बड़ी पुरानी बात है कि आप अगर एक उँगली किसी की तरफ उठाते हैं तो चार उँगलियाँ खुद ब खुद आपकी तरफ उठ जाती हैं. ये भी कहा जाता है कि कमरे के अंदर आराम कुर्सी पर बैठकर आप किसी पर दोषारोपण कर सकते हैं, लेकिन जब वास्तविकता से आपका सामना होता है तो सारे आदर्श धरे के धरे रह जाते हैं.
हमने भी ऐसा ही एक दोषारोपण किया था मीडिया पर, एलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर, प्रजातंत्र के चौथे खम्बे पर जिसमें लगी दीमक बुरी तरह फैलती जा रही है. और ये आरोप सिर्फ आराम कुर्सी पर बैठकर उठाई गई उँगलियाँ नहीं. प्रमाण पिछले सप्ताह के विभिन्न समाचार-मनोरंजन पर दिखाई गई रिपोर्ताज हैं. पेश है एक बानगी... चौथे खम्बे में लगी दीमक – भाग2.
26 मार्च 2010, NDTV इंडिया
रवीश की रिपोर्ट, “दिल्ली का लापतागंज – पहाड़गंज”
वाह! क्या रिपोर्ट थी. देखकर लगा कि एक बार फिर किसी पत्रकार ने किसी गरीब का मज़ाक उड़ाकर अपना उल्लू साधा है. ये रिपोर्ट दिल्ली के पहाड़गंज में रहने वाले लोगों की हक़ीक़त कम, मीडिया का दृष्टिकोण अधिक थी. जिस ठसक के साथ रवीश कुमार पहाड़गंज की बदहाली को आश्चर्य मिश्रित काव्यात्मक शैली मे प्रस्तुत कर रहे थे, वो किसी भी तरह राहुल गाँधी की अमेठी के गावों मे घूम घूम कर गरीबी को समझने के शो से कम नहीं थी.
टी.वी. पर लगातार “25 कमरों में 500 लोग” की कैच लाईन स्क्रोल हो रही थी, लेकिन सुखद लगा कि चीखती हुई ग़रीबी की याद दिलाते उस कैच लाइन के बावजूद भी उन लोगों ने अपनी गुरबत का रोना नहीं रोया. उलटे मुस्कुरा कर इनका स्वागत ही नहीं किया वरन कहा कि हमें कोई तकलीफ नही है.
25 मार्च 2010,
NT अवार्ड्स
IBN7 के कार्यक्रम “ज़िन्दगी लाईव” के उस एपीसोड को ईनाम मिला, जिसमें सन 84 के सिक्ख नरसंहार का विद्रूप चित्रण किया गया था. सिक्ख नरसंहार के आरोपी भले ही आज तक खुले घूम रहे हों, दंगो की त्रास्दी झेलते लोगों की आँखों के आँसू समाचार मनोरंजन फिल्मों को पुरुस्कार दिला रहे है. इस पुरस्कार की सार्थकता तब सिद्ध होती जब उस बिलखती औरत के आँसूओं को न्याय दिलाने में इन्होंने कोई योगदान दिया होता.
26 मार्च 2010, रात 11 बजे की स्टार न्यूज़
जया बच्चन की “इन्डियन महिला प्रेस कोर्प्स” मे हुई पत्रकार-वार्त्ता पर दिखाई गयी रिपोर्ट इस कदर घटिया दर्जे की थी कि मैं चैनल इसी कारण देखता रहा कि देखें पत्रकारिता और कितने निचले स्तर तक जा सकती है.
अपने ज़रूरत भर की भरपूर एडिटिंग के बाद जो कुछ भी दिखाया गया उसमें भी जया बच्चन सही लगीं (जबकि उनको बद्तमीज़ नम्बर वन बताया गया) और चैनल बदतमीज़, बेहूदा और वाहियात लगा. “पा” फिल्म के नायक का सम्वाद कि “हाथ में माइक्रोफोन और पीछे कैमरा लगा लेने से तुम सर्वशक्तिशाली नहीं हो जाते हो” दिमाग़ से गुज़र गया.
मेरे दिल ने कहा, “अपने सर्वशक्तिशाली टी.वी. पत्रकार होने के अहंकार के नशे को उतर जाने दो भाई!”
आखिर कब पूछोगे खुद से ये सवाल कि ऐसे बेवकूफी भरे सवाल कब तक पूछता रहूँगा?”
दैनिक जागरण, 27 मार्च 2010
श्री राजीव शुक्ला का लेख “बस नाम के लोहियावादी” पढ़कर लोहिया जी का कहा याद आ गया कि “क्या बात कही जा रही है, इससे ज़्यादा आवश्यक है कि बात कहने वाला कौन है? और उसका पिछला इतिहास क्या है?”
पत्रकारिता से अपना करियर शुरु कर, भारतीय राजनीति के सबसे मजबूत किले के सेवादार के ओहदे पर विराजमान, क़िकेट सरगना और समाचार मनोरंजन चैनल के मालिक द्वारा लोहिया जी को समाजवादी पार्टी ने याद नही किया इस पर विलाप गम्भीर कथ्य था या व्यंग्य? और वो भी लोहिया जी पर या स्वयं पर?
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प्रजातंत्र का ये चौथा खम्बा किसी टरमाइट प्रूफ लकड़ी का नहीं बना. अगर आपको किसी भी मीडिया में कोई भी ऐसी दीमक दिखाई दे, तो अवश्य लोगों को बतायें. आखिर कब तक गंदगी परोसकर वो हमारा स्वाद बिगाड़ते रहेंगे और हम उनको ऐसा करने देंगे.
5 comments:
अपने ज़रूरत भर की भरपूर एडिटिंग के बाद जो कुछ भी दिखाया गया उसमें भी जया बच्चन सही लगीं (जबकि उनको बद्तमीज़ नम्बर वन बताया गया) और चैनल बदतमीज़, बेहूदा और वाहियात लगा. “पा” फिल्म के नायक का सम्वाद कि “हाथ में माइक्रोफोन और पीछे कैमरा लगा लेने से तुम सर्वशक्तिशाली नहीं हो जाते हो” दिमाग़ से गुज़र गया.
बहुत सही लिखा है आपने। मैं भी जब यह आइटम देख रहा था तो मुझे लगा रेपोर्टर या चैनल पगला गया है या कोई खुन्नस निकाल रहा है।
khijh hai
gussa bhi
मीडिया अकेला ही क्यों, सारा देश इस समय अमेरिका का उपनिवेश बना हुआ है.
जिस बाज़ारवाद के सहारे इस देश की समस्याओ का समाधान खोजा जा रहा है वो खुद अनसुलझी समस्या बन कर रह गया है.
कौन रोकेगा इन बिगडैल बुद्धि-जीभीयों को ? इनकी जीभ मे हड्डी डाले कोई !
बिल्कुल उचित.. जया जी ने आईना दिखा दिया इन्हें...
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