सम्वेदना के स्वर

यह ब्लॉग उस सनातन उत्सवधर्मिता को जीवित रखने का प्रयास है,

जिसमें भाव रस और ताल का प्रतीक आम आदमी का भा-- बसता है.
सम्वेदनाएँ...जो कला, साहित्य, दर्शन, विज्ञान, राजनीति आदि के माध्यम से अभिव्यक्त होती हैं, आम आदमी के मन, जीवन और सरोकार से होकर गुज़रती हैं तथा तलाशती हैं उस भारत को, जो निरंतर लड़ रहा है अपने अस्तित्व की लड़ाई.....

Wednesday, January 12, 2011

क्या रोम जलता रहेगा और नीरो बांसुरी बजाता रहेगा ?

कई सरकारी दफ्तरों में महात्मा गाँधी का यह अनमोल वचन, एक ख़ूबसूरत फ्रेम में जड़ा दीवार से लटकता नज़र आता हैं कि “जब भी तुम कोई योजना या कार्य का शुभारम्भ करते हो तो सबसे पहले देश के सबसे निर्धन नागरिक का चेहरा याद करो और चिंतन करो कि इस योजना या कार्य से उसका क्या भला हो सकता है”.

गाँधी जी की तस्वीर की तरह यह वचन भी अब शायद फ्रेम में फ्रीज़ होकर रह गया है यही कारण है कि आजादी के पिछले साठ सालों में एक ऐसा सुविधाभोगी समाज प्रबल हो कर उभरा है जिसे गरीबी, भूख और भ्रष्टाचार की बातें नकारात्मक या व्यव्स्था विरोधी लगती हैं। सरकारी आकड़ों की घुट्टी उसे अब इतनी सुहाती है कि उन सरकारी आंकड़ों की पोल खोलता कोई भी आंकड़ा उसे या तो आँकड़ों की बाजीगरी लगता है या फिर “ऐसा करके क्या हासिल हो जायेगा” यह कहकर वह भ्रष्टतंत्र के पक्ष में खड़ा होने से भी नहीं कतराता।

इस भ्रष्टतंत्र की रोज़गार योजनाओं के प्रति अपने इसी संतोषी नज़रिये के कारण जब वह वर्ग यह कहता है कि “चलो भाई कुछ लोगों को तो सुविधा और रोज़गार मिल ही रहा है ना” तब यह सोचने पर विवश होना पड़ता है कि यह भ्रष्टाकचार का सरलीकरण नहीं तो और क्या है? याद करें श्रीमान राजीव गाँधी का यह कथन कि सरकार से चला 1 रुपया जनता तक जब पहुचता है तो 15 पैसे हो जाता है या फिर श्रीमती इन्दिरा गाँधी का वह ऐतिहासिक कथन कि “भ्रष्टाचार एक ग्लोबल समस्या है!”

क्या यह इसी मानसिकता का परिणाम नहीं है कि आज भ्रष्टाचार व्यवस्था का हिस्सा भर ही नहीं है, बल्कि भ्रष्टाचार ही व्यवस्था बन गया है।

एक ओर तो देश की व्यवस्था जब प्रतिशत में यह बताती है कि विकास दर, मुद्रास्फ़ीति, जीडीपी, प्रति व्यक्ति आय वगैरह क्या है और दूसरी ओर गरीबी, भूख और भ्रष्टाचार जस के तस बने रहते हैं. तब तो कोई इन्हें आँकड़ों की बाजीगरी नहीं कहता? “सम्वेदना के स्वर” पर हम अक्सर आँकड़ों की पृष्ठभूमि का सच टटोलने की कोशिश करते हैं। ऐसे में जो आँकड़े और विश्लेषण हमने प्रस्तुत किए हैं, भले ही किसी को आँकड़ों की बाजीगरी लगे, लेकिन हम तो आम आदमी की तरह कुछ तथ्यों के साथ बस चौथी पाँचवीं कक्षा का गणित ही उसमें लगाते हैं. जैसे पिछली पोस्ट में।

इस बार सिर्फ प्रस्तुत हैं मात्र तथ्य :

• देश की बीमारी का इलाज़ करने वाले “डॉक्टरों” में अभी इस बात पर ही सहमति नहीं है कि वास्तव में 80 करोड़ लोग गरीबी की रेखा के नीचे हैं या 42 करोड़?

• उपरोक्त आंकड़े क्रमश: अर्जुनसेन गुप्ता कमेटी और सुरेश तेन्दुलकर कमेटी ने दिये हैं, दोनों ही आंकड़ों से व्यवस्था की विसंगतियाँ ही उजागर होती हैं।

• ओबामा के यह कहने से की भारत एक विकसित देश है, हम बहुत खुश होते हैं। परंतु जब विक्कीलीक्स में वही अमेरिका भारत द्वारा संयुक्त राष्ट्र के स्थायी सदस्य होने की बात पर भारत की हसीं उड़ाता है तो हम उस बात की उपेक्षा कर देते हैं।

• सरकारी आँकडों के अनुसार पिछले 10 वर्षॉं में 2 लाख किसानों ने इस देश में आत्महत्या की है! एनडीटीवी जैसा सरकारी टेलीविज़न चैनल तक यह आंकड़ा देता है कि 2009 में सिर्फ महाराष्ट्र में 19,000 से अधिक किसानों ने आत्म हत्या कर ली है।

• मुम्बई के धारावी इलाके में मात्र 175 हेक्टेयर जमीन के टुकड़े पर 6 लाख लोग ठूसें हुये हैं।

• एक रिपोर्ट के अनुसार तो जिन जिन गाँवों में नरेगा स्कीम सफल हुई है, उन उन गाँवों के सरपंच के घर के आगे एक-एक सियासी झंड़ा लगी एसयूवी गाड़ी खड़ी पायी गयी है।

दुष्यंत कुमार के शेर सुनकर तालियाँ बजाते, वाह वाह करते लोग बड़े जोश में एलान कर देते हैं अपने सीने में जलती आग का या हाथ में लिये उस पत्थर का जिससे आकाश में सुराख़ करने का जोश लिये फिरते हैं वो. मगर जब कोई इबारत उनको ऐसा करने को उकसाती है तो दुबक जाते हैं कोड ऑफ कंडक्ट की दीवार के पीछे. प्यार, भाईचारा, समानता, मित्रता, सहृदयता, सहिष्णुता की बातें क्या सिर्फ हिंदू मुस्लिम पर लागू होती हैं, सामाजिक अस्पृश्यता पर नहीं!

रेशमी ज़ुल्फें, नशीली आँखें, प्रेम की पराकाष्ठा, विरह की वेदना, चाँद की सुंदरता पर सब मुग्ध हो जाते हैं, मगर मजलूम के आँसुओं से साफ बचकर निकल जाते हैं तटस्थता का रोना रोकर.

समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध,
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध!

25 comments:

ज्ञानचंद मर्मज्ञ said...

सच्चाई की तस्वीर इतनी वीभत्स !
विकास की परिभाषा इन्हीं सच्चाइयों की स्याही से लिखी जा रही है !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ

शिवम् मिश्रा said...

"समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध, जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध!"

सच कहाँ आपने ... हम सब अपराधी ही तो है ...

मनोज भारती said...

आपकी आज की पोस्ट तटस्ता को छोड़ समाज के आम नागरिक के लिए क्रांति के बिगुल का उद्-घोष करने सरीखी है । वास्तव में ही आपने हमें सही आइना दिखाया है । जागो बंधुओ...जागो बंधुओ ... कहीं समय के इस पायदान पर हम नीरो साबित न हो ???

anshumala said...

भ्रष्टाचार की खबरों के सरकारी बाबु किस तरह नकारते है वो हाल में ही मुझे पता चला जबअपने एक पहचान वाले को दिल्ली में फोन करके बाढ़ का हाल लेना चाहा तो शुरू हो गये की सब टीवी वाले झूठ दिखा रहे है सब ठीक है कामनवेल्थ के स्टेडियमो के बारे में भी गलत दिख रहे है सबो को पैसा चाहिए, वो भी सरकारी बाबु है | आप ने सही कहा हम सभी ने इसे व्यवस्था का एक हिस्सा मान लिया है |

Deepak Saini said...

सही कहा आपने अब तो भ्रष्टाचार ही व्यवस्था हैं
हमारे गाँव मे भी जब से नरेगा स्कीम चली है प्रधान और सिकेटरी ने अपनी गाडिया बदल लीं है।

प्रवीण पाण्डेय said...

हम बहुत बड़े दलदल में खड़े हैं। आकड़ों का आकाश बचा न पायेगा।

सुज्ञ said...

आज अहसास ही मर गये है। अनिति तो सामान्य शब्दभर बनकर रह गया है।
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध!"
स्वसुखरत ऐसे निरपेक्ष के अपराध तो बोल्ड में लिखे जाने चाहिए।

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

कुछ करने की हसरत रखते है दिल में लेकिन ..............
एक बात याद है कुद सुधरोगे जग सुधरेगा

रचना दीक्षित said...

आजकल सरकारों के संवेदनहीन होने की समस्या सबसे बड़ी है. कोई मरे या जिए सब अपने फाएदे के बारे में सोच रहे है. यह सत्यता सिर्फ सरकारों पर ही नहीं हम सब पर भी लागू है.

स्वप्निल तिवारी said...

bharat kee bhrasht vyvastha ka fir se vahi chehra ... aankdne aur bhaybheet kar dete hain... tatasthta to aaj kal logon ka sabse bada hathiyar ban gayi hai...

केवल राम said...

क्या कहें ..आज देश का कोना - कोना इस समस्या से ग्रस्त है ..सभी प्रेम चंद जी की कहानी के घीसू माधव दिखाई देते हैं ..दीपक सैनी जी ने सही कहा है ...आपकी यह पोस्ट विचारणीय है ..शुक्रिया आपका

संजय @ मो सम कौन... said...

देश में गरीबों, मजलूमों का होना बेहद से भी ज्यादा जरूरी है। यह वर्ग न रहा तो इनके नाम पर चलने वाले विकास कार्य कैसे चलेंगे?
बांसुरी की ग्राह्यता बढ़ गई है, पहले सिर्फ़ बादशाहों के हाथों में सुशोभित होती थी, अब एक दो पायदान नीचे तक के तबकों की भी जद में है, बस्स।

एस एम् मासूम said...

एक अच्छा विश्लेषण लेकिन हल क्या?

उम्मतें said...

जब नीरो स्वयं रोम के जलने का कारण हो तो उससे बांसुरी से इतर की अपेक्षायें मत कीजिये ! गांधी जी को फोटो फ्रेम में डाला जा चुका है,वे पूज्यनीय हुए!
उनका कहा सुना भी पूज्यनीय हुआ ! 'पूजन योग्य' की स्थापना के बाद दैनिक / वार्षिक स्तुतियां /आरतियाँ तो की जा सकती हैं पर अनुसरण नहीं !

आपने जो आंकड़े जुटाए हैं वे निश्चय ही भयावह हैं पता नहीं इन्हें पढते हुए एक क्रूर सा ख्याल मन में कैसे आया,पर आया है तो शेयर कर लेता हूं !

क्या इस देश को एक भयंकर मारकाट की दरकार है ?

सम्वेदना के स्वर said...

901@अली सा
क्या इस देश को एक भयंकर मारकाट की दरकार है ?

आपका क्रूर सा ख्याल बहुत स्वाभाविक है, विनाश और सृजन क्रमिक विकास की प्रक्रिया भर हैं यह तथ्य भी इसी गंगा-जमुनी तहज़ीब से निकलता है!

....जारी

सम्वेदना के स्वर said...

कुछ राजनैतिक मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि क्योकिं भारत ने स्वतंत्र्ता लड़कर नहीं ली है, मात्र चालाकी भरी नेगोशिएशन से हासिल की है, इस कारण इस देश की हिंसा विसर्जित नहीं हो सकी है। यही कारण है कि भारत एक सरल समाज नहीं बन पा रहा है।

अमृत्य सेन का कहना कभी कभी ठीक लगता है कि भारतीय समाज एक आर्गुमैंटैटिव समाज बन कर रह गया है।

ओशो कहते हैं कि आग लगी हो तो आग बुझाने के शास्त्र पड़्ते हो या जहाँ कहीं से सम्भव हो पानी लाकर उस आग पर डालते हो?

Satish Saxena said...


आपसे सहमत हूँ चैतन्य और ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि चैतन्य सरीखे कुछ जागरूक इस देश को और मिल जाएँ तो शायद अँधेरे से निकलने में अधिक आसानी हो जाये !

एक एक पोस्ट संग्रहनीय होती है तुम्हारी जिसपर सरसरी निगाह से कमेन्ट करना केवल अपराध मानता हूँ !

इस पोस्ट को पहली बार देख कर चला गया था ...दूसरी बार कुछ ध्यान से पढ़ी मगर कमेन्ट समझ ही नहीं पाया क्या लिखूं , अब आज तुम्हारा मेरे गीत पर किया एक कमेन्ट दुबारा यहाँ खींच लाया !

तुम्हे गुरु बनाने का दिल करता है यार !

सम्वेदना के स्वर said...

@सतीश सक्सेना जी
सर इस ब्लोग पर हम दो हैं और बाहर आपको मिलाकर 120 करोड़ भारतवासी !

हम सभी की सम्वेदना के स्वर एक कोरस बनकर हमारी धरती को सशक्त राष्ट्र रूपी परिवार बना दें तो सहज ही हम सब एक दूसरे से रिश्ते में बंध ही जाते हैं!

@तुम्हे गुरु बनाने का दिल करता है यार !
यार ठीक है! (क्योकिं इसमें अपेक्षायें नहीं होती)

ZEAL said...

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इस लेख में जिसने मेरा ध्यानाकर्षण किया वो है 'तटस्थता' । जब समाज गुटों में बंट जाता है तो वो सिर्फ अपने स्वार्थ के बारे में सोचता है। शेष सभी के लिए उदासीन [ तटस्थ] हो जाता है। ऐसे व्यक्ति या समुदाय से अपेक्षा करना व्यर्थ है।

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Rohit Singh said...

चलिए जी कोई बात नहीं।...कुछ तो प्रहार हम कर ही चुके हैं....सरकारी में ही नहीं प्राइवेट संस्थानों में भी भ्रष्टाचार के कारण कुछ लोग विलग किए जा चुके हैं.....एक सुकुन तो रहेगा कि दिनकर जी की लिखी पंक्तियों से हम बच जाएंगे....हा पूरी तरह भले ही नहीं......वैसे भी हम तो बोलते नहीं....हां अगर बोलते हैं तो बिंदास......

Rohit Singh said...

वैसे नीरो आजकर बंसी नहीं बजाता....उसके पास तो इतनी क्षमता भी नहीं बची....वो तो बेसुध पड़ा रहता है आजकल......

सुज्ञ said...

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उतरायाण: मकर सक्रांति, लोहड़ी, और पोंगल पर बधाई, धान्य समृद्धि की शुभकामनाएँ॥
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उपेन्द्र नाथ said...

बहुत ही गहन विश्लेषण आप लोंगो ने इस पोस्ट के पीछे किया है. सच , आकडे तस्वीर की भायावहयता को अपने आप कह रहे है. भ्रष्टाचार तो इस कदर ऊपर से नीचे तक जड़ जमा चुका है की आज एक छोटे से गाव का प्रधान भी दो महीने के छोटे से कार्यकाल में अपने घर के सामने मारुती खड़ा कर दे रहा है.

Patali-The-Village said...

सही कहा आपने अब तो भ्रष्टाचार ही व्यवस्था है आपकी यह पोस्ट विचारणीय है| शुक्रिया|

Arvind Mishra said...

इसलिए ही तो कहते हैं आंकड़ों की बाजीगरी !.

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