एलेक्ट्रोनिक मीडिया का प्रादुर्भाव भारतीय समाज में मात्र दो दशक पुराना है. ऐसे में आज का मीडिया 20-22 वर्ष का वो दिग्भ्रमित शहरी युवा प्रतीत होता है जो मात्र और मात्र उत्तेजना से भरा है. न तो उसे भान है अपनी 5000 वर्षों पुरानी सांस्कृतिक धरोहर का और न ही कर्तव्यबोध है, आने वाली पीढियों के लिये. समय की रेत पर अपने पद चिह्न छोड़ जाने का.
इन वीडियो पत्रकारों के रंग ढंग देखकर बस यही लगता है कि इनके लिये देश का इतिहास तभी से शुरू होता है; जब से इन्होंने टेलिवीज़न की नौकरीशुरू की. इनके लिये संस्कृति गली-मुहल्लों की चाट-पकौड़ों की दुकानों, आदिवासी नृत्यों तक ही सीमित है. बहुत हुआ तो गाहे-बगाहे काव्यात्मक भाषा में ग़रीबी का चित्रण कर कोई डॉक्यूमेंटरी बना डाली और उसे क्रिकेट और बॉलिवुड के प्रायोजित कार्यक्रमों के बीच दिखाकर अपनी सम्वेदनशीलता के दायित्व का निर्वाह करने की ख़ानापूर्ति भर कर ली.
जैसे इस देश के राजनेताओं के लिये राजनीति खालिस व्यवसाय है, उसी तरह देश में पत्रकारिता – विशेषतः टेलीविज़न पत्रकारिता - एक लाभप्रद व्यवसाय बन चुका है. IPL जैसे आयोजन इस धारणा को निर्विवाद रूप से सत्य सिद्ध करते हैं. इस आयोजन में बॉलिवुड और क्रिकेट की खिचड़ी, मीडिया की थाली में सजा कर पूरे देश को परोसी जा रही है. तनिक ध्यान दें, पिछले साल IPL की सारी टीमें रू.2300 करोड़ में नीलाम हुई थीं लेकिन अभी हाल ही में सिर्फ दो टीमें, पुणे और कोच्चि, रू.3200 करोड़ में बिकीं. हज़ारों करोड़ के इस खेल में एलेक्ट्रोनिक मीडिया की चांदी है, क्योंकि IPL की खिचड़ी का स्वाद चखाने और पैसों की चमक से उत्पन्न उत्तेजना जगाने का मुख्य दायित्व इनके ऊपर ही है. देश भले ही महँगाई, बेरोज़गारी, अशिक्षा और गिरती स्वास्थ्य सुविधाओं की समस्या से पीड़ित होकर त्राहिमाम कर रहा हो, तगड़ी व्यावसायिकता की होड़ में “चौथा स्तम्भ” स्वर्ण मंडित हो रहा है.
ऐसे में जनजीवन को प्रभावित करने वाले राजनैतिक मुद्दे हाशिये पर आ गये लगते हैं. सत्तापक्ष खुश है कि क्रिकेट, बालीवुड और मसाला खबरों की अफीम खाकर, जनता पगलाई हुई है और उनकी कुर्सी सुरक्षित है. विपक्ष हैरान-परेशान है, नक्कार खाने मे हर कोई अपनी अपनी तूती बजा रहा है. मुझे याद आता है, एक मशहूर टेलीविज़न पत्रकार (जो अब पद्म पुरस्कार से सम्मानित और मीडिया सम्राट की श्रेणी मे आ चुके हैं) का वो बिखरे बाल और बदहवासी से भरा, जुझारुपन को बयां करता चेहरा, जो उन्होनें गुजरात दंगो की NDTV के लिये की गयी रिपोर्टिगं करते हुए देश के सामने पेश किया था. बाद में NDTV की ही एक मशहूर महिला पत्रकार ने कारगिल युद्द में अपनी वैसी ही छवि पेश की. देखते ही देखते....खबरें पार्श्व में चली गयीं.....और ये व्यक्तित्व फोकस में आ गये.
आज जब एलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बॉलिवुडीकरण को हम देखते हैं तो लगता है वो सारा जुझारुडीपन झूठा था, मात्र एक कुशल अभिनय भर. कहीं कुछ भी तो नहीं बदला, हां! वो समाचार वाचन का अभिनय करनेवाले रातोंरात एलेक्ट्रानिक मीडिया के स्टार बन गये. एक चैनल से दूसरे चैनल के लिये बिकते ये चेहरे, किसी भी चैनल की व्यावसायिक सफलता की गारंटी बन गये. आज आलम ये है कि जुझारु पत्रकारिता मात्र एक कुशल अभिनय बन कर रह गयी है और व्यवसायिक तथा राजनैतिक स्वार्थो को साधने वाली खबरें टेलीविज़न स्टूडियों मे ही special Effects के साथ तैयार की जाने लगीं हैं..
पिछले दिनों अर्थशास्त्र का एक नया नियम पढने को मिला, SAY’S LAW :
जो कहता है कि Supply Creates its own Demand..यानि सप्लाई अपने द्वारा एक तरह की मांग तैयार करती है.
चौथे खम्भे मे भले ही दीमक लगी हो, पर आज इस दीमक के भी ख़ूब दाम मिल रहे हैं......Supply IS creating its own demand.
5 comments:
जबरदस्त लेख .......इलोक्ट्रानिक मिडिया की यही सच्चाई बन गयी है ......पत्रकारिता की शुरआत जिस उद्देश्य को लेकर हुआ था ......आज उस उद्देश्य से भटकता नज़र आता है ......आज टीवी न्यूज़ चैनल के द्वारा .....हर कोई सेलिब्रिटी बनने का सपना देखने लगे है .
विल्कुल सही मुद्दे उठाये हैं आपने.....
बहुत ही विचारोत्तेजक आलेख
विचारणीय आलेख ... चौथे स्तंभ को अब तो जागना चाहिए ? गहन चिंतन और अवलोकन के लिए साधुवाद !!!
अर्थ की दुनिया में
सोचना है व्यर्थ
अगर दीमक के भी दाम मिलते हों
तो उस खम्बे को भी बेचने से न चुके
जिस पर अपनी ईमारत खडी है
पर भविष्य ...........?????????
जो होगा देखा जायेगा
ठीक कहा न !
विनोद कुमार
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