बस यूं ही!! बैठे-बैठे
बातचीत में हमने एक साथ सोचा कि “संवेदना के स्वर” बहुत दिनों से मौन पड़े
हैं. क्यों न इसे पुनः मुखर किया जाए.
बस यूं ही!! याद आया दो-ढाई
साल पहले यूं ही चैतन्य जी ने मेरे पास कुछ पंक्तियाँ लिख भेजीं,
व्यवस्था से नाराज़ होकर. मैंने उसमें अपनी चंद लाइनें जोड़ दीं.
बस यूं ही!! बैठे-बैठे एक
कविता बन गई.
बहुत दिनों तक हमने
साथ-साथ मिलकर कई आलेख लिखे, लेकिन मिलकर कविता लिखने का यह प्रयास...!! अब आप ही
बताएँगे!!
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सोने की लंका में बैठा मैं
स्वयम को विभीषण सा पाता था,
अपने देश को रावणों से घिरा देख,
कितना विवश
प्रतीक्षारत
कि कोई राम
अपनी वानर सेना लिये आयेगा
और तब
इंगित कर रावण की नाभि की ओर
खोल सकूँगा समस्त छिपे रहस्य!
युगों की प्रतीक्षा के बाद,
राम आए,
अपनी वानर सेना के साथ
किंतु राम ने आने में बड़ी देर कर दी,
घर का भेदी कहलाने का कलंक
पोंछ दिया मैंने मस्तक से
सोने की चमक भाने लगी मुझे
और धीरे-धीरे मैं बन गया
दिति पुत्र
रावण बन्धु
दैत्यराज
विभीषण!