सम्वेदना के स्वर

यह ब्लॉग उस सनातन उत्सवधर्मिता को जीवित रखने का प्रयास है,

जिसमें भाव रस और ताल का प्रतीक आम आदमी का भा-- बसता है.
सम्वेदनाएँ...जो कला, साहित्य, दर्शन, विज्ञान, राजनीति आदि के माध्यम से अभिव्यक्त होती हैं, आम आदमी के मन, जीवन और सरोकार से होकर गुज़रती हैं तथा तलाशती हैं उस भारत को, जो निरंतर लड़ रहा है अपने अस्तित्व की लड़ाई.....

Sunday, December 11, 2011

हैप्पी बर्थ डे ओशो !

बहुत पुराने समय में, एक बड़े राज्य में एक अद्भुत कुशल कारीगर लोहार था. उसकी कुशलता की ख्याति दूर-दूर के राज्यों तक थी. उसका बनाया हुआ सामान, उसकी लोहे की चीज़ें, दूर-दूर तक ख्याति को उपलब्ध हुई थीं. दूर-दूर के यात्री उसकी चीज़ों को ले जाते थे. सच में इतना कुशल वह था; उसके बनाए हुए सामान ऐसे थे.

फिर उस राज्य पर, उस राजधानी पर, जिसका वह लोहार निवासी था, आक्रमण हुआ, तो राजधानी पराजित हुई. और उस राजधानी में जो भी विशिष्ट लोग थे, आतताइयों ने उनको पकड़ लिया. उनकी ह्त्या की कोशिश की. उस लोहार को भी पकड़ लिया गया. वह बहुत धनी था, बहुत यश-लब्ध था. बहुत उसकी ख्याति थी.

उसे पकडकर उन्होंने लोहे की जंजीरों में बांधकर, एक गड्ढे में पटक दिया.जब वे उसे गड्ढे में पटक रहे थे, तब भी लोहार शान्त था. किसी ने उससे पूछा भी कि तुम इतने शांत क्यों हो, तो वह मुस्कुराया. उसने कुछ कहा नहीं. उसे विश्वास था कि वह कारीगर है लोहे का इतना बड़ा कि कैसी ही ज़ंजीर हो, उन्हें वह खोल लेगा. उसकी मौत आसान नहीं है. जंजीरें उसके हाथों में डाली गईं. वह गड्ढे में पटक दिया गया. दुश्मन सोचकर कि वह अपने आप वहाँ मर जाएगा, चले गए.

जैसे ही वे गए, उसने कड़ियाँ अपनी ज़ंजीर की पकड़ीं और सोचा खोज लूं कि सबसे कमज़ोर कड़ी कौन सी है ताकि मैं उखाड सकूं. उसने सारी कड़ियाँ खोजीं. एक कड़ी पर आकर वह एकदम से घबरा गया और उसकी सारी मुस्कुराहट विलीन हो गईं. उसकी आँखों में एकदम आंसू आ गए. वह चिल्लाया कि हे परमात्मा, अब क्या होगा!

उसने उस कड़ी में क्या देखा? उसने उस कड़ी में अपने दस्तखत देखे. उसकी आदत थी कि वह जो भी चीज़ें बनाता था, कोने में कहीं दस्तखत कर देता था. और अब वह जानता था कि यह कड़ी मेरी बनाई हुई है. इसमें तो कोई कमजोर कड़ी है ही नहीं. इसमें कोइ कमजोर कड़ी नहीं है. ये दस्तखत मेरे हैं. और मैं, अपने हाथ से चक्कर में पड़ गया हूँ. और तब वो चिल्लाया कि हे परमात्मा अब क्या होगा.

लेकिन उसे भीतर से ये आवाज़ मालूम पडी कि घबराने की क्या बात है. अगर यह कड़ी तेरी बनाई हुई है, और अगर टू इतनी मज़बूत कड़ियाँ बनाने में कुशल रहा है, तो क्या उतनी ही मज़बूत कड़ियों के तोडने में कुशल नहीं होगा? उसे उसी वक्त ख्याल उठा भीतर कि अगर इतनी मज़बूत कड़ियाँ बनाने में कुशल रहा हूँ, तो क्या इतनी ही मज़बूत कड़ियाँ तोडने में कुशल नहीं हो सकूँगा! जो जितनी दूर तक बनाने में कुशल है, वह उतनी दूर तक मिटाने में भी कुशल होता है. उसका विश्वास लौट आया और वह कड़ियाँ तोडने में समर्थ हो सका.

मैं आपको कहूँ, यह कहानी हम सबकी कहानी है. और हम सब गड्ढों में पड़े हैं. और हम सबके हाथ पैर में कड़ियाँ हैं. और यह हमारी बनाई हुई हैं. और अगर गौर से देखेंगे तो किसी न किसी कड़ी पर आपको अपने दस्तखत मिल जायेंगे. आपको दिखाई पड़ जाएगा यह मेरी बनाई हुई है. और तब आपको लगेगा मेरी बनाई हुई कड़ियाँ हैं और मैं उनमें बंधा हूँ. इस दुनिया में कोई किसी का कैदी नहीं है. स्मरण रखें, इस दुनिया में कोइ किसी दूसरे का कैदी नहीं है – हर आदमी अपना कैदी है. और हर आदमी के हाथ में अपनी ज़ंजीर है. किसी दूसरे की नहीं. इसलिए कभी दूसरे को दोष मत देना अपने दुःख का. कभी किसी दूसरे पर सोचना मत कि कारण है मेरे दुःख का. अगर दूसरा कारण है तुम्हारे दुःख का तो तुम्हारे लिए कोइ आशा नहीं है. तुम फिर कभी आनंद को उपलब्ध नहीं हो सकते. क्योंकि दूसरे हमेशा मौजूद रहेंगे. और अगर दूसरे कारण बन सकते हैं तो तुम क्या करोगे? एक ही आशा है कि कारण मैं हूँ, तो कारण को तोड़ दिया जाए!

(ओशो प्रवचन “शून्य का दर्शन” से)

Osho
Never Born
Never Died.
Only Viisted this
Planet Earth between
Dec 11 1931 - Jan 1990

14 comments:

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

ओशो को विनम्र श्रद्धांजलि

देवेन्द्र पाण्डेय said...

ओशो के जन्म दिन के दिन उनका इतना सुंदर संदेश पढ़ाने के लिए आभार। पहली बार पढ़ा और आनंद में डूब गया।

एक बार मैने एक कविता लिखी थी। कुछ ऐसे ही विचार उभरे थे उसमें भी। वह कविता याद आ गई..
http://devendra-bechainaatma.blogspot.com/2011/09/blog-post_8684.html

सुज्ञ said...

राग मोह बन्धन को उद्घाटित करती असाधारण बोध-कथा।
हैप्पी बर्थ डे ओशो

प्रवीण पाण्डेय said...

बहुत ही प्रेरक कथा सुनायी है आपने ओशो के जन्मदिन पर। एपने बन्धन तो स्वयं ही तोड़ने होंगे।

रचना दीक्षित said...

बहुत तार्किक सन्देश देता विचार और वह भी ओशो के प्राकट्य दिवस पर.

क्या बात है आप आजकल इस ब्लॉग पर सक्रियता कम किये हुए हैं.

शुभकामनायें.

kshama said...

Gazab kee seekh hai is kahani me!

मनोज भारती said...

.
कुछ बंधन प्रिय
कुछ बंधन अप्रिय
प्रिय-अप्रिय का द्वैत यह
है जब तक
स्वयं से पहचान कहां
और जब जाना
इस द्वैत को
फिर दुख कहां
फिर सुख कहां
है बस एक सुवास
आनंद की
ध्यान की
साक्षी की
कोरे कागज की
सब लिखित-अलिखित लेख की
ढ़ाई आखर प्रेम की
तीन अक्षर चेतना की
इस सुवास को
फैला देना ही
मेरा मकसद है
.
ओशो जन्मोत्सव पर अस्तित्व के विराट फूल को नमन!!!

गिरिजा कुलश्रेष्ठ said...

इस सुन्दर सन्देश की प्रस्तुति के लिये धन्यवाद । ओशो को पढना जैसे नई खिडकी का खुलना है । हर बार यही लगता है ।

उम्मतें said...

हमारी ओर से संवेदना के स्वर बंधुओं को शुभकामनायें :)

Arvind Mishra said...

कितनी सदियाँ गुजर गयीं मैं यही कहता रहा हूँ -ओशो तो बस ओशो ही हैं

शशि प्रिय said...

प्रेरक...कहानी भी उनका व्यक्तित्व भी...

शशि प्रिय said...

प्रेरक...कहानी भी उनका व्यक्तित्व भी...

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया said...

प्रेरक कहानी,ओसो को विनम्र श्रध्दान्जली,
"काव्यान्जलि"

Naveen Mani Tripathi said...

ओशो एक ऐसा नाम .....जो इस सदी का सबसे बड़ा तर्क शाश्त्री ....आने वाली कई सदियों तक ओशो की प्रासंगिकता कभी कम नहीं होगी | ऐसे महान दार्शनिक के विचारो को हम तक पहुँचने के लिए आपका बहुत बहुत आभार . हमें विश्वास है आपकी आने वाली प्रविष्टियों में मुझे पुन: ओशो की विचारधारा से अवगत होने का अवसर प्राप्त होगा .| एक बार पुन : आभार |

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