं, वो एक मनोवैज्ञानिक विषय है और दरवाज़े पर लगी साँकलों की जगह कॉल बेल के आ जाने से हुआ परिवर्तन एक समाजिक विषय है. इन दोनों जटिल विषयों पर एक सम्वेदनशील कविता प्रस्तुत की है श्री अरुण चंद्र रॉय (ब्लॉग सरोकार) ने. इस एक मामूली से लगने वाले यंत्र ने हमारे यांत्रिक जीवन में कितना बदलाव लाया है, आप भी देखिये.


नयी शुरुआत के लिए शुभकामना. आपकी पारखी नजरें और धारदार लेखनी निश्चित ही मोती चुन लाई है.

Anonymous said...

ek zara si post mein mulk ke kitne kone tatol diye....bohot khoob :)

केवल राम said...

छु लिया मेरे मन को भी ..सार्थक प्रयास

Arvind Mishra said...

आपकी नजरों से सिंहावलोकन !

मनोज भारती said...

अच्छे ब्लॉगों का गुलदस्ता है आपकी यह चर्चा ... बहुत सुंदर ढ़ग से चर्चा की है,आपने पिछले पखवाड़े पढ़े बलॉग्स की। सचमुच मन को छू गई यह चर्चा ।

मनोज कुमार said...

जार्ज बर्नाड शॉ ने कहा था “आजादी मतलब जिम्मेदारी है तभी लोग उससे घबराते हैं।”
कहते हैं, लोग, कि यहां (ब्लॉगिंग) आज़ादी है।

...
आप नहीं घबराते।
जिस जिम्मेदारी की आपने वहन किया है, उसे पूरी तरह निभा रहे हैं।

देवेन्द्र पाण्डेय said...

सही शब्द...स्वच्छ और धारदार। बहुत बढ़िया लगा आपका यह अंदाज।

संजय @ मो सम कौन... said...

शानदार होमवर्क का नतीजा है यह श्रृंखला। बेहद संजीदगी से ब्लॉग जगत की सैर करवा रहे हैं आप।

देवेन्द्र पाण्डेय said...

इस पोस्ट में डा0 अनुराग शर्मा की मैजस्टिक मूछें की चर्चा नहीं है। यूँ लगा जैसे आप पढ़ नहीं पाये हैं।
http://pittpat.blogspot.com/2011/02/anurag-sharma-short-story-moustache.html

Ravi Shankar said...

बेहद उम्दा संकलन ! असरदार और धारदार पोस्ट।

सम्वेदना के स्वर said...

@देवेन्द्र पांडेय
शुक्रिया इस सुन्दर लिंक के लिये!

उम्मीद है और भी रोचक लिंक-सूत्र आप यहां छोड़ते रहेंगें।

प्रवीण पाण्डेय said...

ऐसे ही लोग हैं जो पीड़ा पीते रहते हैं, दुष्यन्त कुमार के समय में भी और आज भी।

मुकेश कुमार सिन्हा said...

aapke post ki sabse khas baat yahi hoti hai....aap har sabd ko taul kar likhte hain...aur har baat ko soch samajh kar...:)

hats off bade bhaiya!

अरुण चन्द्र रॉय said...

सलिल जी छु कर मेरे मन को श्रंखला को जारी रखियेगा.. पढ़े हुए ब्लॉग पर भी नया नजरिया मिलता है.. पिछले अंक की तरह इस अंक की चर्चा भी स्तरीय है... स्वयं को चर्चा के बीच पाकर अच्छा लगा... स्वयं की कविता पर आपके द्वारा दी गई पृष्ठ भूमि से कविता को नया अर्थ मिला है... नए पाठक भी मिले हैं...

उम्मतें said...

लिंक्स को हमने भी छूकर देख लिया :)

रचना दीक्षित said...

आपके लिखने का अंदाज़ काबिलेतारीफ है. सुंदर सामिग्री और शानदार लेखन. बहुत बधाई.

महेन्‍द्र वर्मा said...

खबरों की बहती नदी में हमने भी तैरने का मजा लिया।

ZEAL said...

गजब के लिंक्स दिए चैतन्य जी , आनंद आ गया ।

दिगम्बर नासवा said...

मज़ा आ गया आपकी लेखनी की धार देख कर ...
बहुतों की खबर ली है ...

GK in Hindi said...

बहुत ही अच्‍छा लगा

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