सदियों की ठंढी, बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
जनता? हां,मिट्टी की अबोध मूरतें वही,
जाडे-पाले की कसक सदा सहनेवाली,
जब अंग-अंग में लगे सांप हो चूस रहे
तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली।
जनता? हां, लंबी-बडी जीभ की वही कसम,
"जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।"
"सो ठीक, मगर, आखिर इस पर जनमत क्या है?"
'है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है?"
मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं,
जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में;
अथवा कोई दुधमुंही जिसे बहलाने के
जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में।
लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं,
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,
सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है,
जनता की रोके राह,समय में ताव कहां?
वह जिधर चाहती,काल उधर ही मुड़ता है।
अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अंधकार
बीता;गवाक्ष अंबर के दहके जाते हैं;
यह और नहीं कोई,जनता के स्वप्न अजय
चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं।
सब से विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा,
तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो
अभिषेक आज राजा का नहीं,प्रजा का है,
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो।
आरती लिये तू किसे ढूंढता है मूरख,
मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में?
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे,
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में।
फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,
धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है;
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
-- रामधारी सिह दिनकर (26जनवरी,1950ई.)
20 comments:
कविता पढ़ी हुई है. मुझे पसंद भी है. पुनः पढ़ाने के लिए धन्यवाद|
मेरे पसंदीदा कवि की यह बेहतरीन रचना पढवाने का बहुत शुक्रिया.
दिनकर जी को पढवाने के लिए आभार
We, the people!! हम आम अदमी!वे आम आदमी, जिन्होंने ख़ुदको एक वृहत् सम्विधान दिया, आज उसी देश में अपनी दुर्दशा का पोस्टर बना बैठा है! पुनः आह्वान की आवश्यकता है कि सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है!!
कविता तो नि:संदेह अनमोल है पर दुःख होता है इतने सालो बाद भी हमारे गणतंत्र की हालत खराब है
गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनायें।
दिनकर जी को पढवाने के लिए आभार्।
सही समय पर सही भावप्रद काव्यपाठ किया आपने।
दिनकर जी को प्रणाम!!
गणतंत्र पर गण की हिम्मत भरी आवाज़!!
Gantantr diwas kee aapko haardik badhayee!
सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है!!
बेहतर लोग नहीं सुनते.......
...और लाल चौक पर झन्डा हम लहराते हैं ..उसी शौर्य वाणी के क्रम में आज का मुद्दा यह हो !
यह कविता जोश भर जाती है।
दिनकर जी की इस कविता के बारे में कई जगह सुना था एक आधा टुकड़ो में आज पूरी कविता पढ़ाने के लिए धन्यवाद |
जब पहली बार ही यह कविता पढ़ी थी तो बहुत प्रभावित हुआ था। कितने ही साल बीत चुके हैं, तैंतीस कोटि से सवा अरब का आँकड़ा पार हो गया लेकिन अब भी जनता का इंतज़ार ही है। सिंहासान तो खाली रहा नहीं, जो विराजमान होता गया वो जनता नहीं रहा बल्कि कुछ और बन गया। अब भी जो सिंहासनासीन होगा वो जनता से अलग हो जायेगा और हम इस कविता के माध्यम से बदलाव की आशा करते रहेंगे।
गणतंत्र दिवस के शुभ अवसर पर बहुत बेहतरीन पोस्ट पढाई है आपने. ऐ आवाहन जनता का, सिंघासन को आज भी हिलाने की क्षमता रखता है. आप सभी को गणतंत्र दिवस की बहुत शुभकामनायें.
दिनकर जी की इस कविता के साथ एक बहुत ही सुंदर आह्वान है...... सच आज इसी की जरूरत है
बड़ी सामयिक रचना है, धन्यवाद!
गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनायें.....
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सम्यक प्रस्तुति !
गणतंत्र दिवस की बधाइयां !
yah to us sinhaasan ka hi kamal hai ki wahaan tak pahunchne wali janta samany nahi rah paati ... yah kavita pahle nahi padhi thi.... aaj samay par saamne aayi hai ...
यह कविता बहुत विचारोत्तेजक है।
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