सम्वेदना के स्वर

यह ब्लॉग उस सनातन उत्सवधर्मिता को जीवित रखने का प्रयास है,

जिसमें भाव रस और ताल का प्रतीक आम आदमी का भा-- बसता है.
सम्वेदनाएँ...जो कला, साहित्य, दर्शन, विज्ञान, राजनीति आदि के माध्यम से अभिव्यक्त होती हैं, आम आदमी के मन, जीवन और सरोकार से होकर गुज़रती हैं तथा तलाशती हैं उस भारत को, जो निरंतर लड़ रहा है अपने अस्तित्व की लड़ाई.....

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Friday, October 15, 2010

खेल खत्म, पैसा हज़म ?

कल की शाम तो कामनवैल्थ खेलों का समापन देखते बीती. 60,000 दर्शकों से भरे नेहरु स्टेडियम की भव्यता में, 40 करोड़ का गुब्बारा पायाति जी से हुये पिछले वार्तालाप के बाद कुछ देर तो चुभा, पर जब बॉलीवुडी मनोरंजन शुरु हो गया तो हमारे टेलीविज़न की आवाज़ भी थोड़ी तेज़ हो गयी! कार्यक्रम के अंत मे घर में सभी की प्रतिक्रिया यही थी कि यह 26 जनवरी के रंगारंग कार्यक्रम सरीखा बेहतरीन नाइट शो था.

जहां तक ग्यारह दिनों के इन खेलों का प्रश्न है, भारतीय खिलाड़ियों ने विशेष रूप से निशानेबाजी, पहलवानी और मुक्केबाजी में कीर्तिमान स्थापित किये. सबसे सुखद रहा दशकों बाद एथेलेटिक्स में पदक हासिल करना। निश्चित तौर पर हर पदक नें खिलाड़ियों के मनोबल को उपर उठाया है और देश में क्रिकेट से इतर खेलों के महत्व को बढाया है। हालाँकि व्यवस्था द्वारा इस सफल आयोजन का श्रेय लेने की होड़ शुरु हो चुकी है, परन्तु इस पर मशहूर पत्रकार एम जे अकबर की बात से सहमत हुए बिना नहीं रहा जा सकता कि “चीन में हर पदक विजेता के पीछे पूरी सरकारी मशनरी का योगदान होता है. दूसरी ओर भारत के हर पदक के पीछे व्येक्तिगत सोच और प्रतिभा है. सच कहा जाए, तो भारत में मशीनरी कभी काम नहीं करती है.”

इसी तरह कुल मिले 101 पदकों में भी सम्पूर्ण भारत में हो रही किसी खेल क्रांति की झलक नहीं मिलती है। भारत को मिले 38 स्वर्ण पदकों में अकेले हरियाणा के ही 15 स्वर्ण पदक हैं। कल्पना करें कि यदि हरियाणा एक देश होता तो इन पदकों के आधार पर इन खेलों में उसका पाचवां स्थान होता! हरियाणा के पहलवानों और मुक्केबाजों नें अपनी अंतरराष्ट्रीय पहचान बनायी है, जिसके लिये वो बधाई के पात्र हैं। स्मरण रहे कि यह करिश्मा और कारनामा उस हरियाणा ने किया है जिसकी जनसंख्या देश की कुल जनसंख्या का मात्र 2% है।

मानव विकास पैमाने पर स्वर्ण पदक तालिका का विश्लेष्ण करें तो निम्न तस्वीर उभर कर आती है :
खेलों में बहुत से विश्व विजेताओं का न आना शिद्दत से महसूस किया गया. इस परिप्रेक्ष्य में खिलाड़ियों की असली परीक्षा अगले माह चीन में होने वालें एशियाई खेलों में मिलने वाले पदकों से होगी और फिर 2012 का लन्दन ओलिम्पिक तो खेलों का असली मक्का होगा ही!

बहरहाल इस सबके बीच खर्चे पानी वाली बात तो रह ही गयी 70,000 करोड़ रुपये का हिसाब किताब?

एन. डी. टी. वी की एक खबर के अनुसार “कॉमनवेल्थ खेल खत्म हो गए हैं और अब बारी है खेलों की आड़ में हुए महाघोटाले की जांच की। नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक यानी कैग कॉमनवेल्थ खेलों पर हुए खर्च की जांच शुक्रवार से शुरू कर देगा... हालांकि कैग ने कॉमनवेल्थ खेलों के खातों की जांच का काम अगस्त में शुरू किया था, लेकिन इसे सितंबर के आखिर में रोक दिया था और कहा था कि खेल खत्म होने पर इस पर दोबारा काम शुरू होगा... दिल्ली कॉमनवेल्थ खेलों से जुड़ा मुख्य विवाद ठेकों को लेकर है, जिसमें भाई−भतीजावाद और किराये पर लिए गए उपकरणों के लिए काफी ज्यादा पैसे देने के आरोप लगे हैं।“

प्रबन्धन कौशल में माहिर सत्ताधीशों द्वारा इस जांच प्रक्रिया का समापन किस कुशलता से किया जाता है वह देखने का विषय़ होगा! जानकार लोगों का अनुमान है कि इस जाँच-पड़ताल के खेल में हमारा स्वर्ण पदक कहीं नहीं गया। बहरहाल मदारी के खेल की तरह क्या यही समझा जाये कि “खेल खतम पैसा हज़म??”

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