सम्वेदना के स्वर

यह ब्लॉग उस सनातन उत्सवधर्मिता को जीवित रखने का प्रयास है,

जिसमें भाव रस और ताल का प्रतीक आम आदमी का भा-- बसता है.
सम्वेदनाएँ...जो कला, साहित्य, दर्शन, विज्ञान, राजनीति आदि के माध्यम से अभिव्यक्त होती हैं, आम आदमी के मन, जीवन और सरोकार से होकर गुज़रती हैं तथा तलाशती हैं उस भारत को, जो निरंतर लड़ रहा है अपने अस्तित्व की लड़ाई.....

Wednesday, February 24, 2010

फ़िल्मी गालियाँ और मेरे वकील - डा राही मासूम रजा

आज पहली बार अपनी बात रखते हुए ये समझ में नहीं आ रहा कि जो मैं कहने जा रहा हूँ उसके हक में हूँ कि खिलाफ। मुद्दा है फिल्मों के संवाद और गीतों में "गालियों" के बढ़ते प्रयोग - कितने उचित और कितने अनुचित। गानों में तो फिर भी ये एक हद के अन्दर होते हैं, लेकिन फिल्म के डायलाग तो उन हदों को पार कर जाते हैं जिसके बाहर जाने की एक सभ्य कहे जाने वाले समाज के शब्दकोश की अनुमति नहीं है। पहली बार ऐसा फिल्म "बैंडिट क्वीन" में सुनने को मिला था। उसके बाद धीरे-धीरे कुछ और फिल्मों में। फिर एक सिलसिला सा चल पड़ा। पिछले दिनों कुछ रियलिस्टिक फिल्मों का दौर शुरू हुआ। और उन फिल्मों की परफेक्शन के लिए ये ज़रूरी था कि उनके किरदार गालियाँ बकते, क्योंकि वे उस समाज से आते थे जहाँ गालियाँ आम बोलचाल में बेधड़क बोली जाती हैं। गानों में "कमीना" या "कमबख्त" जैसे शब्दों तक ये सिलसिला सीमित है। हाँ, एक गाना " ऐ गनपत चल दारू ला" में कुछ शब्द अनुचित हैं।

मैं अभी तक कन्फ्यूज़ हूँ कि मैं क्या कहूं। और ऐसे में अपने गुरु डा राही मासूम रजा के उपन्यास " ओस की बूँद" से उनकी भूमिका यहाँ पर कोट करना चाहूँगा । क्योंकि फिल्मों में ये बातें नया प्रयोग हो सकती हैं, उपन्यासों में इतनी हिम्मत सिर्फ उन्होंने ही दिखाई है। इसलिए उनकी कलम से निकले शब्द मेरे शब्दों से ज्यादा वज़नदार साबित होंगे।

" बड़े बूढों ने कई बार कहा कि गालियाँ न लिखो, जो आधा गाँव में इतनी गालियाँ न होतीं तो तुम्हें साहित्य अकादेमी का पुरस्कार अवश्य मिल गया होता. परन्तु मैं यह सोचता हूँ कि क्या मैं उपन्यास इसलिए लिखता हूँ कि मुझे साहित्य अकादेमी का पुरस्कार मिले? पुरस्कार मिलने में कोई नुकसान नहीं, फायदा ही है. परन्तु मैं साहित्यकार हूँ. मेरे पात्र यदि गीता बोलेंगे तो मैं गीता के श्लोक लिखूंगा. मैं कोई नाज़ी साहित्यकार नहीं हूँ कि अपने उपन्यास के शहरों पर अपना हुक्म चलाऊँ और हर पात्र को एक शब्दकोश थमाकर हुक्म दे दूं कि जो एक शब्द भी अपनी तरफ से बोले तो गोली मार दूंगा. कोई बड़ा बूढा यह बताये कि जहाँ मेरे पात्र गाली बकते हैं वहां मैं गालियाँ हटाकर क्या लिखूं? डोट डोट डोट. तब तो लोग अपनी तरफ से गालियाँ गढ़ने लगेंगे और मुझे गालियों के सिलसिले में अपने पात्रों के सिवा किसी पर भरोसा नहीं.
गालियाँ मुझे भी अच्छी नहीं लगती. मेरे घर में गाली की परंपरा नहीं है. परन्तु लोग सडकों पर गालियाँ बकते हैं. पड़ोस से गालियों की आवाज़ आती है. और मैं अपने कान बंद नहीं करता, यही आप भी करते होंगे. यदि मेरे पात्र गालियाँ बकते हैं तो आप मुझे क्यों दौड़ाते हैं.? वे पात्र अपने घरों में गालियाँ बक रहे हैं. वे न मेरे घर में हैं - न आपके घर में. इसीलिए साहब, साहित्य अकादेमी के इनाम के लिए मैं अपने पात्रों की जुबान नहीं काट सकता। "

आखिर में निदा फाजली साब के कलाम के साथ ये स्वीकार करना चाहता हूँ कि

कभी कभी यूं भी हमने अपने जी को बहलाया है,

जिन बातों को खुद नहीं समझे, औरों को समझाया है।

6 comments:

Dev said...

बहुत बढ़िया लेख ........आज कल असलियत दिखने के चक्कर में डायरेक्टर .....कुछ सीमाओं को लांघते जा रहे है ......और गालियाँ तो जैसे फैशन होगया है .....

Dev said...

हिंदी ब्लॉग जगत में एक बहेतरीन शुरवात ......बहुत बहुत स्वागत .

Shalabh Gupta "Raj" said...

बहुत सही लिखा है आपने.....
आप को होली की हार्दिक शुभकामनाएं....

मनोज भारती said...

फिल्मों और मी़डिया में गालियों और अनुचित शब्दों का दौर हिंदी का अवसान है या फिल्म और मीडिया में न पढ़ने वालों की बाढ़ ....एक पढ़ा-लिखा इंसान शब्द बोलने से पहले विचारता है ।

Guddu said...

It happens to be fun for people but they dont see how far they have come and sacrificed their own identity of being an indian.. an indian known for culture and tradition..and thier valued teachings from ancestors.. but i doubt if that image is still existing.

Apanatva said...

galiya galiya hee hai .Naa sunne me priy lagtee hai aurna bolne wale kee chavi hee acchee lagtee hai.......
haa khoon khoulane jaroor lagata hai bolane wale ka aur sunne wale ka bhee........

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