पिछले दिनों पुण्य प्रसून जी के ब्लोग में, मीडिया के गिरते स्तर पर पाकिस्तानी कवि “हबीब जालिब” की कविता पढी, “अब क़लम से इज़ारबंद ही डाल”...मूल कविता उर्दू में थी और उसका हिन्दी अनुवाद शायद! प्रसून जी ने किया था.मुझें कविता जितनी जानदार और बेबाक लगी उसका हिन्दी अनुवाद उतना वज़नदार नहीं लगा. इस कारण सलिल भाई से फरमाइश कर दी उसका हिन्दी अनुवाद करने की! सलिल जी ने हबीब जालिब की कविता को जो हिदुस्तानी कपड़े पहनाये हैं, मुलाहिज़ा फरमायें!!
अब तो अपनी लेखनी से नाड़ा ही तू डाल रे!
देश की भलाई का विचार आज टाल दो
राष्ट्र के निर्माण को दिमाग़ से निकाल दो
ध्वज नहीं, सवाल है, जवाब तो उछाल दो.
गर्त्त में है आत्मा, ये क्या हुआ है हाल रे
अब तो अपनी लेखनी से नाड़ा ही तू डाल रे!
भूमि निर्धनों की सारी छीन लो, समेट लो
कोई पैसे वाला हो तो चरणों में ही लेट लो
गुण को छोड़ कर, ज़रा सा ऐब की भी भेंट लो
सीरतों को छोड़, सूरतों से बनता माल रे
अब तो अपनी लेखनी से नाड़ा ही तू डाल रे!
इक नई सुबह की बात, व्यर्थ एक बात है
वेदना की रात के परे भी काली रात है.
सब समान हैं यहाँ, ये कैसा इक मज़ाक है
झूठे स्वप्न तू दिखा, सच्चाई आज टाल रे
अब तो अपनी लेखनी से नाड़ा ही तू डाल रे!
बाद नाम के तू अपने साब भी लगाए जा
लूट की कमाई खा, भिखारी तू बनाए जा
ज़िंदा लाश से गुज़र के कुर्सियाँ कमाए जा
भाषणों में बस प्रभु की देता जा मिसाल रे
अब तो अपनी लेखनी से नाड़ा ही तू डाल रे!
राष्ट्रवाद के मुखौटों के तले तू सुबहो शाम
ईश्वर के नाम पर करता ही रह तू राम राम
भ्रष्ट शासकों की फूटनीति का तू लेके नाम
साम्प्रदायिक, धार्मिक जुलूस ही निकाल रे!
अब तो अपनी लेखनी से नाड़ा ही तू डाल रे!
है निकलने को हमारे देश की प्रजा का दम
बुझ गई है आशा आज भोर का सितारा बन
मृत्यु का प्रकाश सामने है, छँट गया है तम
तू लिखे जा, देश का बड़ा भला है हाल रे
अब तो अपनी लेखनी से नाड़ा ही तू डाल रे!
मूल कविता : सहाफ़ी से
क़ौम की बेहतरी का छोड़ ख़याल,
फिक्र-ए-तामीर-ए-मुल्क दिल से निकाल,
तेरा परचम है तेरा दस्त-ए-सवाल,
बेज़मीरी का और क्या हो मआल
अब क़लम से इज़ारबंद ही डाल
तंग कर दे ग़रीब पे ये ज़मीन,
ख़म ही रख आस्तान-ए-ज़र पे जबीं,
ऐब का दौर है हुनर का नहीं,
आज हुस्न-ए-कमाल को है जवाल
अब क़लम से इज़ारबंद ही डाल
क्यों यहाँ सुब्ह-ए-नौ की बात चले,
क्यों सितम की सियाह रात ढले,
सब बराबर हैं आसमान के तले,
सबको रज़ाअत पसंद कह के टाल
अब क़लम से इज़ारबंद ही डाल
नाम से पेशतर लगाके अमीर,
हर मुसलमान को बना के फ़क़ीर,
क़स्र-ओ-दीवान हो क़याम पज़ीर,
और ख़ुत्बों में दे उमर की मिसाल
अब क़लम से इज़ारबंद ही डाल
आदमीयत की हमनवाई में,
तेरा हमसर नहीं ख़ुदाई में,
बादशाहों की रहनुमाई में,
रोज़ इस्लाम का जुलूस निकाल
अब कलम से इज़ारबंद ही डाल
लाख होंठों पे दम हमारा हो,
और दिल सुबह का सितारा हो,
सामने मौत का नज़ारा हो,
लिख यही ठीक है मरीज़ का हाल
अब कलम से इज़ारबंद ही डाल
- हबीब जालिब, पाकिस्तान
15 comments:
Behtareen rachnase ru-b-ru karaya aapne!
mool rachna aur anudit rachna dono ka hi aanad liya ..salil ji ne jadui tareeke se mool rachna ki atma ko baandhe rakha hai... aur sach hai ki lekhani ka kaam shayad ek din sirf yahji9 rah jaye.. bahut bahut shuqriya in rachnaon se milwane ke liye.. :)
kya likha hai aapne kabhi mere blog par visit kariye
जबरदस्त लिखा है आपने ।
dono ka hi swaad chakha...bahut hi sundar rachnaayein....bahut bahut dhanywaad dono rachnaon se rubaru karane ka...
कुछ अलग पढने को मिला साथ में एक नया मुहावरा भी मिल गया :-)
कविता का मूल भी और ब्याज भी दोनों जबरदस्त....
कुंवर जी,
मूल कविता का अनुवाद बहुत सुन्दर है...सलिल जी को बधाई...और आपका आभार
wah Sir kya translate kiya hai,infact kya tabiyat se mara hai aisa Hindi translation to aaj tak nahi pada .........
"Jinda lash se gujar ke kursiya kamaye ja" wah
Hats off to both of u "Habib jalib" nd the translater "Salil"
Great ........
Mool kavita ka bahut umda anuvaad...
Prastuti hetu Aabhar
लाजवाब!
Yarthaarth ko bayaan kr rahi hai ye rahna ... aaj ka saty ...
मूल कविता का सुन्दर अनुवाद..पसंद आयी ये रचना..बधाई.
भाई मूल कविता की पूरी संवेदना आपने अनुवाद में उतार दी और अपने ब्लॉग का नाम सार्थक कर दिया
अब तो कलम से नाड़ा ही डाले का काम शेष रह गया है ,बाक़ी तो हमारे सफेदपोश मुल्कपरस्तों ने कर ही दिया है
लेकिन सलिल जी बधाई के पात्र हैं ,उन्होंने काव्यात्मकता खोने नहीं दी रचना की
ये हुनर सबमें नहीं होता
"बेहतरीन काम किया है अनुवाद के क्षेत्र में...मूल रचना तो है ही शानदार...."
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