समय कभी नहीं बीतता। बीतना प्रकृति में है ही नहीं। मात्र रूपांतरण है, लेकिन मनुष्य़ बीतता है। यही नहीं, उसे अपने बीतने की चेतना भी है। बहुत पुराने जमाने में इंसान को, न समय का बोध था, न बीतने की चेतना। लाखों साल पहले वह प्रकृति के अखंड जीवन-प्रवाह का एक अंग था। पीढ़ी-दर-पीढ़ी वह अपने प्रतिरूपों मे जीवित रहता था। व्यक्ति–चेतना थी ही नहीं, तो भला व्यक्ति बीतता कैसे ! कबीले थे, समुदाय थे, जातियां थीं - एक अनंत जीवन में अस्तित्वमान !
सभ्यता के निर्माण की प्रक्रिया में मानव ने समय का अविष्कार किया। इस समय के सापेक्ष उसने अपने जीवन को मापना शुरु किया। समय के इस अविष्कार ने बड़ी भूमिका निभाई। चीजें तेज गति से होने लगीं। जीवन बदला, विकसित हुआ। परंतु कुछ खो भी गया। अब इंसानी जीवन अखंड, अनंत प्रकृति के महाप्रवाह का अंग न रहकर उससे विलग हो गया। समूह की चेतना की जगह, व्यक्ति की चेतना उपजी। अब इंसान बीतने लगा। उसका जीवन उसी के साथ खत्म होने लगा। इस बात ने मनुष्य को विकास की उपलब्धियां दीं, परंतु उसे सीमित और स्वार्थी भी बनाया।
जीवन से ऊबे और परास्त विचारक, इसीलिये सभ्यता का निषेध करते हैं। वे मनुष्य को फिर से उसके अखंड-अस्तित्व में लौटा लाना चाहते हैं। जहां अपनी खोई अखंड़ता को हासिल करने की मानव की प्यास सच्ची है। वहीं इस प्यास के बरक्स हज़ारों सालों में बना सभ्यता का जटिल और विकसित होता गया रूप भी सच है। इस सच को निषेध कर, प्रकृति की ओर कुछ लोग लौट सकते हैं, संपूर्ण मानव जाति नहीं। इसकी आवश्यकता भी नहीं है। आवश्यकता इस बात की है कि सभ्यता इस दिशा में बढ़ सके कि व्यक्तिवाद में बीतता हुआ मनुष्य, समूह चेतना में फिर से अनंत हो जाये। अपने अखंड़ और अव्यतीत होने का बोध उसे पुनः प्राप्त हो। यह सब न तो उपदेशों से हो सकता है, न धार्मिक शरणस्थलियों को जाती पगडंडियों से। रास्ता एकमात्र है – सामाजिक ढांचे का पुननिर्माण। एक ऐसे समय की पुनर्रचना जिसमे बस्तर, दिल्ली और वाशिंगटन के समय में शताब्दियों का फर्क न हो । एक ऐसे समय की रचना जो संपूर्ण मानवीय ज्ञान और मूल्यों की महान विरासत से रचा हुआ हो। फिर न समय बीतेगा, न मनुष्य । पृथ्वी की निर्माण–कथा इसकी साक्षी है। जीवन अपने अंतिम रूप में एक ऊर्जा है और विज्ञान ने जाना है कि ऊर्जा का न तो क्षय होता है, न ही निर्माण; उसका सिर्फ रूपांतरण होता है। बहुत पुराने युगों के ज्ञानियों ने भी ब्रह्मा का चिंतन करते हुये इस सत्य को जाना और कहा था।
इसलिये 2011 बीता नहीं है, वह हममें जियेगा नया रूप धरकर – इस नये रूप को हम नया नाम देंगे और हम भी बीतने के बोध से मुक्त हो, समय की तरह अनंत और अविनाशी होंगे।
-आलोक श्रीवास्तव (सम्पादक अहा! जिन्दगी)