सम्वेदना के स्वर

यह ब्लॉग उस सनातन उत्सवधर्मिता को जीवित रखने का प्रयास है,

जिसमें भाव रस और ताल का प्रतीक आम आदमी का भा-- बसता है.
सम्वेदनाएँ...जो कला, साहित्य, दर्शन, विज्ञान, राजनीति आदि के माध्यम से अभिव्यक्त होती हैं, आम आदमी के मन, जीवन और सरोकार से होकर गुज़रती हैं तथा तलाशती हैं उस भारत को, जो निरंतर लड़ रहा है अपने अस्तित्व की लड़ाई.....

Wednesday, April 21, 2010

आवारा ग़ज़ल

ये इंसानों का जंगल है यहाँ सब छूट जाते हैं
बनाकर राह्बर का भेस, रह्ज़न लूट जाते हैं.

सफर कब खत्म होगा रूह का ये कौन बतलाए
ये बढ जाती है आगे जिस्म पीछे छूट जाते हैं.

किसी मासूम बच्चे की तरह ये शेर हैं नाज़ुक
ज़रा सा मुँह चिढाकर देख लो यह रूठ जाते हैं.

वो पढकर शायरी मेरी, दीवाने आम में अक्सर
सभी दादें और वाह वाह और मुकर्रर लूट जाते हैं.

दबाकर दिल की धड‌कन तुम, कदमपेशी यहाँ करना
यहाँ पर ख्वाब बिखरे हैं, जो अक्सर टूट जाते हैं.

हैं ये ‘सम्वेदना के स्वर’ कभी तीखे, कभी मद्धम
ना जाने सुनके इनको लोग क्योंकर रूठ जाते हैं.

(यह ग़ज़ल समर्पित है हरकीरत 'हीर' को जिनकी प्रेरणा ने इस आवारा ग़ज़ल को एक मुकाम दिया)

21 comments:

Udan Tashtari said...

अब आपकी शायरी पढ़कर दाद लूटी जायेगी. :)

बेहतरीन दाद मिलेगी इस उम्दा गज़ल पर. वाह!

संजय भास्‍कर said...

आपने बड़े ख़ूबसूरत ख़यालों से सजा कर एक निहायत उम्दा ग़ज़ल लिखी है।

Sanjay kumar
http://sanjaybhaskar.blogspot.com

मनोज भारती said...

बहुत उम्दा गज़ल कही है आपने । बधाइयाँ !!!

दिलीप said...

bahut hi umda rachna...aur daad wali baat to jabardast hai...
http://dilkikalam-dileep.blogspot.com/

कविता रावत said...

9893059958आज इंसानों में संवेदनहीनता बढ़ना बहुत चिंता का कारन है ...
Bahut sundar abhivyakti...
Haardik shubhkamnayne..

swami chaitanya alok said...

"आवारा गज़ल" के बादल,
मन आंगन मे,
आनन्द के छीटें डाल गये.

इतनी सुन्दर "सम्वेंदना के स्वर"
चिल-चिलाती गर्मी में,
फागुन की फुहार डाल गये.

ढेर सारा प्यार!!
स्वामी चैतन्य आलोक

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत खूबसूरत ग़ज़ल....एक एक शेर लाजवाब

दिगम्बर नासवा said...

वाह ... सुभान अल्ला ... ग़ज़ब के शेर हैं ... चाहे बनकर राहबर का भेस या ... मासूम बच्चे सा शेर .... या फिर ... आपकी संवेदना के स्वर की धड़कन .... कमाल के शेर हैं सब ... बहर में बँधे ... खूबसूरत मतले के साथ ...

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार said...

बधाई !
अच्छी ग़ज़ल कही है बह्रे-हज़ज में आपने ।
…हालांकि क़ाफ़ियों का अभाव नज़र आ रहा है ।

हासिले-ग़ज़ल शे'र है -
"सफ़र कब खत्म होगा …………जिस्म पीछे छूट जाते हैं "

हां ,
"वो पढ़ कर ………… लूट जाते हैं " कुछ गड़बड़ा रहा है ।

इसे यूं कहते तो कैसा रहता ?
हमेशा,हर कहीं अश्आर वो मेरे ही पढ़ पढ़ कर
मुकर्रर , वाहवाही , दाद सारी लूट जाते हैं

- राजेन्द्र स्वर्णकार
Email : swarnkarrajendra@gmail.com
Blog : शस्वरं http://shabdswarrang.blogspot.com

Shekhar Kumawat said...

wow bahut khub gazal he insano ka jangal he bahut khub

kshama said...

Alfaaz nahi hain,kya kahun?

पूनम श्रीवास्तव said...

bahut hi sashakt avam prabhav shali post.beintahan khoob surat gazal.
poonam

स्वप्निल तिवारी said...

safar kab khatm hoga rooh ka... :)


bahhuuuuuuuuuuuuuuuuuuttttttttttttt pyara sher hai ... :)

aur maqta ..."samvedna ke swar" ise badi khubsurati se piro diya hai apne...loved reading it....ek dum yummyyy ghazal ...... khub bhalo

देवेन्द्र पाण्डेय said...

दबाकर दिल की धड़कन तुम कदमपोशी यहाँ करना
यहाँ पर ख्वाब बिखरे हैं जो अक्सर टूट जाते हैं।
----वाह! क्या बात है इस शेर ने तो कमाल कर दिया।

Satish Saxena said...

आप इतना बेहतरीन लिखते हैं , शुभकामनायें

वीनस केसरी said...

sundar rachnaa

Dev said...

behtreen prastuti .....prtyek line mein bahut gharai hai

हरकीरत ' हीर' said...

कल भी आई थी आपके ब्लॉग पे ....काफी लम्बी टिप्पणी लिखी पर ऐन वक़्त पे बिजली गुल हो गयी ....

पहले तो आपकी ये पंक्ति मैं समझ नहीं पाई स्पष्ट करें ......

एक गुस्ताखी की है आपकी ग़ज़ल को आगे बढाने की......
( क्या आप ही इक्विंदर जी हैं ?).
ग़ज़ल पर फिर आती हूँ ....ग़ज़ल मुझे समर्पित कि गयी अहोभाग्य मेरा ......बहुत बहुत शुक्रिया ......!!

हरकीरत ' हीर' said...

ग़ज़ल की बात करने से पहले दो बातें .....

एक तो आपका नाम ब्लॉग पे ढूंढें नहीं मिला ...आपना नाम तो लिखें ...दुसरे अपनी तस्वीर से ये आम की शेप हटा दें ...अच्छी नहीं लगती ....!!

ये इंसानों का जंगल है यहाँ सब छूट जाते हैं
बनाकर राहबर का भेष रहज़न लूट जाते हैं

वाह क्या बात है ......!!

सफ़र कब खत्म होगा रूह का ये कौन बतलाये
ये बढ़ जाती है आगे जिस्म पीछे छूट जाते हैं

बहुत खूब .......!!

किसी मासूम बच्चे की तरह ये शे'र हैं नाजुक
जरा सा मुंह चिढ़ाकर देख लो यह रूठ जाते हैं

वाह ....कितनी मासूमियत है इस शे'र में .....!!
मक्ता भी लाजवाब ....!!

बहुत सुब्दर प्रस्तुति .....!!

सम्वेदना के स्वर said...

@ reply to harkeerat:

कल भी आई थी आपके ब्लॉग पे ....
>हम प्रतीक्षा कर रहे थे... न आना बुरा लगा था, क्योंकि ग़ज़ल आपको समर्पित थी, अतः आपकी प्रतिक्रिया सबसे ऊपर होनी थी. कोई बात नहीं, नीचे से टॉप.

काफी लम्बी टिप्पणी लिखी पर ऐन वक़्त पे बिजली गुल हो गयी ....
>अगर लम्बी प्रतिक्रिया देनी हो, तो पहले वर्ड फाइल में टाइप कर लें और उसे पेस्ट करें. एडिटिंग की सुविधा रहतीहै.

पहले तो आपकी ये पंक्ति मैं समझ नहीं पाई स्पष्ट करें ......
एक गुस्ताखी की है आपकी ग़ज़ल को आगे बढाने की......
( क्या आप ही इक्विंदर जी हैं ?)
>जैसी आदत है, मोनोटोनस प्रतिक्रिया ( नाइस, बढिया, अद्भुत, क्या कहने हैं, क़ाबिले तारीफ है ये रचना वगैरह ) न देकर सोचा था अपनी तरफ से दो चार शेर आपके क़ाफिये और बहर में लिखुँगा. लेकिन देखा कि पूरी ग़ज़ल बन गई, तो स्वार्थवश, अपने ब्लॉग पर पोस्ट कर आया. ये मेरे मानस की क्षमा याचना थी कि जिस प्रतिक्रिया पर आपका अधिकार था उसे मैं अपनी रचना बना गया, आपकी ग़ज़ल को आगे बढाकर. बस इतना ही. (जी नहीं, मैं इक्विंदर जी नहीं हूँ)

ग़ज़ल पर फिर आती हूँ ....ग़ज़ल मुझे समर्पित कि गयी अहोभाग्य मेरा ......बहुत बहुत शुक्रिया......!!
>आपसे प्रेरित यह ग़ज़ल, आपको ही समर्पित हो सकती थी.

ग़ज़ल की बात करने से पहले दो बातें .....
>अच्छी क्लास लेने की ठानी है आज आपने!!

एक तो आपका नाम ब्लॉग पे ढूंढें नहीं मिला ...
>हम दो हैं. नाम संकेत में लिखा है, जिन ढूँढा तिन पाइयाँ. (हमारा ब्लॉग अभिव्यक्ति उत्सव पढें)

अपना नाम तो लिखें ...
>नाम में क्या रखा है. हरकीरत बहन, ये शेक्सपिअर की बात नहीं, हमारी है. यहाँ महत्वपूर्ण यह है कि क्या लिखा जा रहा है, कौन लिख रहा है यह नहीं. और ग़ज़ल के मक़्ते में शायर का नाम तो होता है, हमारा भी है.

दुसरे अपनी तस्वीर से ये आम की शेप हटा दें … अच्छी नहीं लगती ....!!

>दरसल यही हमारी सांकेतिक-पह्चान है..हमारा नाम.. आम आदमी.. अब अगर इसमें से ‘आम’ या ‘आदमी’ (जो हम दोनों की मिली जुली आकृति है) किसी को भी हटाया तो हमारी सांकेतिक पह्चान नष्ट हो जाएगी.

वैसे, हमारे ब्लोग की पूरी कोशिश यही है कि इस “आम आदमी” की सूरत बदले.

वैसे पूछूँगा अपने दोस्त से. हम दोनों अलग अलग शहरों में रहते हैं , पर जुड़े हैं, संचार से और विचार से.

इसके आगे आपने प्रशंसा की है, जिसे हम स्वीकार करते हैं, क्योंकि ये हमारे लिए मानदण्ड स्थापित करती हैं, बेहतर लिखने की.
एक बार पुनः आपका बहुत बहुत धन्यवाद!!

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" said...

आपकी यह ग़ज़ल पढकर अच्छा लगा ... बहुत सुन्दर है ... खासकर यह शेर ...
किसी मासूम बच्चे की तरह ये शेर हैं नाजुक
जरा सा मुंह चिढ़ाकर देख लो यह रूठ जाते हैं
बहुत सुन्दर एकदम अलग किस्म का शेर है ...

अब मेरी बेटी चिन्मयी की तरफ से :
अंकल जी comment के लिए और आशीर्वाद के लिए thank you !

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