मेकाइवली (1469-1527) ने वर्ष 1498 में एक सक्रिय राजनीतिज्ञ के तौर पर अपने करियर की शुरुआत की. वे फ्रांस, जर्मनी और इटली के कई राजनयिक मिशन का हिस्सा भी रहे. जनसेवा के लगभग एक दशक से भी अधिक कार्यकाल के बाद, उन्हें राष्ट्र के पतन के साथ पद से हटना पड़ा. नए शासन का विश्वास जीतने और अनुमोदन प्राप्त करने के उनके समस्त प्रयास विफल रहे और उन्हें रिटायरमेण्ट ले लेना पड़ा. ऐसी स्थिति में उन्होंने राजनीति से अलग रहकर बिना प्रत्यक्ष योगदान के राजनीति पर अध्ययन प्रारम्भ कर दिया. वे पुस्तकें, जिनके लिये उनका उल्लेख किया जाता रहा है, उनके मरणोपरांत प्रकाशित हुईं.
उनकी मूल पुस्तक Principe (द प्रिंस) 1513 में प्रकाशित हुई. यह पुस्तक एक सनसनीख़ेज मार्गदर्शिका है, जिसमें कुंद राजनीति पर नव शासक की नीतियों की विजय दर्शाई गई है. इसमें पुरातन नैतिक मूल्यों को किनारे रख व्यावहारिकता के सिद्धांतों पर बल दिया गया है. इस कारण से मेकाइवली के सिद्धांतों को कई लोग निर्मम, चालबाज़ और क्रूर मानते हैं.
इनकी अन्य पुस्तकों में Dell'arte della guerra (द आर्ट ऑफ वार 1520) सैन्य बल के प्रयोग पर प्रकाश डालती है तथा Discorsi sopra la prima Deca di Tito Livio (डिस्कोर्स ऑन लिवी 1531) में रोमन साम्राज्य का पुनरावलोकन तथा गणतांत्रिक व्यवस्था की प्रशन्सा की गई है. इन सभी पुस्तकों में भी व्यावहारिक सिद्दांतों को पुरातन नैतिक मतों के ऊपर बताया गया है.
मेकाइवली के अनुसार सामंती व्यव्स्था में रियासतों के राजा जब मरते हैं तब बिना किसी रोक के राजसिंहासन का उत्तराधिकारी राजा के ज्येष्ठ पुत्र या बन्धु-बांधव को मिल जाता है। यह परम्परा त्रासद है. उत्तराधिकारी के मूर्ख अथवा अयोग्य होने के बाबजूद भी जनता कोई विरोध नहीं करती। किंतु यदि नये युवराज कमजोर कामी या निकम्मे व्यक्ति हैं तो पड़ोस का शासक आक्रमण कर उस रियासत विशेष का कुछ भाग युद्द में जीतकर हड़प लेता है।
मेकाइवली कहते हैं कि राजा को पूरी तरह निरंकुश होना चाहिये। यही नहीं मेकाइवली का मानना था कि छोटे छोटे रजवाड़ों मे विभक्त इटली को दमन की नीति अपना कर सुदृढ़ सत्ता के रूप में परिवर्तित कर देना चाहिये। उनके अनुसार अपने राज्य की सीमा बढ़ाकर विजेता राजा को तीन युक्तियां अपनाना जरूरी है, वह हैं :
1. हारे हुयी शासक की जनता को पूरी तरह बर्बाद करके, उन्ही की जमीन पर जाकर वहीं रहकर नये नये फरमान जारी करके
2. उनकी सभ्यता उनके रीति रिवाजों और भाषा को हेय ठहराकर नये नियन विनिमय लादते हुये अपनी भाषा थोपकर
3. हारी हुयी कौम के कुछ चुनिन्दा लोगों को अपना सलाहकार बनाकर उनके माध्यम से शासन चलाना अधिक समझदारी का काम है।
वह कहते हैं कि कालांतर में हमारा यह लाभ होता है कि हारी हुई कौम विस्मरण का शिकार बन अपनी अस्मिता पर या तो शंका करना शुरु कर देती है या फिर अपने जातीय गौरव को तुच्छ और हेय मानने लगती है। नियमों की कठोरता के कारण हारे हुये लोग धीरे धीरे वह सब मानने लगते हैं जिन्हे उनके सत्ताधीश चाहता है।
मेकाईवली ने यह भी सिद्ध किया है कि जनता को स्वतंत्रता के वातावरण में रहने देना सबसे निकृष्ट विकल्प है, क्योंकि यह उनको शासक के विरुद्ध विद्रोह करने को प्रोत्साहित करता है. वे व्याख्या करते हुए कहते हैं, “वो, जिसे स्वतंत्रता की अभ्यस्त प्रजा का शासक बना दिया जाता है और वह उनका हनन नहीं करता है, उसे अपने विनाश के लिए तैयार रहना चाहिए.”
भारत के सन्दर्भ में जब हम विदेशी शासन और अपनी गुलामी के इतिहास को आंकते हैं तो मैकयावली की कुटिल राजनीति स्पष्ट नज़र आती है। ऐसे में लार्ड मैकॉले का एक भाषण हमेशा से चर्चा में रहा है जो अंग्रेजों की भारत में शासन की कुनीति के इस पक्ष को दर्शाता है। यह भाषण मैकाले ने 22 फरवरी 1835 की दोपहर में दिया । यह भाषण ब्रिटिश संसद की फाइलों में मिनिट्स नाम से आज भी दर्ज है। मैकाले के भाषण का सार इस प्रकार है :
मैने भारत का भ्रमण उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक पूरी तरह सचेत रहकर किया है। इस दौरान न मुझे कहीं कोई भिखारी मिला, न चोर। वहां के लोग प्रसन्नचित ही दिखे। वे अपनी अस्मिता, अपनी परम्परा पर खूब गर्व करते हैं । वे इतने प्रतिभा सम्पन्न हैं और अपने देश के अतीत पर इतना गर्व करने वाले हैं कि हम उन पर कभी शासन नहीं कर पायेंगे, जब तक हम उनकी सांस्कृतिक रीढ़ न तोड़ दें और इस रीढ़ को तोड़ने का एक ही तरीका है कि हम उनसे उनकी भाषा छीन लें तब वे मानसिक रूप से पंगु हो जायेंगे और आयातित भाषा व विचारों को सहज स्वीकार करते हुये अपनी जातीय स्मृति, अपनी संस्कृति, यहां तक की अपनी सनातन दृष्टि से भी नफरत करने लग जायेंगें।
और अंत में मेकाइवली का एक कथन जो आज के प्रत्येक राजनेता का मूलमंत्र होना चाहिये. उन्होंने अपने लेखों में सामान्य सत्ताधारीयों को सलाह दी है कि अपनी अत्यंत निजी जिन्दगी में वे कुछ भी करें, सार्वजनिक जीवन में ऐसा कुछ भी न करें जिनके कारण प्रजा उनसे नफरत करने लगे। शासक को कुख्याति से कुछ इस तरह बचना चाहिये जैसे आदमी महामारी से बचता है.