सम्वेदना के स्वर

यह ब्लॉग उस सनातन उत्सवधर्मिता को जीवित रखने का प्रयास है,

जिसमें भाव रस और ताल का प्रतीक आम आदमी का भा-- बसता है.
सम्वेदनाएँ...जो कला, साहित्य, दर्शन, विज्ञान, राजनीति आदि के माध्यम से अभिव्यक्त होती हैं, आम आदमी के मन, जीवन और सरोकार से होकर गुज़रती हैं तथा तलाशती हैं उस भारत को, जो निरंतर लड़ रहा है अपने अस्तित्व की लड़ाई.....

Thursday, October 18, 2012

लोकतंत्र या तंत्रलोक ?



इन दिनों देश में एक के बाद एक हो रहे खुलासों से यह राय सुद्रढ़ हो रही है कि भारत के सभी संसाधनों" पर चन्द रईसों और ताकतवर लोगों का कब्जा है। रईसों और ताकतवर लोगों के बीच बनें इस सशक्त गठबन्धनको हम सिंडीकेट या माफिया कह सकते हैं।

रईसों और ताकतवर लोगों  का यह सिंडीकेट कुछ नियम-कायदे बनाता है ताकि जो लोग रईस और ताकतवर नहीं हैं वह इस (अ)व्यवस्था से हमेशा बाहर ही रहें। यह सिंडीकेट”, सभी महत्त्वपूर्ण जानकारियों और ज्ञान को अपने नियन्त्रण में रखता है। जानकारियों से यहाँ मतलब धन बनाने, व्यापार और रोजगार की उन सम्भावनाओं से है जिनका पूर्व ज्ञान मात्र कुछ लोगों को ही रहता है। (इसका सीधा मतलब यही है कि कौन सी जमीन महंगी होने वाली है, किस जगह हाई-वे, पावर प्लांट आदि बनाने हैं, किस प्रकार की टेक्नोलोजी या उत्पाद को बढावा देना है। सरकारी और निजी व्यापार और रोजगार की बयार किस तरफ बहेगी और उससे होने वाले लाभ की गंगा किस तरह और किस किस को तरेगी .....यही सब)

उपरोक्त जानकारियों को सीमित पहुंच तक रखने के लिये रईसों और ताकतवरों का यह सिंडीकेटबहुत से नियम-कायदों का मकड़जाल बुनता है। नियम-कायदों के इस मकड़जाल का पहला मकसद यही होता है कि आम आदमी”, रईसों और ताकतवरों के इस वैभवशाली साम्राज्य से दूर रहे और उसे किसी भी तरह से चैलेंज करने की स्थिति में न पहुचें। नियम-कायदों के इस मकड़जाल में बहुत सी सीढ़ियां होती हैं और हर सीढ़ी पर एक गेट कीपर तैनात होता है।

यह (अ) व्यवस्था हर गेटकीपर को कुछ ताकत देती है जिनके द्वारा वह अपनी सीमा में नियत नियम-कायदों को नियंत्रित करता है।......यह बात महत्वपूर्ण है कि गेटकीपर का अहम काम अपने उपर वाली सीढ़ी तक पहुंच को मुश्किल बनाना है, इसके परिणाम स्वरुप प्रत्येक उपर वाले गेटकीपर की ताकत कई गुना बढ़ती जाती है। और अंत में सिंडीकेट महा-शक्तिशाली हो जाता है।

रईसों और ताकतवरों का यह सशक्त गठबन्धन या सिंडीकेट”, अन्य सहयोगी लोगों के शातिर नेटवर्क के द्वारा नियम-कायदों के इस मकड़जाल को नियंत्रित करता है, और यह सुनिश्चित करता है (अ) व्यवस्था की सभी संस्थायें इस शातिर नेटवर्क के द्वारा नियंत्रित की जायें। इन संस्थायों के मुखिया के पद पर जब शातिर नेटवर्क के व्यक्ति को बैठाया जाता है तो उसकी ताकत बेहद उंचे दर्जे की हो जाती है क्योकिं उसके कार्य अब विधि और संविधान सम्मत हो जाते हैं और उन्हें चैलेंज करना मुश्किल ही नहीं लगभग नामुमकिन को जाता है। सशक्त गठबन्धन या सिंडीकेटइस बात के पूरे इंतजाम करता है कि शातिर नेटवर्क के एक- एक व्यक्ति को ताउम्र पूर्ण सरंक्षण दिया जाये।

आप कह सकते हैं कि क्या देश का वाच डागमीडिया और इस शातिर नेटवर्क से बाहर हुये लोग क्या इतनी आसानी से इसे काम करने दे सकते हैं?  

तब जबाब यही है कि मीडियाजो जनमानस को निरंतर प्रभावित करता है उसे भी इसी शातिर नेटवर्कद्वारा येन केन प्रकारेण नियंत्रण में रख कर वाच डाग से लैप डाग बना दिया जाता है। शातिर नेटवर्कमें उन लोगों को सहर्ष स्वीकार कर लिया जाता है जो या तो येन केन प्रकारेण, “सशक्त गठबन्धन या सिंडीकेटको फायदा पहुंचाते हैं या फिर उनका बहुत विरोध करने की स्थिति में पहुंच जाते हैं। बहुत से गेटकीपर जो अपने रसूख और धनबल को बढ़ाने में कामयाब हो जाते हैं उन्हें भी शातिर नेटवर्क में शामिल कर लिया जाता है।

(अ) व्यवस्था के पूरे तन्त्र को लालच रुपी इंजन से चलाया जाता है और इसके सभी कल पुर्जों में काले धन रुपी लुब्रीकैंट को डाला जाता है।

Tuesday, October 2, 2012

मैं हूँ आम आदमी!!





कौन है आम आदमी ?
आर. के. लक्ष्मण के कार्टूनों में से झाँकता
समाज व्यवस्था के संघर्षों से जूझता
अनवरत पीड़ा का प्रतीक
वो बूढा है, क्या आम आदमी?

सत्ता पाने
और सत्ता में बने रहने का सूत्र
किसी राजनीतिक पार्टी के चुनावी कैम्पेन की
टैग-लाइन है क्या वो आम आदमी?

बाँझ खेतों को
अपने खून से सींचता
कपास का किसान है
या, लक्मे फैशन वीक के
“खादी क्लेक्शन” का प्रतीक चिह्न है
क्या वो आम आदमी?

धन्ना सेठ से अपनी ज़मीन,
अपना जंगल हार चुका
सभ्य जगत में
आदिवासी करार कर दिया गया
वो बेकार बेगार है क्या आम आदमी?

दफ्तरों में कलम घिसता
माँ की बीमारी, बेटे की नौकरी
या बेटी की शादी के लिये हलकान
मूल्यों सिद्धांतों और अपनी आत्मा से
हर रोज़ समझौता करता
बेबस लाचार है
क्या वो आम आदमी ?

शातिर दिमागों की शतरंजी चालों को
अपने आक्रोश की बन्दूकों से
जीतने की कोशिश करता
हाशिये पर पड़ा
नक्सलवादी ग्रामीण है
क्या वो आम आदमी ?

ग़रीब के नाम से लूटे
सरकारी ख़जाने के पैसों से
अपने मोटे पेट को पालता
सरकारी अफसर है क्या वो आम आदमी ?

बीस रुपये रोज़ पर जीवन बितानेवाला
व्यवस्था से दरकिनार
देश का लगभग
दो तिहाई हिस्सा है क्या वो आम आदमी ?

बाज़ार की पटरी पर
आई पी ओ के फार्म बटोरता
रीटेल इंवेस्टर है क्या वो आम आदमी ?

कभी गर्मी, कभी सर्दी,
कभी बरसात से हारी
सडक किनारे पड़ी
लावरिस लाश है क्या वो आम आदमी?

कभी महंगे बाज़ारों को
हसरत भरी निगाहों से देखते
और कभी अपने क्रेडिट कार्ड की
बची हुई लिमिट को आंकते
मल्टीनेशनल कम्पनी का
एम बी ए मैनेज़र है क्या वो आम आदमी !!

सरकारी योजनाओ का केन्द्र है आम आदमी !!
खास लोगों के लिये आम बात है -आम आदमी !!
अपने ही देश मे खो गयी, देश की अवाम है-आम आदमी !!
भरे पेटों के गुलाबी गालों में छुपी कुटिल मुस्कान है -आम आदमी !!

Saturday, May 26, 2012

आई.पी.एल. - बड़े बच्चों के बड़े खिलौने


"मीडिया-क्रुक्स" हमारा प्रिय ब्लॉग रहा है. मीडिया से लेकर, राजनीति और अर्थव्यवस्था पर जिस धारदार लेखन का परिचय रविनार ने अपने ब्लॉग और ट्वीट्स के जरिये दिया है वह मारक ही कहा जा सकता है. व्यंग्य ऐसा कि चीर-कर रख दे. हमने कई बार चाहा कि उनकी पोस्ट का अनुवाद कर हिन्दी पाठकों के लिए प्रस्तुत करें. मगर झिझक ने रोक लिया. कल यह आलेख पढ़ने के बाद हिम्मत करके हमने अनुमति मांग ही ली और कमाल यह कि उन्होंने तुरत हामी भर दी. आप भी देखिये एक बानगी, कलम की और कलम की धार की!
                                 
 (डिस्क्लेमर: इस आलेख में जिन लोगों के नाम आये हैं उनमें से अधिकतर ने अपनी बदौलत सफलता और प्रसिद्धि प्राप्त की है. उनकी योग्यता और प्रतिभा संदेह से परे है और कोई भी अपवाद उनपर लागू नहीं होता. इसे एक अत्यंत मनोरंजक “थ्योरी” से अधिक कुछ भी न समझा जाए और जैसा कि हर सिद्धांत के साथ होता है, यह सही भी हो सकती है और गलत भी. और मैं प्रायः गलत ही साबित होता हूँ...)

आप लोगों को फिल्म “शराबी” याद है? एक छोटा सा बच्चा (बाद में अमिताभ बच्चन) रात में सो नहीं पाता था. इसलिए उसका एकाकी अभिभावक, प्राण, उसे एक या दो चम्मच शराब पिला दिया करता था और एक पल में ही वो दैत्य गहरी और शांत नींद में सो जाता था. और फिर कुछ ही सालों में शराब उसका प्रिय “खिलौना” बन जाती है. बहरहाल, सारे अभिभावक इतने सृजनात्मक नहीं होते. अधिकतर तो कोई लोरी गाते हैं या उसे पालने में रखकर झुलाते हैं. दूसरे मौकों पर जब बच्चा रोता है तो माँ-बाप उन्हें गले लगाते है या उनको चूमते हैं. लेकिन ज्यादातर माँ-बाप उन्हें कोई बोलने वाला या “टिंग-लिंग” गाने वाला खिलौना थमा देते हैं. और फिर आहिस्ता-आहिस्ता उन खिलौनों की जगह बार्बी डौल या सॉफ्ट-टॉयज या कोई शानदार सी बन्दूक जिनसे गोलियाँ चलने की आवाजें निकलती हैं. खिलौनों का यह जूनून बड़े होने पर भी समाप्त नहीं होता, खासकर कुछ रईसजादों के लिए या फिर रईसों की बीवियों के लिए. ऐसे में उनके हाथों में थमा दिए जाते हैं कुछ मिलियन या करोड़ रुपये ताकि वे अपनी खिलौनों की दुनिया में व्यस्त रहें. आने वाले सालों में हो सकता है कि कुछ नए खिलौने आ जाएँ, जैसे – लास वेगास, मोनैको या एटलांटिक सिटी. आज नहीं तो कल वे खिलौने भी उबाऊ हो जायेंगे. इसलिए मिल गया है उन्हें एक नया खिलौना – आई.पी.एल. (इन्डियन प्रीमियर लीग).

मैं धीरू भाई अम्बानी के समय तक नहीं जाना चाहता. लेकिन शुरुआत उनके बच्चों और उनकी पत्नियों से ही किया जाए. उसकी शादी अनिल अम्बानी से हुई. वास्तव में टीना अम्बानी कर क्या रही हैं आजकल? हो सकता है वो अनिल के हिस्से वाले रिलायंस में बोर्ड-मेंबर हो, मुझे पता नहीं. हालांकि एक बिजनेस है जिसे पूरी तरह से सिर्फ वही चला रही हैं. सुना है कभी? पूरे विमल के कारोबार की बात तो पक्की नहीं, लेकिन टीना हार्मनी फर्निशिंग्स अवश्य संभाल रही हैं. अब विमल और हार्मनी किसी भी तरह रिलायंस का सबसे बड़ा धंधा नहीं है. लेकिन एक औरत के लिए, जो कभी फिल्मों में काफी सक्रिय थी, व्यस्त रहने को कुछ तो होना ही चाहिए. तो ऐसा कहें कि अनिल ने उसे एक बड़ा सा खिलौना थमा दिया – “हार्मनी फर्निशिंग्स”! तुम इसे चलाओ, इसके साथ खेलो, इससे मुनाफ़ा कमाओ या नुक्सान उठाओ और जो जी में आये सो करो! यह खिलौना टीना को व्यस्त रखता है और अनिल को शांतिपूर्वक अपना बिजनेस चलाने में मदद करता है.

अब मुकेश अम्बानी का क्या? आपने कभी  नीता अम्बानी को पेट्रोलियम या गैस या ऐसे ही बिजनेस में दिलचस्पी लेते नहीं देखा होगा. वो शिक्षा की अपनी दुनिया में व्यस्त रहती हैं. एक धीरूभाई इंटरनेशनल स्कूल है और रिलायंस विश्वविद्यालय भी आने ही वाला है, इसलिए वो ऐसे ही संबद्ध क्षेत्रों में व्यस्त हैं. इसमें उनका काफी समय निकल जाता है. भूल नहीं हो रही हो तो यह बस थोड़ा बहुत अच्छा काम है जो वो करती हैं. वो आई.पी.एल. का एक प्रमुख चेहरा, मुम्बई इंडियंस की मालकिन भी हैं. अब ज़ाहिर सी बात है, मुम्बई इंडियंस नाम उन्हें चेरापूंजी इंडियंस जैसे नाम से बिलकुल अलग पहचान देता है. और आप कभी भी नीता को खुशी से उछलते हुए या अपने ग्यारह सूरमाओं को गले लगाते हुए नहीं देखेंगे. वास्तव में, इन खिलौनों से राजसी ठाठ का पता चलता है. कुछ टीमों के तो नाम से ही यह जूनून टपकता है. किंग्स एलेवेन पंजाब, चेन्नई सुपर किंग्स, राजस्थान रोयल्स, रोयल चैलेंजर्स बैंगलोर, कोलकाता नाईट राइडर्स. इन नामों से साफ़ पता चलता है कि लोकतंत्र में हमारी जड़ें कितनी गहरी जमी हैं.

शशि तरूर याद है? उन्हें मंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा था, क्योंकि उनपर इलज़ाम था कि उन्होंने अपनी पत्नी सुनंदा पुष्कर को ७० करोड़ रुपये का खिलौना तोहफे में दे दिया था. हालाकि खबरें तो कहती थीं कि वे खुद एक सफल व्यवसायी-महिला हैं. लेकिन इससे क्या, उन्हें भी खिलौने चाहिए होते हैं. नहीं होते? बदकिस्मती से, वह तोहफा देना फिस्स हो गया किसी चाइनीज़ घातक खिलौने की तरह और आज कोच्ची टस्कर्स आई.पी.एल. का हिस्सा नहीं हैं. यूं कि देखने वाली बात ये है कि आई.पी.एल. के साथ इतने सारे फिल्म कलाकार और सेलेब्रिटीज़ का जमघट कैसे लग गया, जबकि किसी का क्रिकेट से कोई लेना-देना नहीं.

आइये देखें! विजय माल्या की किंगफिशर एयरलाइंस काफी समय से समस्याओं से जूझ रही है. तो वह अपने बेटे सिड माल्या (वो मुझपर मुकदमा नहीं दायर कर सकता कि मैंने उसे सिद्दार्था क्यों नहीं कहा) को किंगफिशर की उसे फिर से पटरी पर लाने और समस्याओं से लड़ने के लिए लेकर आया होगा. मगर ज़रा ठहरिये!!! उसने ऐसा कुछ भी नहीं किया. बल्कि, उसने अपने बेटे के लिए एक आई.पी.एल. की टीम खरीदी और अपने बच्चे को थमा दिया, उसके साथ खेलने को. वो बच्चा आर.सी.बी. का निदेशक है और उसका सारा कारोबार देखता है. कोई जोखिम नहीं है इसमें, अगर बच्चे ने एक खिलौना तोड़ भी दिया, तो दूसरा आ जाएगा. जी हाँ, आर.सी.बी. सुर्ख़ियों में है इन दिनों, और क्रिकेट के कारणों से नहीं!! अब उन खिलौनों के साथ इतना क्या उलझना!!

प्रीटी जिंटा, एक सफल फिल्म-अभिनेत्री, ने लगभग पिछले दो सालों से कोई फिल्म नहीं की. उनके सम्बन्ध नेस वाडिया से हैं और वाडिया ग्रुप की कंपनियों के कारोबार में वो उनकी मदद करती रही हैं. अहा, यही कहेंगे न आप!! मैं उन कंपनियों की बात नहीं कर रहा. नेस वाडिया ने उन्हें एक टीम खरीदकर दी है, किंग्स इलेवेन पंजाब, और वो अपने इस खिलौने को लेकर इतनी एक्साइटेड हो जाती है कि कभी-कभी तो मैदान में उतर आती है, ठीक वैसे ही जैसे डब्ल्यू.डब्ल्यू.ई. के पहलवान अचानक कूदकर रिंग में दाखिल हो जाते हैं.

अच्छा अब राज कुंद्रा के बारे में क्या कहेंगे, वही ट्रेडिंग मैग्नेट, जिसने शिल्पा शेट्टी से विवाह किया है? मान लिया कि शिल्पा मूलतः राजस्थान (!!!) की हैं और ऐसे में उनके लिए शादी के तोहफे के तौर पर एक आई.पी.एल. खिलौने – राजस्थान रॉयल्स से बढकर कुछ क्या हो सकता है! हालांकि राज कुंद्रा एक किफायती पति मालूम पड़ता है, ऐसे में बाक़ी के आई.पी.एल. खिलौनों की तुलना में यह थोड़ा सस्ता खिलौना ही कहेंगे.

और अब बारी शाहरुख खान की, भारत के महानतम सलामी बल्लेबाज़. वो और सह-अभिनेत्री जूही चावला काफी समय तक बड़े अच्छे दोस्त थे और जय मेहता, जूही के पति, के कारोबारी साझेदार भी. वो अपनी पत्नी जूही को एक आई.पी.एल. खिलौना तोहफे में देना चाहता था, मगर उसकी खुशी का कोई ठिकाना न रहा जब पता चला कि इसमें शाहरुख भी हिस्सेदारी करना चाहता है. कल्पना करें कि जिस आदमी ने क्रिकेट का आविष्कार किया वही के.के.आर. में साझेदार है, जैसा कि जूही ने फ्लोरेंस, इटली से ट्वीट में कहा – “अगर आज एस.आर.के. भड़क जाए और आई.पी.एल. छोड़ दे तो मुझे ताज्जुब नहीं होगा कि लोग मैच देखना छोड़ देंगे... वानखेडे क्या किसी भी स्टेडियम में!!!” मैं पूर्णतः सहमत हूँ! शाहरुख आई.पी.एल. टॉय स्टोरी के सबसे बड़े एम्बेसेडर हैं.

अब बारी आती है कमाल की पत्रकार गायत्री रेड्डी की, जो एक अखबार “डेक्कन क्रॉनिकल” चलाती हैं. हम्म्म!! अखबारों का काम सिर्फ ख़बरों की रिपोर्टिंग करना है, लेकिन खिलौनों से खेलना तो खबरें बनाने जैसा है. इसलिए डेक्कन क्रॉनिकल ने खूबसूरत दिखने वाली गायत्री को एक आई.पी.एल. खिलौना थमा दिया – डेक्कन चार्जर्स! आप उनका नाम सुनते रहते होंगे और कल्पना कर सकते हैं कि हर छोटी बात उनके लिए हंगामाखेज होती है. जाने दीजिए, और जब तक खिलौने में चाबी भारी हुई है, इस बात से क्या फर्क पड़ता है कि वे क्या कर रहे हैं,

अब बात करते हैं डेल्ही डेयरडेविल्स की. यह अकेली ऎसी टीम है जिसके मालिक जी.एम्.आर. कभी खुले-आम अपने खिलौने से खेलते नहीं दिखाई देते. इसलिए उन्हें कभी-कभी स्टंट-मैन अक्षय कुमार जैसे लोगों को लाना पड़ता है यह बताने के लिए कि इन खिलौनों से कैसे खेला जाता है. सुब्रत सहारा राय, को पुराने समय से क्रिकेट प्रायोजक के रूप में जाना जाता रहा है. लेकिन वे खेलों पर इतना खर्च करते रहते हैं कि अपने बेटे को एक खिलौना खरीदने के लिए उन्हें बड़ी जद्दोजहद करनी पडी. हाँ अगर वे एक फिल्मी कलाकार होते तो उनका काम आसान हो गया होता. खैर, अंत भला तो सब भला, उनके सुपुत्र सुशान्तो राय को आखिरकार अपना खिलौना मिल ही गया. सुशांतो सहारा ग्रुप के रियल-एस्टेट का कारोबार भी देखते हैं.

इस पूरे जमघट में अगर कोई बेमेल है तो वह है एन. श्रीनिवासन, वर्त्तमान बी.सी.सी.आई. अध्यक्ष. उन्हें बी.सी.सी.आई., आई.पी.एल. और सी.एस.के. जैसे खिलौने चाहिए. वो भी खुद के लिए और किसी के लिए नहीं. हाहा साला स्वार्थी!! ऐसी खबर है कि बेटे की बाप से नहीं बनती क्योंकि वो समलैंगिक हो गया है. अगर ऐसा नहीं होता, तो उस बेटे के पास आई.पी.एल. का सबसे कीमती खिलौना होता.

अंत में जब सारे सेलेब्रिटी अपने खिलौनों से खेल रहे हैं, स्टैंड में नाच रहे हैं, अपने-अपने चियर-लीडर्स लेकर आ रहे हों, तो मीडिया कैसे पीछे रह सकता है. उन्हें भी हर रोज दो से तीन घंटे की टॉय-स्टोरी मिल ही रही है ना. तो इस तरह राजनेताओं, फिल्मी सितारों, रियल-एस्टेट मुगलों और मीडिया-क्रुक्स को आकर्षक जुआ-घरों (क्सीनों) का तोड़ मिल ही गया. हाँ, खिलौनों के साथ एक बात है, खेलने वाला आज या कल ऊब ही जाता है उनसे और हमेशा नया खिलौना चाहता है. आई.पी.एल. मीडिया के लिए एक बना बनाया सोप-ओपेरा है और चुनौती है कि कैसे इसे और अधिक बेकार और बेस्वाद बनाया जाए.

इन सबों के पीछे एक बड़ी अच्छी बात भी है. अगर इन रईसजादों और उनकी बीवियों को कोई बड़ा और महँगा खिलौना न मिला, तो ये कुछ और ही तोड़ने में लग जायेंगे. खैर, तब तक आओ मिलकर खेलें खेल!!


Thursday, May 10, 2012

क्या कल्कि अवतार ही आखिरी उम्मीद है??

“संवेदना के स्वर” बहुत दिनों से खामोश थे. वज़ह सिर्फ यही कि जब नक्कारखाने में अपनी आवाज़ तूती सी सुनाई देने लगे तो बेहतर है एक खामोशी अख्तियार करना और अपनी एनर्जी को उस वक्त के लिए बचाकर रखना जब वक्त आने पर उसका इस्तेमाल किया जा सके. आज अचानक एक आलेख अंग्रेजी के एक अखबार में दिख गया, जिसकी आवाज़ भी तूती की आवाज़ ही रही होगी, मगर हमने इस आवाज़ में आवाज़ मिला दी और बस लगा कि इन खामोश “संवेदना के स्वर” बोल उठे हों. आलेख का अनुवाद किया और आपके लिए लेकर आ गए. बहुत दिनों से गूंगे का व्यवहार कर रहे इस आम आदमी की आवाज़, खास आपके लिए!!


यू.पी.ए. हुकूमत के हर गुजरते साल के साथ, घोटाले और उसमें शामिल रकम के आंकड़े बढते ही जा रहे हैं. एक आकलन के हिसाब से सन २००८ में सात घोटाले हुए, २००९ में नौ, २०१० में चौदह, २०११ में तेईस और चालू साल में अब तक बाईस. भारतीय राजनैतिक परिदृश्य में घोटाले पहले भी हुए हैं, मगर हाल के दिनों में घोटाले कम होते नहीं नज़र आ रहे हैं, उनकी रफ़्तार अविश्वसनीय और उससे जुड़ा पैसा इतना, जितना पहले कभी नहीं रहा. इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि इस दल के अगुआ, सोनिया गांधी, जो एक समय संत मानी जाती थीं और मनमोहन सिंह जो ईमानदार, आजतक के सबसे बड़े भ्रष्टाचारी साबित हुए हैं. इस संत-ईमानदार की जोडी शामिल रही है छोटे-बड़े कुल ८० घोटालों में जिनकी रकम करीब १९ लाख करोड रुपये है!! और अगर इसमें भारत से बाहर भेजी गयी काली कमाई भी जोड़ दी जाए तो यह रकम हमारे साल २०११-१२ के सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी) का लगभग आधा हो जाती है.

एक चौकस और मजबूत न्याययिक व्यवस्था ने कुछ घोटाले उजागर किये. इनसे अस्थायी तौर पर वे सियासी ताकतें कमज़ोर हुईं, जिन्हें पाला जा रहा था और जिनका सम्मान किया जा रहा था. इसी ने टेलिकॉम मंत्री के हटाये जाने और उसकी गिरफ्तारी के लिए मजबूर किया. एक कॉंग्रेस सांसद राष्ट्रमंडल खेलों के घोटाले में पकडे जाने पर, पूरी गर्मियों और सर्दियों का मौसम जेल में बिताने पर मजबूर हुआ. कांग्रेसी मुख्यमंत्री, महाराष्ट्र के अशोक चव्हाण, को अपने पूर्व-मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख के साथ इस्तीफा देना पड़ा और आदर्श हाउसिंग धोखाधडी के मामले में सी.बी.आई. की जांच झेलना पड़ रही है. दो पूर्व कॉंग्रेसी मुख्य मंत्री गोवा खनन मामले में पुलिस की नज़रों में हैं. कर्नाटक के पूर्व बी.जे.पी. मुख्यमंत्री बी. एस. येदयुरप्पा को अपना ऑफिस छोड़ना पड़ा और उनपर क्रिमिनल आरोप लगाए गए हैं. बंगारू लक्ष्मण, पूर्व बी.जे.पी. अध्यक्ष, को एक स्टिंग ऑपरेशन के अंतर्गत एक लाख रुपये लेने के जुर्म में सज़ा मिल चुकी है और पता नहीं कितने मारण कतार में हैं. इन सभी भ्रष्टाचारियों की सारी उम्मीद चालाक वकीलों और न्यायपालिका में रिटायर होने वाले जजों पर निर्भर करती है.

इस पतन की सबसे बड़ी वज़ह राजनैतिक और बुद्धिजीवी वर्ग के चरित्र में हुआ सबसे बड़ा बदलाव है, जिसके तहत वे शर्म करने से ज़्यादा बेशर्मी की ओर बढते चले गए हैं. सिर्फ एक दशक पहले तक राजनैतिक वर्ग में नैतिक मूल्यों का महत्व दिखता था. एक राजनैतिक नेता पर यदि अनैतिक आचरण या घूस लेने जैसे आरोप लगते थे, तो वह इस्तीफा देकर, मानहानि का दावा करके या जांच का सामना करके अपने सम्मान की रक्षा की लड़ाई लड़ता था, उस राजनैतिक वर्ग के लिए उसकी ईमानदारी पर लगा सवालिया निशान चुल्लू भर पानी में डूब मरने जैसी बात लगती थी. आज का राजनैतिक वर्ग बेशर्म हो चुका है. आज जब उनकी इमानदारी पर कोई सवाल उठाता है तो वो चुप रहते हैं या फिर अदालत में साबित करने की चुनौती देते हैं. क्योंकि, जांच करने और साबित करने वाली सरकार खुद उनके हाथ में है. वे आरोप लगाने वाले पर मानहानि का दावा नहीं करते, क्योंकि ऐसा करने से उन्हें गवाहों के कटघरे में खडा होना होगा और उनसे सवाल पूछे जायेंगे. एक उदाहरण देखें.

Schweizer Illustrierte, एक प्रसिद्द स्विस पत्रिका, जिसका भारत की राजनीति से कोई लेना-देना नहीं, ने १९९१ में यह रिपोर्ट प्रकाशित की थी कि राजीव गांधी के एक गुप्त स्विस बैंक अकाउंट में ढाई बिलियन अमेरिकी डॉलर जमा हैं. अगर अमेरिकी ट्रेज़री दरों से इस रकम को बढते हुए आंका जाए, तो आज यह रकम दस बिलियन अमेरिकी डॉलर हो गयी होती. बाद में एक रूसी पत्रकार येवेजिना एल्बाट्स ने रूसी गुप्तचर संस्था के.जी.बी. पर किये अपने शोध के दौरान ऐसे दस्तावेजों का ज़िक्र किया है जिसमें गांधी परिवार को के.जी.बी. द्वारा “नज़राना” दिए जाने की बातें कही गयी हैं. ये रिपोर्ट अलग-अलग ख़बरों में, कॉलमों के ज़रिये लगातार १९८८, १९९२, २००२, २००६ २००९ (दो बार), २०१० और २०११ में द हिंदू, टाइम्स ऑफ इंडिया, स्टेट्समैन, इंडिया टुडे और बारम्बार द न्यू इन्डियन एक्सप्रेस में आती रही है. फिर भी सोनिया गांधी परिवार और सत्ताधारी दल इन संगीन खुलासों पर एक रहस्यमयी खामोशी अख्तियार किये है. इन्होने न तो उन रिपोर्टरों के और न उन अखबारों के खिलाफ ही कोई भी कानूनी कार्रवाई की. कुछ हफ़्तों पहले, अमेरिका में स्थित एक सम्मानित और ख्यातिप्राप्त ई-पत्रिका “बिजनेस इनसाइडर” ने दुनिया के २३ सबसे रईस राजनीतिज्ञों की एक लिस्ट प्रकाशित की. सोनिया गांधी, अपनी २-१९ बिलियन अमेरिकी डॉलर की संपत्ति के साथ उस सम्मानित सूची में चौथे स्थान पर थीं. उनसे ऊपर केवल सऊदी सम्राट, ब्रुनेई के सुलतान और न्यू-यॉर्क के मेयर माइकल ब्लूमबर्ग थे. गौरतलब है कि अगर ये खबर झूठ थी तो क्या गांधी परिवार को उस पत्रिका के खिलाफ कोई मुकदमा नहीं करना चाहिए था? रहस्यमयी कहानी है ना यह?? सरकार लाचार है, समझा जा सकता है, लेकिन विपक्ष क्यों खामोश है? और भी रहस्यमयी कहानी, है ना??

राजस्थान में एक मंत्री एक जवान औरत जो उसके बहुत करीब थी, को मरवा देता है और उसकी लाश ठिकाने लगा देता है. एक कॉंग्रेस पार्टी-प्रवक्ता, एक वरिष्ठ वकील, वीडियो पर अपनी साथी वकील के साथ आपत्तिजनक हालत में देखा जाता है, ताकि वो अपने रसूख से उस औरत को जज बनवा सके. वो बन भी गई होती अगर उसका ड्राइवर, अन्य कारणों से उससे नाराज़ होकर, सबों को वो वीडियो न दिखा रहा होता. यह घटना हमें जजों के सामने लाकर खडा कर देती है. न्यायालय की अवमानना ने विधायिका के भ्रष्टाचार को सामने आने से एक बार फिर रोक दिया. लेकिन और नहीं, के. जी. बालकृष्णन, पूर्व मुख्य न्यायाधीश, सर्वोच्च न्यायालय, वर्त्तमान प्रमुख, मानवाधिकार आयोग, रिश्वत के आरोपी ठहराए जा चुके हैं. उनके तीन रिश्तेदार, दामाद सहित, प्रचुर काले धन के स्वामी पाए गए हैं. न्यायमूर्ति पी.डी. दिनकरन, एक उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, रिश्वत लेने और ज़मीन हथियाने के आरोप में शर्मनाक स्थिति में इस्तीफा दे चुके हैं. मगर न्यायपालिका आज भी सिर्फ बाहर ही देखती है. मीडिया, जो खुद को गौरवशाली चैथा खम्बा बताता है, अपने समाचारों में “जगह बेचने” का इलज़ाम झेल रही है. नगद के बदले ख़बरें!! फिर भी यह हुकूमत करता है और लूट रहा है. जो अमीर खानदान हैं वे बेशर्मी की हद तक दिखावा करने वाले हैं. मुकेश अम्बानी ने सिर्फ कुछ बिलियन अमेरिकी डॉलर खर्च करके एक रिहायशी मकान बनवाया है और मीडिया उनका गुणगान करते नहीं थकता. सारी फिजाँ ही बेशर्मी से सराबोर है. मगर एक आम आदमी, आज भी गलत करते हुए शर्मिन्दा होता है. ऐसे में उसे सियासत, संसद और क़ानून से परे अन्ना हजारे जैसे इंसान में ही कोई उम्मीद नज़र आती है. लेकिन अन्ना भी अगर असफल हो तो वे किससे उम्मीद लगाए?

श्रीमाद्भागवतम, एक महान ग्रन्थ, जिसके सूत्र १२०० वर्ष पुराने हैं, कलियुग की बात करते हुए कहता है कि यह अंधकार का युग है. इसके अनुसार,

“कलियुग में, धन, न कि सद्गुण और सदाचार, मनुष्य के मूल्य का द्योतक होंगे. पराक्रम ही निर्णय करेगा कि कौन अच्छा है, कौन बुरा. चोर राष्ट्र का नेतृत्व करेंगे. शासक, अपने लालच और निर्दयता के वश में डाकुओं और चोरों के स्तर तक गिर जायेंगे. व्यापार धोखाधडी का पर्याय हो जाएगा. धोखेबाज व्यवसाय करने लगेंगे और बेईमानी का ही चलन होगा. निर्धनता न्यायालय में दोषी सिद्ध करने का समुचित प्रमाण होगी. धूर्तता चरित्र का प्रमाण-पत्र होगा. (गालियों के) शब्दकोष का धनी, विद्वान समझा जाएगा. नैतिक मूल्यों का एकमात्र उद्देश्य लोकप्रियता की प्राप्ति होगा, न कि विश्वास.”

और ऎसी ही कई बातें कही गई हैं. क्या यह देश की वर्त्तमान परिस्थिति पर कोई रनिंग कमेंटरी नहीं लगती आपको? इस ग्रन्थ में इससे भी अधिक पतन की भविष्यवाणी है. कहा गया है कि जब यह पतन पूरा हो जाएगा, परमात्मा बुराई का विनाश करने के लिए कल्कि का अवतार लेकर पैदा होंगे और सद्गुणों को पुनःस्थापित करेंगे.

तो शायद इस मुल्क की निराश जनता के लिए बस कल्कि ही उम्मीद की आखिरी किरण हैं.

-    मूल आलेख: एस. गुरुमूर्ति
प्रसिद्द राजनैतिक एवं आर्थिक विषयों के विशेषज्ञ
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