हमारी लोक परम्परा में ऐसी कई विधाएँ हैं, जिनका मूल ढूँढना अत्यंत कठिन है. वो साझी विरासत के रूप में पीढी दर पीढी आगे बढती जाती हैं. चाहे वो गीत-संगीत हों, कविता-कहानियाँ हों, मुहावरे-कहावतें हों या हों पहेलियाँ… प-हे-लि-याँ ? हिंदवी ज़ुबान में जितनी भी पहेलियाँ हमने अपनी दादी नानी से सुनी हैं, वो सारी की सारी पहेलियाँ दर्ज़ हैं एक फारसी शायर, संगीतकार, इतिहासकार और सूफ़ी शायर के नाम से … जो दिल्ली की सरज़मीन पर सो रहा है, अपने महबूब निज़ामुद्दीन औलिया के क़रीब. उत्तरप्रदेश के बदायुँ शहर में जन्मा, वो शख्स था अबुल हसन यमीनुद्दीन खुसरो उर्फ अमीर खुसरो.
बात पहेलियों से निकली है तो वहीं से आगे बढाते हैं. कभी सोचा है आपने कि पहेलियाँ कितने तरह की होती होंगी? सवाल वाहियात नहीं है. अमीर खुसरो ने पहेलियों को चार अलग अलग हिस्सों में बाँटा है.
1. बहिर्लापिकाः इस श्रेणी में वो पहेलियाँ आती हैं जिन्हें हम आम तौर पर बूझते बुझाते आये हैं. जिनका अर्थ पहेली में दिए गए संकेतों से लगता है. जैसे-
एक गुनी ने यह गुन कीना,
हरियल पिंजरे में दे दीना।
देखा जादूगर का हाल,
डाले हरा निकाले लाल। उत्तरः पान
2. अंतर्लापिकाः यहाँ पहेलियाँ बुझाने वाला, पहेली के अंदर ही उसका उत्तर छिपा कर पूछता है. बूझने वाले को संकेतों के माध्यम से अर्थ भी बूझना होता है और उसी के अंदर उत्तर भी खोजना होता है. जैसे-
गोल मटोल और छोटा-मोटा,
हर दम वह तो जमीं पर लोटा।
खुसरो कहे नहीं है झूठा,
जो न बूझे अकिल का खोटा। उत्तरः लोटा (दूसरी पंक्ति में छिपा)
3. दोसुखनेः जैसा कि नाम से स्पष्ट है, इसमें दो अलग अलग पहेलियाँ पूछी जाती हैं, जो वस्तुतः एक वक्तव्य के रूप में होती हैं. लेकिन मज़ेदार बात ये है कि दोनों के उत्तर एक ही होते हैं – अर्थ भिन्न (इन्हें आप श्रुतिसम भिन्नार्थक शब्द कह सकते हैं). जैसे-
गोश्त क्यों न खाया?
गीत क्यों न गाया? उत्तरः गला न था
यहाँ पहला उत्तर यह बताता है कि गोश्त गला न था अर्थात कच्चा था. और दूसरे में गला न था अर्थात गला बेसुरा था.
4. मुकेरियाँ: यह बड़ी ही अद्भुत विधा है, जिसमें दो सखियों की बातचीत पहेली बनकर सामने आती है. पहेली पूछने वाली के सारे वर्णन एवं संकेत यही इंगित करते हैं कि पहेली का उत्तर ‘प्रियतम’ है या यूँ कहें कि यह पहेली कम प्रेमसंदेश अधिक लगता है. लेकिन जब पूछने वाली उत्तर बताती है तो पहेली को एक नया अर्थ मिल जाता है. ज़रा देखिये-
ऊंची अटारी पलंग बिछायो
मैं सोई मेरे सिर पर आयो
खुल गई अंखियां भयी आनंद
ऐ सखि साजन? ना सखि चंद.
बरसों से हमारे जनजीवन में ये पहेलियाँ बसी रहीं, अब तो हमारे बच्चे इनको सुनकर पूछ न बैठें कि ये किस भाषा की हैं. अमीर खुसरो को भी हम इन्हीं पहेलियों की तरह भुलाए बैठे हैं.
आज आधुनिक कविता में कितने प्रयोग हो रहे हैं, कविता के फॉर्मेट से लेकर भाषाई प्रयोग तक. लेकिन दो अलग अलग भाषाओं को मिलाकर, एक ही मीटर में रखते हुए, किसी ने कविता लिखने का साहस किया है? मैं साहित्य का विद्यार्थी नहीं, इसलिए मैंने नहीं देखा. अमीर खुसरो ने लिखा – फ़ारसी और हिंदवी को मिलाकर. क़ाफ़िया, रदीफ़ और मीटर की रुकावट कहीं नहीं -
ज़िहाल-ए मिस्कीं मकुन तगाफ़ुल, दुराये नैना बनाये बतियां.
कि ताब-ए-हिजरां नदारम ऎ जाँ, न लेहो काहे लगाये छतियां.
भले ही हम भूल गए हों उन्हें, लेकिन आँखें नम हो जाती हैं जब विदा होती किसी बिटिया की पुकार कानों में पड़ती है – काहे को ब्याही बिदेस या फिर सावन में ये कहती “अम्मा मोरे बाबा को भेजो री, के सावन आया”.
आज भी हज़रत निज़ामुद्दीन की दरगाह पर जब सालाना उर्स का जलसा होता है, तो खुसरो की सदा गाने वाले के गले में उतर कर सुनाई देती है – “छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाय के”, “सब सखियन में चुनर मोरी मैली, देख हँसे नर नारी”, “आज रंग है ए माँ रंग है री” …
और…. बस … अब और नहीं … छोड़े जाता हूँ आप सबको एक रहस्यवाद और सूफ़ीवाद के मिले जुले असर के बीच … ये समाप्ति नहीं है – प्रारम्भ है एक नवीन यात्रा का
गोरी सोई सेज पर, मुख पर डारे केस,
चल खुसरो घर आपने रैन भई चहुँ देस.